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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
गणेशगीता अध्याय ७
गणेशगीता के पुर्व अध्यायों में सांख्यसारार्थयोग,
कर्मयोग, विज्ञानप्रतिपादन, वैधसंन्यासयोग, योगावृत्तिप्रशंसन, बुद्धियोग को कहा
गया है और अब अध्याय ७ में श्रीगणेशजी का राजा वरेण्य से उपासना- योग का वर्णन
करना को बतलाया गया है।
गणेशगीता सातवाँ अध्याय
Ganesh geeta chapter 7
गणेश गीता अध्याय ७
श्रीगणेशगीता
गणेशगीता सप्तमोऽध्यायः उपासना योगः
॥ श्रीगणेशगीता ॥
॥ सप्तमोऽध्यायः ॥
॥ उपासना योगः ॥
वरेण्य उवाच
का शुक्ला गतिरुद्दिष्टा का च
कृष्णा गजानन ।
किं ब्रह्म संसृतिः का मे वक्तुमर्हस्यनुग्रहात्
॥१ ॥
वरेण्य बोले- हे गजानन ! शुक्लागति
और कृष्णागति किसको कहते हैं, ब्रह्म क्या
है और संसृति क्या है, यह सब आप मुझसे कृपाकर कहिये ॥ १ ॥
श्रीगजानन उवाच
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्ला
कर्मार्हमयनं गतिः ।
चान्द्रं ज्योतिस्तथा धूमो
रात्रिश्च दक्षिणायनम् ॥२ ॥
कृष्णैते ब्रह्मसंसृत्योरवाप्तेः
कारणं गती ।
दृश्यादृश्यमिदं सर्वं
ब्रह्मैवेत्यवधारय ॥३ ॥
श्रीगणेशजी बोले- अग्नि,
ज्योति और दिवास्वरूपा शुक्लागति होती है, जो
उत्तरायण है, चन्द्र, ज्योति, धूम और रात्रिस्वरूपा कृष्णागति दक्षिणायन कही गयी है। ये दोनों गतियाँ
कर्मानुसार जीवों को ब्रह्म और संसार की प्राप्ति में कारण हैं। यह सब दृश्य और अदृश्य
ब्रह्म ही है - ऐसा जानो ॥ २-३ ॥
क्षरं पञ्चात्मकं विद्धि
तदन्तरक्षरं स्मृतम् ।
उभाभ्यां यदतिक्रान्तं शुद्धं
विद्धि सनातनम् ॥४ ॥
पंचमहाभूतों को क्षर कहते हैं,
उसके अनन्तर अक्षर है, इन दोनों का अतिक्रमण कर
शुद्ध सनातन ब्रह्म को जानो ॥ ४ ॥
अनेकजन्मसंभूतिः संसृतिः
परिकीर्तिता ।
संसृतिं प्राप्नुवन्त्येते ये तु
मां गणयन्ति न ॥५ ॥
अनेक जन्मों की सम्भूति (आवागमन) को
संसृति कहते हैं, इस संसृति को वे
प्राप्त होते हैं, जो मुझे नहीं मानते ॥५॥
ये मां सम्यगुपासन्ते परं ब्रह्म
प्रयान्ति ते ।
ध्यानाद्यैरुपचारैर्मां तथा
पञ्चामृतादिभिः ॥६ ॥
जो ध्यान,
पूजन और पंचामृतादि उपचारों से सम्यक् प्रकार से मेरी उपासना करते
हैं, वे परब्रह्म को प्राप्त होते हैं ॥ ६ ॥
स्नानवस्त्राद्यलंकारसुगन्धधूपदीपकैः
।
नैवेद्यैः फलतांबूलैर्दक्षिणाभिश्च
योऽर्चयेत् ॥७ ॥
भक्त्यैकचेतसा चैव तस्येष्टं
पूरयाम्यहम् ।
एवं प्रतिदिनं भक्त्या मद्भक्तो मां
समर्चयेत् ॥८ ॥
स्नान,
वस्त्र, अलंकार, उत्तम
गन्ध, धूप, दीप, नैवेद्य,
फल, ताम्बूल, दक्षिणा आदि
से भक्तिपूर्वक एकचित्त से जो मेरी पूजा करता है, मैं उसके
मनोरथ को पूर्ण करता हूँ। इस प्रकार प्रतिदिन भक्तिपूर्वक मेरे भक्त को मेरी पूजा
करनी चाहिये ॥ ७-८ ॥
अथवा मानसीं पूजां कुर्वीत
स्थिरचेतसा ।
अथवा फलपत्राद्यैः पुष्पमूलजलादिभिः
॥९ ॥
पूजयेन्मां प्रयत्नेन तत्तदिष्टं
फलं लभेत् ।
त्रिविधास्वपि पूजासु श्रेयसी मानसी
मता ॥१० ॥
अथवा स्थिरचित्त से मानसीपूजा करे
अथवा फल,
पत्र, पुष्प, मूल,
जल आदि जो यत्नपूर्वक मेरी पूजा करता है, वह
इष्ट फल को प्राप्त करता है। तीनों प्रकार की पूजा में मानसी पूजा श्रेष्ठ है ॥
९-१० ॥
साप्युत्तमा मता पूजानिच्छया या
कृता मम ।
ब्रह्मचारी गृहस्थो वा वानप्रस्थो
यतिश्च यः ॥११ ॥
एकां पूजां प्रकुर्वाणोऽप्यन्यो वा
सिद्धिमृच्छति ।
मदन्यदेवं यो भक्त्या
द्विषन्मामन्यदेवताम् ॥१२ ॥
सोऽपि मामेव यजते परं त्वविधितो नृप
।
यो ह्यन्यदेवतां मां च
द्विषन्नन्यां समर्चयेत् ॥१३ ॥
याति कल्पसहस्रं स निरयान्दुःखभाक्
