आद्या कालिका शतनामस्तोत्र
इससे पूर्व में आपने महाकाल द्वारा
विरचित श्रीमद्दक्षिणकालिका के स्वरूपाख्य स्तोत्र पढ़ा था। अब यहाँ महानिर्वाणतन्त्र
के सप्तम उल्लास अन्तर्गत श्लोक ८- ५४ में वर्णित करारकूटघटित कालिकाशतनामस्तोत्र
जिसे आद्या काली स्वरूपाख्य शतनामस्तोत्र अथवा ककारकूटस्तव भी कहा जाता है,अर्थ
सहित दिया जा रहा है। माँ आद्या कालिका शतनामस्तोत्र का पाठ करने से ज्वर, रोग, ग्रह बाधा, दुःस्वप्न,
सर्वपाप नाश होकर सर्वत्र विजय दिलाता है।
आद्या काली शतनामस्तोत्रम्
Aadya kali shat naam stotra
करारकूटघटितं कालिकाशतनामस्तोत्रम्
आद्या कालिका शतनामस्तोत्र
(महानिर्वाणतन्त्रे
सप्तमोल्लासान्तर्गते)
आद्याकालीस्वरूपाख्यं शतनामस्तोत्रम्
कालिकाशतनामस्तोत्रम्
ककारकूटस्तवः
श्रीसदाशिव उवाच ॥
श्रृणु देवि जगद्वन्द्ये
स्तोत्रमेतदनुत्तमम् ।
पठनाच्छ्रवणाद्यस्य सर्वसिद्धीश्वरो
भवेत् ॥ १॥
श्रीसदाशिव बोले- हे जगद्वन्द्ये !
देवि ! इस अनुपम स्तोत्र को कहता हूं, श्रवण
करो जिसके पढ़ने या श्रवण करने से सर्वसिद्धि प्राप्ति को समर्थता होती है ।
असौभाग्यप्रशमनं सुखसम्पद्विवर्धनम्
।
अकालमृत्युहरणं सर्वापद्विनिवारणम्
॥ २॥
इससे कुभाग्य का नाश व सुखसम्पत्ति की
वृद्धि होती है और अकालमृत्यु का हरण तथा सब आपत्तियों का निराकरण ( दूर हो जाना )
होता है ।
श्रीमदाद्याकालिकायाः
सुखसान्निध्यकारणम् ।
स्तवस्यास्य प्रसादेन त्रिपुरारिरहं
शिवे ॥ ३॥
हे देवि ! आदिकालिका का यह स्तोत्र
सुख उपजाने का कारण है, मैंने इस स्तोत्र के
प्रसाद से ही (त्रिपुरासुर का संहार कर ) त्रिपुरारि नाम धारण किया है ।
स्तोत्रस्यास्य ऋषिर्देवि सदाशिव
उदाहृतः ।
छन्दोऽनुष्टुब्देवताऽऽद्या कालिका
परिकीर्त्तिता ।
धर्मकामार्थमोक्षेषु विनियोगः
प्रकीर्त्तितः ॥ ४॥
हे देवि! इस स्तोत्र के ऋषि सदाशिव,
छन्द अनुष्टुप, आदिकाल का देवता और धम,
अर्थ, काम व मोक्ष इस चतुर्वर्ग में इसका
विनियोग है ।
आद्याकालीस्वरूपाख्यं
शतनामस्तोत्रम्
ह्रीं काली श्रीं कराली च क्रीं
कल्याणी कलावती ।
कमला कलिदर्पघ्नी कपर्दीशकृपान्विता
॥ ५॥
( अब आद्या देवी का स्तोत्र कहा
जाता है-) तुम “ह्रीं” स्वरूपा
काली हो, "श्रीं" स्वरूपा कराली हो और 'क्रीं' स्वरूपा कल्याणी हो । तुम कलावती, कमला, कलिदर्पघ्नी और कपर्दीश- कृपान्विता हो
अर्थात् शिव पर कृपावती हो ।
कालिका कालमाता च कालानलसमद्युतिः ।
कपर्दिनी करालास्या करुणामृतसागरा ॥
६॥
तुम कालिका,
कालमाता और कालानल के समान युति- वाली अर्थात् तुम्हारा तेज कालानल के
समान है, तुम कपर्दिनी और करालास्या अर्थात् करालवदना हो,
तुम करुणा- मृतसागरा हो ।
कृपामयी कृपाधारा कृपापारा कृपागमा
।
कृशानुः कपिला कृष्णा
कृष्णानन्दविवर्द्धिनी ॥ ७॥
कृपामयी और कृपाधारा हो,
