काली कर्पूरस्तोत्रम्

काली कर्पूरस्तोत्रम्  

माँ काली का यह स्तोत्र महाकाल द्वारा प्रणित है इसे कर्पूरस्तोत्रम् या काली कर्पूरस्तोत्रम् या कर्पूरादिस्तोत्रम् या स्वरूपाख्य स्तोत्र के नाम से भी जाना जाता है।

काली कर्पूरस्तोत्रम्

अथ कर्पूरस्तोत्रम् या काली कर्पूरस्तोत्रम् या कर्पूरादिस्तोत्रम् या स्वरूपाख्यं स्तोत्रम्

ॐ अस्य श्रीकर्पूरस्तवराजस्य महाकाल ऋषि:, गायत्री छन्द:, श्रीदक्षिणकालिका देवता

हलो बीजानि, स्वराः शक्तयः, अव्यक्तं कीलकं,ही श्रीदक्षिणकालिका-देवताप्रसादसिद्ध्यर्थं 

तत्तत्कामनासिद्धये वा विनियोग:। 

विनियोग-अपने दाहिने हाथ में जल लेकर ॐ अस्य से विनियोग: तक का उच्चारण करके उपरोक्त विनियोग को करके भूमि में जल छोड़ें।

कर्पूरं मधमान्त्यस्वरपरिरहितं सेन्दुवामाक्षियुक्तं

बीजं ते मातरेतत्त्रिपुरहरवधु त्रिःकृतं ये जपन्ति ।

तेषां गद्यानि पद्यानि च मुकुहुहरादुल्लसन्त्येव वाचः

स्वच्छन्दं ध्वान्तधाराधरुरुचिरुचिरे सर्वसिद्धिं गतानाम्॥ १॥

हे माते! हे त्रिपुर हरवधु! हे काले मेघ के तुल्य काले वर्णवाली भगवति कपूर' शब्द के मध्य और अनत्य व्यंजन (प और र) एवं उसमें लगे हुए स्वर-पकार के अकार और र के अकार से अलग करके अर्थात् 'क्र' शब्द के आगे अनुस्वार, वामाक्षी दीर्घ इकार से युक्त कर क्रीं' इस मंत्र को जो (साधक) तीन बार जपते हैं, उनके मुख से अनायास ही गद्य और पद्य स्वयं निकलने लगता है, ऐसे (साधक) को अणिमादि सभी प्रकार की सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।। १॥

ईशान सेन्दुवामश्रवणपरिगतो बीजमन्यन्महेशि!

द्वन्द्वं ते मन्दचेता यदि जपति जनो वारूमेकं कदाचित् ।

जित्वा वाचामधीशं धनमपि चिरं मोहयन्नम्बुजाक्षीवृन्दं

चन्द्रार्धचूडे प्रभवति स महाघोरबालावतंसे॥ २॥

हे महेशि! हे चन्द्रार्धचूडे! हे अतिभयानक! बालक के शव का अपने कानों में कर्णभूषण धारण करने वाली, हे भगवति! ईशान-हकार उसमें बिन्दु और वाम श्रवण या ॐ लगाकर अथवा 'हूं हूं' इसका दो बार उच्चारण कर या 'हूं हूं' इस मंत्र को यदि मूर्ख भी एक बार जपता है, तो वह शास्त्रार्थ करने में बृहस्पति - तुल्य होता है । वह धन में कुबेर को भी जीतने में सक्षम हो जाता है। ऐसा साधक समस्त सुन्दरियों को आकर्षित कर लेने में पूर्णत: समर्थवान होता है ।। २ ।।

ईशो वैश्वानरस्थः शशधरविलसद् वामनेत्रेण युक्तो

बीजं ते द्वन्द्वमन्यद् विगलितचिकुरे कालिके ये जपन्ति ।

द्वेष्टारं घ्नन्ति ते च त्रिभुवनमपि ते वश्यभावं नयन्ति

सृक्कद्वन्दास्रधाराद्वयधरवदने दक्षिणे त्र्यक्षरेति॥ ३॥

ह्रीं ह्रीं इस बीज मंत्र का दो बार अर्थात् 'ह्रीं ह्रीं' का जो (साधक) जप कर लेते हैं, वे शत्रु का वध कर सकते हैं तथा विस्त्रस्त केशों से युक्त! हे ओष्ठ प्रान्तों में निरवच्छिन्न खून की दो धाराओं को धारण करने वाले मुख से युक्त हे दक्षिणकालिके माते! अधिक क्या कहे, 'ह्रीं'  इस मंत्र का जप करने वाले पुरुष सम्पूर्ण त्रिलोकी को अपने वशीभूत कर लेने में समर्थ होते हैं ॥ ३ ॥

ऊर्ध्वे वामे कृपाणं करकमलतले छिन्नमुण्डं तथाधः

सव्ये चाभीर्वरं च त्रिजगदघहरे दक्षिणे कालिके च ।

जप्त्वैतन्नाम ये वा तव मनुविभवं भावयन्त्येतदम्ब!

