नारायण स्तवन
श्रीनरसिंहपुराण के अध्याय १० श्लोक
८-१५ में वर्णित मार्कण्डेयकृत इस नारायण स्तवन का नित्य पाठ सभी कामनाओं को पूर्ण
करनेवाला है।
नारायण स्तवन
Narayan stavan
मार्कण्डेयप्रोक्तं श्रीविष्णुस्तवनं
नृसिंह स्तवनं
नारायण स्तवन
मार्कण्डेय उवाच
नरं नृसिंहं नरनाथमच्युतं
प्रलम्बबाहुं कमलायतेक्षणम् ।
क्षितीश्वरैरर्चितपादपङ्कजं
नमामि विष्णुं पुरुषं पुरातनम् ॥८॥
मार्कण्डेयजी बोले - जो भगवान्
श्रेष्ठ नर, नृसिंह और नरनाथ (मनुष्यों के
स्वामी) हैं, जिनकी भुजाएँ लम्बी हैं, नेत्र
प्रफुल्ल कमल के समान विशाल हैं तथा चरणारविन्द असंख्य भूपतियों द्वारा पूजित हैं,
उन पुरातन पुरुष भगवान् विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ ।
जगत्पतिं क्षीरसमुद्रमन्दिरं
तं शार्ङ्गपाणिं मुनिवृन्दवन्दितम्
।
श्रियः पति श्रीधरमीशमीश्वरं
नमामि गोविन्दमनन्तवर्चसम् ॥९॥
जो संसार के पालक हैं,
क्षीरसमुद्र जिनका निवास- स्थान है, जो हाथ में
शार्ङ्गधनुष धारण किये रहते हैं, मुनिवृन्द जिनकी वन्दना
करते हैं, जो लक्ष्मी के पति हैं और लक्ष्मी को निन्तर अपने
हदय में धारण करते हैं, उन सर्वसमर्थ, सर्वेश्वर,
अनन्त तेजोमय भगवान् गोविन्द को मैं प्रणम करता हूँ ।
अजं वरेण्यं जनदुःखनाशनं
गुरुं पुराणं पुरुषोत्तमं प्रभुम् ।
सहस्त्रसूर्यद्युतिमन्तमच्युतं
नमामि भक्त्या हरिमाद्यमाधवम् ॥१०॥
जो अजन्मा,
सबके वरणीय, जन- समुदाय के दुःखों का नाश
करनेवाले, गुरु, पुराण- पुरुषोत्तम एवं
सबके स्वामी हैं, सहस्रों सूर्यों के समान जिनकी कान्ति है
तथा जो अच्युतस्वरुप हैं, उन आदिमाधव भगवान् विष्णु को मैं
भक्तिभाव से प्रणाम करता हूँ ।
पुरस्कृतं पुण्यवतां परां गतिं
क्षितीश्वरं लोकपतिं प्रजापतिम् ।
परं पराणामपि कारणं हरिं
नमामि लोकत्रयकर्मसाक्षिणम् ॥११॥
जो पुण्यात्मा भक्तों के ही समक्ष
सगुण- साकार रुप से प्रकट होते हैं, सबकी
परमगति हैं, भूमि, लोक और प्रजाओं के
पति हैं, 'पर' अर्थात् कारणों के भी
परम कारण हैं तथा तीनों लोकों के कर्मों के साक्षी हैं, उन
भगवान् विष्णु को मैं नमस्कार करता हूँ ।
भोगे त्वनन्तस्य पयोदधौ सुरः
पुरा हि शेते भगवाननादिकृत् ।
क्षीरोदवीचीकणिकाम्बुनोक्षितं
तं श्रीनिवासं प्रणतोऽस्मि केशवम्
॥१२॥
जो अनादि विधाता भगवान् पूर्वकाल में
क्षीरसमुद्र के भीतर 'अनन्त' नामक शेषनाग के शरीररुपी शय्यापर सोये थे, क्षीरसिन्धु
की तरङ्गों के जलकणों से अभिषिक्त होनेवाले उन लक्ष्मीनिवास भगवान् केशव को मैं
प्रणाम करता हूँ ।
यो नारसिंहं वपुरास्थितो महान्
सुरो मुरारिर्मधुकैटभान्तकृत् ।
समस्तलोकार्तिहरं हिरण्यकं
नमामि विष्णुं सततं नमामि तम् ॥१३॥
जिन्होंने नरसिंहस्वरुप धारण किया
है,
जो महान् देवता हैं, मुर दैत्य के शत्रु हैं,
मधु तथा कैटभ नामक दैत्यों का अन्त करनेवाले हैं और समस्त लोकों की
पीड़ा दूर करनेवाले एवं हिरण्यगर्भ हैं, उन भगवान् विष्णु को
मैं सदा नमस्कार करता हूँ ।
अनन्तमव्यक्तमतीन्द्रियं विभुं स्वे
स्वे हि रुपे स्वयमेव संस्थितम् ।
योगेश्वरैरेव सदा नमस्कृतं
नमामि भक्त्या सततं जनार्दनम् ॥१४॥
जो अनन्त,
अव्यक्त, इन्द्रियातीत, सर्वव्यापी
और अपने विभिन्न रुपों में स्वयं ही प्रतिष्ठित हैं तथा योगेश्वररगण जिनके चरणों में
सदा ही मस्तक झुकाते हैं, उन भगवान् जनार्दन को मैं
भक्तिपूर्वक निरन्तर प्रणाम करता हूँ ।
आनन्दमेकं विरजं विदात्मकं
वृन्दालयं योगिभिरेव पूजितम् ।
अणोरणीयांसमवृद्धिमक्षयं
नमामि भक्तप्रियमीश्वरं हरिम् ॥१५॥
जो आनन्दमय, एक (अद्वितीय), रजोगुण से रहित, ज्ञानस्वरुप, वृन्दा (लक्ष्मी) - के धाम और योगियों द्वारा पूजित हैं; जो अणु से भी अत्यन्त अणु और वृद्धि तथा क्षय से शून्य हैं, उन भक्तप्रिय भगवान् विष्णु को मैं प्रणाम करता हूँ।
श्रीनरसिंहपुराणे श्रीनारायणस्तवनं मार्कण्डेयप्रोक्तं मार्कण्डेयचरित्रे दशमोऽध्यायः ॥
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