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कर्मकाण्ड

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विष्णु स्तोत्र

विष्णु स्तोत्र

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय ११ में वर्णित मार्कण्डेयजी द्वारा भगवान् विष्णु में भक्ति रखते हुए शेषशायी भगवान्‌ का स्तवन विष्णु स्तोत्र का जो लोग नित्य प्रातः काल और संध्या के समय पाठ करते हैं, वे पापों से मुक्त हो और अंत में बैकुंठ लोक जाते हैं ।

विष्णु स्तोत्र

विष्णु स्तोत्रम्

Vishnu stotra

मार्कण्डेयप्रोक्तं विष्णु स्तोत्र

श्रीविष्णुस्तवनं

श्रीविष्णुस्तोत्र

व्यास उवाच

प्रणिपत्य जगन्नाथं चराचरगुरुं हरिम् ।

मार्कण्डेयोऽभितुष्टाव भोगपर्यङ्कशायिनम् ॥१॥

व्यासजी बोले - शुकदेव ! तदनन्तर मार्कण्डेयजी शेषशय्या पर सोये हुए उन चराचरगुरु जगदीश्वर भगवान् विष्णु को प्रणाम करके उनका स्तवन करने लगे 

मार्कण्डेय उवाच

प्रसीद भगवन् विष्णो प्रसीद पुरुषोत्तम ।

प्रसीद देवदेवेश प्रसीद गरुडध्वज ॥२॥

मार्कण्डेयजी बोले - भगवन् ! विष्णो ! आप प्रसन्न हों । पुरुषोत्तम ! आप प्रसन्न हों । देवदेवेश्वर ! गरुडध्वज ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ।

प्रसीद विष्णो लक्ष्मीश प्रसीद धरणीधर ।

प्रसीद लोकनाथाद्य प्रसीद परमेश्वर ॥३॥

लक्ष्मीपते विष्णो ! धरणीधर ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों । लोकनाथ ! आदि परमेश्वर ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।

प्रसीद सर्वदेवेश प्रसीद कमलेक्षण ।

प्रसीद मन्दरधर प्रसीद मधुसूदन ॥४॥

कमल के समान नेत्रोंवाले सर्वदेवेश्वर ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ! समुद्रमन्थन के समय मन्दर पर्वत को धारण करनेवाले मधुसूदन ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों ।

प्रसीद सुभगाकान्त प्रसीद भुवनाधिप ।

प्रसीदाद्य महादेव प्रसीद मम केशव ॥५॥

लक्ष्मीकान्त ! भुवनपते ! आप प्रसन्न हों, प्रसन्न हों, । आदिपुरुष महादेव ! केशव ! आप मुझ पर प्रसन्न हों, प्रसन्न हों 

जय कृष्ण जयाचिन्त्य जय विष्णो जयाव्यय ।

जय विश्व जयाव्यक्त जय विष्णो नमोऽस्तु ते ॥६॥

कृष्ण ! अचिन्तनीय कृष्ण ! अव्यय विष्णो ! विश्व के रुप में रहनेवाले एवं व्यापक व्यक्त होते हुए भी अव्यक्त ! परमेश्वर ! आपकी जय हो, आपको मेरा प्रणाम है ।

जय जय देव जयाजेय जय सत्य जयाक्षर ।

जय काल जयेशान जय सर्व नमोऽस्तु ते ॥७॥

अजेय देव ! आपकी जय हो, जय हो । अविनाशी सत्य ! आपकी जय हो, जय हो । सबका शासन करनेवाले काल! आपकी जय हो, जय हो ! सर्वमय ! आपकी जय हो, आपको नमस्कार है ।

जय यज्ञपते नाथ जय विश्वपते विभो ।

जय भूतपते नाथ जय सर्वपते विभो ॥८॥

यज्ञेश्वर ! नाथ ! व्यापक विश्वनाथ ! आपकी जय हो, जय हो ! स्वामिन् ! भूतनाथ ! सर्वेश्वर ! विभो ! आपकी जय हो, जय हो; आपको प्रणाम है ।

