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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
श्रीयमुनाष्टक
श्रीवल्लभाचार्य विरचित इस श्रीयमुनाष्टक का जो नित्य पाठ करता है, उसके सारे पापों का नाश हो जाता है और उसे भगवान् श्रीकृष्ण प्रीति तथा समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होता है।
श्रीयमुनाष्टकम्
Shri Yamunaashtakam
श्रीयमुनाष्टक
यमुनाष्टकम्
श्रीयमुना अष्टकम्
नमामि यमुनामहं सकलसिद्धिहेतुं मुदा
मुरारिपदपङ्कजस्फुरदमन्दरेणूत्कटाम्
।
तटस्थनवकाननप्रकटमोदपुष्पाम्बुना
सुरासुरसुपूजितस्मरपितुः श्रियं
बिभ्रतीम् ॥ १॥
मैं सम्पूर्ण सिद्धियों की हेतुभूता
श्रीयमुनाजी को सानन्द नमस्कार करता हूँ, जो
भगवान् मुरारि के चरणारविन्दों की चमकीली और अमन्द महिमावाली धूल धारण करने से
अत्यन्त उत्कर्ष को प्राप्त हुई हैं और तटवर्ती नूतन काननों के सुगन्धित पुष्पों से
सुवासित जलराशि के द्वारा देवदानववन्दित प्रद्युम्नपिता भगवान् श्रीकृष्ण की श्याम
सुषमा को धारण करती हैं ॥ १ ॥
कलिन्दगिरिमस्तके
पतदमन्दपूरोज्ज्वला
विलासगमनोल्लसत्प्रकटगण्डशैलोन्नता
।
सघोषगतिदन्तुरा समधिरूढदोलोत्तमा
मुकुन्दरतिवर्धिनी जयति पद्मबन्धोः
सुता ॥ २॥
कलिन्दपर्वत के शिखर पर गिरती हुई
तीव्र वेगवाली जलधारा से जो अत्यन्त उज्ज्वल जान पड़ती हैं,
लीलाविलासपूर्वक चलने के कारण शोभायमान हैं, सामने
प्रकट हुई चट्टानों से जिनका प्रवाह कुछ ऊँचा हो जाता है, गम्भीर
गर्जनयुक्त गति के कारण जिनमें ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं और ऊँचे-नीचे प्रवाह के
द्वारा जो उत्तम झूले पर झूलती हुई- सी प्रतीत होती हैं, भगवान्
श्रीकृष्ण के प्रति प्रगाढ़ अनुराग की वृद्धि करनेवाली वे सूर्यसुता यमुना सर्वत्र
विजयिनी हो रही हैं ॥ २ ॥
भुवं भुवनपावनीमधिगतामनेकस्वनैः
प्रियाभिरिव सेवितां
शुकमयूरहंसादिभिः ।
तरङ्गभुजकङ्कणप्रकटमुक्तिकावालुकां
नितम्बतटसुन्दरीं नमत
कृष्णतुर्यप्रियाम् ॥ ३॥
जो इस भूतल पर पधारकर समस्त भुवन को
पवित्र कर रही हैं, शुक- मयूर और हंस
आदि पक्षी भाँति-भाँति के कलरवों द्वारा प्रिय सखियों की भाँति जिनकी सेवा कर रहे
हैं, जिनकी तरंगरूपी भुजाओं के कंगन में जड़े हुए मुक्तिरूपी
मोती के कण ही वालुका बनकर चमक रहे हैं तथा जो नितम्ब सदृश तटों के कारण अत्यन्त
सुन्दर जान पड़ती हैं, उन श्रीकृष्ण की चौथी पटरानी
श्रीयमुनाजी को नमस्कार करो ॥ ३ ॥
अनन्तगुण भूषिते
शिवविरञ्चिदेवस्तुते
घनाघननिभे सदा ध्रुवपराशराभीष्टदे ।
विशुद्धमथुरातटे सकलगोपगोपीवृते
कृपाजलधिसंश्रिते मम मनः सुखं भावय
॥ ४॥
देवि यमुने! तुम अनन्त गुणों से
विभूषित हो। शिव और ब्रह्मा आदि देवता तुम्हारी स्तुति करते हैं । मेघों की गम्भीर
घटा के समान तुम्हारी अंगकान्ति सदा श्याम है। ध्रुव और पराशर-जैसे भक्तजनों को
तुम अभीष्ट वस्तु प्रदान करनेवाली हो। तुम्हारे तट पर विशुद्ध मथुरापुरी सुशोभित
है । समस्त गोप और गोपसुन्दरियाँ तुम्हें घेरे रहती हैं। तुम करुणासागर भगवान्
श्रीकृष्ण के आश्रित हो । मेरे अन्तःकरण को सुखी बनाओ ॥ ४ ॥
यया चरणपद्मजा मुररिपोः
प्रियम्भावुका
समागमनतोऽभवत् सकलसिद्धिदा सेवताम्
।