सदा ।
वह भी यदि कामनारहित होकर की जाय तो
अति उत्तम है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ अथवा
वानप्रस्थ या संन्यासी अथवा और कोई मेरी एक पूजा को करता है, वह सिद्धि को प्राप्त होता है। मुझे छोड़कर और मुझसे द्वेषकर जो अन्य किसी
देवता का भक्ति से पूजन करता है। है राजन्! वह भी मेरी ही पूजा करता है, किंतु विधिपूर्वक नहीं, जो अन्य देवता का अथवा मेरा
पूजन करके द्वेष करता है, वह सहस्र कल्पवर्षतक नरक में पड़कर
सदा दुःख भोगता है । ११ - १३अ ॥
भूतशुद्धिं विधायादौ प्राणानां
स्थापनं ततः ॥१४ ॥
आकृष्य चेतसो वृत्तिं ततो न्यासं
उपक्रमेत् ।
कृत्वान्तर्मातृकान्यासं बहिश्चाथ
षडङ्गकम् ॥१५ ॥
प्रथम भूतशुद्धि करके फिर प्राणायाम
करे। फिर चित्त की वृत्तियों का निरोध करके न्यास करे,
अन्तर्मातृकान्यास करके फिर बहिर्मातृकान्यास तथा षडंग न्यास करे ॥
१४-१५ ॥
न्यासं च मूलमन्त्रस्य ततो ध्यात्वा
जपेन्मनुम् ।
स्थिरचित्तो
जपेन्मन्त्रं यथा गुरुमुखागतम् ॥१६ ॥
इसके उपरान्त मूलमन्त्र का न्यास
करके ध्यान करे और स्थिरचित्त से गुरुमुख से सुने हुए मन्त्र का जप करे॥१६॥
जपं निवेद्य देवाय स्तुत्वा
स्तोत्रैरनेकधा ।
एवं मां य उपासीत स
लभेन्मोक्षमव्ययम् ॥१७ ॥
फिर देवता के निमित्त जप को निवेदन कर
अनेक प्रकार से स्तोत्र का पाठ करे, इस
प्रकार से जो मेरी उपासना करता है, वह सनातनी मुक्ति को प्राप्त
होता है ॥ १७ ॥
य उपासनया हीनो धिङ्नरो व्यर्थजन्मभाक्
।
यज्ञोऽहमौषधं मन्रोऽग्निराज्यं च
हविर्हुतम् ॥१८ ॥
जो मनुष्य उपासना से हीन है,
उसे धिक्कार है और उसका जन्म वृथा है । यज्ञ, औषध,
मन्त्र, अग्नि, आज्य,
हवि और हुत-सब मेरा ही स्वरूप है ॥ १८ ॥
ध्यानं ध्येयं स्तुतिं स्तोत्रं
नतिर्भक्तिरुपासना ।
त्रयीज्ञेयं पवित्रं च
पितामहपितामहः ॥१९ ॥
ध्यान,
ध्येय, स्तुति, स्तोत्र,
नमस्कार, भक्ति, उपासना,
वेदत्रयी से जाननेयोग्य, पवित्र, पितामह का पितामह-सब मैं ही हूँ ॥ १९ ॥
ॐकारः पावनः साक्षी प्रभुर्मित्रं
गतिर्लयः ।
उत्पत्तिः पोषको बीजं शरणं वास एव च
॥२० ॥
असन्मृत्युः सदमृतमात्मा
ब्रह्माहमेव च ।
दानं होमस्तपो भक्तिर्जपः स्वाध्याय
एव च ॥२१ ॥
ओंकार,
पावन, साक्षी, प्रभु,
मित्र, गति, लय, उत्पत्ति, पोषक, बीज, शरण, इसी प्रकार असत्, सत्,
मृत्यु, अमृत, आत्मा,
ब्रह्म, दान, होम,
तप, भक्ति, जप, स्वाध्याय - यह सब मैं ही हूँ ॥ २०-२१ ॥
यद्यत्करोति तत्सर्वं स मे मयि
निवेदयेत् ।
योषितोऽथ दुराचाराः
पापास्त्रैवर्णिकास्तथा ॥२२ ॥
मदाश्रया विमुच्यन्ते किं
मद्भक्त्या द्विजादयः ।
न विनश्यति मद्भक्तो ज्ञात्वेमा
मद्विभूतयः ॥२३ ॥
यह जो कुछ भी करे,
सब मुझे निवेदन कर दे। मेरा आश्रय करनेवाले स्त्री, दुराचारी, पापी, क्षत्रिय -
वैश्य शूद्रादि भी मुक्त हो जाते हैं, फिर मेरे भक्त
द्विजाति की तो बात ही क्या है ? मेरा भक्त मेरी इन
विभूतियों को जानकर कभी नष्ट नहीं होता ॥ २२-२३ ॥
प्रभवं मे विभूतिश्च न देवा ऋषयो
विदुः ।
नानाविभूतिभिरहं व्याप्य विश्वं
प्रतिष्ठितः ॥२४ ॥
यद्यच्छ्रेष्ठतमं लोके स
विभूतिर्निबोध मे ॥२५ ॥
मेरे प्रभव (उत्पत्ति) और मेरी
विभूतियों को देवता और ऋषि भी नहीं जानते। मैं अनेक विभूतियों से विश्व में
व्याप्त होकर स्थित हूँ। जो-जो इस लोक में श्रेष्ठतम हैं,
वे सब मेरी विभूति हैं - ऐसा समझो ॥ २४-२५ ॥
॥ इति श्रीगणेशपुराणे
गजाननवरेण्यसंवादे गणेशगीतायां उपासनायोगो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥
आगे जारी........गणेशगीता अध्याय 8
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