विष्णुवल्लभ स्तोत्र
जो पुरुष सदा और विशेषतः हरिवासर (
एकादशी या द्वादशी को ) भगवान् विष्णु की पूजा करके उनके सामने खड़ा हो
भगवत्समरणपूर्वक इस विष्णुवल्लभ स्तोत्र का पाठ करता है,
वह विष्णु के अमृतपाद को प्राप्त कर लेता है । यह स्तोत्र भगवान्
विष्णु के गुप्त तीर्थो का और उन तीर्थों से सम्बन्ध रखनेवाले भगवान के गुप्त
नामों का वर्णन करनेवाला, पापनाशक, धर्मार्थमोक्षदायक है ।
विष्णुवल्लभ स्तोत्रम्
Vishnu vallabha stotra
विष्णु वल्लभ स्तोत्र
श्रीभगवानुवाच
श्रृणुष्वावहितो ब्रह्मन्
गुह्यनामानि मेऽधुना ।
क्षेत्राणि चैव गुह्यानि तव वक्ष्यामि
तत्त्वतः ॥६॥
श्रीभगवान् बोले - ब्रह्मन् ! तुम
सावधान होकर सुनो; मेरे जो गुह्य नाम
और क्षेत्र हैं, उन्हें मैं ठीकठीक बता रहा हूँ ॥६॥
कोकामुखे तु वाराहं मन्दरे
मधुसूदनम् ।
अनन्तं कपिलद्वीपे प्रभासे
रविनन्दनम् ॥७॥
माल्योदपाने वैकुण्ठं महेन्द्रे तु
नृपात्मजम् ।
ऋषभे तु महाविष्णुं द्वारकायां तु
भूपतिम् ॥८॥
पाण्डुसह्ये तु देवेशं वसुरुढे
जगत्पतिम् ।
वल्लीवटे महायोगं चित्रकूटे
नराधिपम् ॥९॥
निमिषे पीतवासं च गवां निष्क्रमणे
हरिम् ।
शालग्रामे तपोवासमचिन्त्यं
गन्धमादने ॥१०॥
कुब्जागारे हृषीकेशं गन्धद्वारे
पयोधरम् ।
गरुडध्वजं तु सकले गोविन्दं नाम
सायके ॥११॥
वृन्दावने तु गोपालं मथुरायां
स्वयम्भुवम् ।
केदारे माधवं विन्द्याद्वाराणस्यां
तु केशवम् ॥१२॥
पुष्करे पुष्कराक्षं तु
धृष्टद्युम्ने जयध्वजम् ।
तृणबिन्दुवने वीरमशोकं सिन्धुसागरे
॥१३॥
कसेरटे महाबाहुममृतं तैजसे वने ।
विश्वासयूपे विश्वेशं नरसिंहं
महावने ॥१४॥
हलाङ्गरे रिपुहरं देवशालां
त्रिविक्रमम् ।
पुरुषोत्तमं दशपुरे कुब्जके वामनं
विदुः ॥१५॥
विद्याधरं वितस्तायां वाराहे
धरणीधरम् ।
देवदारुवने गुह्यं कावेर्यां
नागशायिनम् ॥१६॥
प्रयागे योगमूर्ति च पयोष्ण्यां च
सुदर्शनम् ।
कुमारतीर्थे कौमारं लोहिते
हयशीर्षकम् ॥१७॥
उज्जयिन्यां त्रिविक्रमं लिङ्गकूटे
चतुर्भुजम् ।
हरिहरं तु भद्रायां दृष्ट्वा पापात्
प्रमुच्यते ॥१८॥
कोकामुख- क्षेत्र में मेरे
वाराहस्वरुप का, मन्दराचल पर मधुसूदन का,
कपिलद्वीप में अनन्त का, प्रभासक्षेत्र में
सूर्यनन्दन का, माल्योदपानतीर्थ में भगवान् वैकुण्ठ का,
महेन्द्रपर्वत पर राजकुमार का, ऋषभतीर्थ में
महाविष्णु का, द्वारका में भूपाल श्रीकृष्ण का, पाण्डुसह्य पर्वत पर देवेश का, वसुरुढतीर्थ में
जगत्पति का, वल्लीवट में महायोग का, चित्रकूट
में राजा राम का, नैमिषारण्य में पीताम्बर का, गौओं के विचरने के स्थान व्रज में हरि का, शालग्रामतीर्थ
में तपोवास का, गन्धमादन पर्वत पर अचिन्त्य परमेश्वर का,
कुब्जागार में हृषीकेश का, गन्धद्वार में
पयोधर का, सकलतीर्थ में गरुडध्वज का, सायक
में गोविन्द का, वृन्दावन में गोपाल का, वाराणसी (काशी) - में केशव का, पुष्करतीर्थ में
पुष्कराक्ष का, धृष्टद्युम्न- क्षेत्र में जयध्वज का,
तृणबिन्दु वन में वीर का, सिन्धुसागर में अशोक
का, कसेरट में महाबाहु का, तैजस वन में
भगवान् अमृत का, विश्वासयूप (या विशाखयूप)- क्षेत्र में
विश्वेश का, महावन में नरसिंह का, हलाङ्गर
में रिपुहर का, देवशाला में भगवान् त्रिविक्रम का, दशपुर में पुरुषोत्तम का , कुब्जकतीर्थ में वामन का,
वितस्ता में विद्याधर का, वाराह- तीर्थ में