तेषामष्टौ करस्था: प्रकटितरदने  सिद्धयस्त्र्यम्बकस्य॥ ४॥

हे विशाल मुखवाली! हे तीनों लोकों के पाप को नष्ट करनेवाली! हे माते! ऊपर के बायें हाथ में कृपाण और नीचे के बायें हाथ में छिन्न मुण्ड और ऊपर के दायें हाथ में अभय तथा नीचे के दायें हाथ में वरमुद्रा धारण किये हुए, आपके इस रूप का जो साधक ध्यान करके 'दक्षिणकालिके' इस मंत्ररूपी जप को करते हैं, वे भगवान् शंकर की आठों अणिमादि सिद्धियों को प्राप्त करने में (पूर्णतः) समर्थवान् हो जाते हैं ॥ ४ ॥

वर्गाद्यं वह्निसंस्थं विधुरतिललितं तत्त्रयं कूर्चयुग्मं

लज्जाद्वन्द्वं च पश्चात् स्मितमुखि तदधष्ठद्वयं योजयित्वा ।

मातर्ये ये जपन्ति स्मरहरमहिले भावयन्तः स्वरूपं ते

लक्ष्मीलास्यलीलाकमलदलदृशः कामरूपा भवन्ति॥ ५॥

हे मन्द-मन्द हसनेवाली! हे शिवप्रिये! वर्ग का आदि अक्षर 'ककार' उसे वह्नि 'रेफ' से युक्त कर, उसपर विधुरतिललितं 'ईकार' और 'अनुस्वार' की मात्रा लगाकर 'क्रीं' इस मंत्र का तीन बार उच्चारण करने के पश्चात् कूर्चयुग्म 'हूंकारद्वय' और लज्जाद्वन्द्व 'ह्रीकार' के उपरान्त दो '' उसके उपरान्त स्वाहा का समावेश कर अर्थात् 'क्रीं कीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं ठम् ठम् स्वाहा'। इस मंत्र का जो (साधक) जप करते हुए आपका ध्यान करते हैं, वे अपनी दृष्टि के देखने मात्र से लक्ष्मी को जिस स्थान पर चाहें नृत्य करवा सकते हैं। ज्यादा क्या कहें ऐसे साधक इच्छानुसार रूप धारण करने में पूर्णतः समर्थवान्  हो जाते हैं ॥ ५॥

प्रत्येकं वा द्वयं वा त्रयमपि च परं बीजमत्यन्तगुह्यं

त्वन्नाम्ना योजयित्वा सकलमपि सदा भावयन्तो जपन्ति ।

तेषां नेत्रारविन्दे विहरति कमला वक्त्रशुभ्रांशुबिम्बे

वाग्देवी देवि मुण्डस्त्रगतिशयलसत्कण्ठि पीनस्तनाढ्ये॥ ६॥

हे (शव) मुण्डमाला से विभूषित कण्ठवाली! हे पीन स्तनों से युक्त भगवति कालिके! उपरोक्त कहे गए 'ॐ क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं इन सात अक्षर वाले बीज मंत्र के प्रथम भाग मात्र 'ॐ क्रीं क्रीं क्रीं' या दो भाग 'क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ या तीन भाग क्रीं क्रीं क्रीं हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं' इन तीनों भागों के साथ आपके नाम (दक्षिणकालिके स्वहा) जो साधक इस परम गुह्य मंत्र का जप करते हैं, उनके नेत्रों के अन्दर सदैव लक्ष्मी निवास करती है और चन्द्रमा के मण्डल के तुल्य उनके मुख में वाग्देवी (सरस्वती) सदैव निवास करती है ॥ ६॥

