क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३     

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ में विद्वेषण, महाभैरवमन्त्र, उच्चाटन, शान्ति, मारणम्, महाकृत्याप्रयोग, बटुकभैरवप्रयोग, प्रणवाद्य ध्यान, ऋष्यादिन्यासः, वशीकरण, स्तम्भन, यन्त्र पूजाक्रम, अघोर सन्निरोधन, तत्पुरुष योनिमुद्राप्रदर्शन का वर्णन किया गया है। 

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३

क्रियोड्डीश महातन्त्रराजः त्रयोदशः पटल:

Kriyoddish mahatantraraj Patal 13

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३        

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज त्रयोदश पटल

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज तेरहवाँ पटल

क्रियोड्डीशमहातन्त्रराजः

अथ त्रयोदशः पटलः

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३  –  विद्वेषणम्

गृहीत्वा शल्लकीकण्टं निखनेद्भूविदारतः ।

कलहो जायते नित्यं शत्रोर्गेहे न संशयः ॥ १ ॥

मन्त्रः

ॐ नमो नारायणाय अमुकामुकेन सह विद्वेषं कुरु कुरु स्वाहा ।

साहिल के कांटे को ॐ नमो नारायणाय अमुकामुकेन सह विद्वेषं कुरु कुरु स्वाहा मन्त्र से अभिमन्त्रित कर भूमि में दबा दे। इससे द्वेष उत्पन्न हो जाता है तथा शत्रुओं में नित्य कलह होने लगता है। अमुक अमुकेन के स्थान पर जिसका जिससे विद्वेषण कराना उनके नामों का उच्चारण करना चाहिये ॥ १ ॥

अन्यच्च

परस्परं रिपोर्वैरं मित्रेण सह निश्चितम् ।

महिषाश्वपुरीषाभ्यां गोमूत्रेण समालिखेत् ॥२॥

ययोर्नाम तयोः शीघ्रं विद्वेषश्च परस्परम् ॥३॥

अन्य विधि- महिष तथा अश्व के मल को गोमूत्र में मिश्रित कर उससे परस्पर घनिष्ठ मित्रों का नाम लिखने पर शीघ्र ही उन मित्रों में विद्वेष उत्पन्न हो जाता है ॥२-३॥

अन्यच्च

रक्तेन महिषाश्वेन श्मशानवस्त्रके लिखेत् ।

ययोर्नाम तयोः शीघ्रं विद्वेषश्च परस्परम् ।।४।।

षट्कोणचक्रमध्ये तु रिपोर्नामसमन्वितम् ।

मन्त्रं ततः प्रवक्ष्यामि महाभैरवसंज्ञकम् ।।५।।

अन्य विधि- लाल रंग के भैसे तथा घोड़े के मल को गोमूत्र में मिश्रित कर श्मशान के वस्त्र के ऊपर षट्कोण चक्र खींचकर चक्र के भीतर दोनों का नाम ( जिससे जिसका विद्वेष कराना हो) लिखे। अब महाभैरवसंज्ञक मन्त्र को कहता हूँ॥४-५॥

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३  –  महाभैरवमन्त्रः

ॐ नमो भगवते श्मशानकालिके अमुकं विद्वेषय

विद्वेषय हन हन पच पच मथ मथ ॐ फट् स्वाहा ।

अनेन मन्त्रराजेन होमयेद्यत्नतः सुधीः ।

वह्निकुण्डे श्मशानाग्निं दीपयेत् खादिरैन्धसा ।।६।।

कटुतैलान्वितैः पत्रैर्निम्बस्य परिशोधितैः ।

होमयेदयुतं धीमान्साकं तिलयवाक्षतैः ।।७।।

ॐ नमो भगवति श्मशानकालिके अमुकं विद्वेषय विद्वेषय हन हन पच पच मथ मथ ॐ फट् स्वाहा  इस मन्त्र के द्वारा अग्निकुण्ड में श्मशान की अग्नि को खैर की समिधाओं से प्रज्ज्वलित कर शुद्ध किये हुये नीम के पत्ते को सरसों तेल, तिल, जौ, अक्षत से मिश्रित कर दश हजार हवन करे॥ ६-७ ॥

