माहेश्वरतन्त्र पटल ३
माहेश्वरतन्त्र के पटल ३ में विष्णु के परमतत्त्व का उपदेश न देने के कारण को
पार्वती द्वारा पूँछा जाना, केतुमाल पर्वत पर
रमा द्वारा तपस्या का वर्णन, तप के प्रभाव से ब्रह्माण्ड का विहल हो जाना, देवों
का ब्रह्मा के पास जाना, ब्रह्मा की स्तुति, ब्रह्मा द्वारा ताप का कारण बताना,
देवों का शङ्कर के पास जाना, आने का कारण पूँछना, देवों की जिज्ञासा पर शङ्कर
द्वारा ध्यान योग का वर्णन, माया मोह का वर्णन, देवों का
विष्णु के पास जाना, विष्णु की स्तुति, रमा के तप से तप्त
चराचर जगत् के रक्षा करने की प्रार्थना का वर्णन है ।
माहेश्वरतन्त्र पटल ३
Maheshvar tantra Patal 3
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ३
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र तृतीय पटल
अथ तृतीयं पटलम्
पार्वत्युवाच
भगवत् श्रोतुमिच्छामि परं कौतूहलं
हि मे ।
रमया परया साध्या प्रार्थितोऽपि
पुनः पुनः ॥ १ ॥
नोक्तवान्परमं तत्वं तदर्थं तपसे
गता ।
महाश्चर्यतमं देव तन्मे
व्याख्यातुमर्हसि ॥ २ ॥
पार्वती ने कहा- हे भगवन् ! क्योंकि
मुझे अत्यन्त कुतूहल है अत: मैं सुनना चाहती हूँ । इस प्रकार तपस्या के लिए गई हुई
पतिपरायणा साध्वी रमा के द्वारा पुनः पुनः प्रार्थित होने पर भी विष्णु भगवान् ने
परमतत्त्व को उनके लिए क्यों नहीं कहा? हे
देव! महान् आश्चर्यतम उस तत्त्व की व्याख्या करने में आप समर्थ हैं ।। १-२ ।।
शिव उवाच
शृणु सुन्दरि वक्ष्यामि तव
स्नेहादशेषतः ।
अवाच्यमन्यथा देवि कोटिकल्पशतैरपि ॥
३ ॥
भगवान् शङ्कर ने कहा- सुन्दरि !
तुम्हारे अशेषत: स्नेह से मैं कहता हूँ, सुनो।
हे देवि ! सौ करोड़ कल्प में भी यह दूसरे से बतलाने योग्य नहीं है ॥ ३ ॥
प्रार्थितोऽपि यदा विष्णुर्नोक्तवान्
स्वहृदि स्थितम् ।
श्रवणेच्छाविघातेन विरहाग्निविधूतया
॥ ४॥
कृतं महत्तपश्चग्रं सर्वलोकोपतापनम्
।
केतुमाल (ले) समासाद्य कृत्वा
नियममात्मना ॥ ५ ॥
अपने हृदय में स्थित उस परम तत्व को
जब प्रार्थित होने पर भी विष्णु ने नहीं कहा तब सुनने की अत्यन्त उत्कट इच्छा के
पूर्ण न होने के आघात से, तीव्र विरह की
अग्नि से व्यथित महान् और उग्र एवं सभी लोकों को तपाने वाला तप रमा ने किया।
केतुमाल नामक पर्वत पर आकर उन्होंने अपने आत्मभाव से [यम] नियम आदि किया ।। ४-५ ।।
साध्वी चकार प्रतिमां विष्णोः
परमसुन्दराम् ।
तत्र पर्यचरत् प्रीत्या गर्हयन्ती
स्वकं वपुः ॥ ६ ॥
उन पतिव्रता लक्ष्मी ने विष्णु की
अत्यन्त सुन्दर प्रतिमा बनाई। वहीं पर अपने शरीर को गर्हित करते हुए प्रेम से उनकी
परिचर्या की ।। ६ ।।
स्नानेन त्रिषु कालेषु नियमेन दमेन
च ।
भावशुद्धिं गता साध्वी स्थण्डिले
शयने गता ।। ७ ।।
तीनों कालों में स्नान द्वारा,
नियम एवं दम के द्वारा उन [पतिपरायणा] साध्वी ने [प्रथमतः] भाव की
शुद्धि को प्राप्त किया और पथरीली भूमि पर ही शयन किया ।। ७ ।।
शीतकाले जले मग्ना ग्रीष्मे
पञ्चाग्निसेविनी ।
वर्षाष्वपि स्थलगता वृष्टिवातसहा
स्थिता ॥ ८ ॥
स्त्रीत्वचाञ्चल्यमुत्सृज्य
नानालङ्कारसम्पदम् ।
भूम्यामशेत सततं चिन्तयन्ती हरि
हृदि ॥ ९ ॥
शीतकाल में जल में मग्न होकर,
ग्रीष्मकाल में पंचाग्नि (१. धूप, २. अग्नि ३.
