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कर्मकाण्ड

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गणेशगीता अध्याय ९

गणेशगीता अध्याय ९   

गणेशगीता के पुर्व अध्यायों में सांख्यसारार्थयोग, कर्मयोग, विज्ञानप्रतिपादन, वैधसंन्यासयोग, योगावृत्तिप्रशंसन, बुद्धियोग, उपासनायोग, विश्वरूपदर्शन को कहा गया है और अब अध्याय ९ में सगुणोपासना की श्रेष्ठता; क्षेत्र, ज्ञान तथा ज्ञेय का वर्णन है।

गणेशगीता अध्याय ९

गणेशगीता नवाँ अध्याय

Ganesh geeta chapter 9

गणेश गीता अध्याय ९   

श्रीगणेशगीता

गणेशगीता नवमोऽध्यायः क्षेत्रज्ञातृज्ञेयविवेकयोगः

॥ श्रीगणेशगीता ॥

॥ नवमोऽध्यायः ॥

॥ क्षेत्रज्ञातृज्ञेयविवेकयोगः ॥

वरेण्य उवाच

अनन्यभावस्त्वां सम्यङ्मूर्तिमन्तमुपासते ।

योऽक्षरं परमव्यक्तं तयोः कस्ते मतोऽधिकः ॥१ ॥

वरेण्य बोले - [ हे भगवन्!] मूर्तिमान् आपकी जो अनन्यभाव से उपासना करते हैं और जो अक्षर एवं परम अव्यक्त आपकी उपासना करते हैं, उनमें श्रेष्ठ कौन है ? ॥ १ ॥

असि त्वं सर्ववित्साक्षी भूतभावन ईश्वरः ।

अतस्त्वां परिपृच्छामि वद मे कृपया विभो ॥२ ॥

हे विभो ! आप सब जाननेवाले, सबके साक्षी, भूतभावन ईश्वर हैं, इस कारण मैं आपसे पूछता हूँ, आप कृपा कर कहिये॥२॥

श्रीगजानन उवाच

यो मां मूर्तिधरं भक्त्या मद्भक्तः परिसेवते ।

स मे मान्योऽनन्यभक्तिर्नियुज्य हृदयं मयि ॥३ ॥

श्रीगणेशजी बोले- जो भक्त मूर्तिमान् मेरी भक्तिपूर्वक उपासना करता है, वह हृदय में मुझे धारण करनेवाला अनन्य भक्तिमान् मुझे [विशेष ] मान्य है ॥ ३ ॥

खगणं स्ववशं कृत्वाखिलभूतहितार्थकृत् ।

ध्येयमक्षरमव्यक्तं सर्वगं कूटगं स्थिरम् ॥४ ॥

सोऽपि मामेत्यनिर्देश्यं मत्परो य उपासते ।

संसारसागरादस्मादुद्धरामि तमप्यहम् ॥५ ॥

सम्पूर्ण इन्द्रियों को अपने वश में करके सब प्राणियों का हित करता हुआ जो अक्षर, अव्यक्त, सर्वव्यापी और कूटस्थ स्थिर ब्रह्म का ध्यान करता है तथा जो जानने में अशक्य मेरी उपासना करता है, वह भी मुझे ही प्राप्त करता है, उसका भी मैं संसारसागर से उद्धार करता हूँ ॥ ४-५ ॥

अव्यक्तोपासनाद्दुःखमधिकं तेन लभ्यते ।

व्यक्तस्योपासनात्साध्यं तदेवाव्यक्तभक्तितः ॥६ ॥

अव्यक्त ब्रह्म की उपासना करनेवाले जनों को अधिक क्लेश भोगना पड़ता है। जो व्यक्तस्वरूप की भक्ति से प्राप्त होता है, वही अव्यक्त की उपासना से होता है ॥ ६ ॥

