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कर्मकाण्ड

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मणिकर्णिकाष्टक

मणिकर्णिकाष्टक

शंकराचार्यविरचित इस श्रीमणिकर्णिकाष्टक स्तोत्र का मणिकर्णिका में स्नान कर पाठ करने से सभी पापों का नाश होता है तथा अक्षय पुण्य प्राप्त होता है और अंत में उसे दिव्यलोक प्राप्त होता है । 

श्रीमणिकर्णिकाष्टकम्

श्रीमणिकर्णिकाष्टकम्

Shri Manikarnika Ashtak

श्रीमणिकर्णिका अष्टकम्

मणिकर्णिका अष्टक

।। श्री मणिकर्णिकाष्टकम् ।।

त्वत्तीरे मणिकर्णिके हरिहरौ सायुज्यमुक्तिप्रदौ

           वादं तौ कुरुतः परस्परमुभौ जन्तोः प्रयाणोत्सवे।

मद्रूपो मनुजोऽयमस्तु हरिणा प्रोक्तः शवस्तत्क्षणात्

           तन्मध्याद् भृगुलाञ्छनो गरुडगः पीताम्बरो निर्गतः ॥१॥

हे मणिकर्णिके ! आपके तट पर भगवान् विष्णु और शिव सायुज्य-मुक्ति प्रदान करते हैं। [एक बार] जीव के महाप्रयाण के समय वे दोनों [उस जीव को अपने-अपने लोक ले जाने के लिये] आपस में स्पर्धा कर रहे थे । भगवान् विष्णु शिवजी से बोले कि यह मनुष्य अब मेरा स्वरूप हो चुका है। उनके ऐसा कहते ही वह जीव उसी क्षण भृगु के पद-चिह्नों से सुशोभित वक्षःस्थल वाला तथा पीताम्बरधारी होकर गरुड़ पर सवार हो उन दोनों के बीच से निकल गया ।

इन्द्राद्यास्त्रिदशाः पतन्ति नियतं भोगक्षये ते पुन-

           र्जायन्ते मनुजास्ततोऽपि पशवः कीटाः पतङ्गादयः ।

ये मातर्मणिकर्णिके तव जले मज्जन्ति निष्कल्मषाः

           सायुज्येऽपि किरीटकौस्तुभधरा नारायणाः स्युर्नराः ॥२॥

इन्द्र आदि देवतागणों का भी यथासमय पतन होता है।पूर्ण हो जाने पर वे पुनः मनुष्ययोनि में उत्पन्न होते हैं और उसके बाद भी पशु-कीट-पतंग आदि के रूप में जन्म लेते हैं; किंतु हे माता मणिकर्णिके ! जो मनुष्य आपके जल में स्नान करते हैं, वे निष्पाप हो जाते हैं और सायुज्य-मुक्ति हो जाने पर किरीट तथा कौस्तुभधारी साक्षात् नारायणरूप हो जाते हैं ।

काशी धन्यतमा विमुक्तिनगरी सालङ्कृता गङ्गया

           तत्रेयं मणिकर्णिका सुखकरी मुक्तिर्हि तत्किङ्करी ।

स्वर्लोकस्तुलितः सहैव विबुधैः काश्या समं ब्रह्मणा

           काशी क्षोणितले स्थिता गुरुतरा स्वर्गो लघुः खे गतः ॥३॥

गंगा से अलंकृत विमुक्तिनगरी काशी परम धन्य है। उस काशी में यह मणिकर्णिका परमानन्द प्रदान करने वाली है; मुक्ति तो निश्चितरूप से उसकी दासी है। ब्रह्माजी जब काशी को और सभी देवताओं सहित स्वर्ग को तौलने लगे तब काशी [स्वर्ग की तुलना में] भारी पड़ने के कारण पृथ्वीतल पर स्थित हो गयी और स्वर्ग हलका पड़ने के कारण आकाश में चला गया ।

गङ्गातीरमनुत्तमं हि सकलं तत्रापि काश्युत्तमा

           तस्यां सा मणिकर्णिकोत्तमतमा यत्रेश्वरो मुक्तिदः ।

देवानामपि दुर्लभं स्थलमिदं पापौघनाशक्षमं

           पूर्वोपार्जितपुण्यपुञ्जगमकं पुण्यैर्जनैः प्राप्यते ॥४॥

गंगा के सम्पूर्ण तट अत्युत्तम हैं; किंतु उनमें काशी सर्वोत्तम है। उस काशी में वह मणिकर्णिका उत्तमोत्तम है, जहाँ मुक्ति प्रदान करने वाले साक्षात् भगवान् विश्वनाथ विराजते हैं। सम्पूर्ण पापों का नाश करने में समर्थ यह स्थल देवताओं के लिये भी दुर्लभ है। पूर्वजन्म में अर्जित किये गये पुण्यसमूह की प्रतीति कराने वाला यह स्थान पुण्यशाली लोगों को ही सुलभ हो पाता है ।