जठराग्नि, ४. ) का सेवन करते हुए वर्षा में भी खुले आकाश में
वृष्टि एवं वात (के थपेड़ों) को सहते रहकर और स्त्रियोचित चाश्वल्य एवं नाना
प्रकार की अलङ्कार-सम्पदा को छोड़कर सदैव हृदय में श्रीहरि का ही चिन्तन करती हुई
भूमि पर ही उन्होंने शयन किया ।। ८-९ ।।
स्वप्ने ददर्श सततं हरिं कमललोचनम्
।
तत्रापि प्रार्थयन्तीदं सोऽपि
नेत्याह विक्लवम् ।। १० ।।
सुप्ता सोत्थाय तत्रैव
पुनरुद्बोधमागता ।
एवं सा तन्मयीभूतहृदया विवशा भृशम्
॥ ११ ॥
कमल के समान नेत्रों वाले श्रीहरि
को सतत स्वप्न में देखा, और वहाँ भी विशेष
रूप से भयाक्रान्त एवं प्रार्थना करने वाली (उन देवि) से उन्होंने नहीं ही कहा। सोकर
एवं उठकर फिर वहीं जगकर (बहुत समय तक) तप करती हुई इस प्रकार वह तन्मयीभूत हृदय से
(परम तत्त्व के लिए) बहुत विवश हो गई ।। १०-११ ।
आत्मानं गर्हयामास मनोरथमपश्यति ।
यदा मनोरथं नैवं प्राप्ता देवी
तपस्विनी ।
तदैकपादेन भुवमाक्रम्यात्मनि
निर्मला ।। १२ ।।
निधाय स्वामिनं चित्ते तस्मिन्
चित्तं निधाय च ।
एकात्म्यं तु गता साध्वी तताप परमं
तपः ।। १३ ।।
अपने मनोरथ को न देखकर उन्होंने
अपने को गर्हित समझा और जब इस प्रकार उन तेजस्वी देवी ने अपना मनोरथ नहीं प्राप्त
किया,
तब एक पैर से पृथ्वी पर खड़े होकर अपने निर्मल [ मल-रहित ] चित्त
में स्वामी की मूर्ति रखकर और उन स्वामी में अपने चित्त को रखकर उन साध्वी ने
एकात्म्यभाव को प्राप्त होकर अत्यन्त उत्कृष्ट तप किया ।। १२-१३ ॥
तच्छिखायाः समुद्भूतः सधूमोऽग्निः
परिज्वलन् ।
तापयामास निखिलं ब्रह्माण्डं
भयविह्वलम् ॥ १४ ॥
उनकी शिखा [ चोटी ] से समुद्भूत धूम
के सहित अग्नि प्रज्ज्वलित हो उठी तब उस अग्नि ने भय से विह्वल सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड को तप्त किया ।। १४ ।।
देवासुरनरा नागा गन्धर्वाप्सरसस्तथा
।
पिशाचा गुह्यकाः सिद्धा विद्याघ्राः
खगचारणाः ।। १५ ।।
तपोमयेन ज्वलता वह्निना दुःसहेन च ।
व्यथिताः शोकसंविग्ना न सुखं लेभिरे
क्वचित् ।। १६ ।।
देव, असुर और मनुष्य, नाग, गन्धर्व
एवं अप्सरा, पिशाच, गुह्यक, सिद्ध, विद्याधर तथा आकाशचारी सभी प्राणिजात उस
तपोमय जलती हुई अग्नि के दु:सह ताप से व्यथित और शोकसंविग्न होकर कहीं भी सुख न
प्राप्त कर सके ।।१५-१६।।
ततश्चेन्द्रादयो देवा
मरुतश्रोष्मपादयः।
आदित्या वसवो रुद्रा ह्यश्विनौ
पितरस्तथा ।। १७ ।।
ब्रह्माणं शरणं जग्मुः
पितामहमनिन्दितम् ।
ददृशुः परमं देवं ब्रह्माणं परमासने
।। १८ ।।
तब इन्द्र आदि देवगण,
मरुद्गण एवं श्रोष्मपाद आदि देव १२ आदित्य, ८
वसु, ११ रुद्र और अश्विनद्वय तथा पितर सभी अनिन्दित पितामह
ब्रह्मा के शरण में गए। वहाँ श्रेष्ठ आसन पर बैठे हुए उन्होंने देव ब्रह्मा को देखा
।। १७-१८ ।।
प्राणायामेन युञ्जानं शुभ्रकूर्चं
चतुर्मुखम् ।
सनकाद्यैः परिवृतं नारदाद्यैरुपासितम्
।। १९ ।।
मूर्तिमद्भिस्तथा वेदै: पृथक्सिंहासन
स्थितः ।
पुराणै: संहिताभिश्च विद्याभिः
परिवेष्टितम् ॥ २० ॥
प्राणायाम के द्वारा योगाभ्यास में
रत;
सफेद दाढ़ी वाले चतुर्मुख ब्रह्म सनकादि ऋषियों से परिवृत और
नारदादि मुनियों से उपासित थे, तथा मूर्तिमान् एवं पृथक्
सिंहासन पर स्थित वेदों के द्वारा और पुराणों (तन्त्र) संहिताओं एवं (चतुर्दश)
विद्याओं से वे परिवेष्टित थे । १९-२० ।।
विचारयन्तमात्मानं परमं तमसः परम् ।
पुण्योत्कर्षेण धर्मेण त्यागेन
ज्ञानसम्पदा ॥ २१ ॥
विमर्षेणात्मनश्चापि ब्रह्मचर्येण
संयमैः ।
नियमैर्योगधर्मैश्च यत्र क्रीडन्ति सङ्गताः
॥ २२ ॥
वे श्रेष्ठ एवं तमस से भी परे अपनी
आत्मा का विचार करते हुए विद्यमान थे। पुण्य से उत्कृष्ट धर्मं,
त्याग एवं ज्ञान संपत्ति और आत्मसाक्षात्कार, ब्रह्मचर्य,
संयमों, नियमों, और योग
आदि धर्म जहाँ एक साथ क्रीडा किया करते थे ।। २१-२२ ।।
दृष्ट्वामरास्ते परमासने स्थितं
ब्रह्माणमाद्यं पुरुषं पुरातनम् ।
प्रणेमुरानन्दजलाकुलेक्षणाः
कृष्यत्वचो गद्गदयाब्रुवन् गिरः ॥ २३ ॥
नमो नमस्ते जगदेककर्त्रे नमो नमस्ते
जगदेकपात्रे ।
नमो नमस्ते जगदेकहर्त्रे रजस्तमः