भक्तिश्चैवादरश्चात्र कारणं परमं मतम् ।

सर्वेषां विदुषां श्रेष्ठो ह्यकिंचिज्ज्ञोऽपि भक्तिमान् ॥७ ॥

थोड़ा जाननेवाला भी यदि भक्तिमान् हो तो वह सम्पूर्ण विद्वानों में श्रेष्ठ है। इसमें मुख्य कारण भक्ति ही है ॥ ७ ॥

भजन्भक्त्या विहीनो यः स चाण्डालोऽभिधीयते ।

चाण्डालोऽपि भजन्भक्त्या ब्राह्मणेभ्योऽधिको मतः ॥८ ॥

जो भक्तिविहीन होकर भजन करता है, वह चाण्डाल है और जो जन्म से चाण्डाल होकर भी मेरा भक्तिपूर्वक भजन करता है, वह उस ब्राह्मण से श्रेष्ठ है ॥ ८ ॥

शुकाद्याः सनकाद्याश्च पुरा मुक्ता हि भक्तितः ।

भक्त्यैव मामनुप्राप्ता नारदाद्याश्चिरायुषः ॥९ ॥

शुकादि तथा सनकादि ऋषिगण भक्ति से ही मुक्त हुए हैं। और भक्ति से ही नारद और चिरजीवी मार्कण्डेयादि मुझको प्राप्त हुए हैं ॥ ९ ॥

अतो भक्त्या मयि मनो विधेहि बुद्धिमेव च ।

भक्त्या यजस्व मां राजंस्ततो मामेव यास्यसि ॥१० ॥

इस कारण भक्ति से मन और बुद्धि मुझमें लगानी चाहिये, हे राजन् ! भक्तिपूर्वक मेरा यजन करोगे तो मुझको ही प्राप्त होओगे ॥ १० ॥

असमर्थोऽर्पितुं स्वान्तं एवं मयि नराधिप ।

अभ्यासेन चे योगेन ततो गन्तुं यतस्व माम् ॥११ ॥

हे राजन् ! यदि मुझमें अपना मन न लगा सको तो अभ्यासयोग से मुझे प्राप्त होने का यत्न करो ॥ ११ ॥

तत्रापि त्वमशक्तश्चेत्कुरु कर्म मदर्पणम् ।

मामनुग्रहतश्चैवं परां निर्वृतिमेष्यसि ॥१२ ॥

और जो यह भी न हो सके तो जो कुछ कर्म करो, उसे मुझे अर्पित करो, मेरी कृपा से तुम परम शान्ति को प्राप्त होओगे ॥ १२ ॥

अथैतदप्यनुष्ठातुं न शक्तोऽसि तदा कुरु ।

प्रयत्नतः फलत्यागं त्रिविधानां हि कर्मणाम् ॥१३ ॥

और यदि यह भी न कर सको तो यत्नपूर्वक तीनों प्रकार के कर्मों के फल का त्याग करो ॥ १३ ॥

श्रेयसी बुद्धिरावृत्तेस्ततो ध्यानं परं मतम् ।

ततोऽखिलपरित्यागस्ततः शान्तिर्गरीयसी ॥१४ ॥

प्रथम मुझमें बुद्धि लगना श्रेष्ठ है, उससे ध्यान श्रेष्ठ है, उससे सम्पूर्ण कर्मों का त्याग श्रेष्ठ है, इससे अत्यन्त श्रेष्ठ शान्ति है ॥ १४ ॥

निरहंममताबुद्धिरद्वेषः शरणः समः ।

लाभालाभे सुखे दुःखे मानामाने स मे प्रियः ॥१५ ॥

जो अहंकार का त्याग करनेवाला, ममता बुद्धि से रहित, द्वेष न करनेवाला, सबमें करुणा रखनेवाला और लाभ - अलाभ, सुख-दुःख, मान-अपमान में एक दृष्टि रखनेवाला है, वह मेरा प्रिय है ॥ १५ ॥