तुम कृपापारा और कृपागमा अर्थात् तुम जिस पर कृपा करती हो, वही तुमको जान सकता है । तुम कृशानु, कपिला, कृष्णा और कृष्णानन्द- विवर्द्धिनी हो ।
कालरात्रिः कामरूपा कामपाशविमोचनी ।
कादम्बिनी कलाधारा कलिकल्मषनाशिनी ॥
८॥
तुम कालरात्री,
कामरूपा और कामपाशविमोचिनी हो। तुम कादम्बिनी, कलाधारा और कलिकल्मषनाशिनी हो अर्थात् तुम हो कलियुग के पाप का नाश करती
हो ।
कुमारीपूजनप्रीता कुमारीपूजकालया ।
कुमारीभोजनानन्दा कुमारीरूपधारिणी ॥
९॥
तुम कुमारीपूजनप्रीता,
कुमारीपूजकालया, कुमारीभो- जनानन्दा और कुमारीरूपधारिणी
हो अर्थात् कुमारीपूजा करने से तुमको प्रसन्नता होती है, जिस
स्थान में कुमारी की पूजा होती है वहां तुम रहती हो, कुमारीभोजन
करने से तुमको आनन्द होता है और तुम ही कुमारीरूप से अवतीर्णा हो ।
कदम्बवनसञ्चारा कदम्बवनवासिनी ।
कदम्बपुष्पसन्तोषा कदम्बपुष्पमालिनी
॥ १०॥
तुम कदम्बवनसंचारा,
कदम्बवनवासिनी, कदम्बपुष्प- संतोषा और
कदम्बपुष्पमालिनी हो अर्थात तुम कदम्बवन में भ्रमण करती हो, कदम्बवन
में वास करती हो। कदम्ब के फूल से तुमको संतोष होता है और तुम कदम्ब के फूलों की
माला धारण करती हो ।
किशोरी कलकण्ठा च कलनादनिनादिनी ।
कादम्बरीपानरता तथा कादम्बरीप्रिया
॥ ११॥
तुम किशोरी,
तुम कलकण्ठा अर्थात् तुम्हारे कंठ का स्वर अतीव गम्भीर है. तुम
कलनादनिनादिनी, कादम्बरी- पान में रत और कादम्बरी प्रिया हो
अर्थात् गौडी मदिरा तुमको अत्यन्त प्यारी है ।
कपालपात्रनिरता कङ्कालमाल्यधारिणी ।
कमलासनसन्तुष्टा कमलासनवासिनी ॥ १२॥
तुम कपालपात्रनिरता और
कपालमालाधारिणी अर्थात् शरीर की हड्डियों की माला धारण करती हो,
तुम कमलासन- सन्तुष्टा और कमलासनवासिनी हो ।
कमलालयमध्यस्था कमलामोदमोदिनी ।
कलहंसगतिः क्लैब्यनाशिनी कामरूपिणी
॥ १३॥
तुम कमलालयमध्यस्था और
कमलामोदमोदिनी अर्थात् कमलगन्ध से तुमको आनन्द होता है । कलहंसगति (कलहंस के समान
मन्थरगामिनी) हो, तुम क्लैब्यनाशिनी
(भक्तों का दुःख दूर करती हो), तुम कामरूपिणी हो ।
कामरूपकृतावासा कामपीठविलासिनी ।
कमनीया कल्पलता कमनीयविभूषणा ॥ १४॥
तुम कामरूपकृतावासा,
कामपीठविलासिनी, कमनीया, कल्पलता और कमनीय विभूषणा हो ।
कमनीयगुणाराध्या कोमलाङ्गी कृशोदरी
।
कारणामृतसन्तोषा कारणानन्दसिद्धिदा
॥ १५॥
तुम कमनीयगुणाराध्या अर्थात् कमनीय
गुणों के द्वार ही तुम्हारी आराधना की जाती है । तुम कोमलांगी,
कृशोदरी और कारणामृत सन्तोषा अर्थात् मयसुधा द्वारा तुमको प्रसन्नता
होती है, तुम कारणानन्द सिद्धिदा (कारण द्वारा जिसको आनन्द
होता है ) उसको सिद्धि देती हो ।
कारणानन्दजापेष्टा कारणार्चनहर्षिता
।
कारणार्णवसम्मग्ना कारणव्रतपालिनी ॥
१६॥
तुम कारणानन्दजापेष्टा और कारणार्चन
हर्षिता हो, जो तुमको कारण से पूजता है उस पर