सत्वगुणाय भूम्ने ।। २४ ।।
उन देवों ने उत्कृष्ट आसन पर स्थित
आदि एवं पुरातन पुरुष ब्रह्मा को देखा। उन्होंने आनन्दाश्रु से परिपूर्ण भर्राई
हुई एवं गद्गद् वाणी से कहा- जगत् के एकमात्र कर्ता तुम्हें नमस्कार है,
नमस्कार है, जगत् के एकमात्र पालक तुम्हें
नमस्कार है, नमस्कार है । जगत् के एकमात्र हर्ता [ हमें ] और
सत्व, रज एवं तमो गुण के लिए भूमि स्वरूप तुमको नमस्कार है,
नमस्कार है ।। २३-२४ ॥
अण्डं चतुर्विंशतितत्त्वजातं
तस्मिन् भवानेष विरञ्चिनामा ।
जगच्छरण्यो जगदुद्वमन्स्वयं
पितामहस्त्वं परिगीयसे बुधैः ॥ २५ ॥
चौबीस तत्वों से बने हुए अण्ड रूप
जिस [ब्रह्माण्ड] में आप साक्षात् विरचि नाम से जगत् को शरण देने वाले हैं । जगत्
के स्वयं उद्वमन कर्ता आप को विद्वान् लोग पितामह के नाम से कीर्तन करते हैं उन
आपको नमस्कार है ।। २५ ।।
त्वं सर्वसाक्षी जगदन्तरात्मा
हिरण्यगर्भो जगदेककर्त्ता ।
हर्त्ता तथा पालयितासि देव त्वत्तो न
चान्यत्परमस्ति किञ्चित् ॥ २६ ॥
तुम सभी के साक्षी हो,
जगत् के अन्तरात्मा, हिरण्यगर्भ एवं जगत् के
एकमात्र कर्ता हर्ता तथा पालन करने वाले हे देव ! तुमसे दूसरा कोई श्रेष्ठ नहीं है
।। २६ ।।
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः साक्षात्
स्वयं ज्योतिरजः परेशः ।
स्वमायया मोहितचेतसो ये पश्यन्ति
नानात्त्वमहो त्वयीशे ॥ २७ ॥
तुम आदि देव हो। तुम पुराण पुरुष हो
। तुम साक्षात् रूप से स्वयं ज्योतिमान् हो, अज
हो और श्रेष्ठ ईश्वर हो । तुम्हारी माया से ही मोहित चित्त होकर तुम्हारे में ही
वे ( पुरुष ) नानात्व को देखते हैं ।। २७ ।।
त्वमाद्यः पुरुष: पूर्णस्त्वमनन्तो
निराश्रयः ।
सृजसि त्वं च भूतानि
भूतैरेवात्ममायया ॥ २८ ॥
तुम आदि देव,
पूर्ण पुरुष हो, तुम अनन्त एवं निराश्रय हो।
तुम पञ्चमहाभूतों से अपनी माया से ही प्राणियों का सृजन करते हो ॥ २८ ॥
त्वया सृष्टमिदं विश्वं सचराचरमोजसा
।
कथं न पालयस्येतत्
ज्वलदाकस्मिकाग्निना ।। २९ ।।
आपके ओज से चराचर जगत् के सहित यह
सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि हुई है । अतः आकस्मिक अग्नि की ज्वाला से जब यह जल रहा
है तो आप इसका पालन क्यों नहीं करते हैं ? ।।
२९ ।।
विनाशमेष्यति जगत् त्वया सृष्टमिदं
प्रभो ।
न जानीमो वयं तत्र कारणं
तद्विचिन्त्यताम् ॥ ३० ॥
हे प्रभो ! आपके द्वारा सृष्ट यह
जगत् विनाश को प्राप्त हो जायगा । हम लोग उसका कारण नहीं जानते हैं। अतः आप ही उस
पर विचार करें ।। ३० ।।
कोऽयं वह्निरपूर्वोऽयमुत्थितः परितो
ज्वलन् ।
तेनोद्विग्नमिदं विश्वं ससुरासुरमानवम्
॥ ३१ ॥
यह अपूर्व वह्नि कौन सी है,
जो चारों ओर से जलते हुए उठ गई है? उस अग्नि
से देवता, राक्षस और मनुष्यों के सहित यह सम्पूर्ण विश्व
उद्विग्न हो गया है ।। ३१ ।।
तस्य त्वं शमनोपायं विचारय महामते ।
न चेदद्य भविष्यन्ति लोका
भस्मावशेषिताः ॥ ३२ ॥
हे महा मतिमान् ! उस अग्नि के शमन
का उपाय विचार करिए। नहीं तो आज ही ये लोक भस्मीभूत हो जायेंगे ।। ३२ ।।
इति तेषां च गृणतां देवानामातुरं
वचः ।
विमृश्य ध्यानयोगेन तदिदं हृद्यवाप
सः ।। ३३ ।।
इस प्रकार उन देवों की आतुरता पूर्ण
वाणी को सुनकर अपने ध्यानयोग से जानकर उनके हृदय में इस प्रकार विचार प्राप्त हुआ
।। ३३ ।।
ततः प्रोवाच वचनममरांस्तु पितामहः ।
शृणुध्वममराः सर्वे वचनं मदुदाहृतम्
॥ ३४ ॥
इसके अनन्तर पितामह ब्रह्मा ने
देवों से इस प्रकार वचन कहे हे देवों ! आप सभी मेरे द्वारा कहे गए वचनों को सुने
।। ३४ ॥
तपस्यति रमा देवी
साक्षात्पत्यावमानिता ।
कि त्वं ध्यायसि देवेश परं तत्त्वं
भवत्परम् ॥
तद्वदस्वेति चाप्युक्तस्तथा नोवाच वै
हरिः ।। ३५ ।।
रमा देवी पति भगवान् विष्णु से
साक्षात् अपमानित होकर तपस्या कर रही हैं। 'हे
देवेश ! आप अपने से भी श्रेष्ठ किस तत्व का ध्यान कर रहे हैं? उसे कहें।' इस प्रकार लक्ष्मी जी के पूँछने पर भी
भगवान् श्री हरि ने उस तत्त्व को नहीं कहा ।। ३५ ।।
ततो निर्बन्धनिर्विण्णा रमा देवी
रुषान्विता ।
केतुमाल समासाद्य तपो दारुणमाश्रिता
॥ ३६ ॥