यं वीक्ष्य न भयं याति जनस्तस्मान्न च स्वयम् ।

उद्वेगभीः कोपमुद्भीरहितो यः स मे प्रियः ॥१६ ॥

जिसको देखकर किसी को भय नहीं होता और जो मनुष्यों से भययुक्त नहीं होता है; उद्वेग, भय, क्रोध और हर्ष से जो रहित हो, वही मेरा प्रिय है ॥ १६ ॥

रिपौ मित्रेऽथ गर्हायां स्तुतौ शोके समः समुत् ।

मौनी निश्चलधीभक्तिरसंगः स च मे प्रियः ॥१७ ॥

शत्रु-मित्र, निन्दा-स्तुति, हर्ष-शोक में जिसका चित्त एक है, जो मौनी, स्थिरचित्त, भक्तिमान् और असंग है, वह मेरा प्रिय है ॥ १७ ॥

संशीलयति यश्चैनमुपदेशं मया कृतम् ।

स वन्द्यः सर्वलोकेषु मुक्तात्मा मे प्रियः सदा ॥१८ ॥

जो मेरे इस उपदेश का पालन करता है, वह त्रिलोकी में नमस्कार के योग्य है और वह मुक्तात्मा मेरा सदा प्रिय है ॥१८॥

अनिष्टाप्तौ च न द्वेष्टीष्टप्राप्तौ च न तुष्यति ।

क्षेत्रतज्ज्ञौ च यो वेत्ति समे प्रियतमो भवेत् ॥१९ ॥

जो अनिष्ट की प्राप्ति में द्वेष और इष्ट की प्राप्ति में हर्ष नहीं करता है तथा क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को जानता है, वही मेरा सबसे प्रिय है ॥ १९ ॥

वरेण्य उवाच

किं क्षेत्रं कश्च तद्वेत्ति किं तज्ज्ञानं गजानन ।

एतदाचक्ष्व मह्यं त्वं पृच्छते करुणाम्बुधे ॥२० ॥

वरेण्य बोले- हे गजानन ! क्षेत्र क्या है और उसको जाननेवाला कौन है, उसका ज्ञान क्या है, हे करुणासागर! मुझ प्रश्न करनेवाले को यह सब आप बताइये ॥ २० ॥

श्रीगजानन उवाच

पञ्च भूतानि तन्मात्राः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि च ।

अहंकारो मनो बुद्धिः पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि च ॥२१ ॥

इच्छाव्यक्तं धृतिद्वेषौ सुखदुःखे तथैव च ।

चेतनासहितश्चायं समूहः क्षेत्रमुच्यते ॥२२ ॥

श्रीगणेशजी बोले - [पृथ्वी, जल आदि] पाँच महाभूत और उनकी [गन्ध, रस आदि] तन्मात्राएँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, अहंकार, मन, बुद्धि और पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, अव्यक्त (मूल प्रकृति), इच्छा, धैर्य, द्वेष, सुख-दुःख और चेतनासहित यह सारा समूह क्षेत्र कहलाता है । २१-२२ ॥

तज्जं त्वं विद्धि मां भूप सर्वान्तर्यामिणं विभुम् ।

अयं समूहोऽहं चापि यज्ज्ञानविषयौ नृप ॥२३ ॥

हे राजन् ! उसको जाननेवाला सर्वान्तर्यामी सर्वव्यापक तुम मुझको जानो। मैं और यह समूह - ये दोनों ज्ञान के विषय हैं ॥ २३ ॥

आर्जवं गुरुशुश्रूषा विरक्तिश्चेन्द्रियार्थतः ।

शौचं क्षान्तिरदम्भश्च जन्मादिदोषवीक्षणम् ॥२४ ॥

समदृष्टिर्दृढा भक्तिरेकान्तित्वं शमो दमः ।

एतैर्यच्च युतं ज्ञानं तज्ज्ञानं विद्धि बाहुज ॥२५ ॥

सरलता, गुरुशुश्रूषा, इन्द्रियों का विषयों से वैराग्य, पवित्रता, सहनशीलता, पाखण्ड का त्याग, जन्ममरणादि में दोषदृष्टि, समदृष्टि, दृढभक्ति, एकान्तता तथा शम-दमसहित जो ज्ञान है, हे राजन् ! उसी को यथार्थ ज्ञान समझो ॥ २४-२५ ॥