जय विश्वपते नाथ जय दक्ष नमोऽस्तु ते ।

जय पापहरानन्त जय जन्मजरापह ॥९॥

विश्वपते नाथ ! कार्यदक्ष ईश्वर आपकी जय हो, जय हो; आपको प्रणाम है । पापहारी ! अनन्त ! जन्म तथा वृद्धावस्था के भय को नष्ट करनेवाले देव ! आपकी जय हो, जय हो ।

जय भद्रातिभद्रेश जय भद्र नमोऽस्तु ते ।

जय कामद काकुत्स्थ जय मानद माधव ॥१०॥

भद्र ! अतिभद्र ! ईश ! कल्याणमय प्रभो ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । कामनाओं को पूर्ण करनेवाले ककुत्स्थकुलोत्पन्न श्रीराम ! सम्मान देनेवाले माधव ! आपकी जय हो, जय हो ।

जय शंकर देवेश जय श्रीश नमोऽस्तु ते ।

जय कुङ्कुमरक्ताभ जय पङ्कजलोचन ॥११॥

देवेश्वर शंकर ! लक्ष्मीपते ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । कुडकुम के समान अरुण कान्तिवाले कमलनयन ! आपकी जय हो, जय हो ।

जय चन्दनलिप्ताङ्ग जय राम नमोऽस्तु ते ।

जय देव जगन्नाथ जय देवकिनन्दन ॥१२॥

चन्दन से अनुलिप्त श्रीअङ्गोंवाले श्रीराम ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है । देव ! जगन्नाथ ! देवकीनन्दन ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है ।

जय सर्वयुगे ज्ञेय जय शम्भो नमोऽस्तु ते ।

जय सुन्दर पद्माभ जय सुन्दरिवल्लभ ।

जय सुन्दरसर्वाङ्ग जय वन्द्य नमोऽस्तु ते ॥१३॥

सर्वगुरो जाननेयोग्य शम्भो ! आपकी जय हो, जय हो; आपको नमस्कार है। नील कमल की सी आभावाले श्यामसुन्दर ! सुन्दरी श्रीराधा के प्राणवल्लभ ! आपकी जय हो, जय हो । सर्वाङ्गसुन्दर ! वन्दनीय प्रभो ! आपको नमस्कार है; आपकी जय हो, जय हो ।

जय सर्वद सर्वेश जय शर्मद शाश्वत ।

जय कामद भक्तानां प्रभविष्णो नमोऽस्तु ते ॥१४॥

सब कुछ देनेवाले सर्वेश्वर ! कल्याणदायी सनातन पुरुष ! आपकी जय हो, जय हो । भक्तों की कामनाओं को देनेवाले प्रभुवर ! आपकी जय हो, आपको नमस्कार है ॥६ - १४॥

नमः कमलनाभाय नमः कमलमालिने ।

लोकनाथ नमस्तेऽस्तु वीरभद्र नमोऽस्तु ते ॥१५॥

जिनकी नाभि से कमल प्रकट हुआ है तथा जो कमल की माला पहने हुए हैं, उन भगवान को नमस्कार है । लोकनाथ ! वीरभद्र ! आपको बार - बार नमस्कार है ।

नमस्त्रैलोक्यनाथाय चतुर्मूर्ते जगत्पते ।

नमो देवाधिदेवाय नमो नारायणाय ते ॥१६॥

चतुर्व्यूहस्वरुप जगदीश्वर ! आप त्रिभुवननाथ देवाधिदेव नारायण को नमस्कार है ।

नमस्ते वासुदेवाय नमस्ते पीतवाससे ।

नमस्ते नरसिंहाय नमस्ते शार्ङ्गधारिणे ॥१७॥

पीताम्बरधारी वासुदेवको प्रणाम है, प्रणाम है । शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले नरसिंहस्वरुप आप भगवान् विष्णु को नमस्कार है, नमस्कार है ।