उदास मन वाली देवी रमा ने रुष्ट
होकर केतुमाल पर्वत पर जाकर बड़ा कठिन तप प्रारम्भ कर दिया है ।। ३६ ।
सा तपो लोकभयदं दारुणं विष्णुवल्लभा
।
करोति
तद्भालदेशादुत्थितोऽग्निस्तपोमयः ॥ ३७ ॥
उन विष्णु की प्रिया ने लोकों को भय
प्रदान करने वाला और कठोर तप किया है जिसके कारण उनके ललाट प्रदेश से तपोमप अग्नि
उद्भूत हो गई है ।। ३७ ।।
तेन लोकाः सुसन्तप्ता दग्धप्राया
विचेतसः ।
नाशमेष्यन्त्यसन्देहो यदि सा न
तपस्त्यजेत् ॥ ३८ ॥
उसी से समस्त लोक अत्यन्त सन्तप्त
होकर दग्ध प्राय और चेतना शून्य हो गए हैं। निःसन्देह इनका नाश ही हो जाएगा यदि वे
तप का त्याग नहीं कर देतीं ॥। ३८ ।।
तस्माद्वैकुण्ठ निलयं हरेर्गत्वा दिवौकसः
।
विष्णुं प्रसादयिष्यामः संरुद्राः
सर्व एव हि ॥ ३९ ॥
इसलिए सभी देवों और रुद्रों के साथ
मैं श्री हरि के निवास स्थान वैकुण्ठ में जाकर उन्हें प्रसन्न करूँगा ।। ३९ ।।
एवं निश्चित्य ते सर्वे मम धाम
समाययुः ।
मामस्तुवन् गिरा माध्व्या प्रबद्ध
करसम्पुटाः ॥ ४० ॥
इस प्रकार निश्चत करके वे सभी मेरे
धाम ( शिवपुरी) को आ गए। उन्होंने हाथ जोड़कर बड़ी ही मधुर वाणी से मेरी (भगवान्
शङ्कर की ) स्तुति की ।। ४० ।।
मयापि सत्कृता देवि सेन्द्रा
ब्रह्मपुरोगमाः ।
दृष्ट्या सम्भाव्य देवेशं उपगुह्य
पितामहम् ॥ ४१ ॥
नत्वा बृहस्पति देवि यथा योग्यं
तथापरान् ।
निषीदध्वं निषीदध्वमित्युक्तास्ते
मयामराः ॥ ४२ ॥
हे देवि ! मैं भी उन इन्द्र के सहित
और अग्रगामी ब्रह्मा आदि देवों से सत्कृत होकर अन्तर्दृष्टि से देवेश पितामह के
गूढ़ भाव को समझ गया । हे देवि ! बृहस्पति को नमन करके और अन्य देवों को यथायोग्य
सत्कार करके मैंने 'बैठिए बैठिए'
कहकर उन्हें बैठाया ।। ४१-४२ ।।
निषेदुर्म्लानवदनाः सज्वरास्ते दिवौकसः
।
अपि स्वित् कुशलं देवा
भवतामनुवर्तते ॥ ४३ ॥
वे देव मानों ज्वर के सहित से म्लान
मुख होकर बैठ गए। हे देवों ! आप कुशल से तो हैं? आप लोगों का क्या कहना है ? ॥ ४३ ॥
स्वागतं भो ! सुराः सर्वे यूयं मे
चातिवल्लभाः ।
दृष्टो मदीयो लोकोऽयमदृष्टो
मत्पराङ्मुखैः ॥ ४४ ॥
हे देवो,
आपका स्वागत है। आप सभी मुझे अत्यन्त प्रिय हैं । हमने अपने इस लोक
को देखा है और मुझसे पराङ्मुख लोगों को भी मैंने देखा है ॥ ४४ ॥
वनेषूपवनेष्वेव रमध्वमिह चेत्स्पृहा
।
शृण्वन्तु रुचिरालापान्
शुकसारसपक्षिणाम् ।। ४५ ।।
आप सभी वनों एवं उपवनों में इच्छा
पूर्वक रमण करें। तोते और सारस आदि पक्षियों के रुचिर कलरव को सुनें ।। ४५ ।।
जिघ्रन्तु परमामोद
मोहितानेकषट्पदान् ।
लतानामतिदिव्यानां
सर्वर्तुकुसुमाकरान् ॥ ४६ ॥
अत्यन्त दिव्य लताओं एवं सभी ऋतुओं
में वसन्त ऋतु से मोहित होकर आए हुए अनेक भ्रमर सुगन्धि का आनन्द ले ॥ ४६ ॥
महामरकतक्लृप्तस्वर्णवेदिषु निर्भरम्
।
गङ्गानिलसुखस्पर्शाः परिक्रीडन्तु
चामराः ॥ ४७ ॥
देव गण महामरकत मणि से जटित
स्वर्णिम वेदियों वाली गङ्गा नदी की सुखस्पर्श वायु का आनन्द ले ।। ४७ ।।
नदन् मत्तमरालासु सुधापूर्णासु
नित्यशः ।
खेलन्तु सस्त्रियः सर्वे दीर्घिकासु
गतक्लमाः ॥ ४८ ॥
नित्य प्रति सुधा से परिपूर्ण
तालाबों में कूजन करते हुए मत्त मराल अर्थात् हंसों के मध्य वे देवगण आनन्द ले।
स्त्रियों के साथ सभी खेद रहित होकर वापियों में खेले ।। ४८ ।।
यद्यद्वा मनसोऽभीष्टं
तत्कुरुध्वमतन्द्रिताः ।
किमर्थमिह सम्प्राप्ता ब्रह्मोपेन्द्रपुरोगमाः
॥ ४९ ॥
अथवा हे अतिन्द्रिय ! जो भी आप
लोगों का अभीष्ट मनोरथ हो उसे प्राप्त करें। आप यहाँ पर ब्रह्म और इन्द्र के साथ
क्यों पधारे हैं ? ।। ४९ ।।
निवेदयध्वं कर्त्तव्यं यदि चेदस्ति
किञ्चन ।
इत्येवं ते मया प्रोक्ता मामवोचन्
दिवौकसः ।। ५० ।।
यदि 'मुझे करना चाहिए' ऐसा कोई कार्य हो तो उसे मुझसे
निवेदन करें इस प्रकार मेरे कहने पर उन देवों ने मुझसे कहा ।। ५० ।।
भगवन् करुणासिन्धो भक्तवत्सल
धूर्जटे ।
त्वया सञ्चिन्त्यमानानां कुशलेषु च
का कथा ॥ ५१ ॥
भक्तों के लिए वात्सल्य युक्त,
धूर्जटि ! आपका ध्यान करने वालों के कुशल-क्षेत्रों का तो कहना ही
क्या है ।।५१।।