तज्ज्ञानविषयं राजन्ब्रवीमि त्वं श‍ृणुष्व मे ।

यज्ज्ञात्वैति च निर्वाणं मुक्त्वा संसृतिसागरम् ॥२६ ॥

हे राजन् ! इस ज्ञान के विषय को मैं कहता हूँ, तुम श्रवण करो, जिसके जानने से संसारसागर से छूटकर मुक्त हो जाओगे ॥ २६ ॥

यदनादीन्द्रियैर्हीनं गुणभुग्गुणवर्जितम् ।

अव्यक्तं सदसद्भिन्नमिन्द्रियार्थावभासकम् ॥ २७ ॥

विश्वभृच्चाखिलव्यापि त्वेकं नानेव भासते ।

बाह्याभ्यन्तरतः पूर्णमसंगं तमसः परम् ॥२८ ॥

जो अनादि, इन्द्रियरहित, सत्-रज-तम आदि गुणों का भोक्ता, किंतु गुणवर्जित, अव्यक्त, सत्-असत् से परे तथा इन्द्रियों के विषयों का प्रकाशक है। विश्व को धारण करनेवाला, सर्वत्र व्यापक, एक होकर अनेक रूप से भासता है, वह बाहर भीतर से पूर्ण, असंग और अन्धकार से परे है ॥ २७-२८ ॥

दुर्ज्ञेयं चातिसूक्ष्मत्वाद्दीप्तानामपि भासकम् ।

ज्ञेयमेतादृशं विद्धि ज्ञानगम्यं पुरातनम् ॥२९ ॥

अत्यन्त सूक्ष्म होने से वह जाना नहीं जाता, ज्योतियों को भी प्रकाशित करनेवाला है, इस प्रकार ज्ञान से जाननेयोग्य पुरातन पुरुष को ज्ञेय ब्रह्म जानो ॥ २९ ॥

एतदेव परं ब्रह्म ज्ञेयमात्मा परोऽव्ययः ।

गुणान्प्रकृतिजान्भुङ्क्ते पुरुषः प्रकृतेः परः ॥३० ॥

यही परब्रह्म ज्ञेय है, यही आत्मा, पर, अव्यय तथा प्रकृति से परे पुरुष कहलाता है। यह प्रकृति से उत्पन्न हुए गुणों को भोगता है ॥ ३० ॥

गुणैस्त्रिभिरियं देहे बध्नाति पुरुषं दृढम् ।

यदा प्रकाशः शान्तिश्च वृद्धे सत्त्वं तदाधिकम् ॥३१ ॥

प्रकृति के तीन गुण ही इस पुरुष को देह में बाँधते हैं, जिस समय देह में शान्ति और प्रकाश की वृद्धि हो, तब सत्त्वगुण की वृद्धि होती है ॥ ३१ ॥

लोभोऽशमः स्पृहारम्भः कर्मणां रजसो गुणः ।

मोहोऽप्रवृत्तिश्चाज्ञानं प्रमादस्तमसो गुणः ॥३२ ॥

लोभ, अशान्ति, स्पृहा और कर्मारम्भ- ये रजोगुण के धर्म हैं। मोह, आलस्य, अज्ञान और प्रमाद - इन्हें ही तमोगुण जानना चाहिये ॥ ३२ ॥

