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कर्मकाण्ड

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नारायण मंत्र स्तोत्र

नारायण मंत्र स्तोत्र

श्रीनरसिंहपुराण अध्याय १७ में वर्णित श्रीवेदव्यासरचित नारायण अष्टाक्षर मंत्र माहात्म्य स्तोत्र का पाठ करनेवाला मनुष्य आयु, धन, पुत्र, पशु, विद्या, महान् यश एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है ।

नारायण अष्टाक्षर मंत्र माहात्म्य स्तोत्रम्

नारायण अष्टाक्षर मंत्र माहात्म्य स्तोत्रम्

Narayan mantra stotra

नारायण अष्टाक्षर मंत्र माहात्म्यम्

नारायण मंत्र स्तोत्र

नारायण अष्टाक्षरमंत्र स्तोत्र

श्रीशुक उवाच

किं जपन् मुच्यते तात सततं विष्णुतत्परः ।

संसारदुःखात् सर्वेषां हिताय वद मे पितः ॥१॥

श्रीशुकदेवजी बोले - तात ! पिताजी ! मनुष्य सदा भगवान् विष्णु के भजन में तत्पर रहकर किस मन्त्र का जप करने से सांसारिक कष्ट से मुक्त होता है ? यह मुझे बताइये । इससे सब लोगों का हित होगा ॥१॥

व्यास उवाच

अष्टाक्षरं प्रवक्ष्यामि मन्त्राणां मन्त्रमुत्तमम् ।

यं जपन् मुच्यते मर्त्यो जन्मसंसारबन्धनात् ॥२॥

श्रीव्यासजी बोले - बेटा ! मैं तुम्हें सभी मन्त्रों में उत्तम अष्टाक्षरमन्त्र बतलाऊँगा, जिसका जप करनेवाला मनुष्य जन्म और मृत्यु से युक्त संसाररुपी बन्धन से मुक्त हो जाता है ॥२॥

हत्पुण्डरीकमध्यस्थं शङ्खचक्रगदाधरम् ।

एकाग्रमनसा ध्यात्वा विष्णुं कुर्याज्जपं द्विजः ॥३॥

द्विज को चाहिये कि अपने हदय- कमल के मध्यभाग में शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णु का एकाग्रचित्त से ध्यान करते हुए जप करे ॥३ ॥  

एकान्ते निर्जनस्थाने विष्णवग्रे वा जलान्तिके ।

जपेदष्टाक्षरं मन्त्रं चित्ते विष्णुं निधाय वै ॥४॥

एकान्त, जनशून्य स्थान में, श्रीविष्णुमूर्ति के सम्मुख अथवा जलाशय के निकट मन में भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए अष्टाक्षरमन्त्र का जप करना चाहिये ॥ ४ ॥  

अष्टाक्षरस्य मन्त्रस्य ऋषिर्नारायणः स्वयम् ।

छन्दश्च दैवी गायत्री परमात्मा च देवता ॥५॥

शुक्लवर्णं च ॐकारं नकारं रक्तमुच्यते ।

मोकारं वर्णतः कृष्णं नाकारं रक्तमुच्यते ॥६॥

राकारं कुङ्कुमाभं तु यकारं पीतमुच्यते ।

णाकारमञ्जनाभं तु यकारं बहुवर्णकम् ॥७॥

साक्षात् भगवान् नारायण ही अष्टाक्षरमन्त्र के ऋषि हैं, देवी गायत्री छन्द है, परमात्मा देवता हैं, ॐकार शुक्लवर्ण है, '' रक्तवर्ण है, 'मो' कृष्णवर्ण है, 'ना' रक्त है, 'रा' कुङ्कुम- रंग का है, '' पीतवर्ण का है, 'णा' अञ्जन के समान कृष्णवर्णवाला है और '' विविध वर्णो से युक्त है ॥५– ७॥

ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रः सर्वार्थसाधकः ।

भक्तानां जपतां तात स्वर्गमोक्षफलप्रदः ।

वेदानां प्रणवेनैष सिद्धो मन्त्रः सनातनः ॥८॥

तात ! यह 'ॐ नमो नारायणाय' मन्त्र समस्त प्रयोजनों का साधक है और भक्तिपूर्वक जप करनेवाले लोगों को स्वर्ग तथा मोक्षरुप फल देनेवाला है। यह सनातन मन्त्र वेदों के प्रणव ( सारभूत अक्षरों )से सिद्ध होता है ॥८॥

