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श्रीकृष्ण ब्रह्माण्ड पावन कवच
त्रैलोक्यविजय श्रीकृष्ण कवच
आद्या कालिका कवच
महानिर्वाणतन्त्र के सप्तम उल्लास अन्तर्गत
श्लोक ५५- ७४ में वर्णित इस आदिकालिका अथवा आद्या कालिका कवच जिसे त्रैलोक्य विजय
कवच भी कहा जाता है, का नित्य पाठ करने से धनार्थी को धन, विद्यार्थी को विद्या और
संतानहीनों को संतान की प्राप्ति हो जाता है तथा सभी कामना पूर्ण होती है । यहाँ
इस कवच को अर्थ सहित दिया जा रहा है।
श्रीआदिकालिका त्रैलोक्य विजय कवचम्
Aadya kalika kavacham
श्रीआद्याकालिका कवचम्
श्रीआदिकालिका कवचम्
आद्या कालिका कवच स्तोत्रम्
श्रीसदाशिव उवाच
कथितं परमं ब्रह्म प्रकृतेः स्तवनं
महत् ।
आद्यायाः श्रीकालिकायाः कवचं शृणु
साम्प्रतम् ॥ १॥
श्रीसदाशिव ने कहा हे देवि ! तुमसे
परम ब्रह्मस्वरूप प्रकृति का स्तोत्र प्रकाशित किया । अब आदिकालिका का कवच कहता
हूं,
श्रवण करो ।
त्रैलोक्यविजयस्यास्य कवचस्य ऋषिः
शिवः ।
छन्दोऽनुष्टुब्देवता च आद्या काली
प्रकीर्तिता ॥ २॥
इस त्रिलोकविजय करनेवाले कवच के ऋषि
शिव,
छन्द अनुष्टुप् और देवता आदि कालिका हैं ।
मायाबीजं बीजमिति रमा
शक्त्तिरुदाहृता ।
क्रीं कीलकं काम्यसिद्धौ विनियोगः
प्रकीर्तितः ॥ ३॥
“ह्रीं” इसका
बीज है, "श्रीं" इसकी शक्ति है; "क्रीं" इसका कीलक और काम सिद्धि में इसका विनयोग कीर्तन करना पड़ता
है ।
* ऋषिन्यासो यथा: -
"अस्य कवचस्य सदाशिवः ऋषिः अनुष्टुप छन्दः आद्याकाली देवता ह्रीं बीजं श्रीं
शक्तिः क्रीं कीलकं काम्यसिद्ध्यर्थे कवचपाठे विनियोगः ।
ॐ सदाशिवाय ऋषये नमः
शिरसि ।
ओं अनुष्ठुप्- छन्दसे नमः
मुखे ।
ओं आद्याकालिकायै देवतायै
नमः हृदि ।
ॐ ह्रीं बीजाय नमः गुह्ये
।
ॐ श्रीं शक्तयेनमः पादयोः
।
ओं क्रीं कीलकायै नमः नाभौ ।
सर्वकाम्य सिद्ध्यर्थे
जपे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे ।
इति ऋष्यादि न्यासः।
करन्यासः :-
क्रां अङ्गुष्ठाभ्यां
नमः।
क्रीं तर्जनीभ्यां नमः।
क्रूं मध्यमाभ्यां नमः।
क्रैं अनामिकाभ्यां नमः।
क्रों कनिष्ठिकाभ्यां
नमः।
क्रः करतलकरपृष्ठाभ्यां
नमः।
इति कर न्यासः।
अङ्गन्यासः :-
क्रां हृदयाय नमः।
क्रीं शिरसे स्वाहा ।
क्रूं शिखायै वषट् ।
क्रैं कवचाय हुँ ।
क्रों नेत्रत्रयाय वौषट् ।
क्रः अस्त्राय फट् ।
इति षडङ्ग न्यासः।
भूर्भुवस्सुवरोमिति
दिग्बन्धः॥
श्रीआद्याकालिका कवचम्
ह्रीमाद्या मे शिरः पातु श्रीं काली
वदनं मम ।
हृदयं क्रीं परा शक्त्तिः
पायात्कण्ठं परात्परा ॥ ४॥
अब कवच कहा जाता है:- "ह्रीं"
स्वरूपा आद्या मेरे शिर की और "श्रीं" स्वरूपिणी काली मेरे वदन की रक्षा
करे । "क्रीं" स्वरूपा परा शक्ति मेरे हृदय की और परात्परा मेरे कंठ की
रक्षा करे ।
नेत्रे पातु जगद्धात्री कर्णौ
रक्षतु शङ्करी ।
घ्राणं पातु महामाया रसनां
सर्वमङ्गला ॥ ५॥
जगद्धात्री मेरे दोनों नेत्रों की
और शंकरी मेरे दोनों कानों की रक्षा करें । महामाया मेरी नासिका की रक्षा करें और
सर्वमंगला मेरी रसना (जिह्वा) की रक्षा करें ।
दन्तान् रक्षतु कौमारी कपोलौ
कमलालया ।
ओष्ठाधरौ क्षमा रक्षेच्चिबुकं
चारुहासिनी ॥ ६॥
कौमारी दन्तपंक्तियों की और कमलालया
मेरे दोनों कपोलों की रक्षा करें, क्षमा मेरे
ओष्ठ व अधर की और चारु- हासिनी ठोडी की रक्षा करें ।
ग्रीवां पायात्कुलेशानी ककुत्पातु
कृपामयी ।
द्वौ बाहू बाहुदा रक्षेत्करौ
कैवल्यदायिनी ॥ ७॥
कुलेशानी मेरी गर्दन की और कृपामयी
ककुद की रक्षा करें। बाहुदा दोनों बांहों की और कैवल्यदायिनी मेरे दोनों हाथों की
रक्षा करें ।