दुःखाम्भोनिधिमग्नजन्तुनिवहास्ते- षा कथं निष्कृति

          र्ज्ञात्वैतद्धि विरञ्चिना विरचिता वाराणसी शर्मदा ।

लोकाः स्वर्गमुखास्ततोऽपि लघवो भोगान्तपातप्रदाः

           काशी मुक्तिपुरी सदा शिवकरी धर्मार्थकामोत्तरा ॥५॥

दुःख-सागर में डूबे हुए जो प्राणिसमूह हैं उनका उद्धार कैसे हो सकेगा, यह विचार करके ब्रह्माजी ने कल्याणदायिनी वाराणसीपुरी का निर्माण किया। स्वर्ग आदि प्रधान लोक भोग के पूर्ण जाने के पश्चात् पतन की प्राप्ति कराने के कारण उस काशी से बहुत छोटे हैं। यह काशी सदा मुक्ति प्रदान करने वाली तथा कल्याण करने वाली है। यह धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थचतुष्टय प्रदान करती है ।

एको वेणुधरो धराधरधरः श्रीवत्सभूषाधरो

        यो ह्येकः किल शङ्करो विषधरो गङ्गाधरो माधरः।

ये मातर्मणिकर्णिके तव जले मज्जन्ति ते मानवा

         रुद्रा वा हरयो भवन्ति बहवस्तेषां बहुत्वं कथम् ॥६॥

मुरलीधारण करने वाले, गोवर्धनपर्वत धारण करने वाले तथा वक्षःस्थल पर श्रीवत्सचिह्न धारण करने वाले विष्णु एक ही हैं,उसी प्रकार कण्ठ में विष धारण करने वाले, अपनी जटा में गंगा को धारण करने वाले और अर्द्धग में उमा को धारण करने वाले जो भगवान् शंकर हैं, वे भी एक ही हैं; किंतु हे माता मणिकर्णिके ! जो मनुष्य आपके जल में अवगाहन करते हैं, वे सभी रुद्र तथा विष्णुस्वरूप हो जाते हैं, उनके बहुत्व के विषय में क्या कहा जाय ।

त्वत्तीरे मरणं तु मङ्गलकरं देवैरपि श्लाघ्यते

          शक्रस्तं मनुजं सहस्रनयनैर्द्रष्टुं सदा तत्परः ।

आयान्तं सविता सहस्रकिरणैः प्रत्युद्गतोऽभूत्सदा

          पुण्योऽसौ वृषगोऽथवा गरुडगः किं मन्दिरं यास्यति ॥७॥

[हे मातः! ] आपके तट पर होने वाली मंगलकारी मृत्यु की तो देवता भी सराहना करते हैं। देवराज इन्द्र अपने हजार नेत्रों से उस मनुष्य का दर्शन करने के लिये सदा लालायित रहते हैं। सूर्यदेव भी उस जीव को आता हुआ देखकर अपनी हजार किरणों से उसके सम्मान के लिये सदा उसकी ओर बढ़ते हैं। [यह देखकर देवतागण सोचते हैं कि] वृषभ पर सवार होकर अथवा गरुड़ पर आसीन होकर यह पुण्यात्मा जीव [कैलास अथवा वैकुण्ठ] न जाने किस लोक में जायगा?

मध्याह्ने मणिकर्णिकास्नपनजं पुण्यं न वक्तुं क्षमः

           स्वीयैः शब्दशतैश्चतुर्मुखसुरो वेदार्थदीक्षागुरुः ।

 योगाभ्यासबलेन चन्द्रशिखरस्तत्पुण्यपारं गत-

           स्त्वत्तीरे प्रकरोति सुप्तपुरुषं नारायणं वा शिवम् ॥८॥

वेदार्थतत्त्व की दीक्षा देने वाले गुरुस्वरूप चतुर्मुख ब्रह्मदेव अपने सैकड़ों शब्दों से भी मध्याह्नकाल में मणिकर्णिका के स्नानजन्य पुण्य का वर्णन करने में समर्थ नहीं हैं। केवल चन्द्रमौलि भगवान् शिव अपने योगाभ्यास के बल से उस पुण्य को जानते हैं तथा [हे माता!] वे ही आपके तट पर मृत्यु को प्राप्त पुरुष को साक्षात् नारायण अथवा शिव बना देते हैं ।

श्रीमणिकर्णिकाष्टकम् महात्म्य

कृच्छ्रै: कोटिशतैः स्वपापनिधनं यच्चाश्वमेधैः फलं

           तत्सर्वं मणिकर्णिकास्नपनजे पुण्ये प्रविष्टं भवेत् ।

स्नात्वा स्तोत्रमिदं नरः पठति चेत्संसारपाथोनिधिं

          तीर्त्वा पल्वलवत्प्रयाति सदनं तेजोमयं ब्रह्मणः ॥९॥

करोड़ों-करोड़ों कृच्छ्र आदि प्रायश्चित्त व्रतों से जो पाप का नाश होता है तथा अश्वमेधयज्ञों से जो फल प्राप्त होता है, वह सब मणिकर्णिका में स्नान करने से प्राप्त पुण्य में समाविष्ट हो जाता है। यदि मनुष्य [वहाँ] स्नान करके इस स्तोत्र का पाठ करे तो वह संसारसागर को एक छोटे-से तालाब की भाँति पार करके तेजोमय ब्रह्मलोक में पहुँच जाता है ।

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचायस्य श्रीगोविदभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छकरभगवत कृतौ मणिकर्णिकाष्टक संपूर्णम् ।।

॥ इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्यविरचित श्रीमणिकर्णिकाष्टकसम्पूर्ण हुआ ॥

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