नमः कृष्णाय रामाय नमश्चक्रायुधाय च ।

नमः शिवाय देवाय नमस्ते भुवनेश्वर ॥१८॥

भुवनेश्वर ! चक्रधारी विष्णु, कृष्ण, राम और भगवान् शिव के रुप में वर्तमान आपको बार - बार नमस्कार है ।

नमो वेदान्तवेद्याय नमोऽनन्ताय विष्णवे ।

नमस्ते सकलाध्यक्ष नमस्ते श्रीधराच्युत ॥१९॥

सबके स्वामी श्रीधर ! अच्युत ! वेदान्त शास्त्र के द्वारा जाननेयोग्य आप अन्तरहित भगवान् विष्णु को बारम्बार नमस्कार है ।

लोकाध्यक्ष जगत्पूज्य परमात्मन् नमोऽस्तु ते ।

त्वं माता सर्वलोकानां त्वमेव जगतः पिता ॥२०॥

लोकाध्यक्ष ! जगत्पूज्य परमात्मन् ! आपको नमस्कार है । आप ही समस्त संसार की माता और आप ही सम्पूर्ण जगत के पिता हैं ।

त्वमार्तानां सुहन्मित्रं प्रियस्त्वं प्रपितामहः ।

त्वं गुरुस्त्वं गतिः साक्शी त्वं पतिस्त्वं परायणः ॥२१॥

आप पीड़ितों के सुहृद हैं; आप सबके मित्र, प्रियतम, पिता के भी पितामह, गुरु, गति, साक्षी, पति और परम आश्रय हैं ।

त्वं ध्रुवस्त्वं वषटकर्ता त्वं हविस्त्वं हुताशनः ।

त्वं शिवस्त्वं वसुर्धाता त्वं ब्रह्मा त्वं सुरेश्वरः ॥२२॥

त्वं यमस्त्वं रविर्वायुस्त्वं जलं त्वं धनेश्वरः ।

त्वं मनुस्त्वमहोरात्रं त्वं निशा त्वं निशाकरः ।

त्वं धृतिस्त्वं श्रियः कान्तिस्त्वं क्षमा त्वं धराधरः ॥२३॥

आप ही ध्रुव, वषटकर्ता, हवि, हुताशन ( अग्रि ), शिव, वसु, धाता, ब्रह्मा, सुरराज इन्द्र, यम, सूर्य, वायु, जल, कुबेर, मनु, दिन - रात, रजनी, चन्द्रमा, धृति, श्री, कान्ति, क्षमा और धराधर शेषनाग हैं ।

त्वं कर्ता जगतामीशस्त्वं हन्ता मधुसूदन ।

त्वमेव गोप्ता सर्वस्य जगतस्त्वं चराचर ॥२४॥

चराचरस्वरुप मधुसूदन ! आप ही जगत के स्रष्टा, शासक और संहारक हैं तथा आप ही समस्त संसार के रक्षक हैं।

करणं कारणं कर्ता त्वमेव परमेश्वरः ।

शङ्खचक्रगदापाणे भो समुद्धर माधव ॥२५॥

आप ही करण, कारण, कर्ता और परमेश्वर हैं । हाथ में शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले माधव ! आप मेरा उद्धार करें ।

प्रिय पद्मपलाशाक्ष शेषपर्यङ्कशायिनम् ।

त्वामेव भक्त्या सततं नमामि पुरुषोत्तमम् ॥२६॥

कमलदललोचन प्रियतम ! शेषशय्यापर शयन करनेवाले पुरुषोत्तम आपको ही मैं सदा भक्ति के साथ प्रणाम करता हूँ ।

श्रीवत्साङ्कं जगद्वीजं श्यामलं कमलेक्षणम् ।

नमामि ते वपुर्देव कलिकल्पषनाशनम् ॥२७॥

देव ! जिसमें श्रीवत्सचिह्न शोभा पाता है, जो जगत का आदिकारण है, जिसका वर्ण श्यामल और नेत्र कमल के समान हैं तथा जो कलि के दोषोंको नष्ट करनेवाला है, आपके उस श्रीविग्रह को मैं नमस्कार करता हूँ ।

