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गणाध्यक्ष स्तोत्र

गणाध्यक्ष स्तोत्र

जो साधक श्रीनरसिंहपुराण के अध्याय २५ में वर्णित इस गणाध्यक्ष स्तोत्र का निरन्तर पाठ करता है न उसके कार्य में विघ्न ही पड़ता है और न ही उस पर कभी संकट आता है। वह मनोवाञ्छित सिद्धि प्राप्त कर लेता है ।

गणाध्यक्ष स्तोत्र

गणाध्यक्ष स्तोत्रम्

Ganadhyaksha stotram

गणाध्यक्षस्तोत्र 

गणाध्यक्ष स्तोत्रं

गणेशविघ्नराज स्तवन

इक्ष्वाकुरुवाच

नमस्कृत्य महादेवं स्तोष्येऽहं तं विनायकम् ।

महागणपतिं शूरमजितं ज्ञानवर्धनम् ॥१॥

इक्ष्वाकु बोले - मैं महान् देव गणेशजी को प्रणाम करके उन विघ्नराज का स्तवन करता हूँ, जो महान् देवता एवं गणों के स्वामी हैं, शूरवीर तथा अपराजित हैं और ज्ञानवृद्धि करानेवाले हैं ।

एकदन्तं द्विदन्तं च चतुर्दन्तं चतुर्भुजम् ।

त्र्यक्षं त्रिशूलहस्तं च रक्तनेत्रं वरप्रदम् ॥२॥

जो एक, दो तथा चार दाँतोंवाले हैं, जिनकी चार भुजाएँ हैं, जो तीन नेत्रों से युक्त और हाथ में त्रिशूल धारण करते हैं, जिनके नेत्र रक्तवर्ण हैं, जो वर देनेवाले हैं

आम्बिकेयं शूर्पकर्णं प्रचण्डं च विनायकम् ।

आरक्तं दण्डिनं चैव वह्निवक्त्रं हुतप्रियम् ॥३॥

जो माता पार्वती के पुत्र हैं, जिनके सूप- जैसे कान हैं, जिनका वर्ण कुछ- कुछ लाल है, जो दण्डधारी तथा अग्निमुख हैं एवं जिन्हें होम प्रिय है

अनर्चितो विघ्नकरः सर्वकार्येषु यो नृणाम् ।

तं नमामि गणाध्यक्षं भीममुग्रमुमासुतम् ॥४॥

जो प्रथम पूजित न होने पर मनुष्यों के सभी कार्यों में विघ्नकारी होते हैं, उन भीमकाय और उग्र स्वभाववाले पार्वतीनन्दन गणेशजी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

मदमत्तं विरुपाक्षं भक्तिविघ्ननिवारकम् ।

सूर्यकोटिप्रतीकाशं भिन्नाञ्जनसमप्रभम् ॥

बुद्धं सुनिर्मलं शान्तं नमस्यामि विनायकम् ॥५॥

जो मद से मत्त रहते हैं, जिनके नेत्र भयंकर हैं और जो भक्तों के विघ्न दूर करनेवाले हैं, करोड़ों सूर्य के समान जिनकी कान्ति है, खान से काटकर निकाले हुए कोयले की भाँति जिनकी श्याम प्रभा है तथा जो विमल और शान्त हैं, उन भगवान् विनायक को मैं नमस्कार करता हूँ ।

नमोऽस्तु गजवक्त्राय गणानां पतये नमः ।

मेरुमन्दररुपाय नमः कैलासवासिने ॥६॥

मेरुगिरि के समान रुप और हाथी के मुख- सदृश मुखवाले, कैलासवासी गणपति को नमस्कार है ।

विरुपाय नमस्तेऽस्तु नमस्ते ब्रह्मचारिणे ।

भक्तस्तुताय देवाय नमस्तुभ्य्णं विनायक ॥७॥

विनायक देव ! आप विरुपधारी और ब्रह्मचारी हैं, भक्तजन आपकी स्तुति करते हैं, आपको बारंबार नमस्कार है

त्वया पुराण पूर्वेषां देवानां कार्यसिद्ध्यये ।

गजरुपं समास्थाय त्रासिताः सर्वदानवाः ॥८॥

पुराणपुरुष ! आपने पूर्ववर्ती देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिये हाथी का स्वरुप धारण करके समस्त दानवों को भयभीत किया था ।

ऋषीणां देवतानां च नायकत्वं प्रकाशितम् ।

यतस्ततः सुरैरग्रे पूज्यसे त्वं भवात्मज ॥९॥

शिवपुत्र ! आपने ऋषि और देवताओं पर अपना स्वामित्व प्रकट कर दिया है, इसी से देवगण आपकी प्रथम पूजा करते हैं।

त्वामाराध्य गणाध्यक्षं सर्वज्ञं कामरुपिणम् ।

कार्यार्थं रक्तकुसुमै रक्तचन्दनवारिभिः ॥१०॥

रक्ताम्बरधरो भूत्वा चतुर्थ्यामर्चयेज्जपेत् ।

त्रिकालमेककालं वा पूजयेन्नियताशनः ॥११॥

राजानं राजपुत्रं वा राजमन्त्रिणमेव वा ।

राज्यं च सर्वविघ्नेश वशं कुर्यात् सराष्ट्रकम् ॥१२॥

सर्वविघ्नेश्वर ! यदि मनुष्य रक्तवस्त्र धारण कर नियमित आहार करके अपने कार्य की सिद्धि के लिये लाल पुष्पों और रक्तचन्दन- युक्त जल से चतुर्थी के दिन तीनों काल या एक काल में आप कामरुपी सर्वज्ञ गणपति का पूजन करे तथा आपका नाम जपे तो वह पुरुष राजा, राजकुमार, राजमन्त्री को राज्य अथवा समस्त राष्ट्र सहित अपने वश में कर सकता है 

अविघ्नं तपसो मह्यं कुरु नौमि विनायक ।

मयेत्थं संस्तुतो भक्त्या पूजितश्च विशेषतः ॥१३॥

विनायक ! मैं आपकी स्तुति करता हूँ । आप मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक स्तवन एवं विशेषरुप से पूजन किये जाने पर मेरी तपस्या के विघ्न को दूर कर दें ।

यत्फलं सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत्फलम् ।

तत्फलं पूर्णमाप्नोति स्तुत्वा देवं विनायकम् ॥१४॥

सम्पूर्ण तीर्थो और समस्त यज्ञों में जो फल प्राप्त होता है, उसी फल को मनुष्य भगवान् विनायक का स्तवन करके पूर्णरुप से प्राप्त कर लेता है ।

विषमं न भवेत् तस्य न च गच्छेत् पराभवम् ।

न च विघ्नो भवेत् तस्य जातो जातिस्मरो भवेत् ॥१५॥

उस पर कभी संकट नहीं आता, उसका कभी तिरस्कार नहीं होता और न उसके कार्य में विघ्न ही पड़ता है; वह जन्म लेने के बाद पूर्वजन्म की बातों को स्मरण करनेवाला होता है ।

य इदं पठते स्तोत्रं षडभिर्मासैर्वरं लभेत् ।

संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥१६॥

जो प्रतिदिन इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह छः महीनों तक निरन्तर पाठ करने से गणेशजी से मनोवाञ्छित वर प्राप्त करता है और एक वर्ष में पूर्णतः सिद्धि प्राप्त कर लेता है- इसमे तनिक भी संशय नहीं है 

इति श्रीनरसिंहपुराणे गणाध्यक्ष स्तोत्रं पञ्चविंशोऽध्यायः सम्पूर्ण:॥

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