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गणेशगीता अध्याय ६

गणेशगीता अध्याय ६  

गणेशगीता के पुर्व अध्यायों में सांख्यसारार्थयोग, कर्मयोग, विज्ञानप्रतिपादन, वैधसंन्यासयोग, योगावृत्तिप्रशंसन को कहा गया है और अब अध्याय ६ में श्रीगणेशजी का राजा वरेण्य को अपने तात्त्विक स्वरूप का परिचय देना को बतलाया गया है।

गणेशगीता अध्याय ६

गणेशगीता छठा अध्याय

Ganesh geeta chapter 6

गणेश गीता अध्याय ६  

श्रीगणेशगीता

गणेशगीता षष्ठोऽध्यायः बुद्धियोगः

॥ श्रीगणेशगीता ॥

॥ षष्ठोऽध्यायः ॥

॥ बुद्धियोगः ॥

श्रीगजानन उवाच

ईदृशं विद्धि मे तत्त्वं मद्गतेनान्तरात्मना ।

यज्ज्ञात्वा मामसन्दिग्धं वेत्सि मोक्ष्यसि सर्वगम् ॥१ ॥

श्रीगणेशजी बोले - [ हे राजन्!] इस प्रकार मुझमें मन लगाकर मेरा वह तत्त्व जानो, जिसके जानने से मुझे सर्वगत और यथार्थ जानकर मुक्त हो जाओगे ॥ १ ॥

तत्तेऽहं शृणु वक्ष्यामि लोकानां हितकाम्यया ।

अस्ति ज्ञेयं यतो नान्यन्मुक्तेश्च साधनं नृप ॥२ ॥

हे राजन्! लोगों के ऊपर अनुग्रह की इच्छा से वह तत्त्व मैं तुमसे वर्णन करता हूँ, जिसके जानने से दूसरे मुक्ति के साधन जानने की आवश्यकता नहीं रहती ॥ २ ॥

ज्ञेया मत्प्रकृतिः पूर्वं ततः स्यां ज्ञानगोचरः ।

ततो विज्ञानसम्पत्तिर्मयि ज्ञाते नृणां भवेत् ॥३ ॥

प्रथम तो मेरी प्रकृति को जानना चाहिये, उससे ज्ञान प्राप्त होता है, इसके उपरान्त मेरा ज्ञान होने से प्राणियों को विज्ञान- सम्पत्ति की प्राप्ति होती है ॥ ३ ॥

क्वनलौ खमहङ्कारः कं चित्तं धीसमीरणौ ।

रवीन्दू यागकृच्चैकादशधा प्रकृतिर्मम ॥४ ॥

पृथ्वी, अग्नि, आकाश, अहंकार, जल, चित्त, बुद्धि, वायु, रवि, चन्द्र, यजमानयह ग्यारह प्रकार की मेरी (अपरा) प्रकृति है ॥ ४ ॥

अन्यां मत्प्रकृतिं वृद्धा मुनयः संगिरन्ति च ।

तथा त्रिविष्टपं व्याप्तं जीवत्वं गतयानया ॥५ ॥

और भी वृद्ध मुनिजन ऐसा वर्णन करते हैं कि आने- जानेवाली, जीवत्व को प्राप्त हुई तथा त्रिलोकी में व्याप्त भी मेरी दूसरी (परा) प्रकृति है ॥ ५ ॥

आभ्यामुत्पाद्यते सर्वं चराचरमयं जगत् ।

संगाद्विश्वस्य संभूतिः परित्राणं लयोऽप्यहम् ॥६ ॥

इन दोनों से ही समस्त चराचर जगत् उत्पन्न होता है और इस जगत्की उत्पत्ति, पालन और नाश का कर्ता मैं ही हूँ ॥ ६ ॥

तत्त्वमेतन्निबोद्धुं मे यतते कश्चिदेव हि ।

वर्णाश्रमवतां पुंसां पुरा चीर्णेन कर्मणा ॥७ ॥

मेरे इस तत्त्व को जानने के निमित्त वर्णाश्रमी पुरुषों में पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार कोई एक यत्न करता है ॥७॥

साक्षात्करोति मां कश्चिद्यत्नवत्स्वपि तेषु च ।

मत्तोऽन्यन्नेक्षते किंचिन्मयि सर्वं च वीक्षते ॥८ ॥

उन यत्नवानों में कोई एक मेरा साक्षात् करता है, मुझसे अन्य और किसी को नहीं देखता और मुझमें सम्पूर्ण जगत्को देखता है ॥ ८ ॥

क्षितौ सुगन्धरूपेण तेजोरूपेण चाग्निषु ।

प्रभारूपेण पूष्ण्यब्जे रसरूपेण चाप्सु च ॥९ ॥

धीतपोबलिनां चाहं धीस्तपोबलमेव च ।

त्रिविधेषु विकारेषु मदुत्पन्नेष्वहं स्थितः ॥१० ॥

पृथ्वी में सुगन्धिरूप से, अग्नि में तेजरूप से, सूर्य और चन्द्र में प्रभारूप से, जल में रसरूप से, बुद्धिमान्, तपस्वी एवं बलिष्ठों में बुद्धि, तप और बलरूप से और मुझसे ही उत्पन्न हुए तीन प्रकार के विकारों में मैं ही स्थित हूँ ॥९-१० ॥

