जगन्मंगल काली कवच
जगन्मंगल नामक माँ काली का यह कवच
वशीकरण के लिए अति प्रसिद्ध है। इसे भैरवी के पूछे जाने पर भैरव भगवान द्वारा
बतलाया गया है। इस कवच की जितनी महिमा का वर्णन किया जाय कम है। इसे श्यामाकवच
के नाम से भी जाना जाता है।
जगन्मङ्गल कालीकवचम्
Jaganmangal Kali kavach
श्री जगन्मङ्गलकवचम् अथवा श्यामाकवचम्
जगन्मङ्गलकवचम्
श्यामा कालीकवचम्
भैरव्युवाच
कालीपूजा श्रुता नाथ भावाश्च
विविधाः प्रभो ॥
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं
पूर्वसूचितम् ॥ १॥
त्वमेव स्रष्टा पाता च संहर्ता च
त्वमेव हि ।
त्वमेव शरणन्नाथ त्राहिमां दुःखसङ्कटात्
॥ २॥
भैरवी ने पूछा-हे नाथ! हे प्रभो!
मैंने काली पूजा और उसके विविध भाव सुने । अब पूर्व में व्यक्त किया कवच सुनने की
इच्छा हुई है, उसका वर्णन करके मेरी दुःख संकट
से रक्षा कीजिये। आप ही सृष्टि की रचना करते हो, आप ही रक्षा
करते हो और आप ही संहार करते हो। हे नाथ! तुम्हीं मेरे आश्रय हो।
भैरव उवाच
रहस्यं श्रृणु वक्ष्यामि भैरवि
प्राणवल्लभे ।
श्रीजगन्मङ्गलन्नाम कवचं
मन्त्रविग्रहम् ॥ ३॥
पठित्वा धारयित्वा च त्रैलोक्यं
मोहयेत्क्षणात् ।
भैरव ने कहा-हे प्राण वल्लभे! श्री
जगन्मंगलनामक काली कवच कहता हूँ। सुनो! इसका पाठ करने अथवा इसे धारण करने से शीघ्र
त्रिलोकी को भी मोहित किया जा सकता है।
नारायणोऽपि यद्धृत्वा नारी भूत्वा
महेश्वरम् ॥ ४॥
योगिनङ्क्षोभमनयद्यद्धृत्वा च
रघूत्तमः ।
वरतृप्तो जघानैव रावणादिनिशाचरान् ॥
५॥
नारायण ने इसको धारण करके नारी रूप
से योगेश्वर शिव को मोहित किया था। श्रीराम ने इसी को धारण करके रावणादि राक्षसों
का संहार किया था।
यस्य प्रसादादीशोऽहं त्रैलोक्यविजयी
विभुः ।
धनाधिपः कुबेरोऽपि
सुरेशोऽभूच्छचीपतिः ॥ ६॥
एवं हि सकला देवास्सर्वसिद्धीश्वराः
प्रिये ।
हे प्रिये! इसके ही प्रसाद से मैं
त्रैलोक्यजयी हुआ हूँ। कुबेर इसके प्रसाद से धनाधिप हुए हैं। शचीपति सुरेश्वर और
सम्पूर्ण देवतागण इसी के प्रभुत्व से सर्वसिद्धिश्वर हुए हैं।
श्रीजगन्मङ्गलस्यास्य कवचस्य ऋषिः
शिवः ॥ ७॥
छन्दोऽनुष्टुप्देवता च कालिका
दक्षिणेरिता ।
जगतां मोहने दुष्टविजये
भुक्तिमुक्तिषु ॥ ८॥
योषिदाकर्षणे चैव विनियोगः
प्रकीर्तितः ।
जगन्मंगल कालीकवचम् के ऋषि शिव,
छन्द अनुष्टुप्, देवता दक्षिण कालिका और मोहन,
