मोहन कवच
क्रियोड्डीश महातन्त्रराज के पटल १४
में वर्णित माँ महाकाली के इस मोहन कवच का पाठ करने मात्र से साधक सम्पूर्ण जगत्
को मोहित कर सकता है इसमें संशय नहीं है।
मोहन कवचम्
Mohan kavach
मोहन कवचं
सर्वत्र मोहन काली कवच
मोहनकवचम्
ईश्वर उवाच
त्रिकालं गोपितं देवि ! कलिकाले
प्रकाशितम् ।
न वक्तव्यं न द्रष्टव्यं तव
स्नेहात् प्रकाश्यते ।। १९ ।।
मोहन कवच - हे देवि! यह कवच तीनों
कालों (सत्य, त्रेता, द्वापर)
में गोपनीय रहा है और अब कलियुग में प्रकट हो रहा है। मैंने अब तक इसे न तो किसी
से कहा है और न ही किसी को दिया है; तुम्हारे स्नेह से ही
इसे प्रकाशित कर रहा हूँ।
काली दिगम्बरी देवि! जगन्मोहनकारिणी
।
तच्छृणुष्व महादेवि!
त्रैलोक्यमोहनन्त्विदम् ।। २० ।।
हे देवि ! विश्व को मोहित करने वाली
दिगम्बरा महाकाली के इस कवच को श्रवण करो। यह कवच त्रिभुवन को मोहित करने वाला
है।
अथ मोहनकवचम्
अस्य महाकालभैरव ऋषिः,
अनुष्टुप्छन्दः, श्मशानकालिका देवता सर्वमोहने
विनियोगः ।
इस कवच के ऋषि महाकालभैरव,
छन्द अनुष्टुप् देवता श्मशानकालिका तथा विनियोग सर्वमोहन है।
ऐं क्रीं क्रं क्रः स्वाहा विवादे
पातु मां सदा ।
क्लीं दक्षिणकालिकादेवतायै सभामध्ये
जयप्रदा ।। २१ ।।
क्रीं क्रीं श्यामांगिन्यै शत्रुं
मारय मारय ।
ह्रीं क्रीं क्रीं क्लीं त्रैलोक्यं
वशमानय ।। २२ ।।
ह्रीं श्रीं क्री मां रक्ष रक्ष
विवादे राजगोचरे ।
द्वाविंशत्यक्षरी ब्रह्म सर्वत्र
रक्ष मां सदा ।। २३ ।।
कवचे वर्जिते यत्र तत्र मां पातु
कीलका ।
सर्वत्र रक्ष मां देवि श्यामा
तूग्रस्वरूपिणी ।। २४ । ।
ऐं क्रीं क्रूं क्रः स्वाहा विवादे
पातु मां सदा क्लीं दक्षिणकालिका देवतायै सभामध्ये जयप्रदा क्रीं क्रीं
श्यामांगिन्यै शत्रुं मारय मारय ह्रीं क्रीं क्लीं त्रैलोक्यं वशमानय ह्रीं श्रीं
क्रीं मां रक्ष रक्ष विवादें राजगोचरे द्वाविंशत्यक्षरी ब्रह्य सर्वत्र रक्ष मां
सदा । कालिका देवी मेरी रक्षा करें। उग्रस्वरूपिणी श्यामा सर्वत्र मेरी रक्षा
करें।
मोहनकवच माहात्म्यम्
एतेषां परमं मोहं भवद्भाग्ये
प्रकाशितम् ।
सदा यस्तु पठेद्वापि त्रैलोक्यं
वशमानयेत् ।। २५ । ।
हे देवि! यह कवच तुम्हारे लिये ही
प्रकाशित किया है। जो व्यक्ति इसका सदा पाठ करता है, उसके वश में तीनों लोक रहते हैं।
इदं कवचमज्ञात्वा
पूजयेद्धोररूपिणीम् ।
सर्वदा स महाव्याधिपीड़ितो नात्र
संशयः ।। २६ ।।
अल्पायुः स भवेद्रोगी कथितं तव नारद
।
इस कवच के ज्ञान के विना जो व्यक्ति
घोररूपिणी कालिका का पूजन करेगा; हे
नारद! वह सदा महाव्याधिग्रस्त, पीड़ित, अल्पायु एवं रोगी होगा।
धारणं कवचस्यास्य भूर्जपत्रे
विशेषतः ।। २७ ।।
सयन्त्रं कवचं धृत्वा इच्छासिद्धिः
प्रजायते ।
शुक्लाष्टम्यां लिखेन्मन्त्रं
धारयेत् स्वर्णपत्रके ।। २८ ।।
इस कवच को भूर्जपत्र (भोजपत्र) पर
अंकित कर धारण करने से इच्छासिद्धि होती है। इसे शुक्लपक्ष की अष्टमी को भोजपत्र
पर अंकित कर स्वर्णपात्र में वेष्टित कर धारण करना चाहिये।
कवचस्यास्य माहात्म्यं नाहं वक्तुं
महामुने ।
शिखायां धारयेद्योगी फलार्थी
दक्षिणे भुजे ।। २९ ।।
हे महामुने! इस कवच के माहात्म्य को
मैं भी कहने में समर्थ नहीं हूँ। योगी को इसे शिखा में तथा फलार्थी को दाहिनी भुजा
में धारण करना चाहिये।
इदं कल्पद्रुमं देवि तव स्नेहात्
प्रकाश्यते ।
गोपनीयं प्रयत्नेन पठनीयं महामुने
।। ३० ।।
हे देवि! तुम्हारे स्नेह के कारण ही
मैंने इसे प्रकाशित किया है। हे महामुने! इसे समस्त प्रयत्नों से भी गोपनीय रखना
चाहिये।
श्रीविष्णुरुवाच
इत्येवं कवचं नित्यं महालक्ष्मि !
प्रपठ्यताम् ।
अवश्यं वशमायाति त्रैलोक्यं
सचराचरम् ।।३१।।
श्री विष्णु भगवान् ने कहा- हे
महालक्ष्मि ! इस कवच का नित्य पाठ करने से सम्पूर्ण चराचर जगत् तथा त्रिलोक वश में
हो जाता है।
शिवेन कथितं पूर्वं नारदे कलहास्पदे
।
तत्पाठान्नारदेनापि मोहितं सचराचरम्
।।३२।।
शत्रुवर्ग से विह्वल नारद जी के
प्रति भगवान् शिव ने पूर्व काल में इसका वर्णन किया था,
जिसके पाठ से नारद जी ने चराचर जगत् को मोहित कर लिया था ।
इति क्रियोड्डीशे महातन्त्रराजे
देवीश्वर-संवादे मोहनकवचम् चतुर्दशः पटलः ।। १४ ।।
आगे जारी...... क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल 15

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