तदेवाकुशलं विद्मस्त्वत्पादस्मरणच्युतिः
।
जानीमः पूर्णमात्मानं अद्य
तेऽनुग्रहोदयात् ।। ५२ ।।
आपके चरण के स्मरण की च्युति से
क्या अकल्याण होता है हम उसे भी जानते हैं । आज आपके अनुग्रह [रूपी सूर्य] के उदय
के कारण हम स्वयं को पूर्ण जान रहे हैं ।। ५२ ॥
किं ध्यायसि चिरं तात निरुध्य हृदये
मनः ।
लब्धानन्द इवाभासि स्वयमात्माऽपि
देहिनाम् ॥ ५३ ॥
हे तात ! हृदय में मन की गति को
निरुद्ध करके बहुत देर से आप क्या कर रहे हैं? आप
शरीर धारी जीवों की स्वयं आत्मा होकर भी आनन्द प्राप्त करते हुए जान पड़ते हैं ।।
५३ ॥
एतदाचक्ष्व नो ब्रह्मन् प्रवक्तुं
यदि मन्यसे ।
अहमाकर्ण्य वै तेषां वाचं
परमशोभनाम् ।
मन आह्लादयन्नेषामवोचं परमोक्तिभिः
।। ५४ ॥
यदि हम लोगों से आप कहना चाहते हैं
तो ब्रह्मन् ! इसी [आत्मतत्व] को कहिए। उनकी अत्यन्त शुभ वाणी को सुनकर मैंने श्रेष्ठ
उक्तियों से आह्लादित मन से उनसे कहा ।। ९४ ।।
शृणुध्वं त्रिदशाः सर्वे
भवद्भिर्यदुदाहृतम् ।
किं ध्यायसि चिरं तात निरुध्य हृदये
मनः ।। ५५ ।।
लब्धानन्द इवाभासि स्वयमात्मापि
देहिनाम् ।
तन्न वाच्यं मया देवा अपि
कल्पायुतायुतै: ॥ ५६ ॥
हे देवों ! आपने जो जिज्ञासा प्रकट
की है उसे आप सभी सुनिए । जो आपने यह पूछा है कि हे तात ! हृदय में मन की गति को
निरुद्ध करके बहुत देर से आप क्या ध्यान कर रहे हैं? आप शरीरधारी जीवों के स्वयं आत्मा होकर भी आनन्द प्राप्त करते हुए जान
पड़ते हैं - यह सब मुझे देवों को भी कोटि कोटि कल्पों में भी नहीं कहना चाहिए ।।
५५-५६ ।।
न यान्ति योगिनो योगेनं यज्ञेस्तप
आदिभिः ।
न ज्ञानतीर्थवैराग्यविना
साधुनिषेवया ।। ५७ ।।.
योगी लोग इसे योग से भी नहीं जान
पाते। यह यज्ञों; तप आदि अन्य साधनों
से अथवा ज्ञान से, तीर्थो के सेवन से, वैराग्य
या साधु की सेवा से भी नहीं प्राप्त होता है ।। ५७ ।।
मायामात्रमिदं विश्वं वस्तुतो
नास्ति किञ्चन ।
भूरादिसप्तलोकाश्च कालेन कवलीकृताः
॥ ५८ ॥
यह सम्पूर्ण विश्व मात्र माया के
अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है । क्योंकि भू आदि सात लोक भी काल के द्वारा भक्षित कर
लिए जाते हैं ।। ५८ ।।
विषयानन्दसन्तुष्टा लोकाः सर्वेऽपि
देवताः ।
न प्राप्नुवन्ति कणिकां
नित्यानन्दमहोदधेः ।। ५९ ।।
विषय के आनन्द से सन्तुष्ट जन और
अखिल देवगण भी इस 'नित्य-आनन्द-समुद्र'
का एक कण भी नहीं प्राप्त करते हैं ।। ५९ ।
वेदे कर्मप्रधानं हि ततः कर्ममयी
गतिः ।
कर्मभिर्भ्राम्यमाणा ये
तृणानीवाम्भसो रयैः ॥ ६० ॥
क्योंकि वेद कर्म प्रधान हैं अतः उन
[ वैदिक कर्म यज्ञ यागादि करने वालों} को
कर्ममयी गति ही प्राप्त होती है। वे कर्मों में उसी प्रकार चक्कर काटते रहते हैं
जैसे जल की भँवर में तिनका चक्कर काटता रहता है ।। ६० ।।
न ते विन्दन्ति तत्तत्वं
कोटिकल्पशतैरपि ।
केचित्स्वर्गपरा लोके यजन्ते
ज्ञानदुर्बलाः ॥ ६१ ॥
वे भी उस [आत्म] तत्त्व को
शतकोटि-कल्पों में भी नहीं जान पाते हैं । कुछ ज्ञान से दुर्बल जन स्वर्ग की कामना
से लोक में नाम यज्ञ यागादि का यजन करते हैं ।। ६१।।
केचिदष्टाङ्गयोगेन निगृहीतधियः परे
।
वर्णाश्रमविधानेन तत्तदाचारशालिना
।। ६२ ।।
कुछ साधक योग के [ ध्यान,
धारणा, समाधि आदि ] आठ साधनों से बुद्धि को
समाधिस्थ करते हैं और कुछ लोग वर्णाश्रम के विधान में रहकर उन-उन आश्रमों के आचार
का पालन करते हैं ।। ६२ ॥
केचित्पत्राशनरता वायुभक्षास्तथेतरे
।
केचिद्दिगम्बराः केचित्
कृष्णरक्ताम्बराः परे ॥ ६३ ॥
कुछ वृक्षों के पत्ते ही खाकर व्रत
करते हैं,
कुछ बायु पीकर ही साधना करते हैं; कुछ [ जैन
आदि ] जन दिगम्बर होकर ही रहते हैं और कुछ अन्य लाल गेरुमा नादि वस्त्र पहनकर
सन्यासी हो जाते हैं ।। ६३ ।।
केचिन्मुण्डितमुण्डाश्च फलमूलाशने
रताः ।
केचिद्भस्मनि निष्णाता
मोक्षमिच्छन्ति दुर्बलाः ॥ ६४ ॥
कुछ मुण्डित मस्तक होकर रहते हैं,
कुछ फल और [ कन्द आदि ] मूल खाकर व्रताचरण करते हैं । कुछ भस्म
लपेटे बेचारे मोक्ष की इच्छा करते हैं ।। ६४ ।।
नैव ते मुक्तिमायान्ति विना
तत्त्वावमर्षणात् ।