दुष्ट निग्रह, भुक्तिमुक्ति और योषिदाकर्षण के
लिए विनियोग है।
जगन्मङ्गल कालीकवचम्
शिरो मे कालिका पातु
क्रीङ्कारैकाक्षरी परा ॥ ९॥
क्रीं क्रीं क्रीं मे ललाटञ्च कालिका खड्गधारिणी ।
हूं हूं पातु नेत्रयुगं ह्रीं ह्रीं
पातु श्रुती मम ॥ १०॥
दक्षिणे कालिका पातु घ्राणयुग्मं
महेश्वरी ।
क्रीं क्रीं क्रीं रसनां पातु हूं
हूं पातु कपोलकम् ॥ ११॥
वदनं सकलं पातु ह्रीं ह्रीं स्वाहा
स्वरूपिणी ।
कालिका और क्रींकारा मेरे मस्तक की,
क्रीं क्रीं क्रीं और खंगधारिणी कालिका मेरे ललाट की, हुं हुं दोनों नेत्रों की ह्रीं ह्रीं कर्म की, दक्षिण
कालिका दोनों नासिकाओं की, क्रीं क्रीं क्रीं मेरी जीभ की,
हुं हुं कपोलों की और ह्रीं ह्रीं
स्वाहा स्वरूपिणी महाकाली मेरी सम्पूर्ण देह की रक्षा करें।
द्वाविंशत्यक्षरी स्कन्धौ महाविद्या
सुखप्रदा ॥ १२॥
खड्गमुण्डधरा काली
सर्वाङ्गमभितोऽवतु ।
क्रीं हुं ह्रीं
त्र्यक्षरी पातु चामुण्डा हृदयं मम ॥ १३॥
ऐं हुं ओं ऐं स्तनद्वन्द्वं ह्रीं
फट् स्वाहा ककुत्स्थलम् ।
अष्टाक्षरी महाविद्या भुजौ पातु
सकर्तृका ॥ १४॥
क्रीं क्रीं हुं हुं ह्रीं ह्रींकरौ
पातु षडक्षरी मम ।
बाईस अक्षर की गुह्य विद्या रूप
सुखदायिनी महाविद्या मेरे दोनों स्कन्धों की, खंगमुण्डधारिणी
काली मेरे सर्वांग की, क्रीं हुं ह्रीं चामुण्डा मेरे हृदय
की, ऐं हुं ओं ऐं मेरे दोनों स्तनों की, ह्रीं स्वाहा मेरे कन्धों की एवं अष्टाक्षरी महाविद्या मेरी दोनों भुजाओं
की और क्रीं इत्यादि षडक्षरी विद्या मेरे दोनों हाथों की रक्षा करें।
क्रीं नाभिं मध्यदेशञ्च दक्षिणे
कालिकाऽवतु ॥ १५॥
क्रीं स्वाहा पातु पृष्ठञ्च कालिका
सा दशाक्षरी ।
क्रीं मे गुह्यं सदा पातु कालिकायै नमस्ततः
॥ १६॥
सप्ताक्षरी महाविद्या सर्वतन्त्रेषु
गोपिता ।
क्रीं मेरी नाभि की,
दक्षिण कालिका मेरे मध्य, क्रीं स्वाहा और
दशाक्षरी विद्या मेरी पीठ की, क्रीं सदैव मेरे गुह्य अंगों
की रक्षा करें। सात अक्षरों वाली महाविद्या जो सभी तंत्रों में गोपनीय है, मेरे
सभी अंगों की रक्षा करे।
ह्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके हूं
ह्रीं पातु कटीद्वयम् ॥ १७॥
काली दशाक्षरी विद्या स्वाहा पातूरुयुग्मकम्
।
ॐ ह्रीं क्रीं मे स्वाहा पातु
कालिका जानुनी मम ॥ १८॥
कालीहृन्नामविद्येयं चतुर्वर्गफलप्रदा
।
ह्रीं क्रीं दक्षिणे कालिके हूं ह्रीं मेरी कटि की,