सर्वपापहरः श्रीमान् सर्वमन्त्रेषु चोत्तमः ।

एनमष्टाक्षरं मन्त्रं जपन्नारायणं स्मरेत् ॥९॥

संध्यावसाने सततं सर्वपापैः प्रमुच्यते ।

एष एव परो मन्त्र एष एव परं तपः ॥१०॥

यह सभी मन्त्रों में उत्तम, श्रीसम्पन्न और सम्पूर्ण पापों को नष्ट करनेवाला है । जो सदा संध्या के अन्त में इस अष्टाक्षरमन्त्र का जप करता है, वह सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है । यही उत्तम मन्त्र है और यही उत्तम तपस्या है॥९-१०॥

एष एव परो मोक्ष एष स्वर्ग उदाहतः ।

सर्ववेदरहस्येभ्यः सार एष समुद्धतः ॥११॥

विष्णुना वैष्णवानां हि हिताय मनुजां पुरा ।

एवं ज्ञात्वा ततो विप्रो ह्यष्टाक्षरमिमं स्मरेत् ॥१२॥

यही उत्तम मोक्ष तथा यही स्वर्ग कहा गया है । पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने वैष्णवजनों के हित के लिये सम्पूर्ण वेदरहस्यों से यह सारभूत मन्त्र निकला है । इस प्रकार जानकर ब्राह्मण को चाहिये कि इस अष्टाक्षर- मन्त्र का स्मरण (जप) करे ॥११ - १२॥

स्नात्वा शुचिः शुचौ देशे जपेत् पापविशुद्धये ।

जपे दाने च होमे च गमने ध्यानपर्वसु ॥१३॥

जपेन्नारायणं मन्त्रं कर्मपूर्वे परे तथा ।

जपेत्सहस्रं नियुतं शुचिर्भूत्वा समाहितः ॥१४॥

मासि मासि तु द्वादश्यां विष्णुभक्तो द्विजोत्तमः ।

स्नान करके, पवित्र होकर, शुद्ध स्थान में बैठकर पापशुद्धि के लिये इस मन्त्र का जप करना चाहिये । जप, दान, होम, गमन, ध्यान तथा पर्व के अवसर पर और किसी कर्म के पहले तथा पश्चात् इस नारायण- मन्त्र का जप करना चाहिये । भगवान् विष्णु के भक्तश्रेष्ठ द्विज को चाहिये कि वह प्रत्येक मास की द्वादशी तिथि को पवित्र – भाव से एकाग्रचित्त होकर सहस्त्र या लक्ष मन्त्र का जप करे ॥१३ – १४अ॥

स्रात्वा शुचिर्जपेद्यस्तु नमो नारायणं शतम् ॥१५॥

स गच्छेत् परमं देवं नारायणमनामयम् ।

गन्धपुष्पादिभिर्विष्णुमनेनाराध्य यो जपेत् ॥१६॥

महापातकयुक्तोऽपि मुच्यते नात्र संशयः ।

हदि कृत्वा हरि देवं मन्त्रमेनं तु यो जपेत् ॥१७॥

सर्वपापविशुद्धात्मा स गच्छेत् परमां गतिम् ।

स्नान करके पवित्रभाव से जो 'ॐ नमो नारायणाय' मन्त्र का सौ (एक सौ आठ) बार जप करता है, वह निरामय परमदेव भगवान् नारायण को प्राप्त करता है । जो इस मन्त्र के द्वारा गन्ध - पुष्प आदि से भगवान् विष्णु की आराधना करके इसका जप करता है, वह महापातक से युक्त होने पर भी निस्संदेह मुक्त हो जाता है । जो हदय में भगवान् विष्णु का ध्यान करते हुए इस मन्त्र का जप करता है, वह समस्त पापों से विशुद्धचित्त होकर उत्तम गति को प्राप्त करता है ॥१५- १७अ॥