भावयन् कालिकां देवीं मन्त्रशीलक्षमप्रभाम् ।

व्योमनीलां महाचण्डां सुरासुरविमर्दिनीम् ।।८।।

त्रिलोचनां महारावां सर्वाभरणभूषिताम् ।

कपालकर्तृकाहस्तां चन्द्रसूर्योपरिस्थिताम् ।।९।।

शरजालधराञ्चञ्चत् प्रेतभैरववेष्टिताम् ।

वसन्तीं पितृगहने सर्वसिद्धिप्रदायिनीम् ।।१०।।

होमयेद्विविधैः पुष्पैर्वलिछागोपहारकैः ।

पूजयित्वा महेशानी भक्तियुक्तेन चेतसा ।। ११ ।।

एतद्धस्म समादाय धारयेदभिमन्त्रितम् ।

भस्मना तेन मनुना विद्वेषो जायते नृणाम् ।।१२।।

मन्त्रसाधक कालिका देवी का इस प्रकार ध्यान करे- आकाशसदृश नील वर्णवाली, महाचण्डा, सुर एवं असुरों का विमर्दन करने वाली, त्रिलोचना, भयानक शब्द करने वाली, सभी आभूषणों से अलंकृत, हाथ में कपाल एवं कर्तरी धारण की हुई, चन्द्र-सूर्य के ऊपर स्थित, शरजाल धारण करने वाली, प्रेतों एवं भैरवों से वेष्टित, पितृगृह में निवास करने वाली, समस्त सिद्धियों को प्रदान करने वाली कालिका देवी की पुष्प, बलि, छाग एवं उपहारों से हवन कर भक्तियुक्त चित्त से उनकी पूजा करे। पश्चात् भस्म को अभिमन्त्रित कर धारण करे। इस भस्म से विद्वेषण होता है।।८ - १२ ।।

मन्त्रः

ॐ द्रीं विद्वेषिणि अमुकामुकयोः परस्परयोर्विद्वेषणं कुरु कुरु स्वाहा ।

यह विद्वेषण मन्त्र है।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ – अथोच्चाटनम्

सौरारयोर्दिने ग्राह्यं नरास्थि चतुरङ्गुलम् ।

निशावसाने संलिख्य प्रधानभवने क्षिपेत् ।

सप्ताहाऽभ्यन्तरे शत्रोराशु चोच्चाटनम्भवेत् ।। १३ ।।

द्रूं अमुकस्योच्चाटनं कुरु कुरु स्वाहा । द्रूं अमुकं हन हन स्वाहा ।

शनिवार अथवा मंगलवार को चार अंगुल की मनुष्य की हड्डी के ऊपर मूल में दिया गया मन्त्र (द्रूं... अमुक स्वाहा) लिख कर रात्रि के अन्त में शत्रु के प्रधान भवन में फेंक दे। इससे एक सप्ताह के भीतर शत्रु का उच्चाटन हो जाता है ॥१३॥

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ – स्तम्भनम्

अमुकस्य मनः स्तम्भय स्तम्भय हुं फट् ।।

उपरोक्त मन्त्र स्तम्भनमन्त्र है।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ – शान्तिः

शान्तिः सर्वाभिचारस्य पञ्चगव्येन जायते ।

काम्यप्रयोगे सर्वत्र नियमोऽयुतसंख्यकः ।। १४ ।।

समस्त अभिचारकर्मों की शान्ति पञ्चगव्यसेवन से होती है। समस्त काम्यकर्मों में दस हजार जप करने का नियम है ।। १४ ।।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ – मारणम् महाकृत्याप्रयोगः