तुम प्रसन्न होती हो, तुम कारणरूपी समुद्र में मग्न हो और
तुम कारणव्रतपालिनी हो ।
कस्तूरीसौरभामोदा
कस्तूरितिलकोज्ज्वला ।
कस्तूरीपूजनरता कस्तूरीपूजकप्रिया ॥
१७॥
तुम कस्तूरीसौरभामोदा (कस्तूरी के
गन्ध से तुम आनन्दित होती हो ), तुम कस्तूरी
तिलकोज्ज्वला हो (कस्तूरी का तिलक धारण करने से अपूर्व दीप्ति प्राप्त करती हो),
तुम कस्तूरीपूजनरता और कस्तूरीपूजकप्रिया हो अर्थात् जो कस्तूरी से
तुम्हारी पूजा करता है वह तुमको अत्यन्त प्यारा है ।
कस्तूरीदाहजननी कस्तूरीमृगतोषिणी ।
कस्तूरीभोजनप्रीता कर्पूरामोदमोदिता
॥
कर्पूरमालाभरणा कर्पूरचन्दनोक्षिता
॥ १८॥
तुम कस्तूरीदाहजननी,
कस्तूरीमृग तोषिणी, कस्तूरी भोजन से प्रसन्न,
कर्पूरामोदमोदिता अर्थात् कर्पूर की सुगन्ध से मुदित होती हो और तुम
कर्पूरमालाभरणा हो, कर्पूरचन्दनोक्षिता अर्थात् तुम्हारे अंग में सदा कर्पूर से
मिला हुआ चन्दन लगा रहता है ।
कर्पूरकारणाह्लादा कर्पूरामृतपायिनी
।
कर्पूरसागरस्नाता कर्पूरसागरालया ॥
१९॥
तुम कर्पूर कारण से आनन्दित,
कर्पूरामृतपायिनी, कर्पूरसागर में स्नान
करनेवाली और कर्पूरसागर तुम्हारा आलय है ।
कूर्चबीजजपप्रीता कूर्चजापपरायणा ।
कुलीना कौलिकाराध्या
कौलिकप्रियकारिणी ॥ २०॥
तुम "हूं" बीज के जप में
प्रसन्न व कूर्च्चजापपरायणा हो, कुलीना,
कौलिकाराध्या और कौलिकप्रियकारिणी हो ।
कुलाचारा कौतुकिनी
कुलमार्गप्रदर्शिनी ।
काशीश्वरी कष्टहर्त्री
काशीशवरदायिनी ॥ २१॥
तुम कुलाचारा,
कौतुकिनी और कुलमार्ग की दिखानेवाली हो, तुम
काशीश्वरी, कष्टहरण करनेवाली और काशीश्वर को वरदायिनी हो ।
काशीश्वरकृतामोदा काशीश्वरमनोरमा । ॥
२२॥
तुम काशीश्वर को आनंद देनेवाली और
काशीश्वर मनोरमा अर्थात् काशीश्वर के मन को मोहनेवाली हो ।
कलमञ्जीरचरणा कणत्काञ्चीविभूषणा ।
काञ्चनाद्रिकृतागारा
काञ्चनाचलकौमुदी ॥ २३॥
तुम कलमंजीरचरणा अर्थात् तुम्हारे
चरणयुगल के दोनों मंजीर गंभीर शब्द से पूर्ण हैं । तुम कणत्कांचीविभूषणा अर्थात्
तुम मधुरध्वनिपूर्ण कांचीगुण से विभूषित हो, काञ्चन
गिरि पर तुम्हारा वास है और तुम कांचनाचल की चांदनी-स्वरूपिणी हो ।
कामबीजजपानन्दा कामबीजस्वरूपिणी ।
कुमतिघ्नी कुलीनार्त्तिनाशिनी
कुलकामिनी ॥ २४॥
तुम कामबीज के जप प्रसन्न होती हो,
तुम कामबीजस्वरूपिणी हो । तुम कुमति और कुलीनार्ति की नाशिनी हो अर्थात् तुम्हारे
प्रसाद से ही कुमति का विनाश और कुलीनों का दुःख दूर होता है और तुम ही कुलकामिनी
हो।
क्रीं ह्रीं श्रीं मन्त्रवर्णेन
कालकण्टकघातिनी ।
इत्याद्याकालिकादेव्याः शतनाम
प्रकीर्त्तितम् ॥ २५॥
ककारकूटघटितं कालीरूपस्वरूपकम् ॥
२६॥
क्रीं ह्रीं श्रीं यह तीन वर्ण तुम्हारे
स्वरूप हैं। इससे तुम कालकण्टकघातिनी हो । (हे देवि ! ) ककारराशिसम्मिलित