प्रथमेन तु लक्षेण आत्मशुद्धिर्भविष्यति ॥१८॥

द्वितीयेन तु लक्षेण मनुसिद्धिमवाप्नुयात् ।

तृतीयेन तु लक्षेण स्वर्गलोकमवाप्नुयात् ॥१९॥

चतुर्थेन तु लक्षेण हरेः सामीप्यमाप्नुयात् ।

पञ्चमेन तु लक्षेण निर्मलं ज्ञानमाप्नुयात् ॥२०॥

एक लक्ष मन्त्र का जप करने से चित्तशुद्धि होती है, दो लक्ष के जप से मन्त्र की सिद्धि होती है, तीन लक्ष के जप से मनुष्य स्वर्गलोक प्राप्त कर सकता है, चार लक्ष से भगवान् विष्णु की समीपता प्राप्त होती है और पाँच लक्ष से निर्मल ज्ञान की प्राप्ति होती है ॥१८- २०॥

तथा षष्ठेन लक्षेण भवेद्विष्णौ स्थिरा मतिः ।

सप्तमेन तु लक्षेण स्वरुपं प्रतिपद्यते ॥२१॥

अष्टमेन तु लक्षेण निर्वाणमधिगच्छति ।

स्वस्वधर्मसमायुक्तो जपं कुर्याद् द्विजोत्तमः ॥२२॥

इसी प्रकार छः लक्ष से भगवान् विष्णु में चित्त स्थिर होता है, सात लक्ष से भगवत्स्वरुप का ज्ञान होता है और आठ लक्ष से पुरुष निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। द्विजमात्र को चाहिये कि अपने- अपने धर्म से युक्त रहकर इस मन्त्र का जप करे  ॥२१-२२॥

एतत् सिद्धिकरं मन्त्रमष्टाक्षरमतन्द्रितः ।

दुःस्वप्नासुरपैशाचा उरगा ब्रह्मराक्षसाः ॥२३॥

जापिनं नोपसर्पन्ति चौरक्षुद्राधयस्तथा ।

यह अष्टाक्षरमन्त्र सिद्धिदायक है । आलस्य त्यागकर इसका जप करना चाहिये । इसे जप करनेवाले पुरुष के पास दुःस्वप्न, असुर, पिशाच, सर्प, ब्रह्मराक्षस, चोर और छोटी - मोटी मानसिक व्याधियाँ भी नहीं फटकती हैं॥२३अ॥

एकाग्रमनसाव्यग्रो विष्णुभक्तो दृढव्रतः ॥२४॥

जपेन्नारायणं मन्त्रमेतन्मृत्युभयापहम् ।

मन्त्राणां परमो मन्त्रो देवतानां च दैवतम् ॥२५॥

विष्णुभक्त को चाहिये कि वह दृढ़संकल्प एवं स्वस्थ होकर एकाग्रचित्त से इस नारायण- मन्त्र का जप करे । यह मृत्यु भय का नाश करनेवाला है । मन्त्रों में सबसे उत्कृष्ट मन्त्र और देवताओं का भी देवता (आराध्य) है ॥२४-२५॥

गुह्यानां परमं गुह्यमोंकाराद्यक्षराष्टकम् ।

आयुष्यं धनपुत्रांश्च पशून् विद्यां महद्यशः ॥२६॥

धर्मार्थकाममोक्षांश्च लभते च जपन्नरः ।

एतत् सत्यं च धर्म्यं च वेदश्रुतिनिदर्शनात् ॥२७॥

यह ॐकारादि अष्टाक्षर- मन्त्र गोपनीय वस्तुओं में परम गोपनीय है । इसका जप करनेवाला मनुष्य आयु, धन, पुत्र, पशु, विद्या, महान् यश एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को भी प्राप्त कर लेता है । यह वेदों और श्रुतियों के कथनानुसार धर्मसम्मत तथा सत्य है॥२६- २७॥

एतत् सिद्धिकरं नृणां मन्त्ररुपं न संशयः ।

ऋषयः पितरो देवाः सिद्धास्त्वसुरराक्षसाः ॥२८॥

एतदेव परं जप्त्वा परां सिद्धिमितो गताः ।

ज्ञात्वा यस्त्वात्मनः कालं शास्त्रान्तरविधानतः ।

अन्तकाले जपन्नेति तद्विष्णोः परमं पदम् ॥२९॥

इसमें कोई संदेह नहीं कि ये मन्त्ररुपी नारायण मनुष्यों को सिद्धि देनेवाले हैं । ऋषि, पितृगण, देवता, सिद्ध, असुर और राक्षस इसी परम उत्तम मन्त्र का जप करके परम सिद्धि को प्राप्त हुए हैं । जो ज्यौतिष आदि अन्य शास्त्रों के विधान से अपना अन्तकाल निकट जानकर इस मन्त्र का जप करता है, वह भगवान् विष्णु के प्रसिद्ध परमपद को प्राप्त होता है ॥२८- २९॥