सत्त्वाधिकः सुखं ज्ञानं कर्मसंगं रजोऽधिकः ।

तमोऽधिकश्च लभते निद्रालस्यं सुखेतरत् ॥३३ ॥

सत्त्वगुण अधिक होने से सुख और ज्ञान की, रजोगुण अधिक होने से कर्म की और तमोगुण अधिक होने से सुख से इतर निद्रा और आलस्य की प्राप्ति होती है ॥ ३३ ॥

एषु त्रिषु प्रवृद्धेषु मुक्तिसंसृतिदुर्गतीः ।

प्रयान्ति मानवा राजंस्तस्मात्सत्त्वयुतो भव ॥३४ ॥

इन तीनों की वृद्धि में क्रम से मुक्ति, संसार और दुर्गति की प्राप्ति मनुष्यों को होती है, इस कारण हे राजन् ! सत्त्वगुणयुक्त होओ ॥ ३४ ॥

ततश्च सर्वभावेन भज त्वं मां नरेश्वर ।

भक्त्या चाव्यभिचारिण्या सर्वत्रैव च संस्थितम् ॥३५ ॥

हे नरेश्वर ! तदनन्तर सर्वभाव से तुम मेरा भजन करो और निश्चल भक्ति से सर्वत्र स्थित मुझे स्थित जानो ॥३५॥

अग्नौ सूर्ये तथा सोमे यच्च तारासु संस्थितम् ।

विदुषि ब्राह्मणे तेजो विद्धि तन्मामकं नृप ॥३६ ॥

हे राजन् ! अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, तारागण और विद्वान् ब्राह्मण में जो तेज है, उसे मेरा ही तेज जानो ॥ ३६ ॥

अहमेवाखिलं विश्वं सृजामि विसृजामि च ।

औषधीस्तेजसा सर्वा विश्वं चाप्याययाम्यहम् ॥३७ ॥

मैं सम्पूर्ण संसार को उत्पन्न कर उसका संहार करता हूँ और अपने तेज से औषधि और जगत्को मैं ही पुष्ट करता हूँ ॥३७॥

सर्वेन्द्रियाण्यधिष्ठाय जाठरं च धनंजयम् ।

भुनज्मि चाखिलान्भोगान्पुण्यपापविवर्जितः ॥३८ ॥

सम्पूर्ण इन्द्रियों में तथा उदर में स्थित होकर धनंजय नामक प्राण और जठराग्निरूप से पाप-पुण्यरहित होकर मैं ही सम्पूर्ण भोगों को भोगता हूँ ॥ ३८ ॥

अहं विष्णुश्च रुद्रश्च ब्रह्मा गौरी गणेश्वरः ।

इन्द्राद्या लोकपालाश्च ममैवांशसमुद्भवाः ॥३९ ॥

मैं ही विष्णु, रुद्र, ब्रह्मा, गौरी और गणपति हूँ, इन्द्रादि देवता तथा लोकपाल मेरे ही अंश से उत्पन्न हुए हैं।।३९।।

येन येन हि रूपेण जनो मां पर्युपासते ।

तथा तथा दर्शयामि तस्मै रूपं सुभक्तितः ॥४० ॥

जिस-जिस रूप से प्राणी मेरी भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं, उनकी भक्ति के अनुसार मैं उन्हें वैसा ही रूप दिखाता हूँ॥४०॥

इति क्षेत्रं तथा ज्ञाता ज्ञानं ज्ञेयं मयेरितम् ।

अखिलं भूपते सम्यगुपपन्नाय पृच्छते ॥४१ ॥

हे राजन् ! इस प्रकार क्षेत्र, ज्ञाता, ज्ञान तथा ज्ञेय का विषय तुमसे मैंने वर्णन किया, जो तुमने पूछा था, वह सब मैंने बता दिया ॥ ४१ ॥

॥ इति श्रीगणेशपुराणे गजाननवरेण्यसंवादे गणेशगीतायां क्षेत्रज्ञातृज्ञानज्ञेयविवेकयोगो नाम नवमोऽध्यायः ॥९॥

आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 10

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