स्कन्धौ कपर्द्दिनी पातु पृष्ठं
त्रैलोक्यतारिणी ।
पार्श्वे पायादपर्णा मे कटिं मे
कमठासना ॥ ८॥
कपर्द्दिनी दोनों कंधों की और
त्रैलोक्यतारिणी मेरे पृष्ठदेश की रक्षा करें । अपर्णा मेरे दोनों पांव की और
कमठासना मेरी कटि की रक्षा करें ।
नाभौ पातु विशालाक्षी प्रजास्थानं
प्रभावती ।
ऊरू रक्षतु कल्याणी पादौ मे पातु
पार्वती ॥ ९॥
विशालाक्षी मेरे नाभि की और
प्रभावती मेरे प्रजास्थान की रक्षा करें । कल्याणी दोनों ऊरू की और पार्वती मेरे दोनों
पावों की रक्षा करें ।
जयदुर्गावतु प्राणान्सर्वाङ्गं
सर्वसिध्दिदा ।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं वर्जितं
कवचेन च ॥ १०॥
जयदुर्गा मेरे पंच प्राणों की और
सर्वसिद्धिदा मेरे सर्वाङ्ग की रक्षा करें। जो जो स्थान कवच में नहीं कहे हैं ।
तत्सर्वं मे सदा रक्षेदाद्या काली
सनातनी ।
इति ते कथितं दिव्यं त्रैलोक्यविजयाभिधम्
॥ ११॥
उन मेरे सब अंगों की सनातनी आद्या
काली रक्षा करें। (हे देवि ! ) तुमसे 'त्रैलोक्यविजय'
नामक आद्या कालिका देवी का दिव्य कवच कहा ।
श्रीआद्याकालिका कवचम् महात्म्य
कवचं कालिकादेव्या आद्यायाः
परमाद्भुतम् ।
पूजाकाले पठेद्यस्तु
आद्याधिकृतमानसः ॥ १२॥
जो पुरुष पूजा के समय देवी में
चित्त लगाकर आदि कालिका के इस परम अद्भुत कवच का पाठ करता है ।
सर्वान्कामानवाप्नोति तस्याद्याशु
प्रसीदति ।
मन्त्रसिद्धिर्भवेदाशु किङ्कराः
क्षुद्रसिद्धयः ॥ १३ ॥
उसकी सब कामनायें पूरी हो जाती हैं
और उस पर आदिकालिकाजी शीघ्र प्रसन्न हो जाती हैं और वह शीघ्र ही मन्त्रसिद्धि
प्राप्त कर लेता है तथा छोटी सिद्धियां उसकी किंकर हो जाती हैं ।
अपुत्रो लभते पुत्रं धनार्थी
प्राप्नुयार्द्धनम् ।
विद्यार्थी लभते विद्यां कामी
कामानवाप्नुयात् ॥ १४ ॥
इस कवच के प्रसाद से अपुत्रक पुत्र,
धनार्थी धन और विद्यार्थी विद्या प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है
तथा कामी की कामना पूर्ण होती है ।
सहस्रावृत्तपाठेन वर्म्मणोऽस्य
पुरस्क्रिया ।
पुरश्चरणसंपन्नं यथोक्तफलदं भवेत् ॥
१५ ॥
पुरश्चरण करने में सहस्र बार इस कवच
का पाठ करना पड़ता है। जो इस कवच का पुरश्चरण हो जाता है तो यह यथोक्त फल देता है ।
चन्दनागुरुकस्तूरी कुङ्कुमै
रक्तचन्दनैः ।
भूर्जे विलिख्य गुटिकां स्वर्णस्थां
धारयेद्यदि ॥१६॥
शिखायां दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा
साधकः कटौ ।
तस्याद्या कालिका वश्या वाञ्छितार्थं
प्रयच्छति ॥१७ ॥
जो साधक अगर,
चन्दन, कस्तूरी, कुंकुम
अथवा लाल चंदन से भोजपत्र पर यह कवच लिखकर सुवर्ण की गुटिका में रख चोटी में,
दाहिनी भुजा में, कंठ में या कमर में धारण
करता ह, आदिकालिका उसके निरन्तर वश होकर वांछित फल देती हैं ।
न कुत्रापि भयं तस्य सर्वत्र विजयी
कविः ।
अरोगी चिरजीवी
स्याद्वलवान्धारणक्षमः ॥ १८ ॥
उसको भय की शंका कहीं नहीं रहती,
वह सब जगह विजय पाता है और अरोगी, बलवान्,
धारणक्षम और चिरं- जीवी होकर समय बिताता है ।
सर्व विद्यासु निपुणः
सर्वशास्त्रार्थतत्त्ववित् ।
वशे तस्य महीपाला भोगमोक्षौ
करस्थितौ ॥ १९ ॥
वह सर्वविद्याओं में प्रवीण और सर्व
शास्त्रों के अर्थ को जान जाता है, राजा
लोग उसके वश में रहते हैं, भोग मोक्ष उसकी हथेली पर विद्यमान
रहते हैं ।
कलिकल्मषयुक्तानां निःश्रेयसकरं
परम् ॥ २० ॥
(निःसन्देह) यह कवच कलि के पाप से
कलुषित मनुष्यों को मुक्ति देनेवाला है ।
इति महानिर्वाणतन्त्रे सप्तमउल्लासे श्रीआद्याकालिकाकवचं सम्पूर्णम् ।
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