काशीपञ्चकम्
श्रीमत्
शंकराचार्य जी द्वारा विरचित इस स्तोत्र में पञ्च श्लोक हैं । काशी भगवान् शिव की
काया है एवं जगत् के लिए ज्ञान का प्रकाश स्तम्भ है । यह समग्र जगत् काशी से ही
प्रकाशित है । जो उपासक इस काशीपञ्चकम् का पाठ करता है उसे समस्त तीर्थों के सेवन
का फल प्राप्त होता है और पञ्चक्लेशों की शान्ति तथा अपरिमित आनन्द की प्राप्ति होती
है।
काशीपञ्चकम्
Kaashi panchakam
काशी पंचकम् स्तोत्र
मनोनिवृत्तिः
परमोपशान्तिः
सा तीर्थवर्या
मणिकर्णिका च ।
ज्ञानप्रवाहा
विमलादिगङ्गा
सा काशिकाऽहं
निजबोधरूपा ॥१॥
जहाँ
मनोवृत्ति आत्यन्तिक रूप से निरुद्ध होकर परम शान्ति का साधन बन जाती है,
वह मणिकर्णिका समस्त तीर्थों में श्रेष्ठ [काशी का हृदय]
है। [काशीमाता कहती हैं- ] जहाँ विमल ज्ञानगंगा का आदिकाल से प्रवाह चला आ रहा है,
वह आत्मबोधरूपा काशी मैं हूँ ।
यस्यामिदं
कल्पितमिन्द्रजालं
चराचरं भाति
मनोविलासम् ।
सच्चित्सुखैका
परमात्मरूपा
सा काशिकाऽहं
निजबोधरूपा ॥२॥
जिस
(विज्ञानमयीकाशी)-में यह चराचर सृष्टिरूप प्रपंच कल्पित इन्द्रजाल तथा मनोराज्य के
समान [मिथ्यारूप] प्रतीत होता है, अद्वितीय सत्-चित्-आनन्दस्वरूपा तथा परमात्मरूपा वह
आत्मबोधरूपा काशी मैं हूँ ।
कोशेषु
पञ्चस्वधिराजमाना
बुद्धिर्भवानी
प्रतिदेहगेहम् ।
साक्षी शिव:
सर्वगतोऽन्तरात्मा
सा काशिकाऽहं
निजबोधरूपा ॥३॥
पंचकोशों में
अधिष्ठानरूप से विराजमान तथा जहाँ प्रत्येक देह में भवानी बुद्धिरूप में
प्रतिष्ठित हैं और भगवान् शिव सबके साक्षी रूप से सभी प्राणियों के हृदय स्थल में
विराजमान रहते हैं, वह आत्मबोध रूपा काशी मैं हूं ।
काश्यां हि
काशते काशी
काशी
सर्वप्रकाशिका ।
सा काशी
विदिता येन
तेन प्राप्ता
हि काशिका ॥४॥
काशी में ही
सब कुछ प्रकाशित होता है, काशी ही सबको प्रकाशित करने वाली है,
उस आत्मप्रकाशस्वरूपा काशी को जिसने जान लिया,
उसने ही सचमुच काशी को प्राप्त किया ।
काशीक्षेत्रं
शरीरं त्रिभुवनजननी व्यापिनी ज्ञानगङ्गा
भक्तिः
श्रद्धा गयेयं निजगुरुचरणध्यानयोगः प्रयागः ।
विश्वेशोऽयं
तुरीयः सकलजनमनः साक्षिभूतोऽन्तरात्मा
देहे सर्वं
मदीये यदि वसति पुनस्तीर्थमन्यत्किमस्ति ॥५॥
मेरा शरीर ही
काशीक्षेत्र है, मेरा चैतन्य (ज्ञान) त्रिभुवनजननी सर्वव्यापिनी गंगा है। मेरी यह भक्ति और
श्रद्धा गयातीर्थ है तथा गुरुचरणों में ध्यान लगाना ही प्रयागराज है। मेरी आत्मा
ही भगवान् विश्वनाथ हैं, जो सभी प्राणियों के अन्तरात्मा तथा चित्त के साक्षी हैं।
जब मेरे देह में ही इन सबका निवास है, तब अन्य तीर्थों से क्या प्रयोजन ?
॥ इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्यविरचित “काशीपञ्चकम्” सम्पूर्ण हुआ ॥
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