लक्ष्मीधरमुदाराङ्गं दिव्यमालाविभूषितम् ।

चारुपृष्ठं महाबाहुं चारुभूषणभूषितम् ॥२८॥

जो लक्ष्मीजी को अपने हृदय में धारण करते हैं, जिनका शरीर सुन्दर है, जो दिव्यमाला से विभूषित हैं, जिनका पृष्ठदेश सुन्दर और भुजाएँ बड़ी- बड़ी हैं, जो सुन्दर आभूषणों से अलंकृत हैं।

पद्मनाभं विशालाक्षं पद्मपत्रनिभेक्षणम् ।

दीर्घतुङ्गमहाघ्राणं नीलजीमूतसंनिभम् ॥२९॥

जिनकी नाभि से पद्म प्रकट हुआ है, जिनके नेत्र कमलदल के समान सुन्दर और विशाल हैं, नासिका बड़ी ऊँची और लम्बी है, जो नील मेघ के समान श्याम हैं।

दीर्घबाहुं सुगुप्ताङ्गं रत्नहारोज्ज्वलोरसम् ।

सुभ्रूललाटमुकुटं स्निग्धदन्तं सुलोचनम् ॥३०॥

जिनकी भुजाएँ लम्बी, शरीर सुरक्षित और वक्षःस्थल रत्नों के हार से प्रकाशमान हैं, जिनकी भौंहें, ललाट और मुकुट सभी सुन्दर हैं, दाँत चिकने और नेत्र मनोहर हैं।

चारुबाहुं सुताम्रोष्ठं रत्नोज्ज्वलितकुण्डलम् ।

वृत्तकण्ठं सुपीनांसं सरसं श्रीधरं हरिम् ॥३१॥

जो सुन्दर भुजाओं और रुचिर अरुण अधरों से सुशोभित हैं, जिनके कुण्डल रत्नजटित होने के कारण जगमगा रहे हैं, कण्ठ वर्तुलाकार है और कंधे मांसल हैं, उन रसिकशेखर श्रीधर हरि को नमस्कार है ।

सुकुमारमजं नित्यं नीलकुञ्चितमूर्धजम् ।

उन्नतांसं महोरस्कं कर्णान्तायतलोचनम् ॥३२॥

जो अजन्मा एवं नित्य होने पर भी सुकुमारस्वरुप धारण किये हुए हैं, जिनके केश काले- काले और घुँघराले हैं, कंधे ऊँचे और वक्षःस्थल विशाल हैं, आँखें कानों तक फैली हुई हैं।

हेमारविन्दवदनमिन्दिरायनमीश्वरम् ।

सर्वलोकविधातारं सर्वपापहरं हरिम् ॥३३॥

मुखारविन्द सुवर्णमय कमल के समान परम सुन्दर है, जो लक्ष्मी के निवासस्थान एवं सबके शासक हैं, सम्पूर्ण लोकों के स्रष्ट और समस्त पापों को हर लेनेवाले हैं।

सर्वलक्षणसम्पन्नं सर्वसत्त्वमनोरमम् ।

विष्णुमच्युतमीशानमनन्तं पुरुषोत्तम् ॥३४॥

समग्र शुभ लक्षणों से सम्पन्न और सभी जीवों के लिये मनोरम हैं तथा जो सर्वव्यापी, अच्युत, ईशान, अनन्त एवं पुरुषोत्तम हैं।

नतोऽस्मि मनसा नित्यं नारायणमनामयम् ।

वरदं कामदं कान्तमनन्तं सूनृतं शिवम् ॥३५॥

वरदाता, कामपूरक, कमनीय, अनन्त, मधुरभाषी एवं कल्याणस्वरुप हैं, उन निरामय भगवान् नारायण श्रीहरि को मैं सदा हृदय मे नमस्कार करता हूँ ।

