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अभिलाषाष्टक स्तोत्र
त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच
विष्णु स्तोत्र
ब्रह्माजी के मुख से निकले हुए इस विष्णु स्तोत्र का पाठ समस्त पापों को हरनेवाला, पवित्र तथा भगवान् विष्णु को अत्यन्त संतुष्ट करनेवाला है ।
श्रीविष्णुस्तोत्रम्
Vishnu stotra
ब्रह्माकृतं श्रीविष्णुस्तोत्रम्
श्रीविष्णुस्तोत्रम्
विष्णु स्तोत्रम्
ब्रह्मोवाच
नमामि देवं नरनाथमच्युतं
नारायणं लोकगुरुं सनातनम् ।
अनादिमव्यक मचिन्त्यमव्ययं
वेदान्तवेद्यं पुरुषोत्तमं हरिम्
॥११॥
ब्रह्माजी बोले - मैं सम्पूर्ण
जीवों के स्वामी भगवान् अच्युत को, सनातन
लोकगुरु भगवान् नारायण को नमस्कार करता हूँ । जो अनादि, अव्यक्त,
अचिन्त्य और अविनाशी हैं, उन वेदान्तवेद्य
पुरुषोत्तम श्रीहरि को प्रणाम करता हूँ ।
आनन्दरुपं परमं परात्परं
चिदात्मकं ज्ञानवतां परां गतिम् ।
सर्वात्मकं सर्वगतैकरुपं
ध्येयस्वरुपं प्रणमामि माधवम् ॥१२॥
जो परमानन्दस्वरुप,
परात्पर, ज्ञानमय एवं ज्ञानियों के परम आश्रय
हैं तथा जो सर्वमय, सर्वव्यापक, अद्वितीय
और सबके ध्येयरुप हैं, उन भगवान् लक्ष्मीपति को मैं प्रणाम
करता हूँ ।
भक्तप्रियं कान्तमतीव निर्मलं
सुराधिपं सूरिजनैरभिष्टुतम् ।
चतुर्भुजं नीरजवर्णमीश्वरं
रथाङ्गपाणिं प्रणतोऽस्मि केशवम्
॥१३॥
जो भक्तों के प्रेमी,
अत्यन्त कमनीय और दोषों से रहित हैं, जो समस्त
देवताओं के स्वामी हैं, विद्वान् पुरुष जिनकी स्तुति करते
हैं, जिनके चार भुजाएँ हैं, नीलकमल के समान जिनकी श्यामल
कान्ति है, जो हाथ में चक्र धारण किये रहते हैं, उन परमेश्वर केशव को मैं प्रणाम करता हूँ।
गदासिशङ्खाब्जकरं श्रियः पतिं
सदाशिवं शार्ङ्गधरं रविप्रभम् ।
पीताम्बरं हारविराजितोदरं
नमामि विष्णुं सततं किरीटिनम् ॥१४॥
जिनके हाथों में गदा,
तलवार, शङ्ख और कमल सुशोभित हैं, जो लक्ष्मीजी के पति हैं, सदा ही कल्याण करनेवाले
हैं, जो शार्ङ्ग धनुष धारण किये रहते हैं, जिनकी सूर्य के समान कान्ति है, जो पीतवस्त्र धारण
किये रहते हैं, जिनका उदरभाग हार से विभूषित है तथा जिनके
मस्तक पर मुकुट शोभा पा रहा है, उस भगवान् विष्णु को मैं सदा
प्रणाम करता हूँ ।
गण्डस्थलासक्तसुरक्तकुण्डलं
सुदीपिताशेषदिशं निजत्विषा ।
गन्धर्वसिद्धैरुपगीतमृग्ध्वनिं
जनार्दनं भूतपतिं नमामि तम् ॥१५॥
जिनके कपोलों पर सुन्दर रक्तवर्ण
कुण्डल शोभा पा रहे हैं, जो अपने कान्ति से
सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे हैं, गन्धर्व और सिद्धगण
जिनका सुयश गाते रहते हैं तथा जिनका वैदिक ऋचाओं द्वारा यशोगान किया जाता है,
उन भूतनाथ भगवान् जनार्दन को मैं प्रणाम करता हूँ ।
हत्वासुरान् पाति युगे युगे सुरान्
स्वधर्मसंस्थान भुवि संस्थितो हरिः
।
करोति सृष्टिं जगतः क्षयं यस्तं
वासुदेवं प्रणतोऽस्मि केशवम् ॥१६॥
जो भगवान् प्रत्येक युग में पृथ्वी पर अवतार ले, देवद्रोही दानवों की हत्या करके अपने धर्म में स्थित देवताओं की रक्षा करते हैं तथा जो इस जगत की सृष्टि एवं संहार करते है, उन सर्वान्तर्यामी भगवान् केशव को मैं प्रणाम करता हूँ ।
यो मत्स्यरुपेण रसातलस्थितान्
