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कर्मकाण्ड

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मृत्युंजय स्तोत्र

मृत्युंजय स्तोत्र

स्वयं भगवान् विष्णु ने ही मार्कण्डेयजी के हित के लिये मृत्यु को शान्त करनेवाले इस परम पावन मङ्गलमय मृत्युञ्जय स्तोत्र का उपदेश दिया था । जो नित्य नियमपूर्वक पवित्रभाव से भक्तियुक्त होकर सायं, प्रातः और मध्याह्न - तीनों समय इस स्तोत्र का पाठ करता है, भगवान् अच्युत में चित्त लगानेवाले उस पुरुष का अकालमरण नहीं होता ।

मृत्युंजय स्तोत्र

मृत्युञ्जय स्तोत्रम्

Mrityunjay stotra

मृत्युञ्जय स्तोत्र

मृत्युंजय स्तोत्र

मृत्युञ्जयस्तोत्र

मार्कण्डेय उवाच

नारायणं सहस्राक्षं पद्मनाभं पुरातनम् ।

प्रणतोऽस्मि हषीकेशं किं मे मृत्युः करिष्यति ॥६३॥

मार्कण्डेयजी बोले - जो सहस्रों नेत्रों से युक्त, इन्द्रियों के स्वामी, पुरातन पुरुष तथा पद्मनाभ (अपनी नाभि से ब्रह्माण्डमय कमल को प्रकट करनेवाले) हैं, उन श्रीनारायणदेव को मैं प्रणाम करता हूँ । मृत्यु मेरा क्या कर लेगा?

गोविन्दं पुण्डरीकाक्षमनन्तमजमव्ययम् ।

केशवं च प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ॥६४॥

मैं अनन्त, अजन्मा, अविकारी, गोविन्द, कमलनयन भगवान् केशव की शरण में आ गया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या करेगा?

वासुदेवं जगद्योनिं भानुवर्णमतीन्द्रियम् ।

दामोदरं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ॥६५॥

मैं संसार की उत्पत्ति के स्थान, सूर्य के समान प्रकाशमान्, इन्द्रियातीत वासुदेव (सर्वव्यापी देवता) भगवान् दामोदर की शरण में आ गया हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा?

शङ्खचक्रधरं देवं छन्नरुपिणमव्ययम् ।

अधोक्षजं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ॥६६॥

जिनका स्वरुप अव्यक्त है, जो विकारों से रहित हैं, उन शङ्ख- चक्रधारी भगवान् अधोक्षज की मैं शरण में आ गया; मृत्यु मेरा क्या कर लेगा?

वाराहं वामनं विष्णुं नरसिंहं जनार्दनम् ।

माधवं च प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ॥६७॥

मैं वाराह, वामन, विष्णु, नरसिंह, जनार्दन एवं माधव की शरण में हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा?

पुरुषं पुष्करं पुण्यं क्षेमबीजं जगत्पतिम् ।

लोकनाथं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ॥६८॥

मैं पवित्र, पुष्कररुप अथवा पुष्कल (पूर्ण) रुप, कल्याणबीज, जगत्- प्रतिपालक एवं लोकनाथ भगवान् पुरुषोत्तम की शरणमें आ गया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या करेगा?

भूतात्मानं महात्मानं जगद्योनिमयोनिजम् ।

विश्वरुपं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ॥६९॥

जो समस्त भूतों के आत्मा, महात्मा (परमात्मा) एवं जगत की योनि (उत्पत्ति के स्थान) होते हुए भी स्वयं अयोनिज हैं, उन भगवान् विश्वरुप की मैं शरण में आया हूँ; मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा?

सहस्रशिरसं देवं व्यक्ताव्यक्तं सनातनम् ।

महायोगं प्रपन्नोऽस्मि किं मे मृत्युः करिष्यति ॥७०॥

जिनके सहस्त्रों मस्तक हैं, जो व्यक्ताव्यक्त स्वरुप हैं, उन महायोगी सनातन देव की मैं शरण में आया हूँ; अब मृत्यु मेरा क्या कर सकेगा?

इति श्रीनरसिंहपुराणे मार्कण्डेयमृत्युञ्जयो नाम सप्तमोऽध्यायः ॥

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