अतः परं महेशानि! मारणं शृणु पार्वति ।

येन विज्ञातमात्रेण सुसाध्यं भुवनत्रये ।। १५ ।।

रुद्रजाया महायोगिन्यतो गौरीपदं वदेत् ।

भुवनभयंकरीति पदं वर्मास्त्रमुच्चरेन्मनुम् ।। १६ ।।

अथवा प्रथमं न्यासमथातो ब्रह्मणः पदम् ।

यद्दीर्घयुक्तबीजेन चाङ्गमन्त्रेण योजना ।। १७ ।।

हृदयं च ततोऽङ्गेन धर्मास्त्रेण शिरः क्रमात् ।

शिखाकवचनेत्रास्त्रमेवं न्यासक्रमः स्मृतः ।। १८ ।।

अङ्गिराश्च ऋषिर्देवि गायत्रीच्छन्द ईरितम् ।

सिंहवक्त्रा च भूतानां भयङ्करि ततः परम् ।

महाकृत्या देवता च इत्युक्त्या न्यासमाचरेत् ।। १९ ।।

हे महेशानि ! अब मैं मारणप्रयोग को कहता हूँ, श्रवण करो। इसके ज्ञानमात्र से तीनों भुवनों में सभी वस्तुयें सुसाध्य हो जाती हैं। रुद्रजाया महायोगिनी गौरी भुवनभयंकर तथा वर्मास्त्र का उच्चारण करके न्यासादि कर्म मूल में लिखे अनुसार करे। हृदयादि न्यास भी करे । इसके ऋषि अंगिरा तथा छन्द गायत्री हैं। इसके पश्चात् सिंहवक्त्रा, भूत, भयंकरि तत्पश्चात् महाकृत्या देवता का उच्चारण कर न्यास करे ।। १५-१९।।

ध्यानम्

सिंहाननां कृष्णमुखीं लम्बगात्रपयोधराम् ।

दंष्ट्राकरालवदनां त्रिनेत्रां सर्वप्रोज्ज्वलाम् ।। २० ।।

कृष्णकाञ्चीसमायुक्तां विधूमाग्निसमप्रभाम् ।

त्रिशूलचक्रमुशलखट्वाङ्गकरपङ्कजाम् ।। २१ ।।

लेलिहानमहज्जिह्वां विद्युत्पुञ्जसुभीषणाम् ।

ध्यात्वा कृत्यां विधानेन पूजयेन्मन्त्रवित्तमः ।। २२ ।।

ध्यात्वा कृत्यामर्च्चयेद्वै रक्तैः पुष्पैश्च वश्यके ।

कृष्णैर्मारणकृत्येषु मांसरक्तासवैः स्तुताम् ।। २३ ।।

सिंह के समान मुखवाली, कृष्णमुखी, लम्बगात्रपयोधर, तीखे दाँतों वाली, करालवदना, तीन नेत्र वाली, उज्ज्वल वर्ण वाली, कृष्णकांची से युक्त, प्रज्ज्वलित अग्नि के सदृश कान्ति वाली, त्रिशूल, चक्र, मुशल, खट्वांग को अपने करकमलों में धारण करने वाली, जिह्वा से होंठों को चाटती हुई, विद्युत् पुञ्ज के समान भीषण तेजवाली कृत्या देवी का विधिवत् ध्यान व पूजन करे। वशीकरण में कृत्या देवी का पूजन लाल पुष्पों से करे। मारण कर्म में कृष्ण पुष्प, मांस एवं रक्तासव से पूजन कर स्तुति करे। २०-२३॥