न मां विन्दति पापीयान्मायामोहितचेतनः ।

त्रिविकारा मोहयति प्रकृतिर्मे जगत्त्रयम् ॥११ ॥

माया से मोहित चित्तवाले पापी मुझे नहीं जानते, तीन प्रकार के विकार (सत्, रज, तम) - वाली मेरी प्रकृति त्रिलोकी को मोहित करती रहती है ॥ ११ ॥

यो मे तत्त्वं विजानाति मोहं त्यजति सोऽखिलम् ।

अनेकैर्जन्मभिश्चैवं ज्ञात्वा मां मुच्यते ततः ॥१२ ॥

जो मेरे तत्त्व को जानता है, वह सम्पूर्ण मोह का त्याग करता है। और अनेक जन्मों में मुझे जानकर प्राणी मुक्त हो जाता है ॥ १२ ॥

अन्ये नानाविधान्देवान्भजन्ते तान्व्रजन्ति ते ।

यथा यथा मतिं कृत्वा भजते मां जनोऽखिलः ॥१३ ॥

तथा तथास्य तं भावं पूरयाम्यहमेव तम् ।

अहं सर्वं विजानामि मां न कश्चिद्विबुध्यते ॥१४ ॥

जो अनेक प्रकार के देवताओं का भजन करते हैं, वे उन्हीं को प्राप्त होते हैं। सम्पूर्ण मनुष्य जैसी जैसी मति करके मेरा भजन करते हैं, उसी प्रकार से मैं उनके भाव को पूर्ण करता हूँ। मैं सबको जानता हूँ, किंतु मुझे कोई पूरी तरह नहीं जानता ॥ १३-१४ ॥

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं न विदुः काममोहिताः ।

नाहं प्रकाशतां यामि अज्ञानां पापकर्मणाम् ॥१५ ॥

मुझ अव्यक्त व्यक्त स्वरूप को काम से मोहित दृष्टिवाले जानते, अज्ञानी और पापी पुरुषों के लिये मैं प्रकट नहीं होता हूँ ॥ १५ ॥

यः स्मृत्वा त्यजति प्राणमन्ते मां श्रद्धयान्वितः ।

स यात्यपुनरावृत्तिं प्रसादान्मम भूभुज ॥१६ ॥

जो अन्त समय में श्रद्धायुक्त होकर मेरा स्मरण करते हुए अपना शरीर त्याग करता है, हे राजन् ! वह मेरी कृपा से मुक्त हो जाता है ॥ १६ ॥

यं यं देवं स्मरन्भक्त्या त्यजति स्वं कलेवरम् ।

तत्तत्सालोक्यमायाति तत्तद्भक्त्या नराधिप ॥१७ ॥

भक्तिपूर्वक जिस-जिस देवता को स्मरण करता हुआ प्राणी अपने कलेवर का त्याग करता है, हे राजन् ! उनकी भक्ति करने से उन्हीं के लोक को प्राप्त होता है ॥ १७ ॥

अतश्चाहर्निशं भूप स्मर्तव्योऽनेकरूपवान् ।

सर्वेषामप्यहं गम्यः स्रोतसामर्णवो यथा ॥१८ ॥

इस कारण हे राजन् ! रात-दिन मेरे अनेक रूप स्मरण करने योग्य हैं, उन सबसे मैं ही उसी प्रकार प्राप्त होता हूँ, जैसे नदियों का जल सागर में ही जाता है ॥ १८ ॥

ब्रह्मविष्णुशिवेन्द्राद्याँल्लोकान्प्राप्य पुनः पतेत् ।

यो मामुपैत्यसंदिग्धः पतनं तस्य न क्वचित् ॥१९ ॥

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्रादि लोकों को प्राप्त होकर वह फिर संसार में जन्म लेता है, किंतु जो असन्दिग्ध होकर मुझको प्राप्त होता है, उसका फिर जन्म नहीं होता ॥ १९ ॥

अनन्यशरणो यो मां भक्त्या भजति भूमिप ।

योगक्षेमौ च तस्याहं सर्वदा प्रतिपादये ॥२० ॥

हे राजन्! जो अनन्यशरण होकर भक्ति से मेरा भजन करता है, मैं सदा उसके योगक्षेम (मंगल) का विधान करता हूँ ॥ २० ॥

विविधा गतिरुद्दिष्टा शुक्ला कृष्णा नृणां नृप ।

एकया परमं ब्रह्म परया याति संसृतिम् ॥ २१ ॥

हे राजन् ! मनुष्यों की कृष्ण और शुक्लपक्ष के भेद से अनेक गतियाँ हैं, एक से प्राणी संसार में आता है और दूसरी से परब्रह्म को प्राप्त होता है ॥ २१ ॥

॥ इति श्रीगणेशपुराणे गजाननवरेण्यसंवादे गणेशगीतायां बुद्धियोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 7

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