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अभिलाषाष्टक स्तोत्र
त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच
परमहंस गीता अध्याय २
परमहंस गीता श्रीमद्भागवतमहापुराण के
पंचम स्कन्ध के ११ अन्तर्गत इस अध्याय २ में राजा रहूगण को भरतजी का उपदेश का
वर्णन है।
परमहंसगीता अध्याय २
Paramahans geeta
परमहंस गीता दूसरा अध्याय
राजा रहूगण को भरतजी का उपदेश
परमहंस गीता द्वितीयोऽध्यायः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ।
॥ द्वितीयोऽध्यायः ॥
ब्राह्मण उवाच
अकोविदः कोविदवादवादान्
वदस्यथो नातिविदां वरिष्ठः ।
न सूरयो हि व्यवहारमेनं
तत्त्वावमर्शेन सहामनन्ति ॥ १॥
जडभरत ने कहा –
[ राजन्!] तुम अज्ञानी होने पर भी पण्डितों के समान ऊपर-ऊपर की
तर्क-वितर्कयुक्त बात कह रहे हो। इसलिये श्रेष्ठ ज्ञानियों में तुम्हारी गणना नहीं
हो सकती । तत्त्वज्ञानी पुरुष इस अविचारसिद्ध स्वामी - सेवक आदि व्यवहार को
तत्त्वविचार के समय सत्यरूप से स्वीकार नहीं करते ॥ १ ॥
तथैव राजन्नुरुगार्हमेध-
वितानविद्योरुविजृम्भितेषु ।
न वेदवादेषु हि तत्त्ववादः
प्रायेण शुद्धो नु चकास्ति साधुः ॥
२॥
राजन् ! लौकिक व्यवहार के समान ही
वैदिक व्यवहार भी सत्य नहीं है, क्योंकि
वेदवाक्य भी अधिकतर गृहस्थजनोचित यज्ञविधि के विस्तार में ही व्यस्त हैं, राग-द्वेषादि दोषों से रहित विशुद्ध तत्त्वज्ञान की पूरी-पूरी अभिव्यक्ति
प्रायः उनमें भी नहीं हुई है ॥ २ ॥
न तस्य तत्त्वग्रहणाय साक्षा-
द्वरीयसीरपि वाचः समासन् ।
स्वप्ने निरुक्त्या गृहमेधिसौख्यं
न यस्य हेयानुमितं स्वयं स्यात् ॥
३॥
जिसे गृहस्थोचित यज्ञादि कर्मों से
प्राप्त होनेवाला स्वर्गादि सुख स्वप्न के समान हेय नहीं जान पड़ता,
उसे तत्त्वज्ञान कराने में साक्षात् उपनिषद्- वाक्य भी समर्थ नहीं
है ॥ ३ ॥
यावन्मनो रजसा पूरुषस्य
सत्त्वेन वा तमसा वानुरुद्धम् ।
चेतोभिराकूतिभिरातनोति
निरङ्कुशं कुशलं चेतरं वा ॥ ४॥
जबतक मनुष्य का मन सत्त्व,
रज अथवा तमोगुण के वशीभूत रहता है, तबतक वह
बिना किसी अंकुश के उसकी ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों से शुभाशुभ कर्म कराता
रहता है ॥ ४ ॥
स वासनात्मा विषयोपरक्तो
गुणप्रवाहो विकृतः षोडशात्मा ।
बिभ्रत्पृथङ्नामभि रूपभेद-
मन्तर्बहिष्ट्वं च पुरैस्तनोति ॥ ५॥
यह मन वासनामय,
विषयासक्त, गुणों से प्रेरित, विकारी और भूत एवं इन्द्रियरूप सोलह कलाओं में मुख्य है। यही भिन्न-भिन्न
नामों से देवता और मनुष्यादिरूप धारण करके शरीररूप उपाधियों के भेद से जीव की
उत्तमता और अधमता का कारण होता है ॥ ५ ॥
दुःखं सुखं व्यतिरिक्तं च तीव्रं
कालोपपन्नं फलमाव्यनक्ति ।
आलिङ्ग्य मायारचितान्तरात्मा
स्वदेहिनं संसृतिचक्रकूटः ॥ ६॥
यह मायामय मन संसारचक्र में
छलनेवाला है, यही अपनी देह के अभिमानी जीव से
मिलकर उसे कालक्रम से प्राप्त हुए सुख-दुःख और इनसे व्यतिरिक्त मोहरूप अवश्यम्भावी
फलों की अभिव्यक्ति करता है ॥ ६ ॥
तावानयं व्यवहारः सदाविः
क्षेत्रज्ञसाक्ष्यो भवति
स्थूलसूक्ष्मः ।
तस्मान्मनो लिङ्गमदो वदन्ति
गुणागुणत्वस्य परावरस्य ॥ ७॥
जबतक यह मन रहता है,
तभीतक जाग्रत् और स्वप्नावस्था का व्यवहार प्रकाशित होकर जीव का
दृश्य बनता है। इसलिये पण्डितजन मन को ही त्रिगुणमय अधम संसार का और गुणातीत
परमोत्कृष्ट मोक्षपद का कारण बताते हैं ॥ ७ ॥
गुणानुरक्तं व्यसनाय जन्तोः
क्षेमाय नैर्गुण्यमथो मनः स्यात् ।
यथा प्रदीपो घृतवर्तिमश्नन्
शिखाः सधूमा भजति ह्यन्यदा स्वम् ।
पदं तथा गुणकर्मानुबद्धं
वृत्तीर्मनः श्रयतेऽन्यत्र तत्त्वम्
॥ ८॥
विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में
डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे
शान्तिमय मोक्षपद प्राप्त करा देता है। जिस प्रकार घी से भीगी हुई बत्ती को
खानेवाले दीपक से तो धुएँवाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है,
तब वह अपने कारण अग्नितत्त्व में लीन हो जाता है-उसी प्रकार विषय और
कर्मों से आसक्त हुआ मन तरह- तरह की वृत्तियों का आश्रय लिये रहता है और इनसे
मुक्त होने पर वह अपने तत्त्व में लीन हो जाता है ॥ ८ ॥
एकादशासन्मनसो हि वृत्तय
आकूतयः पञ्च धियोऽभिमानः ।
मात्राणि कर्माणि पुरं च तासां
वदन्ति हैकादश वीर भूमीः ॥ ९॥