दशाक्षरीविद्या मेरे ऊरुओं की और ओ३म् ह्रीं क्रीं स्वाहा मेरी जानु
की रक्षा करें। यह विद्या चतुर्वर्गफलदायिनी है।
क्रीं ह्रीं ह्रीं पातु सा गुल्फन्दक्षिणे कालिकाऽवतु ॥ १९॥
क्रीं ह्रूं ह्रीं स्वाहा पदं पातु
चतुर्द्दशाक्षरी मम ।
क्रीं ह्रीं ह्रीं मेरे गुल्फ की,
क्रीं हूँ ह्रीं स्वाहा और चतुर्दशाक्षरीविद्या मेरे शरीर की रक्षा
करें।
खड्गमुण्डधरा काली वरदाभयधारिणी ॥
२०॥
विद्याभिःसकलाभिः सा
सर्वाङ्गमभितोऽवतु ।
खड्गमुण्डधरा वरदा भवहारिणी काली सब
विद्याओं के सहित मेरे सर्वांग की रक्षा करें।
काली कपालिनी कुल्ला कुरुकुल्ला
विरोधिनी ॥ २१॥
विप्रचित्ता तथोग्रोग्रप्रभा दीप्ता
घनत्विषा ।
नीला घना वलाका च मात्रा मुद्रा
मिता च माम् ॥ २२॥
एताः सर्वाः खड्गधरा
मुण्डमालाविभूषणाः ।
रक्षन्तु दिग्विदिक्षु मां ब्राह्मी
नारायणी तथा ॥ २३॥
माहेश्वरी च चामुण्डा कौमारी
चापराजिता ।
वाराही नारसिम्ही च
सर्वाश्चामितभूषणाः ॥ २४॥
रक्षन्तु स्वायुधैर्दिक्षु विदिक्षु
मां यथा तथा ।
कालीं,
कपालिनी, कुल्ला, कुरुकुल्ला,
विरोधिनी, विपचिता, उग्रप्रभा,
दीप्ता, घनत्विषा, नीला घना, वलाका, खङ्ग धारिणी, मुंडमालिनी,
ब्राह्मी, नारायणी, माहेश्वरी,
चामुण्डा, कुमारी, अपराजिता,
वाराही, नृसिंही देवियों ने सर्व आभूषण धारण किए हुये हैं । यह सब
माताएँ मेरे दिक् विदिक् की सर्वदा सर्वत्र रक्षा करें।
जगन्मङ्गल कालीकवचम् फलश्रुति:
इति ते कथितं दिव्यं कवचं
परमाद्भुतम् ॥ २५॥
श्रीजगन्मङ्गलन्नाम
महाविद्यौघविग्रहम् ।
त्रैलोक्याकर्षणं ब्रह्मन्कवचं
मन्मुखोदितम् ॥ २६॥
गुरुपूजां विधायाथ
विधिवत्प्रपठेत्ततः ।
कवचं त्रिःसकृद्वापि यावज्जीवञ्च वा
पुनः ॥ २७॥
यह ’जगन्मंगलनामक’ महामन्त्रस्वरूपी परम अद्भुत दिव्य
कवच कहा गया है। इसके द्वारा त्रिभुवन आकर्षित होता है। गुरु की पूजा करने के
पश्चात् इस कवच को ग्रहण करना चाहिये। इसका एक बार या तीन बार अथवा जीवनपर्यन्त
पाठ करें।
एतच्छतार्द्धमावृत्य त्रैलोक्यविजयी
भवेत् ।
त्रैलोक्यं क्षोभयत्येव कवचस्य
प्रसादतः ॥ २८॥
महाकविर्भवेन्मासं सर्वसिद्धीश्वरो
भवेत् ।
इसकी पचास आवृत्ति करने से साधक
त्रैलोक्य विजयी हो सकता है। इस कवच के प्रसाद से त्रिभुवन क्षोभित होता है। इस
कवच के प्रसाद से एक मास में सर्वसिद्धीश्वर हुआ जा सकता है।
पुष्पाञ्जलीन् कालिकायै
