गणेशगीता अध्याय ५
गणेशगीता के पुर्व अध्यायों में सांख्यसारार्थयोग, कर्मयोग, विज्ञानप्रतिपादन, वैधसंन्यासयोग को कहा गया है और अब अध्याय ५ में योगवृत्ति की प्रशंसा को बतलाया गया है।
गणेशगीता पाँचवाँ अध्याय
Ganesh geeta chapter 5
गणेश गीता अध्याय ५
श्रीगणेशगीता
गणेशगीता पञ्चमोऽध्यायः योगावृत्तिप्रशंसनः
॥ श्रीगणेशगीता ॥
॥ पञ्चमोऽध्यायः ॥
॥ योगावृत्तिप्रशंसनः ॥
श्रीगजानन उवाच
श्रौतस्मार्तानि कर्माणि फलं
नेच्छन्समाचरेत् ।
शस्तः स योगी राजेन्द्र
अक्रियाद्योगमाश्रितात् ॥१ ॥
श्रीगणेशजी बोले- हे राजन् ! जो
श्रुति और स्मृति में कहे हुए कर्मों को फल की इच्छा न करके करता है,
वह योगी कर्म का त्याग करनेवाले योगियों से श्रेष्ठ है ॥ १ ॥
योगप्राप्त्यै महाबाहो हेतुः कर्मैव
मे मतम् ।
सिद्धियोगस्य संसिद्ध्यै हेतू शमदमौ
मतौ ॥२ ॥
हे महाभुज! मेरे मत में योगप्राप्ति
के निमित्त कर्म ही कारण है, योगसिद्धि की
सिद्धि के निमित्त शम और दम ही कारण हैं ॥ २ ॥
इन्द्रियार्थांश्च संकल्प्य
कुर्वन्स्वस्य रिपुर्भवेत् ।
एताननिच्छन्यः कुर्वन्सिद्धिं योगी
स सिद्ध्यति ॥३ ॥
इन्द्रियों के विषयों का संकल्प कर
कर्म करनेवाला अपना शत्रु होता है और जो इनकी इच्छा न कर कर्म करता है,
वही योगी सिद्धि को प्राप्त होता है ॥ ३ ॥
सुहृत्वे च रिपुत्वे च उद्धारे चैव
बन्धने ।
आत्मनैवात्मनि ह्यात्मा नात्मा भवति
कश्चन ॥४ ॥
एकमात्र आत्मा ही आत्मा का मित्र और
शत्रु है,
यही ज्ञान होने से उद्धार करता है और यही अज्ञान होने से बन्धन में
डालता है, दूसरा कोई नहीं ॥ ४ ॥
मानेऽपमाने दुःखे च सुखेऽसुहृदि
साधुषु ।
मित्रेऽमित्रेऽप्युदासीने द्वेष्ये
लोष्ठे च काञ्चने ॥५ ॥
समो जितात्मा विज्ञानी
ज्ञानीन्द्रियजयावहः ।
अभ्यसेत्सततं योगं यदा युक्ततमो हि
सः ॥६ ॥
मान, अपमान, सुख, दुःख, बन्धु, साधु, मित्र, अमित्र, उदासीन, द्वेषी,
मिट्टी के ढेले और सुवर्ण इत्यादि में समान बुद्धि रखनेवाला, जितेन्द्रिय, विज्ञानी, जितात्मा
सदा योग का अभ्यास करता रहे, जबतक कि उसको योग की सिद्धि न
हो जाय ॥ ५-६ ॥
तप्तः श्रान्तो व्याकुलो वा
क्षुधितो व्यग्रचित्तकः ।
कालेऽतिशीतेऽत्युष्णे
वानिलाग्न्यम्बुसमाकुले ॥७ ॥
सध्वनावतिजीर्णे गोःस्थाने साग्नौ
जलान्तिके ।
कूपकूले श्मशाने च नद्यां भित्तौ च
मर्मरे ॥८ ॥
चैत्ये सवल्मिके देशे
पिशाचादिसमावृते ।
नाभ्यसेद्योगविद्योगं
योगध्यानपरायणः ॥९ ॥
जो संतप्त हो,
श्रान्त हो, व्याकुल, क्षुधित
अथवा व्यग्रचित्त हो, वह योगाभ्यास न करे। अतिशीतकाल अथवा
अति उष्णकाल, अग्नि, वायु और जल की
अधिकतावाले देश में, जिस स्थान में ध्वनि अधिक हो, जो टूटा-फूटा हो, गोष्ठ, अग्नि
के निकट, जल के निकट, कूप के निकट,