गतासूनां बाहुप्रकरकृतकञ्चीपरिलसन्नितम्बां

दिग्वस्त्रां त्रिभुवनविधात्रीं त्रिणयनां ।

श्मशानस्ते तल्पे शवहृदि महाकालसुरतप्रयुक्तां

त्वां ध्यायन् जननि जडचेता अपि कविः ॥ ७॥

हे माते! यदि श्मशान के शय्या पर मुर्दे के हाथों की बनी हुई कांची को नितम्ब स्थल पर धारण करने वाली बिना वस्त्र के, तीनों लोकों की सृष्टि करने में समर्थ, तीन नेत्रों से युक्त एवं शव के हृदय पर महाकाल (शिव) के साथ आपके इस रूप का जड़ प्रकृति का अतिमूर्ख (प्राणी) भी ध्यान करे तो वह (निःसन्देह) महाकवि हो जाता है ॥ ७ ॥

शिवाभिर्घोराभिः शवनिवहमुण्डास्थिकरैः

परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां हरवधूम् ।

प्रविष्टां । संतुष्टामुपरिसुरतेनातियुवतीं

सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि च न तेषां परिभवः ॥ ८॥

हे माते! अति भयंकर श्रृंगालियों से युक्त एवं शवों के मुण्ड तथा हड्डियों से युक्त, श्मशान में जलती हुई चिता के बीच में प्रविष्ट हुई शान्त हृदय वाली, विपरीत रति से सन्तुष्ट होने वाली, युवती रूप से सम्पन्न आपके रूप का जो लोग (निरन्तर) ध्यान करते हैं,उनका पराभव कभी नहीं होता है ।। ८ ॥

वदामस्ते किं वा जननि वयमुच्चैर्जडधियो

न धाता नापीशो हरिरपि न ते वेत्ति परमम् ।

तथापि त्वद्भक्तिर्मुखरयति चास्माकममिते

तदेतत्क्षन्तव्यं न खलु पशुरोषः समुचितः ॥ ९॥

हे माते! चतुर्मुख ब्रह्मा, भगवान् विष्णु और शंकर भी आपके जिस परम तत्त्व को नहीं जानते हैं, फिर आपके उस तत्त्व को मुझ जैसा महामंदबुद्धिवाला कैसे जान सकता है? अतः हे भगवति! आपकी भक्ति ही मुझे आपकी प्रार्थना के लिए विवश करती है, इसलिए मेरे इस अपराध को क्षमा प्रदत्त करें, क्योंकि मेरे जैसे (मूर्ख) मानव पर आपका क्रोध करना ठीक नहीं है ॥ ९॥

समन्तादापीनस्तनजघनधृघौवनवतीरतासक्तो

नक्तं यदि जपति भक्तस्तव मनुम् ।

विवासास्त्वां ध्यायन् गलितचिकुरस्तस्य वशगाः

समस्ताः सिद्धौघा भुवि चिरतरं जीवति कविः ॥ १०॥

हे भगवति! रात्रि के समय बिना वस्त्र के और केशों को बिखेर कर जो भक्त पीनस्तन और पीनजघनयुक्त युवती (स्त्री) से रति क्रिया करता हुआ, आपका ध्यान कर आपके मंत्र का जाप करता है तो उसके  वश में सभी सिद्धियाँ हो जाती हैं, वह कवि और दीर्घ आयु वाला होता है ।। १०॥

समाः सुस्थीभूतो जपति विपरीतां यदि सदा

विचिन्त्य त्वां ध्यायन्नतिशयमहाकालसुरताम् ।

तदा तस्य क्षोणीतलविहरमाणस्य विदुषः

कराम्भोजे वश्या पुरहस्वधू सिद्धिनिवहाः ॥ ११॥

हे शिवप्रिये! महाकाल से विपरीत रति में युक्त आपके रूप का ध्यान करता हुआ, जो भक्त आपके मंत्र का सदैव जप करता है, सम्पूर्ण पृथ्वीलोक में विहार करनेवाले होते हैं। उस विद्वान् भक्त के हाथ में सम्पूर्ण महासिद्धियाँ वशीभूत हो जाती हैं। इससे अधिक और क्या कहा जावें? ॥११॥