वीरवर ! पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार- ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म, पाँच तन्मात्र और एक शरीर- ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं ॥ ९ ॥
गन्धाकृतिस्पर्शरसश्रवांसि
विसर्गरत्यर्त्यभिजल्पशिल्पाः ।
एकादशं स्वीकरणं ममेति
शय्यामहं द्वादशमेक आहुः ॥ १०॥
गन्ध, रूप, स्पर्श, रस और शब्द-ये
पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और
लेना-देना आदि व्यापार-ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को 'यह मेरा है' इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय
है। कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय
मानते हैं ॥ १० ॥
द्रव्यस्वभावाशयकर्मकालै-
रेकादशामी मनसो विकाराः ।
सहस्रशः शतशः कोटिशश्च
क्षेत्रज्ञतो न मिथो न स्वतः स्युः
॥ ११॥
ये मन की ग्यारह वृत्तियाँ द्रव्य
(विषय),
स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म
और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों और करोड़ों भेदों में परिणत
हो जाती हैं । किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही क्षेत्रज्ञ है,
स्वतः या परस्पर मिलकर नहीं है ॥ ११ ॥
क्षेत्रज्ञ एता मनसो विभूतीर्जीवस्य
मायारचितस्य नित्याः ।
आविर्हिताः क्वापि तिरोहिताश्च
शुद्धो विचष्टे ह्यविशुद्धकर्तुः ॥
१२॥
ऐसा होने पर भी मन से क्षेत्रज्ञ का
कोई सम्बन्ध नहीं है। यह तो जीव की ही माया निर्मित उपाधि है। यह प्रायः
संसारबन्धन में डालनेवाले अविशुद्ध कर्मों में ही प्रवृत्त रहता है। इसकी
उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाहरूप से नित्य ही रहती हैं;
जाग्रत् और स्वप्न के समय वे प्रकट हो जाती हैं और सुषुप्ति में छिप
जाती हैं। इन दोनों ही अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध
चिन्मात्र है, मन की इन वृत्तियों को साक्षीरूप से देखता
रहता है ॥ १२ ॥
क्षेत्रज्ञ आत्मा पुरुषः पुराणः
साक्षात्स्वयंज्योतिरजः परेशः ।
नारायणो भगवान्वासुदेवः
स्वमाययाऽऽत्मन्यवधीयमानः ॥ १३॥
यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक,
जगत्का आदिकारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयंप्रकाश, अजन्मा,
ब्रह्मादि का भी नियन्ता और अपने अधीन रहनेवाली माया के द्वारा सबके
अन्तःकरणों में रहकर जीवों को प्रेरित करनेवाला समस्त भूतों का आश्रयरूप भगवान्
वासुदेव है ॥ १३ ॥
यथानिलः स्थावरजङ्गमाना-
मात्मस्वरूपेण निविष्ट ईशेत् ।
एवं परो भगवान् वासुदेवः
क्षेत्रज्ञ आत्मेदमनुप्रविष्टः ॥
१४॥
जिस प्रकार वायु सम्पूर्ण
स्थावर-जंगम प्राणियों में प्राणरूप से प्रविष्ट होकर उन्हें प्रेरित करती है,
उसी प्रकार वह परमेश्वर भगवान् वासुदेव सर्वसाक्षी आत्मस्वरूप से इस
सम्पूर्ण प्रपंच में ओतप्रोत है ॥ १४ ॥
न यावदेतां तनुभृन्नरेन्द्र
विधूय मायां वयुनोदयेन ।
विमुक्तसङ्गो जितषट्सपत्नो
वेदात्मतत्त्वं भ्रमतीह तावत् ॥ १५॥
न यावदेतन्मन आत्मलिङ्गं
संसारतापावपनं जनस्य ।
यच्छोकमोहामयरागलोभ-
वैरानुबन्धं ममतां विधत्ते ॥ १६॥
राजन् ! जबतक मनुष्य ज्ञानोदय के
द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति
छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओं को जीतकर आत्मतत्त्व को नहीं जान लेता और जबतक
वह आत्मा के उपाधिरूप मन को संसारदुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तबतक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है; क्योंकि
यह चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि
करता रहता है ।। १५-१६ ॥
भ्रातृव्यमेनं तददभ्रवीर्य-
मुपेक्षयाध्येधितमप्रमत्तः ।
गुरोर्हरेश्चरणोपासनास्त्रो
जहि व्यलीकं स्वयमात्ममोषम् ॥ १७॥
यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान्
शत्रु है। तुम्हारे उपेक्षा करने से इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है। यह यद्यपि स्वयं
तो सर्वथा मिथ्या है तथापि इसने तुम्हारे आत्मस्वरूप को आच्छादित कर रखा है।
इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरि के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार
डालो ॥ १७ ॥
॥ इति श्रीमद्भागवते महापुराणे
परमहंसगीतायां द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
आगे जारी........ परमहंस गीता अध्याय 3
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