नमामि शिरसा विष्णो सदा त्वां भक्तवत्सल ।

अस्मिन्नेकार्णवे घोरे वायुस्कम्भितचञ्चले ॥३६॥

भक्तवत्सल विष्णो ! मैं सदा आपको मस्तक झुकाकर प्रणाम करता हूँ । इस भयंकर एकार्णवमें , जो प्रलयकालिक वायु की प्रेरणा से विक्षुब्ध एवं चञ्चल हो रहा है।

अनन्तभोगशयने सहस्त्रफणशोभिते ।

विचित्रशयने रम्ये सेविते मन्दवायुना ॥३७॥

सहस्त्र फणों से सुशोभित 'अनन्त' नामक शेषनाग के शरीर की विचित्र एवं रमणीय शय्यापर, जहाँ मन्द- मन्द वायु चल रही है।

भुजपञ्जरसंसक्तकमलालयसेवितम् ।

इह त्वां मनसा सर्वमिदानीं दृष्टवानहम् ॥३८॥

आपके भुजपाश में बँधी हुई श्रीलक्ष्मीजी से आप सेवित हैं; मैंने इस समय सर्वस्वरुप आपके रुप का यहाँ पर जी भरकर दर्शन किया है ।

इदानीं तु सुदुःखातों मायया तव मोहितः ।

एकोदके निरालम्बे नष्टस्थावरजङ्गमे ॥३९॥

इस समय आपकी माया से मोहित होकर मैं अत्यन्त दुःख से पीड़ित हो रहा हूँ । दुःखरुपी पङ्क से भरे हुए, व्याधिपूर्ण एवं अवलम्बशून्य इस एकार्णव में समस्त स्थावरजङ्गम नष्ट हो चुके हैं ।

शून्ये तमसि दुष्पारे दुःखपङ्के निरामये ।

शीतातपजरारोगशोकतृष्णादिभिः सदा ॥४०॥

सब ओर शून्यमय अपार अन्धकार छाया हुआ है । मैं इसके भीतर शीत, आतप, जरा, रोग, शोक और तृष्णा आदि के द्वारा सदा चिरकाल से अत्यन्त कष्ट पा रहा हूँ ।

पीडितोऽस्मि भृशं तात सुचिरं कालमच्युत ।

शोकमोहग्रहग्रस्तो विचरन् भवसागरे ॥४१॥

इहाद्य विधिना प्राप्तस्तव पादाब्जसंनिधौ ।

तात ! अच्युत ! इस भवसागर में शोक और मोहरुपी ग्राह से ग्रस्त होकर भटकता हुआ आज मैं यहाँ दैववश आपके चरणकमलों के निकट आ पहुँचा हूँ ।

एकार्णवे महाघोरे दुस्तरे दुःखपीडितः ॥४२॥

चिरभ्रमपरिश्रान्तस्त्वामद्य शरणं गतः ।

प्रसीद सुमहामाय विष्णो राजीवलोचन ॥४३॥

इस महाभयानक दुस्तर एकार्णव में बहुत कालतक भटकते रहने के कारण दुःखपीड़ित एवं थका हुआ मैं आज आपकी शरण में आया हूँ । महामायी कमललोचन भगवन् ! विष्णो ! आप मुझपर प्रसन्न हों ।

विश्वयोने विशालाक्ष विश्वात्मन् विश्वसम्भव ।

अनन्यशरणं प्राप्तमतोऽत्र कुलनन्दन ॥४४॥

त्राहि मां कृपया कृष्ण शरणागतमातुरम् ।

नमस्ते पुण्डरीकाक्ष पुराणपुरुषोत्तम ॥४५॥

कुलनन्दन कृष्ण ! आप विश्व की उत्पत्ति के स्थान, विशाललोचन, विश्वोत्पादक और विश्वात्मा हैं; अतः दूसरे की शरण में न जाकर एकमात्र आपकी ही शरण में आये हुए मुझ आतुर का आप कृपापूर्वक यहाँ उद्धार करें । पुराणपुरुषोत्तम पुण्डरीकलोचन ! आपको नमस्कार है ।