श्मशान, नदी, दीवार के
निकट तथा जहाँ शुष्क पर्ण का शब्द सुनायी पड़ता हो, चैत्य
वृक्ष के नीचे, वल्मीक (बाँबी) - वाले स्थान में और पिशाचादि
से युक्त स्थान में योगध्यानपरायण योगी योगाभ्यास न करे ।। ७-९ ॥
स्मृतिलोपश्च मूकत्वं बाधिर्यं
मन्दता ज्वरः ।
जडता जायते सद्यो दोषाज्ञानाद्धि
योगिनः ॥१० ॥
स्मृति का लोप होना,
गूंगापन, बधिरता, मन्दता,
ज्वर, जड़ता-ये सब दोष अज्ञान से योगी को होते
हैं ॥ १० ॥
एते दोषाः परित्याज्या
योगाभ्यसनशालिना ।
अनादरे हि चैतेषां स्मृतिलोपादयो
ध्रुवम् ॥११ ॥
योगाभ्यासी को ये सब दोषपूर्ण स्थान
त्याग देने चाहिये, ऐसा न करने से
अवश्य स्मृतिलोप आदि दोष होते हैं (अतः उपर्युक्त स्थानों में योगसाधन न करे ) ॥
११ ॥
नातिभुञ्जन्सदा योगी
नाभुञ्जन्नातिनिद्रितः ।
नातिजाग्रत्सिद्धिमेति भूप योगं
सदाभ्यसन् ॥१२ ॥
हे राजन् ! योगी सदा थोड़ा भोजन करे,
बिना भोजन किये भी न रहे, न बहुत सोये,
न बहुत जागे- इस प्रकार सदा योगाभ्यास करने से सिद्धि को प्राप्त हो
जाता है ॥ १२ ॥
संकल्पजांस्त्यजेत्कामान्नियताहारजागरः
।
नियम्य खगणं बुद्ध्या विरमेत शनैः
शनैः ॥१३ ॥
सम्पूर्ण इच्छा और कामनाओं का त्याग
करे,
थोड़ा भोजन करे,जागरणशील हो, बुद्धि से सब इन्द्रियों को वश में करके शनैः-शनैः शान्ति को प्राप्त हो ॥
१३ ॥
ततस्ततः कृषेदेतद्यत्र
यत्रानुगच्छति ।
धृत्यात्मवशगं कुर्याच्चित्तं
चञ्चलमादृतः ॥१४ ॥
जिस-जिस स्थान में मन जाय,
उस उस स्थान से उसे खींचे और धैर्य से उसे अपने वश में करे, क्योंकि वह महाचंचल है ॥ १४ ॥
एवं कुर्वन्सदा योगी परां
निर्वृतिमृच्छति ।
विश्वस्मिन्निजमात्मानं विश्वं च
स्वात्मनीक्षते ॥१५ ॥
योगी सदा इस प्रकार करने से परम
शान्ति को प्राप्त होता है और वह संसार में अपनी आत्मा को और अपनी आत्मा में संसार
को देखता है ॥ १५ ॥
योगेन यो मामुपैति तमुपैम्यहमादरात्
।
मोचयामि न मुञ्चामि तमहं मां स न
त्यजेत् ॥१६ ॥
योग से जो मुझको प्राप्त होता है,
उसको मैं आदरपूर्वक प्राप्त होता हूँ और जो मुझे नहीं छोड़ता है,
उसको मैं नहीं छोड़ता हूँ तथा संसार से मुक्त कर देता हूँ ॥१६ ॥
सुखे सुखेतरे द्वेषे क्षुधि तोषे समस्तृषि
।
आत्मसाम्येन भूतानि सर्वगं मां च
वेत्ति यः ॥१७ ॥
जीवन्मुक्तः स योगीन्द्रः केवलं मयि
संगतः ।
ब्रह्मादीनां च देवानां स वन्द्यः
स्याज्जगत्रये ॥१८ ॥
सुख-दुःख,
द्वेष, क्षुधा, सन्तोष
और तृषा- इनमें जो आत्मा के समान सब प्राणियों को देखता है, जो
मुझ सर्वव्यापी को जानता है और जो केवल मुझमें संलग्न है, वह
जीवन्मुक्त है और वह त्रिलोकी में ब्रह्मादिक देवताओं द्वारा नमस्कार करने योग्य
है ।। १७-१८ ॥
वरेण्य उवाच
द्विविधोऽपि हि योगोऽयमसंभाव्यो हि