कालीरूपस्वरूप आदिकालिका देवी का शतनामस्तोत्र तुमसे कहा ।
करारकूटघटितं आद्या कालिकाशतनामस्तोत्रम् महात्म्य
पूजाकाले पठेद्यस्तु कालिकाकृतमानसः
।
मन्त्रसिद्धिर्भवेदाशु तस्य काली प्रसीदति
॥ २७ ॥
जो पुरुष पूजा के समय कालिकादेवी में
चित्त लगाकर इस स्तोत्र का पाठ करेगा उसका मंत्र शीघ्र सिद्ध हो जायगा और कालिका
उस पर प्रसन्न हो जाती हैं ।
बुद्धिं विद्याञ्च लभते
गुरोरादेशमात्रतः ।
धनवान् कीर्त्तिमान् भूयाद्दानशीलो
दयान्वितः ॥ २७॥
गुरु के आदेशमात्र से उसको विद्या
तथा बुद्धि की प्राप्ति होती है और वह धनी, कीर्तिमान्,
दावा और दयावान् होता है ।
पुत्रपौत्रसुखैश्वर्यैर्मोदते साधको
भुवि ॥ २८॥
वह साधक ही पृथ्वी पर पुत्र,
पौत्रादि के साथ सुख ऐश्वर्य के साथ आनन्दभोग करता है ।
भौमावास्यानिशाभागे पञ्चकसमन्वितः ।
पूजयित्वा महाकालीमाद्यां
त्रिभुवनेश्वरीम् ॥ २९॥
जो पुरुष मंगळवारी अमावस तिथि में
महारात्रि के समय मयादि पंचसामग्रीयुक्त होकर त्रिभुवनेश्वरी आदिकालिका की पूजा
करके ।
पठित्वा शतनामानि साक्षात् कालीमयो
भवेत् ।
नासाध्यं विद्यते तस्य त्रिषु लोकेषु
किञ्चन ॥ ३०॥
इस शतनाम स्तोत्र का पाठ करता है वह
साक्षात् काली-मय हो जाता है, त्रिभुवन में
उसकी कोई बात असाध्य नहीं रहती ।
विद्यायां वाक्पतिः साक्षात् धने
धनपतिर्भवेत् ।
समुद्र इव गाम्भीर्ये बले च पवनोपमः
॥ ३१॥
वह पुरुष विद्या के प्रभाव में
साक्षात् वाक्पति, धन में धनपति,
गंभीरता में समुद्र और बल में पवन के समान हो जाता है।
तिग्मांशुरिव दुष्प्रेक्ष्यः शशिवत्
शुभदर्शनः ।
रूपे मूर्त्तिधरः कामो योषितां
हृदयङ्गमः ॥ ३२॥
उसका तेज सूर्य के समान तीक्ष्ण और
चंद्रमा के समान सौम्य हो जाता है तथा वह मूर्तिमान् कामदेव के समान रूपवान हो
जाता है और कामिनियों के हृदय को हरण करता है ।
सर्वत्र जयमाप्नोति स्तवस्यास्य
प्रसादतः ।
यं यं कामं पुरस्कृत्य
स्तोत्रमेतदुदीरयेत् ॥ ३३॥
इस स्तोत्र के प्रसाद से वह सब जगह
विजय को प्राप्त कर सकता है। जिस जिस कामना को करके इस स्तोत्र का पाठ किया जाता
है ।
तं तं काममवाप्नोति
श्रीमदाद्याप्रसादतः ।
रणे राजकुले द्यूते विवादे
प्राणसङ्कटे ॥ ३४॥
श्री आदिकालिका के प्रसाद से उसको
वह सब कामनायें फलवती होती हैं । संग्राम में, राजा
के समीप में, जुआ खेलने में झगड़े में, प्राणसंकट में ।
दस्युग्रस्ते ग्रामदाहे
सिंहव्याघ्रावृते तथा ॥ ३५॥
चोर के आक्रमण में,
ग्राम के दाह में सिंहव्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं से पूर्ण ।
अरण्ये प्रान्तरे दुर्गे
ग्रहराजभयेऽपि वा ।
ज्वरदाहे चिरव्याधौ
महारोगादिसङ्कुले ॥ ३६॥
वन में वृक्ष लतादि से रहित मैदान में,
दुर्ग में, ग्रह और राजभय में, ज्वरदाह में सदा के रोग में महारोगादि के घेर लेने में।