प्रसूते संसारं जननि भवती पालयति च

समस्तं क्षित्यादि प्रलयसमये संहरति च ।

अतस्त्वं धातासि त्रिभुवनपतिः श्रीपतिरपि

महेशोऽपि प्रायः सकलमपि किं स्तौमि भवतीम् ॥ १२॥

हे माते! सम्पूर्ण संसार को आप उत्पन्न करती हैं, पालन और संहार भी करती हैं । अतः ब्रह्मा तीनों लोक के पति, विष्णु और शिव भी सदैव आपकी ही प्रार्थना करते हैं। जब ये तीनों देव आपके एक-एक अंश की प्रार्थना करते हैं, फिर मैं सर्वशक्ति सम्पन्न आपकी किस प्रकार से प्रार्थना करने में समर्थ हो सकता हूँ ॥१२॥

अनेके सेवन्ते भवदधिकगीवार्णनिवहान्

विमूढास्ते मातः किमपि न हि जानन्ति परमम् ।

समाराध्यामाद्यां हरिहरविरिञ्चादिविबुधैः

प्रपन्नोऽस्मि स्वैरं रतिरससमहानन्दनिरताम् ॥ १३॥

हे माते! बहुत से लोग देवताओं को आपसे अधिक बलशाली जानकर उनकी सेवा करते हैं, ऐसे लोग अति मूर्ख हैं। क्योंकि वे कुछ नहीं जानते, वे दुर्बुद्धि भी हैं । किन्तु मैं तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि देवताओं से समाराधन के योग्य आदि और रति रसरूप  अति आनन्द में युक्त हो आपकी शरण में अपनी इच्छा से आया हूँ ॥१३॥

धरत्रि कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं

त्वमेका कल्याणी गिरिशरमणी कालि सकलम् ।

स्तुतिः का ते मातर्निजकरुणया भामगतिकं

प्रसन्नां त्वं भूया भवमनु न भूयान्मम जनुः ॥ १४॥

हे माते! आप पृथ्वी, जल, अग्नि, पवन और आकाशरूप वाली है। अत: हे गिरिशरमणि! हे कालि! संसार के सभी पदार्थों में आपका समावेश है । मैं आपकी स्तुति करने में कैसे समर्थ हो सकता हूँ? हे माते! अत: मुझपर कृपा करके आप प्रसन्न हो जायँ। जिससे मेरा इस संसार में फिर से जन्म न हो ॥१४॥

श्मशानस्थः सुस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः

सहस्रं त्वकार्णां निजगलितवीर्येण कुसुमम् 

जपंस्त्वत्प्रयेकं मनुमपि तव ध्याननिरतो

महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढः ॥ १५॥

हे माते! श्मशान भूमि में निवास करता हुआ, बिना वस्त्र के और अपने बालों को बिखेर कर जो भक्त शुद्ध हृदय से अपने वीर्य से युक्त मदार पुष्पों से आपका ध्यान करता हुआ, आपके लिए प्रत्येक पुष्प मन्त्र द्वारा एक हजार आहुति अग्नि में प्रदत्त करता है, वह इस पृथ्वीलोक का राजा बन जाता है ॥ १५॥

गृहे संमार्ज्यन्या परिगलितविर्यं हि चिकुरं

समूलं मध्याह्ने वितरति चितायां कुजदिने ।

समुच्चार्य प्रमेणा मनुमपि सकृत्कालि सततं

गजारूढो याति क्षितिपरिवृढः सत्कविवरः ॥ १६॥

हे कालि! मंगलवार के दिन जो साधक जड़ से अपने केशों को उखाड़कर सम्मार्जनीय (झाड़ू) के साथ अपने वीर्य से उसे मिश्रित कर चिता में आपके मन्त्र का उच्चारण करता हुआ प्रेम के साथ एक बार भी हवन कर देता है, तो ऐसा साधक मदमस्त हाथी पर सवार हो जाता है। इसके साथ ही साथ वह राजा होते हुए अच्छा कवि भी बन जाता है॥१६॥

स्वपुष्पैराकीर्णं कुसुमधनुषो मन्दिरमहो

पुरो ध्यायन्ध्यायन् यदि जपति भक्तस्तव मनुम् ।

स गन्धर्वश्रेणीपतिरपि कवित्वामृतनदीनदीनः

पर्यन्ते परमपदलीनः प्रभवति ॥ १७॥

जो साधक ऋतु से युक्त योनि का ध्यान करता हुआ भक्तिभाव से आपके मन्त्र जप करता है, वह गायन कला में गन्धर्वों का स्वामी हो जाता है और कविता रूप अमृत नदियों का वह सागर के तुल्य पति बन जाता है। इसके साथ ही साथ मृत्यु के समय वह भगवती महाकाली के अत्यन्त परमपद को प्राप्त करता है ॥ १७॥