धरणीधर का, देवदारुवन में गुह्य का, कावेरीतट
पर नागशायी का, प्रयाग में योगमूर्ति का, पयोष्णीतट पर सुदर्शन का, कुमारतीर्थ में कौमार का,
लोहित में हयग्रीव का, उज्जयिनी में
त्रिविक्रम का, लिङ्गकूट पर चतुर्भुज का और भद्रा के तट पर
भगवान् हरिहर का दर्शन करके मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ॥७ - १८॥
विश्वरुपं कुरुक्षेत्रे मणिकुण्डे
हलायुधम् ।
लोकनाथमयोध्यायां कुण्डिने
कुण्डिनेश्वरम् ॥१९॥
भाण्डारे वासुदेवं तु चक्रतीर्थे
सुदर्शनम् ।
आढ्ये विष्णुपदं विद्याच्छूकरे
शूकरं विदुः ॥२०॥
ब्रह्मेशं मानसे तीर्थे दण्डके
श्यामलं विदुः ।
त्रिकूटे नागमोक्षं च मेरुपृष्ठे च
भास्करम् ॥२१॥
विरजं पुष्पभद्रायां बालं केरलके
विदुः ।
यशस्करं विपाशायां माहिष्मत्यां
हुताशनम् ॥२२॥
क्षीराब्धौ पद्मनाभं तु विमले तु
सनातनम् ।
शिवनद्यां शिवकरं गयायां च गदाधरम्
॥२३॥
सर्वत्र परमात्मानं यः पश्यति स
मुच्यते ।
इसी प्रकार कुरुक्षेत्र में
विश्वरुप का, मणिकुण्ड में हलायुध का,
अयोध्या में लोकनाथ का, कुण्डिनपुर में
कुण्डिनेश्वर का, भाण्डार में वासुदेव का, चक्रतीर्थ में सुदर्शन का, आढ्यतीर्थ में विष्णुपद का,
शूकरक्षेत्र में भगवान् शूकर का, मानसीर्थ में
ब्रह्मेश का, दण्डकतीर्थ में श्यामल का, त्रिकूटपर्वत पर नागमोक्ष का, मेरु के शिखर पर
भास्कर का, पुष्पभद्रा के तट पर विरज का, केरलतीर्थ में बालरुप भगवान का, विपाशा के तट पर
भगवान् यशस्कर का, माहिष्मतीपुरी में हुताशन का, क्षीरसागर में भगवान् पद्मनाभ का, विमलतीर्थ में
सनातन का, शिवनदी के तट पर भगवान् शिव का, गया में गदाधर का और सर्वत्र ही परमात्मा का जो दर्शन करता है, वह मुक्त हो जाता है ॥१९ - २३ १/२॥
विष्णुवल्लभ स्तोत्रम् महात्म्य
अष्टषष्टिश्च नामानि कथितानि मया तव
॥२४॥
क्षेत्राणि चैव गुह्यानि कथितानि
विशेषतः ।
एतानि मम नामानि रहस्यानि प्रजापते
॥२५॥
यः पठेत् प्रातरुत्थाय
श्रृणुयाद्वापि नित्यशः ।
गवां शतसहस्त्रस्य दत्तस्य
फलमाप्नुयात् ॥२६॥
ब्रह्माजी ! ये अडसठ नाम हमने
तुम्हें बताये तथा विशेषतः गुप्त तीर्थों का भी वर्णन किया । प्रजापते ! जो पुरुष
प्रतिदिन प्रातः काल उठकर मेरे इन गुह्यनामों का पाठ या श्रवण करेगा,
वह नित्य एक लाख गोदान का फल पायेगा ।
दिने दिने शुचिर्भूत्वा
नामान्येतानि यः पठेत् ।
दुःस्वप्नं न भवेत् तस्य
मत्प्रसादान्न संशयः ॥२७॥
नित्यप्रति पवित्र होकर जो इन नामों
का पाठ करता है, उसको मेरी कृपा से कभी
दुःस्वप्न का दर्शन नहीं होता, इसमें संदेह नहीं है ।
अष्टषष्टिस्तु नामानि त्रिकालं यः
पठेन्नरः ।
विमुक्तः सर्वपापेभ्यो मम लोके स
मोदते ॥२८॥
जो पुरुष इन अड़सठ नामों का प्रतिदिन
तीनों काल, अर्थात् प्रात; मध्याह्न और सायंकाल में पाठ करता है, वह सब पापों से
मुक्त होकर मेरे लोक में आनन्द भोगता है ।
द्रष्टव्यानि यथाशक्त्या
क्षेत्राण्येतानि मानवैः ।
वैष्णवैस्तु विशेषेण तेषां मुक्तिं
ददाम्यहम् ॥२९॥
सभी मनुष्यों और विशेषतः वैष्णवों की
चाहिये कि यथाशक्ति पूर्वोक्त तीर्थों का दर्शन करें । जो लोग ऐसा करते हैं,
उन्हें मैं मुक्ति देता हूँ ।
इति श्रीनरसिंहपुराणे आद्ये धर्मार्थमोक्षदयिनि विष्णुवल्लभे पञ्चष्टितमोऽध्यायः ॥

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