मायाम्भोधिरयं भाति ह्यसन्नपि
सदात्मकः ।। ६५ ।।
फिर भी वे बिना तत्त्वज्ञान के
मुक्ति नहीं ही प्राप्त करते हैं। इस प्रकार यह माया समुद्र सत्य सा जान पड़ता है
।। ६५ ॥
अनेक कोटिब्रह्माण्ड बुदबुदाकुलितो भृशम्
।
तत्त्वोर्मिजालजटिलो वासनाजलगह्वरः
।। ६६ ॥
इस माया समुद्र में अनेक कोटि
ब्रह्माण्ड बुलबुले के समान हैं; पंच तत्त्व लहरें
हैं और यह बासना के जल का अत्यन्त गहरा समुद्र है ॥ ६६॥
पापपुण्यतटोनन्द्धो
मोहपङ्क प्रपूरितः।
सदसत्कर्म कमलकैरवानन्तमण्डलः॥ ६७ ॥
यह समुद्र पाप और पुण्य रूप दो तहों
से आबद्ध है । यह मोह रूप कीचड़ से खूब भरा पड़ा है। सत् और असद कर्मरूपी कमल एवं
कमुदिनी के समूह से ओतप्रोत हैं ।। ६७।।
अहन्ताशिशुमारेण निरन्तरमुपासितः ।
तृष्णा फेनौघबहुलः कामनातटपादपः ॥
६८ ॥
अहन्ता [मैं का मान] रूप शिशुमार
[सुइस नामक जलचर ] से निरन्तर उपासित यह समुद्र तृष्णा रूप फेन के ढेरों से भरा
हुआ है। इसके तट के वृक्ष मानव की कामनाएं हैं ।। ६८ ।।
कामक्रोध महालोभगर्तपाषाणदुःखदः ।
परनिन्दापरद्रोहभुजङ्गमभयानकः ॥ ६९
॥
काम, क्रोध, मद, और लोभ इस
महासमुद्र के दुःखदायी गड्ढे और पाषाण खण्ड हैं । पर निन्दा और परद्रोह इस समुद्र
के भयानक सर्प हैं ।। ६९ ।।
श्रद्धोरुपद्मिनी यत्र अक्षयो
मोहकल्पितः ।
विषयतृडभिक्लान्ताः
पतन्त्यस्मिन्ननेकशः ॥ ७० ॥
जहां स्त्रियों का विलास ही अक्षय
मोह को उत्पन्न करने वाला है । विषय की भूख से क्लान्त अनेक मानव आदि जङ्गम
प्राणिजात सदा इसमें गिरा करते हैं । ७० ॥
दृष्ट्वारमत वै कश्चित् सराग
कमलाकरम् ।
सेव्यमानोऽपि नातृप्यत् षट्पाद इव
लोलुपः ।। ७१ ।।
बह राग के सहित किसी कमलाकर को
देखकर ही रमण करता है। विषयों के इस प्रकार अत्यत्त सेवन करने पर भी वह उसी प्रकार
तृप्त नहीं होता है जैसे लोलुप भ्रमर कभी भी मधु से तृप्त नहीं होता ।। ७१ ।।
अह्नः क्षयमजानन्वै लोभितात्मा
जितेन्द्रियः ।
मधुलिट् मधुलोभेन तत्रैव विलयं
व्रजेत् ॥ ७२ ॥
दिन-दिन करके आयु का क्षय होता जा
रहा है - यह जानकर भी विषय लोलुप एवं अजितेन्द्रिय मनुष्य उन्हीं विषयों की ओर
आकृष्ट होता रहता है और उसी प्रकार उन्हीं विषयों के मध्य ही मर जाता है जैसे मधु
का लोभी भ्रमर उसी मधु में ही विलीन हो जाता है ।। ७२ ।।
यत्र हंसगणास्तूर्णमाघ्राय कमलाकरम्
।
अशाश्वतमिति ज्ञात्वा सुखं नीडेषु
शेरते ॥ ७३ ॥
वहीं पर कमलों के समूह को हंस गण
शीघ्र ही सूंघ कर यह शाश्वत नहीं है' — इस प्रकार जानकर अपने अपने घोसलों में सुख से रहते हैं ।। ७३ ।।
यत्र पङ्केषु निर्मग्ना सीदन्ती
गोस्तृषातुरा |
महात्मना समुद्धृत्य सुधासिन्धौ
निवेशिता ॥ ७४ ॥
भूख प्यास से आतुर इन्द्रियाँ वहीं
पर कीचड़ में निमग्न होकर रहती हैं जबकि महात्माजन उन विषयों से अपने मन को हटाकर
[ तत्वज्ञान रूप ] सुधा के समुद्र में डाल देते हैं ।। ७४ ।।
यत्र खेलन्ति बहुशो मातङ्गाश्च
करेणुभिः ।
अतृप्यमानाः सततं कमलामोदलम्पटाः ।।
७५ ।।
वहीं पर हाथिनियों के साथ हाथी बहुत
प्रकार से खेला करते हैं। वे कमलों के समूह की सुगन्ध को लेकर भी उससे अतृप्त ही
रहते हैं ।। ७५ ।।
यत्र मत्स्यगणान् बालान् निघ्नन्ति
बलवत्तया ।
मकरास्तानपि क्षिप्रं निगृह्णातीह
जालिकः ।। ७६ ।।
जहाँ पर मत्स्यों के बच्चों के
समूहों को मगर बलात् खा जाते हैं वहीं पर के सगर भी मछुवारों द्वारा जाल में फँसा
लिए जाते हैं ।। ७६ ।।
शिशुमारभयोद्विग्नाः पिपासामतिवाह्य
ते ।
न पिबन्त्यपि पानीयं
पद्मिनीछायमाश्रिताः ।। ७७ ।।
शिशुमार के भय से पिपासित एवं
उद्विग्न होकर भी पद्मिनी की छाया वाले जल को भी वे नहीं पीते हैं ॥ ७७ ॥
यत्र पान्थो भुजङ्गेन
परिदष्टोम्बुलालसः ।
चिकित्सकेन सुज्ञेन रसदानेन बोधितः
॥ ७८ ॥
जहाँ पर पथिक [ विषय रूप ] सर्पों
से उसे जाकर पानी की इच्छा से व्याकुल हो जाते हैं और तब ज्ञानी चिकित्सक के
द्वारा [ ओषधि ] रस के दान से वे जगाए जाते हैं । ७८ ।।
यत्राभिमानिनी वेश्या सेव्यमानातिनिर्घृणैः
।
उपस्थिता पञ्चनटे र्नित्य सेवनतत्परै:
।। ७९ ।।
जहाँ पर अभिमानिनी वेश्याओं का विषय