मूलेनैवार्पयेत् सकृत् ॥ २९॥
शतवर्षसहस्राणां पूजायाः
फलमाप्नुयात् ।
मूल मन्त्र द्वारा कालिका को
पुष्पाञ्जलि देकर इस कवच का एक पाठ करने से शतसहस्रवार्षिकी पूजा का फल प्राप्त हो
जाता है।
भूर्जे विलिखितञ्चैतत्
स्वर्णस्थन्धारयेद्यदि ॥ ३०॥
विशाखायां दक्षबाहौ कण्ठे वा
धारयेद्यदि ।
त्रैलोक्यं मोहयेत् क्रोधात्
त्रैलोक्यं चूर्णयेत्क्षणात् ॥ ३१॥
भोजपत्र अथवा स्वर्णपत्र पर यह कवच
लिखकर सिर व दक्षिण हस्त या कण्ठ में धारण करने से धारक त्रिभुवन को मोहित या
क्रोधित होने पर चूर्णकृत करने में समर्थ हो जाता है।
पुत्रवान् धनवान् श्रीमान्
नानाविद्या निधिर्भवेत् ।
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि
तद्गात्रस्पर्शनात्ततः ॥ ३२॥
नाशमायान्ति सर्वत्र कवचस्यास्य
कीर्तनात् ।
ऐसा मनुष्य पुत्र, धन, कीर्ति व अनेक विद्याओं में दक्ष होता है । उस पर ब्रह्मास्त्र या अन्य शस्त्र का भी प्रभाव नहीं पडता । कवच के प्रभाव से सभी अनिष्ट दूर होते हैं ।
मृतवत्सा च या नारी वन्ध्या वा मृतपुत्रिणी ॥ ३३॥
कण्ठे वा वामबाहौ वा कवचस्यास्य धारणात् ।
वह्वपत्या जीववत्सा भवत्येव न संशयः ॥ ३४ ॥
न देयं परशिष्येभ्यो ह्यभक्तेभ्यो विशेषतः ।
शिष्येभ्यो भक्तियुक्तेभ्यो ह्यन्यथा मृत्युमाप्नुयात् ॥३५॥ स्प
र्शामुद्धूय कमला वाग्देवी मन्दिरे मुखे ।
पौत्रान्तं स्थैर्यमास्थाय निवसत्येव निश्चितम् ॥३६॥
यदि बंध्या या मृतवत्सा स्त्री इस कवच को गले या बाईं भुजा में धारण करे तो उसको संतान की प्राप्ति होती है । इसमें लेश भी संशय नहीं है । यह कवच अपने भक्त-शिष्य को ही देना चाहिए । अन्य को देने से वह मृत्यु मुख में जाता है । कवच के प्रभाव से साधक के घर में लक्ष्मी का स्थायी वास होता है और उसे वाचासिद्धि की प्राप्ति होती है । ऐसा पुरुष अंतकाल तक पौत्र-पुत्र आदि का सुख भोगता है ।
इदं कवचं न ज्ञात्वा यो जपेद्दक्षकालिकाम् ।
शतलक्षं प्रजप्त्वापि तस्य विद्या न सिद्धयति ।
शस्त्रघातमाप्नोति सोऽचिरान्मृत्युमाप्नुयात् ॥ ३७ ॥
इस कवच को जाने बिना ही जो मनुष्य काली मंत्र का जप करता है । वह चाहे कितना ही जप करे, सिद्धि की प्राप्ति नहीं होती और वह शस्त्र द्वारा मरण को प्राप्त होता है ।
इति कालीकवचं अथवा जगन्मङ्गलकवचम् अथवा श्यामाकवचं सम्पूर्णम् ।
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