अञ्जनाभ हृषीकेश मायामय नमोऽस्तु ते ।

मामुद्धर महाबाहो मग्ने संसारसागरे ॥४६॥

कज्जल के समान श्याम कान्तिवाले हृषीकेश ! माया के आश्रयभूत महेश्वर ! आपको नमस्कार है । महाबाहो ! संसार- सागर में डूबे हुए मूझ शरणागत का उद्धार कर दें ।

गह्वरे दुस्तरे दुःखक्लिष्टे क्लेशमहाग्रहैः ।

अनाथं कृपणं दीनं पतितं भवसागरे ।

मां समुद्धर गोविन्द वरदेश नमोऽस्तु ते ॥४७॥

वरदाता ईश्वर ! गोविन्द ! क्लेशरुपी महान् ग्राहों से भरे हुए, दुःख और क्लेशों से युक्त, दुस्तर एवं गहरे भवसागर में गिरे हुए मुझ दीन, अनाथ एवं कृपण का उद्धार करें ।

नमस्त्रैलोक्यनाथाय हरये भूधराय च ।

देवदेव नमस्तेऽस्तु श्रीवल्लभ नमोऽस्तु ते ॥४८॥

त्रिभुवनाथ विष्णु और धरणीधर अनन्त को नमस्कार है । देवदेव ! श्रीवल्लभ ! आपको बारम्बार नमस्कार है ।

कृष्ण कृष्ण कृपालुस्त्वमगतीनां गतिर्भवान् ।

संसारार्णवमग्नानां प्रसीद मधुसूदन ॥४९॥

कृष्ण ! कृष्ण ! आप दयालु और आश्रयहीनके आश्रय हैं । मधुसूदन ! संसार- सागर में निमग्न हुए प्राणियों पर आप प्रसन्न हों ।

त्वामेकमाद्यं पुरुषं पुराणं

जगत्पतिं कारणमच्युतं प्रभुम् ।

जनार्दनं जन्मजरार्तिनाशनं

सुरेश्वरं सुन्दरमिन्दिरापतिम् ॥५०॥

आज मैं एक (अद्वितीय), आदि, पुराणपुरुष, जगदीश्वर, जगत के कारण, अच्युतस्वरुप, सबके स्वामी और जन्म - जरा एवं पीड़ा को नष्ट करनेवाले, देवेश्वर, परम सुन्दर लक्ष्मीपति भगवान् जनार्दन को प्रणाम करता हूँ ।

बृहद्भुजं श्यामलोमलं शुभं

वराननं वारिजपत्रनेत्रम् ।

तरंगभङ्गायतकुन्तलं हरिं

सुकान्तमीशं प्रणतोऽस्मि शाश्वतम् ॥५१॥

जिनकी भुजाएँ बड़ी हैं, जो श्यामवर्ण, कोमल, सुशोभन, सुमुख और कमलदललोचन हैं, क्षीरसागर की तरंगभङ्गी के समान जिनके लम्बे- लम्बे घुँघराले केश हैं, उन परम कमनीय, सनातन ईश्वर भगवान् विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ ।

सा जिह्वा या हरिं स्तौति तच्चित्तं यत्त्वदर्पितम् ।

तावेव केवलौ श्लाघ्यौ यौ त्वत्पूजाकरौ करौ ॥५२॥

भगवन् ! वही जिह्वा सफल हैं, जो आपके चरणों में समर्पित हो चुका है तथा केवल वे ही हाथ श्लाघ्य हैं, जो आपकी पूजा करते हैं ।

जन्मान्तरसहस्त्रेषु यन्मया पातकं कृतम् ।

तन्मे हर त्वं गोविन्द वासुदेवेति कीर्तनात् ॥५३॥

गोविन्द ! हजारों जन्मान्तरों में मैंने जो- जो पाप किये हों, उन सबको आप 'वासुदेव' इस नाम का कीर्तन करनेमात्र से हर लीजिये ।

इति श्रीनरसिंहपुराणे मार्कण्डेयप्रोक्तं श्रीविष्णुस्तवनं स्तोत्रं नाम एकादशोऽध्यायः ॥

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