लोलुप लोगों द्वारा उत्कृष्ट रूप सेवन किया जाता है । वहाँ [ पञ्चेन्द्रिय रूप ]
पाँच नाटकीय पात्र नित्य ही तत्परता के साथ सेवन के लिए उपस्थित रहते हैं ।। ७९ ।।
पिपासवो नटान् यान्ति प्रापयन्ति
नटीं हि तान् ।
ततः क्रीडन्ति वेगेन स्वच्छन्दं च
तदाज्ञया ॥ ८० ॥
तब वे [जीव रूप ] नट विषयों की
तृष्णा से तृषित होकर उन नटियों के पास जाते हैं और वहाँ उनकी आज्ञा से स्वच्छन्द
रूप से अत्यन्त [ विषय के ] बेग से क्रीडा करते हैं ॥ ८० ॥
यदि सूर्यसहस्राणां
प्रकाशपरमोज्ज्वलम् ।
उदेति ज्ञानविज्ञानं तदा शुष्यति
नान्यथा ॥ ८१ ॥
यदि सहस्रों सूर्य उदित होकर ज्ञान
एवं विज्ञान के परम उज्ज्वल प्रकाश को दें तभी उनका अज्ञान नष्ट होता है । अन्यथा
वे वैसे ही विषय तृष्णा में फँसे रहते हैं ।। ८१ ।।
उदिते तु परे ज्ञाने नाहं यूयं न किञ्चन
।
न यास्यन्ति परं तत्त्वं मदाद्या
अपि देवताः ।। ८२ ।।
उस ज्ञान रूप सूर्य के उदित हो जाने
पर 'मैं' और 'तुम' का भान ही समाप्त हो जाता है। इस परम तत्त्व ज्ञान को देवता भी प्राप्त
नहीं कर सकते हैं ।। ८२ ।।
किमुताल्पधियश्चान्ये स्वप्निका इव
जाग्रतम् ।
यन्निर्बन्धसमाविष्टा
प्राणेभ्योप्यति वल्लभा ।। ८३ ।।
कहीं तो छोटी बुद्धि वाले है और
कहीं जागकर भी [मानों विषयों की तृष्णा में फँसे रहकर ] स्वप्न देखने वाले हैं।
कहीं पर लोग प्राण से भी प्यारी अपनी वल्लभा के बन्धन में समाविष्ट हैं ।। ८३ ।
नोपदिष्टा दूनचित्ता केतुमाले तपस्यति
।
तस्मान्मदानन्दमूल नाहं वक्ष्ये कथञ्चन
॥८४ ॥
[विषयों के लम्पट] छोटे चित्त के
लोग उपदिष्ट होकर भी केतुमाल पर्वत पर तपस्या नहीं करते। इसलिए मेरे आनन्द का मूल
[ तत्त्व ज्ञान ] में किसी से किसी प्रकार भी नहीं कहता हूँ ।। ८४ ।।
अन्यन्निवेद्यतां कृत्यं यदि योग्यं
भवेन्मम ।
इत्युक्तास्तेमराः सर्वे
वीक्ष्यमाणाः परस्परम् ।। ८५ ।।
परं विस्मयमापन्नाः श्रुत्वा
शङ्करभाषितम् ।
'यदि मेरे लिए कोई अन्य योग्य
कृत्य हो तो उसे बतावें' - इस प्रकार उन भगवान् शङ्कर के
उपदेश को सुनकर वे देवगण अत्यन्त विस्मयान्वित होकर परस्पर एक दूसरे को देखते हुए
कहने लगे ।। ८५-८६ ।।
देवा ऊचुः-
देवदेव महादेव जगतां ज्ञानदो गुरुः
॥ ४६ ॥
यदात्थ देव तत्सत्यं विष्णुपत्नी
तपस्यति ।
तत्तपो वह्निना विश्वं परितप्तं
समन्ततः ।
किमद्य करणीयं वै तच्च शम्भो
विचार्यताम् ॥ ८७ ॥
देवों ने कहा- हे देवों के देव
महादेव ! समस्त जगत् के ज्ञान देने वाले गुरु ! जब तक भगवान् विष्णु की पत्नी
लक्ष्मी जी तपस्या करेंगी तब तक उनकी अग्नि से यह समस्त विश्व परितप्त होता रहेगा
। अतः हे शम्भो ! आप विचार करें कि क्या करना चाहिए । ८६-८७ ॥
शिव उवाच-
रमा देवी जगच्छक्तिः प्रकृत्यंशमयी
शिवा ।
विष्णोरानन्दलहरी यया भाति
जगच्छिवम् ॥ ८८ ॥
भगवान् शिव ने कहा- रमा देवी जगत्
की शक्ति हैं। वह शिवा है, वह प्रकृति की अंश
स्वरूपा हैं । बह भगवान् विष्णु की आनन्द की लहरी हैं जिससे यह समस्त विश्व
आनन्दित होता है ॥ ८८ ॥
सा तपश्चरते तीव्रं जगद्दाहकरं महत्
।
पतिव्रता पति त्यक्त्वा नान्यं चापि
प्रभाषते ।। ८९ ।।
वही इस समय जगत् को भी जलाने वाला
कठोर तप कर रही हैं । वस्तुतः पतिव्रता से पति के सान्निध्य के बिना कुछ भी नहीं
कहा जा सकता ।। ८९ ।।
न तस्मादन्यसंसाध्या बिना
स्वपतिमाधवम् ।
तस्माद्विष्णुं व्रजामोद्य सर्वे
चापि वयं सह ॥९० ॥
अतः बिना उनके अपने पति माधव के कुछ
भी साधन होना कठिन है । इस लिए हम सभी देवों के साथ विष्णु के पास चलें ।। ९० ।।
गत्वा निवेदयिष्यामो जगतामशिवं च
यत् ।
दृष्ट्वास्मानपि मानार्हान्
जगद्भङ्गमपीक्ष्य च ॥ ९१ ॥
निषेधयिष्यति रमां तपसोऽसौ
दुरत्ययात् ।
इति मे वाचमाकर्ण्य देवाः सर्वे
गतज्वराः ॥ ९२ ॥
वहाँ जाकर जो जगत् के अकल्याण की
बात है उसे हम लोग निवेदन करेंगे। हम सभी सम्मान के योग्य देवों को देखकर और जगत्
की इस प्रकार की नष्ट होने की स्थिति को जानकर वे भगवान् विष्णु इस कठिन तपस्या से
भगवती रमा को उपरत करेंगे। इस प्रकार मेरे वचनों को सुनकर सभी देवों के मन में शान्ति