त्रिपञ्चारे पीठे शवशिवहृदि स्मेरवदनां

महाकालेनोच्चैर्मदनरसलावण्यनिरताम् ।

समासक्तो नक्तं स्वयमपि रतानन्दनिरतो जनो

यो ध्यायेत्त्वामयि जननि स स्यात् स्मरहरः ॥ १८॥

हे माते! पन्द्रह कोण के पीठ में शवरूपी शिव के हृदय पर महाकाल के साथ रतिक्रिया में युक्त एवं मन्द-मन्द हँसी से युक्त मुखवाली आपके रूप का ध्यान स्वयं एकाग्रचित्त से जो भक्त रात्रि में स्वयं रतिक्रिया में आसक्त होकर करते हैं, ऐसे भक्त साक्षात् शिव हो जाते हैं ॥ १८॥

सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते !

परं चोष्ट्त्रं मैशं नरमहिषयोश्छागमपि वा ।

बलिम् ते पूजायामयि वितरतां मर्त्यवसतां

सतां सिद्धिःसर्वा प्रतिपदमपूर्वा प्रभवति ॥ १९॥

हे असिते! आपकी पूजा में मार्जार, ऊँट, भेंडा, मनुष्य, महिष और छाग के लोम और हड्डियों के साथ मांस की बलि, अपनी इच्छा से प्रदत्त करनेवाले मनुष्यों का प्रत्येक दिन अपूर्व सिद्धियों की प्राप्ति होती रहती है ।।१९ ॥

वशी लक्षं मन्त्रं प्रजपति हविष्याशनरतो

दिवा मातर्युष्मच्चरणयुगलध्याननिपुणः ।

परं नक्तं नग्नो निधुवनविनोदेन च मनुं

जपेल्लक्षं स स्यात् स्मरहरसमानः क्षितितले ॥ २०॥

हे माते! जो साधक खीर का भोजन कर दिन में आपके चरण-कमलों का ध्यान करता हुआ आपके मंत्र का एक लाख जप करता है और रात्रि के समय वस्त्ररहित हो रतिक्रीड़ा में आसक्त रहते हुए आपके मन्त्र का एक लाख जप करता है, ऐसा साधक इस पथ्वीलोक में निश्चय ही भगवान शिव के तुल्य योगीश्वर हो जाता है ।। २० ॥

इदं स्तोत्रं मातस्तव मनुसमुद्धारणजनुः

स्वरूपाख्यं पादाम्बुजयुगलपूजाविधियुतम् ।

निशार्धं वा पूजासमयमधि वा यस्तु पठति

प्रलापस्तस्यापि प्रसरति कवित्वामृतरसः ॥ २१॥

हे माते! जो साधक मन्त्रोद्धार पूर्वक आपके पवित्र चरणों की सविधि पूजा एवं ध्यान करते हुए इस स्वरूपाख्य नामक स्तोत्र का पाठ अर्धरात्रि में या पूजा करते समय करते हैं उनके मुखारविन्द से निकला हुआ अनर्थक प्रलाप  भी कविता के रूप में अमृतरस से परिपूर्ण होता है ॥ २१ ॥

कुरङ्गाक्षीवृन्दं तमनुसरति प्रेमतरलं

वशस्तस्य क्षोणीपतिरपि कुबेरप्रतिनिधिः ।

रिपुः कारागारं कलयति च तं केलिकलया

चिरं जीवन्मुक्तः प्रभवति स भक्तः प्रतिजनुः ॥ २२॥

हे माते! इस स्तोत्र का पाठ करनेवाले साधक के पीछे-पीछे तरुणी वृन्दों का समूह प्रेमरस से उन्मत्त होकर चलता है। कुबेर के सदृश धनी राजा भी उसके वशीभूत हो जाते हैं एवं उसके शत्रु भी कारागार में अश्रुपात करते हैं। ऐसा साधक केलिकला से परिपूर्ण होकर बहुत काल पर्यन्त जीवित रहता है और जीता हुआ भी वह जीवनमुक्त हो जाता है ॥ २२॥

इति श्रीमन्महाकालिविरचितं श्रीमद्दक्षिणकालिकायाः स्वरूपाख्यं स्तोत्रं समाप्तम्॥

महाकालप्रणीत काली कर्पूरस्तोत्र पूर्ण हुआ।

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