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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
काशी स्तुति
विनय पत्रिका में भगवान् श्रीराम के
अनन्य भक्त तुलसीदास ने काशी स्तुति में काशी की महिमा का वर्णन करते हुए यहाँ
निवास करते श्रीरामनाम जप करने का संकल्प कर रहे हैं।
काशी स्तुति
Kaashi stuti
तुलसीदासकृत विनय पत्रिका काशी स्तुति भावार्थ सहित
विनय पत्रिका - काशी स्तुति
काशीस्तुति
राग भैरव
सेइअ सहित सनेह देह भरि,
कामधेनु कलि कासी ।
समनि सोक-संताप-पाप-रुज,
सकल-सुमंगल-रासी ॥१॥
इस कलियुग में काशीरुपी कामधेनु का
प्रेमसहित जीवनभर सेवन करना चाहिये । यह शोक, सन्ताप,
पाप और रोग का नाश करनेवाली तथा सब प्रकार के कल्याणों की खानि हैं
॥१॥
मरजादा चहुँओर चरनबर,
सेवत सुरपुर-बासी ।
तीरथ सब सुभ अंग रोम
सिवलिंग अमित अबिनासी ॥२॥
काशी के चारों ओर की सीमा इस
कामधेनु के सुन्दर चरण हैं । स्वर्गवासी देवता इसके चरणों की सेवा करते हैं । यहाँ
के सब तीर्थ स्थान इसके शुभ अंग हैं और नाशरहित अगणित शिवलिंग इसके रोम हैं ॥२॥
अंतरऐन ऐन भल,
थन फल,
बच्छ बेद-बिस्वामी ।
गलकंबल बरुना बिभाति जनु,
लूम लसति,
सरिताऽसी ॥३॥
अन्तर्गृही (काशी का मध्यभाग) इस
कामधेनु का ऐन (गद्दी) है । अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- ये चारों फल इसके चार थन हैं; वेदशास्त्रों पर विश्वास रखनेवाले आस्तिक लोग इसके बछड़े हैं- विश्वासी
पुरुषों को ही इसमें निवास करने से मुक्तिरुपी अमृतमय दूध मिलता है; सुन्दर वरुणा नदी इसकी गलकंबल के समान शोभा बढ़ा रही है और असी नामक नदी
पूँछ के रुप में शोभित हो रही हैं ॥३॥
दंडपानि भैरव बिषान,
मलरुचि-खलगन-भयदा-सी ।
लोलदिनेस त्रिलोचन लोचन,
करनघंट घंटा-सी ॥४॥
दण्डधारी भैरव इसके सींग हैं,
पाप में मन रखनेवाले दुष्टों को उन सींगों से यह सदा डराती रहती है
। लोलार्क (कुण्ड) और त्रिलोचन (एक तीर्थ) इसके नेत्र हैं और कर्णघण्टा नामक तीर्थ
इसके गले का घण्टा है ॥४॥
मनिकर्निका बदन-ससि सुंदर,
सुरसरि-सुख सुखमा-सी ।
स्वारथ परमारथ परिपूरन,
पंचकोसि महिमा-सी ॥५॥
मणिकर्णिका इसका चन्द्रमा के समान
सुन्दर मुख है, गंगाजी से मिलनेवाला पाप-ताप-
नाशरुपी सुख इसकी शोभा है । भोग और मोक्षरुपी सुखों से परिपूर्ण पंचकोसी की
परिक्रमा ही इसकी महिमा है ॥५॥
बिस्वनाथ पालक कृपालुचित,
लालति नित गिरिजा-सी ।
सिद्धि,
सची, सारद पूजहिं मन
जोगवति रहति रमा-सी ॥६॥
दयालु हृदय विश्वनाथजी इस कामधेनु का
पालन-पोषण करते हैं और पार्वती-सरीखी स्नेहमयी जगज्जननी इस पर सदा प्यार करती रहती
हैं;
आठों सिद्धियाँ, सरस्वती और इन्द्राणी शची
उसका पूजन करती हैं; जगत का पालन करनेवाली लक्ष्मी-सरीखी
इसका रुख देखती रहती हैं ॥६॥
पंचाच्छरी प्रान,
मुद माधव,
गब्य सुपंचनदा-सी ।
ब्रह्म-जीव-सम रामनाम जुग,
आखर बिस्व बिकासी ॥७॥
'नमः शिवाय' यह पंचाक्षरी मन्त्र ही इसके पाँच प्राण हैं । भगवान् विन्दुमाधव ही आनन्द
हैं । पंचनदी (पंचगंगा) तीर्थ ही इसके पंचगव्यां हैं । यहाँ संसार को प्रकट
करनेवाले रामनाम के दो अक्षर 'रकार' और
'मकार' इसके अधिष्ठाता ब्रह्म और जीव
है ॥७॥
चारितु चरति करम कुकरम करि,
मरत जीवगत घासी ।
लहत परमपद पय पावन,
जेहि चहत प्रपंच-उदासी ॥८॥
यहाँ मरनेवाले जीवों का सब सुकर्म
और कुकर्मरुपी घास यह चर जाती है, जिससे उनको
वही परमपदरुपी पवित्र दूध मिलता है, जिसको संसार के विरक्त
महात्मागण चाहा करते हैं ॥८॥
कहत पुरान रची केसव
निज कर-करतूति कला-सी ।
तुलसी बसि हरपुरी राम जपु,
जो भयो चहै सुपासी ॥९॥
पुराणों में लिखा है कि भगवान्
विष्णु ने सम्पूर्ण कला लगाकर अपने हाथों से इसकी रचना की है । हे तुलसीदास! यदि
तू सुखी होना चाहता है तो काशी में रहकर श्रीरामनाम जपा कर ॥९॥
इति तुलसीदासकृत विनय पत्रिका काशी स्तुति सम्पूर्ण॥
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