वेदान् समाहत्य मम प्रदत्तवान् ।
निहत्य युद्धे मधुकैटभावुभौ तं
वेदवेद्यं प्रणतोऽस्म्यहं सदा ॥१७॥
जिन्होंने युद्ध में मधु और कैटभ-
इन दोनों दैत्यों को मारा तथा मत्स्यरुप धारण करके रसातल में पहुँचे हुए वेदों को
लाकर मुझे दिया था, उन वेदवेद्य
परमेश्वर को मैं सदा ही प्रणाम करता हँ ।
देवासुरैः क्षीरसमुद्रमध्यतो
न्यस्तो गिरिर्येन धृतः पुरा महान्
।
हिताय कौर्मं वपुरास्थितो यस्तं
विष्णुमाद्यं प्रणतोऽस्मि भास्करम्
॥१८॥
पूर्वकालमें जिन्होंने देवता और
असुरों द्वारा क्षीरसमुद्र में डाले हुए महान् मन्दराचल को सबका हित करने के लिये
कूर्मरुप से पीठ पर धारण किया था, उन प्रकाश
देनेवाले आदिदेव भगवान् विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ ।
हत्वा हिरण्याक्षमतीव दर्पितं
वराहरुपी भगवान् सनातनः ।
यो भूमिमेतां सकलां समुद्धरंस्तं
वेदमूर्ति प्रणमामि सूकरम् ॥१९॥
जिन सनातन भगवान ने वराहरुप धारण
करके इस सम्पूर्ण वसुंधर का जल से उद्धार किया और उसी समय अत्यन्त अभिमानी दैत्य
हिरण्याक्ष को मार गिराया था, उन वेदमूर्ति
सूकररुपधारी भगवान को प्रणाम करता हूँ।
कृत्वा नृसिंहं वपुरात्मनः परं
हिताय लोकस्य सनातनो हरिः
जघान यस्तीक्ष्णनखैर्दितेः सुतं
तं नारसिंहं पुरुषं नमामि ॥२०॥
जिन सनातन भगवान् श्रीहरि ने
त्रिलोकी का हित करने के लिये स्वयं ही श्रेष्ठ नृसिंहरुप धारण करके अपने तीखे
नखों द्वारा दिति- नन्दन हिरण्यकशिपु का वध किया था, उन परम पुरुष भगवान् नरसिंह को मैं प्रणाम करता हूँ।
यो वामनोऽसौ भगवाञ्जनार्दनो
बलिं बबन्ध त्रिभिरुर्जितैः पदैः ।
जगत्रयं क्रम्य ददौ पुरंदरे
तदेवमाद्यं प्रणतोऽस्मि वामनम् ॥२१॥
जिन वामनरुपधारी भगवान् जनार्दन ने
बलि को बाँधा था और अपने बढ़े हुए तीन पगों से त्रिभुवन को नापकर उसे इन्द्र को दे
दिया था,
उन आदिदेव वामन को मैं प्रणाम करता हूँ ।
यः कार्तवीर्यं निजघान रोषात्
त्रिस्सप्तकृत्वः क्षितिपात्मजानपि
।
तं जामदग्न्यं क्षितिभारनाशकं
नतोऽस्मि विष्णुं पुरुषोत्तमं सदा
॥२२॥
जिन्होंने कोपवश राजा कार्तवीर्य को
मार डाला तथा इक्वीस बार क्षत्रियों का संहार किया, पृथ्वी का भार दूर करनेवाले परशुरामरुपधारी उन पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु को
मैं सदा नमस्कार करता हूँ ।
सेतुं महान्तं जलधौ बबन्ध यः
सम्प्राप्य लङ्कां सगणं दशाननम् ।
जघान भृत्यै जगतां सनातनं
तं रामदेवं सततं नतोऽस्मि ॥२३॥
जिन्होंने समुद्र में बहुत बड़ा पुल
बाँधा और लङ्का में पहुँचकर त्रिलोकी की रक्षा के लिये रावण को उसके गणोंसहित मार
डाला था,
उन सनातन पुरुष भगवान् श्रीराम को मैं सदा प्रणाम करता हूँ ।
यथा तु वाराहनृसिंहरुपैः कृतं
त्वया देव हितं सुराणाम् ।
तथाद्य भूमेः कुरु भारहानिं
प्रसीद विष्णो भगवन्नमस्ते ॥२४॥
भगवन् ! विष्णो ! जिस प्रकार
[पूर्वकाल में] वाराह- नृसिंह आदि रुपों से आपने देवताओं का हित किया है,
उसी प्रकार आज भी प्रसन्न होकर पृथ्वी का भार दुर करें । देव ! आपको
सादर नमस्कार है
इति श्रीनरसिंहपुराणे ब्रह्माकृतं श्रीविष्णुस्तोत्रम् त्रिपञ्चाशोऽध्यायः ॥५३॥
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