तया सदृशतामियात् कमलजा सपत्नीव
यद्धरि-
प्रियकलिन्दया मनसि मे सदा स्थीयताम्
॥ ५॥
भगवान् विष्णु के चरणारविन्दों से
प्रकट हुई गंगा जिनसे मिलने के कारण ही भगवान् को प्रिय हुईं और अपने सेवकों के
लिये सम्पूर्ण सिद्धियों को देनेवाली हो सकीं, उन
यमुनाजी की समता केवल लक्ष्मीजी कर सकती हैं और वह भी एक सपत्नी के सदृश । ऐसी
महत्त्वशालिनी श्रीकृष्णप्रिया कलिन्दनन्दिनी यमुना सदा मेरे मन में निवास करें ॥
५ ॥
नमोऽस्तु यमुने सदा तव
चरित्रमत्यद्भुतं
न जातु यमयातना भवति ते पयः पानतः ।
योऽपि भगिनीसुतान् कथमु हन्ति
दुष्टानपि
प्रियो भवति सेवनात् तव हरेर्यथा
गोपिकाः ॥ ६ ॥
यमुने! तुम्हें सदा नमस्कार है।
तुम्हारा चरित्र अत्यन्त अद्भुत है। तुम्हारा जल पीने से कभी यमयातना नहीं भोगनी
पड़ती है। अपनी बहिन के पुत्र दुष्ट हों तो भी यमराज उन्हें कैसे मार सकते हैं।
तुम्हारी सेवा से मनुष्य गोपांगनाओं की भाँति श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण का प्रिय हो
जाता है ॥ ६॥
ममाऽस्तु तव सन्निधौ
तनुनवत्वमेतावता
न दुर्लभतमा रतिर्मुररिपौ
मुकुन्दप्रिये ।
अतोऽस्तु तव लालना सुरधुनी परं सङ्गमात्
तवैव
भुवि कीर्तिता न तु कदापि पुष्टिस्थितैः ॥ ७॥
श्रीकृष्णप्रिये यमुने! तुम्हारे
समीप मेरे शरीर का नवनिर्माण हो- मुझे नूतन शरीर धारण करने का अवसर मिले। इतने से
ही मुरारि श्रीकृष्ण प्रगाढ़ अनुराग दुर्लभ नहीं रह जाता,
अत: तुम्हारी अच्छी तरह स्तुति - प्रशंसा होती रहे- तुमको लाड़
लड़ाया जाय । तुमसे मिलने के कारण ही देवनदी गंगा इस भूतल पर उत्कृष्ट बतायी गयी
हैं; परंतु पुष्टिमार्गीय वैष्णवों ने तुम्हारे संगम के बिना
केवल गंगा की कभी स्तुति नहीं की है ॥ ७ ॥
स्तुतिं तव करोति कः
कमलजासपत्निप्रिये
हरेर्यदनुसेवया भवति सौख्यमामोक्षतः
।
इयं तव कथाऽधिका सकलगोपिकासङ्गमः ।
स्मरश्रमजलाणुभिः सकलगात्रजैः
सङ्गमः ॥ ८॥
लक्ष्मी की सपत्नी हरिप्रिये यमुने!
तुम्हारी स्तुति कौन कर सकता है ? भगवान् की
निरन्तर सेवा से मोक्षपर्यन्त सुख प्राप्त होता है, परंतु
तुम्हारे लिये विशेष महत्त्व की बात यह है कि तुम्हारे जल का सेवन करने से
सम्पूर्ण गोपसुन्दरियों के साथ श्रीकृष्ण के समागम से जो प्रेमलीलाजनित स्वेदजलकण
सम्पूर्ण अंगों से प्रकट होते हैं, उनका सम्पर्क सुलभ हो
जाता है ॥ ८ ॥
श्रीयमुनाष्टकम् फलश्रुति
तवाऽष्टकमिदं मुदा पठति सूरसूते सदा
समस्तदुरितक्षयो भवति वै मुकुन्दे
रतिः ।
तया सकलसिद्धयो मुररिपुश्च
सन्तुष्यति
स्वभावविजयो भवेद् वदति वल्लभः
श्रीहरेः ॥ ९॥
सूर्यकन्ये यमुने! जो तुम्हारी इस
आठ श्लोकों की स्तुति का प्रसन्नतापूर्वक सदा पाठ करता है,
उसके सारे पापों का नाश हो जाता है और उसे भगवान् श्रीकृष्ण का
प्रगाढ प्रेम प्राप्त होता है । इतना ही नहीं, सारी
सिद्धियाँ सुलभ हो जाती हैं, भगवान् श्रीकृष्ण सन्तुष्ट होते
हैं और स्वभाव पर भी विजय प्राप्त हो जाती है। यह श्रीहरि के वल्लभ का कथन है ॥ ९
॥
॥ इति श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचितं
श्रीयमुनाष्टकं सम्पूर्णम् ॥
॥ इस प्रकार श्रीमद्वल्लभाचार्यविरचित श्रीयमुनाष्टक सम्पूर्ण हुआ ॥
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