नारायणाय नम इत्ययमेव सत्यं

संसारघोरविषसंहरणाय मन्त्रः ।

श्रृण्वन्तु भव्यमतयो मुदितास्त्वरागा

उच्चैस्तरामुपदिशाम्यहमूर्ध्वबाहुः ॥३०॥

भूत्वोर्ध्वबाहुरद्याहं सत्यपूर्वं ब्रवीम्यहम् ।

हे पुत्र शिष्याः श्रृणुत न मन्त्रोऽष्टाक्षरात्परः ॥३१॥

भव्य बुद्धिवाले विरक्त पुरुष प्रसन्नतापूर्वक मेरी बात सुनें - मैं दोनों भुजाएँ ऊपर उठाकर उच्चस्वर से यह उपदेश देता हूँ कि ''संसाररुपी सर्प के भयानक विष का नाश करने के लिये यह 'ॐ नारायणाय नमः' मन्त्र ही सत्य (अमोघ) औषध है'' । पुत्र और शिष्यो ! सुनो- आज मैं दोनों बाँहें ऊपर उठाकर सत्यपूर्वक कह रहा हूँ कि 'अष्टाक्षरमन्त्र' से बढ़कर दूसरा कोई मन्त्र नहीं है॥३०-३१॥

सत्यं सत्यं पुनः सत्यमुत्क्षिप्य भुजमुच्यते ।

वेदाच्छास्त्रं परं नास्ति न देवः केशवात् परः ॥३२॥

मैं भुजाओं को ऊपर उठाकर सत्य, सत्य और सत्य कह रहा हूँ, 'वेद से बढ़कर दूसरा शास्त्र और भगवान् विष्णु से बढ़कर दूसरा कोई देवता नहीं है' ॥३२॥

आलोच्य सर्वशास्त्राणि विचार्य च पुनः पुनः ।

इदमेकं सुनिष्पन्नं ध्येयो नारायणः सदा ॥३३॥

सम्पूर्ण शास्त्रों की आलोचना तथा बार- बार उनका विचार करने से एकमात्र यही उत्तम कर्तव्य सिद्ध होता है कि 'नित्य- निरन्तर भगवान् नारायण का ध्यान ही करना चाहिये' ॥३३॥

इत्येतत् सकलं प्रोक्तं शिष्याणां तव पुण्यदम् ।

कथाश्च विविधाः प्रोक्ता मया भज जनार्दनम् ॥३४॥

बेटा ! तुमसे और शिष्यों से यह सारा पुण्यदायक प्रसंग मैंने कह सुनाया तथा नाना प्रकार की कथाएँ भी सुनायीं; अब तुम भगवान् जनार्दन का भजन करो ॥३४॥

अष्टाक्षरमिमं मन्त्रं सर्वदुःखविनाशनम् ।

जप पुत्र महाबुद्धे यदि सिद्धिमभीप्ससि ॥३५॥

महाबुद्धिमान् पुत्र ! यदि तुम सिद्धि चाहते हो तो इस सर्वदुःखनाशक अष्टाक्षरमन्त्र का जप करो ॥३५॥

नारायण अष्टाक्षरमंत्र स्तोत्र माहात्म्य

इदं स्तवं व्यासमुखात्तु निस्सृतं

संध्यात्रये ये पुरुषाः पठन्ति ।

ते धौतपाण्डुरपटा इव राजहंसाः

संसारसागरमपेतभयास्तरन्ति ॥३६॥

जो पुरुष श्रीव्यासजी के मुख से निकले हुए इस स्तोत्र का त्रिकाल संध्या के समय पाठ करेंगे, वे धूले हुए श्वेत वस्त्र तथा राजहंसों के समान निर्मल (विशुद्ध)- चित्त हो निर्भयतापूर्वक संसार- सागर से पार हो जायँगे॥३६॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे अष्टाक्षरमाहात्म्यं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराण में 'अष्टाक्षरमन्त्र का माहात्म्य' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥१७॥

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