हुई ।। ९१-९२ ।।
अहं चापि च तैः सार्धं गतः
प्रियनिकेतनम् ।
यत्र सर्व घनश्यामाः पीतकौशेयवाससः
॥ ९३ ॥
और मैं भी उनके साथ में 'प्रियनिकेतन' (भगवान् विष्णु के निवास स्थान) को गया
। जहाँ पर सभी पार्षद आदि भी पीला और कौशेय रंग का कपड़ा पहने हुए बादलों के समान
श्यामवर्ण के लग रहे थे ।। ९३ ।।
किरीटिनः कुण्डलिनः शङ्खचक्रगदाधरः
।
तत्र गत्वा जगन्नाथः स्तुतो
देवगणैरपि ।। ९४ ।।
वे सभी अपने सिर पर मुकुट और कानों
में कुण्डल, हाथों में शङ्ख, चक्र और गदा धारण किए हुए थे। वहाँ जाकर जगन्नाथ की देवगणों ने भी
स्तुति की ।। ९४ ।।
नमो मत्स्य कूर्मादिनानावता
रैर्जगद्रक्षणायोद्यतायार्त्तिहत्रै ।
जगद्बन्धवे बन्धहर्त्रे च भर्त्रे
जगद्विप्लवोपस्थितौ पालयित्रे ।। ९५ ।।
हे भगवन् ! हे मत्स्य एवं कूर्म आदि
नाना प्रकार के अवतारों को धारण करके जगत् की रक्षा के लिए उद्यत रहकर सभी के
दुःखों का नाश करने वाले ! हे जगत् के बन्धु ! हे कर्म बन्धनों के हर्ता ! हे
भर्ता ! और हे दारुण कष्टों के उपस्थित होने पर जगत् का पालन करने वाले ! आपको
प्रणाम है ।। ९५ ।।
यदा वेदपन्थास्त्वदीयः पुराणः
प्रभज्येत पाखण्डचण्डोग्रवादै: ।
तदा देवदेवेश सत्त्वेन सत्त्वं
वपुश्चारु निर्माय रक्षां विधत्से ।। ९६ ।।
जब आपका पुरातन वैदिक [ सनातन ]
धर्म उग्र पाखण्डियों के द्वारा छिन्न-भिन्न कर दिया जाता है तब आप हे देवदेवेश,
सत्व गुण से सत्त्वमय सुन्दर शरीर धारण करके हम सबकी रक्षा करते हैं
।। ९६ ।
भूम्यम्बुतेजोनिलखात्मकं यत्
ब्रह्माण्डमेतत्प्रविशन्निवत्वम् ।
चराचरं जीव इति प्रसिद्धिं गतोऽसि
तस्मान्न भवत्परं यत् ।। ९७ ।।
भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश रूप
जो ब्रह्माण्ड है वह सब तुम्हारे में मानो प्रविष्ट है। वस्तुतः समस्त चराचर जगत्
और जीव के रूप में आप ही भासित होते है । इसलिए आपसे अलग कोई श्रेष्ठ तत्व नहीं
है।।९७।।
रक्षस्व नाथ लोकांस्त्वं तपसोग्रेण
पद्मया ।
दह्यमानान् गतानन्दान्
रक्षितासीश्वरो यतः ।। ९४ ।।
अत: हे नाथ ! आप भगवती रमा के द्वारा
किए गए उग्र तपस्या से जलने वाले इन लोकों की रक्षा करें,
क्योंकि आप ही इनकी रक्षा करने में समर्थ हैं ।। ९८ ।।
निवर्त्तय परमां साध्वीं तव
प्राणाधिकां प्रियाम् ।
न वै स्त्रियो विरोद्धव्या
गृहमेधिभिरन्वहम् ॥ ९९ ॥
अत: आप अपनी प्राणों से भी अधिक
प्रिया परम साध्वी देवी रमा को उग्र तप से उपरत करें । इसीलिए गृह स्वामी को कभी
भी स्त्रियों का विरोध नहीं करना चाहिए ।। ९९ ॥
यद्गृहे स्त्री विरुद्धा
स्याद्यदिवाप्यवमानिता ।
न तद्गृहे सुखं सम्पन्न चारोग्यं
प्रजासुखम् ॥ १०० ॥
फिर जिस गृह में स्त्री पति से
विरोध करके रहतीं है अथवा वह अपमानित की जाती है उस गृह में कभी सुख,
समृद्धि और आरोग्य एवं पुत्र पौत्र आदि प्रजा का सुख नहीं होता ।।
१०० ।।
कथं सुखेन वर्त्तेत
विश्वमेतद्भवद्गृहम् ।
त्वयि विरोधमापन्ने गृहिण्या
समशीलया ।। १०१ ॥
इसलिए आपका गृह रूप यह विश्व कैसे
सुख से रह सकता है ? जबकि समान शील
सम्पन्न आपकी गृहणी का आपसे विरोध हो गया है ।। १०१ ।।
तस्माद्विश्वस्य रक्षार्थं सावधानो
भव प्रभो ।
इत्यावेद्यामराः सर्वे प्रणम्य
जगतां पतिम् ।। १०२ ।।
बद्धाञ्जलिपुटास्तूष्णीमासन्
म्लानमुखाम्बुजाः ॥ १०३ ॥
इसलिए,
हे प्रभो ! विश्व की रक्षा के लिए आप सावधान होइए। इस प्रकार निवेदन
करके सभी देव जगत् के पालक भगवान् विष्णु को प्रणाम करके मुरझाए हुए कमल के समान
मुख से वहीं हाथ जोड़कर चुपचाप बैठ गये।।१०२-१०३॥
इति श्रीपञ्चरात्रे माहेश्वरतन्त्र उत्तरखण्डे
शिवपार्वती- संवादे तृतीयं पटलम् ॥ ३ ॥
।। इस प्रकार श्रीनारद पाश्वरात्र
आगमगत माहेश्वरतन्त्र के उत्तर खण्ड ( ज्ञानखण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और
भगवान् शंकर के संवाद के तृतीय पटल की डा० सुधाकर मालवीय कृत हिन्दी व्याख्या
पूर्ण हुई ।। ३ ।।
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 4

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