मे मतः ।
यतोऽन्तःकरणं दुष्टं चञ्चलं
दुर्ग्रहं विभो ॥१९ ॥
वरेण्य बोले –
हे भगवन्! इन दोनों प्रकार के योगों को मैं महाकठिन देखता हूँ,
कारण कि मन बड़ा दुष्ट और चंचल है तथा इसका निग्रह करना कठिन है ॥
१९ ॥
श्रीगजानन उवाच
यो निग्रहं दुर्ग्रहस्य मनसः
सम्प्रकल्पयेत् ।
घटीयन्त्रसमादस्मान्मुक्तः
संसृतिचक्रकात् ॥२० ॥
श्रीगणेशजी बोले - [ हे राजन् ! ]
जो निग्रह करने में कठिन इस मन का नियमन करता है, वह घटीयन्त्र के समान घूमनेवाले इस संसारचक्र से मुक्त हो जाता है ॥ २० ॥
विषयैः क्रकचैरेतत्संसृष्टं चक्रकं
दृढम् ।
जनश्छेत्तुं न शक्नोति कर्मकीलः
सुसंवृतम् ॥२१ ॥
विषयरूपी अरों से यह दृढ़ चक्र बना
हुआ है और कर्मरूपी कीलों से अच्छी प्रकार जड़ा हुआ है,
इस कारण साधारण मनुष्य इसके छेदन करने में समर्थ नहीं होते ॥ २१ ॥
अतिदुःखं च वैराग्यं
भोगाद्वैतृष्ण्यमेव च ।
गुरुप्रसादः सत्सङ्ग उपायास्तज्जये
अमी ॥२२ ॥
अतिशय दुःख,
वैराग्य, भोग में तृष्णा का त्याग, गुरु की कृपा, सत्संग - ये इस (मन) के जीतने के उपाय
हैं॥२२॥
अभ्यासाद्वा वशीकुर्यान्मनो योगस्य
सिद्धये ।
वरेण्य दुर्लभो योगो विनास्य मनसो
जयात् ॥२३ ॥
योगसिद्धि के निमत्त अभ्यास से मन को
अपने वश में करे, हे वरेण्य! बिना मन
के जीते योग महाकठिन है ॥२३॥
वरेण्य उवाच
योगभ्रष्टस्य को लोकः का गतिः किं
फलं भवेत् ।
विभो सर्वज्ञ मे छिन्धि संशयं
बुद्धिचक्रभृत् ॥२४ ॥
वरेण्य बोले- हे भगवन्! योगभ्रष्ट को
किस लोक की प्राप्ति होती है, उसकी क्या गति
होती है और क्या फल होता है ? हे सर्वज्ञ ! हे बुद्धिरूपी
चक्र को धारण करनेवाले ! मेरे इस सन्देह का छेदन कीजिये ॥ २४ ॥
श्रीगजानन उवाच
दिव्यदेहधरो योगाद्भ्रष्टः
स्वर्भोगमुत्तमम् ।
भुक्त्वा योगिकुले जन्म
लभेच्छुद्धिमतां कुले ॥२५ ॥
श्रीगणेशजी बोले - [ हे राजन् ! ]
योगभ्रष्ट पुरुष दिव्य देह धारणकर स्वर्ग में जाते हैं,
वहाँ उत्तम सुख भोगकर पुनः शुद्ध योगियों के कुल में जन्म लेते हैं
॥ २५ ॥
पुनर्योगी भवत्येष
संस्कारात्पूर्वकर्मजात् ।
न हि पुण्यकृतां कश्चिन्नरकं
प्रतिपद्यते ॥२६ ॥
और फिर पूर्व जन्मों के संस्कार से
यह योगी होता है। कोई भी पुण्यकर्म करनेवाला नरक को नहीं जाता ॥ २६ ॥
ज्ञाननिष्ठात्तपोनिष्ठात्कर्मनिष्ठान्नराधिप
।
श्रेष्ठो योगी श्रेष्ठतमो
भक्तिमान्मयि तेषु यः ॥२७ ॥
हे राजन् ! ज्ञाननिष्ठा से,
तप की निष्ठा से अथवा कर्मनिष्ठा से जो मुझमें भक्ति करता है,
वह अत्यन्त श्रेष्ठ योगी है ॥२७॥
॥ इति श्रीगणेशपुराणे
गजाननवरेण्यसंवादे गणेशगीतायां योगवृत्तिप्रशंसनं नाम पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 6
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