बालग्रहादिरोगे च तथा
दुःस्वप्नदर्शने ।
दुस्तरे सलिले वापि पोते
वातविपद्गते ॥ ३७॥
बालग्रहादिरोग में,
बुरे स्वप्न देखने में, दुष्पार समुद्र में
अथवा प्रचल आँधी से टकरायी हुई नाव पर ।
विचिन्त्य परमां मायामाद्यां कालीं
परात्पराम् ।
यः पठेच्छतनामानि दृढभक्तिसमन्वितः
॥ ३७॥
इत्यादि विपत्तियों में जो पुरुष
परात्परा परमामाया आदिकालिका का ध्यान करके आन्तरिक भक्ति के साथ इस शतनाम स्तोत्र
का पाठ करता रहे तो ।
सर्वापद्भ्यो विमुच्येत देवि सत्यं
न संशयः ।
न पापेभ्यो भयं तस्य न रोगेभ्यो भयं
क्वचित् ॥ ३८॥
हे देवि ! वह सत्य ही सत्य सब
विपत्तियों से छूट जाता है, इसमें कोई सन्देह
नहीं । उसको न पाप का भय रहता और न कहीं रोग का भय रहता है ।
सर्वत्र विजयस्तस्य न कुत्रापि
पराभवः ।
तस्य दर्शनमात्रेण पलायन्ते
विपद्गणाः ॥ ३९॥
पराभव की शंका भी दूर हो जाती है,
वह सर्वत्र विजय प्राप्त करता है । उसका दर्शन करते ही विपत्तियां
दूर हो जाती हैं।
स वक्ता सर्वशास्त्राणां स भोक्ता
सर्वसम्पदाम् ।
स कर्त्ता जातिधर्माणां ज्ञातीनां
प्रभुरेव सः॥ ४०॥
इस (स्तुति के प्रसाद) से वह पुरुष
सर्वशास्त्र का वक्ता होता है, सर्व
सम्पत्तियों को भोगता है तथा वह जातिधर्म का कर्त्ता और जातीवालों के ऊपर प्रभुता
प्राप्त करता है ।
वाणी तस्य वसेद्वक्त्रे कमला
निश्चला गृहे ।
तन्नाम्ना मानवाः सर्वे प्रणमन्ति
ससम्भ्रमाः ॥ ४१॥
सरस्वतीजी सदा उसके मुख में रहती
हैं,
लक्ष्मीजी अचल होकर उसके गृहमें वास करती हैं। मनुष्यगण उसका नाम सुनते
ही सम्भ्रम से प्रणाम करते हैं ।
दृष्ट्या तस्य तृणायन्ते
ह्यणिमाद्यष्टसिद्धयः ।
आद्या काली स्वरूपाख्यं शतनाम
प्रकीर्तितम् ॥ ४२॥
अणिमादि आठ सिद्धियां उसका दर्शन करते
ही तिनके के समान जान पड़ती हैं। (हे देवि! ) यह तुमसे आदिकालिका का स्वरूपरूपी
शतनामस्तोत्र कीर्त्तन किया ।
अष्टोत्तरशतावृत्त्या
पुरश्चर्याऽस्य गीयते ।
पुरस्क्रियान्वितं स्तोत्रं
सर्वाभीष्टफलप्रदम् ॥ ४३॥
इस स्तोत्र के पुरश्चरण करने में
(१०८) एक शत आठ बार इसका पाठ करना चाहिये। ऐसी विधि कही है कि यह स्तोत्र
पुरस्क्रियान्वित होने से अभीष्ट फल देता है ।
शतनामस्तुतिमिमामाद्या कालीस्वरूपिणीम्
।
पठेद्वा पाठयेद्वापि
श्रृणुयाच्छ्रावयेदपि ॥ ४४॥
सर्वपापविनिर्मुक्तो
ब्रह्मसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ४५॥
जो पुरुष आद्या कालीस्वरूपिणी शतनाम
स्तुति अपने आप पढ़ता है और किसी को पढ़ाता है, स्वयं
सुनता है अथवा और किसी को सुनाता है वह सब पापों से छूटकर मुक्त हो जाता है (इसमें
सन्देह नहीं) ।
॥ इति महानिर्वाणतन्त्रे सप्तमोल्लासान्तर्गतं आद्या कालिका शतनामस्तोत्रम् सम्पूर्णम् ॥
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