कृत्याश्ञ्च मदनां कुमार्यश्वच्छादिनीं तथा ।

भीषणां श्रीमतीं चैव प्रतिष्ठाञ्च ततः परम् ।। २४ ।।

विद्यामभ्यर्चयेदष्टपत्रेषु हि सुलोचनाम् ।

पूर्वे तु शांकरीं नाम शुक्लवर्णां वरान्विताम् ।।२५।।

द्विभुजां सौम्यवदनां पाशांकुशधरां शिवाम् ।

दक्षिणे भीषिकां नाम लम्बजिह्वां सुधामुखीम् ।। २६ ।।

कृष्णवर्णां रक्तमुखीं रक्तमालानुलेपनाम् ।

चतुर्भुजां सिंहनादां महाघोषां कपालिनीम् ।। २७ ।।

खड्गहस्तां शिरोमालां सर्वाभरणभूषिताम् ।

पश्चिमे वारुणीं नाम स्वर्णवर्णां हसन्मुखीम् ।। २८ ।।

सुरुद्रमालिकां शुभ्रदंष्ट्रामभयदां सदा ।

उत्तरे भीमिकां नाम चतुर्हस्तां भयङ्करीम् ।। २९ ।।

मदना, कुमार्यश्वच्छादिनी, भीषणा, श्रीमती ऐसी कृत्या देवी की प्रतिष्ठा कर अष्ट कमलदल में विद्यारूपी सुलोचना श्रीकृत्या देवी का पूजन करे। पूर्व में शांकरी, शुक्लवर्णा, वरान्विता, द्विभुजा, सौम्यवदना, पाशांकुशधरा, शिव- इन नामों से पूजन करे। दक्षिण भाग में भीषिका, लम्बजिह्वा, सुधामुखी, कृष्णवर्णा, रक्तमुखी, रक्तमाल्यानुलेपना, चतुर्भुजा, सिंहनादा, महाघोषा, कपालिनी, खड्गहस्ता, शिरोमाला, सर्वाभरणभूषिता इन नामों से पूजन करे। पश्चिम भाग में वारुणी, स्वर्णवर्णा, हसन्मुखी, सुरुद्रमालिका, शुभ्रदंष्ट्रा, अभयदा नामों से पूजन करे। उत्तर भाग में भीमिका, चतुर्हस्ता तथा भयंकरी नामों से पूजन करे ।। २४-२९ ॥

पूजयित्वा जपेन्मन्त्रं नित्यमष्टोत्तरं शतम् ।

अवाप्य विनियोगस्तु कर्तव्यो मन्त्रिणा सदा ।। ३० ।।

कालं विदित्वा प्रतिमां मधूच्छिष्टेन कारयेत् ।

द्वादशांगुलकं शत्रोर्नखलोमसमन्वितम् ।। ३१ ।।

हृदये नामधेयञ्च फट्कारञ्च समर्मके ।

अस्य प्राणान् प्रतिष्ठाप्य मरिचैर्लेपयेत्ततः ।। ३२ ।।

मृतब्राह्मणचाण्डालकेशाभ्यां पादयोः पृथक् ।

बद्ध्वा करे करमये तोरणे चाऽप्यधोमुखम् ।।३३।।

तस्याधो मेखलायुक्तं त्रिकोणं तत्र कुण्डकम् ।

तत्र शारं विधायाग्निं परिस्तीर्य शरैस्तृणैः ।। ३४ । ।

विभीतकं परीधाय कल्पयेद्यस्य मारणम् ।

जुहुयान्निम्बतैलाक्तैः काकोलूकस्य पुच्छकैः ।। ३५ ।।

दारयैनं शोषयैनं मारयेत्यभिधाय च ।

अष्टोत्तरशतेनैव मनुना विधिना ततः ।। ३६ ।।

होमान्ते विधिवत् कृत्वा बाह्ये अग्नेश्च सन्निधौ ।

यो मे द्वेष्टि जनः कश्चिद्दूरस्थो वान्तिकेऽपि च ।। ३७ ।।

पिब कृत्ये मुकं तस्य हुमित्युक्त्वा निवेदयेत् ।

संरक्ष्याग्निं विधानेन नवरात्रं समाचरेत् ।। ३८ ।।

हुनेद्यावत्तावदस्य भवेदेव रिपोर्मृतिः ।

अर्क क्षीरे च मरिचं पिष्ट्वा सिद्धार्थमेव च ।। ३९ ।।

जलैः संलोड्य मन्त्रेण रिपुं ध्यात्वा निरुद्धदृक् ।

कृष्णाम्बरोत्तरीयाप्रपादेनाक्रम्य तद्रिपुम् ।।४० ।।

वज्रशूलमिति ध्यात्वा तस्योपरि तु निक्षिपेत् ।

नवरात्रात् परे शत्रुम्रियते नात्र संशयः ।।४१।।

कृत्या देवी के पूजन के पश्चात् प्रतिदिन एक सौ आठ बार मन्त्र का ज‍प करे, जप से विनियोग करे। पुरश्चरण काल को ज्ञात कर मोम से प्रतिमा का निर्माण करे। बारह अंगुल की शत्रु की नख-लोमसहित प्रतिमा बनाये । प्रतिमा दे हृदय में शत्रु के मर्म में 'फट्' लिखे। शत्रु के प्रतिमा की प्राणप्रतिष्ठा करने सर्वाङ्ग में मिर्च का लेप करे। मृत ब्राह्मण एवं मृत चाण्डाल के केशों से प्रतिमा के हाथ-पैर बांध कर उल्टे मुख तोरण में लटका दे एवं उस प्रतिमा के नीचे मेखलायुक्त त्रिकोण कुण्ड स्थापित करे। उस कुण्ड में अग्नि स्थापित कर एवं शर से अग्नि को आच्छादित कर, बहेड़े की माला धारण कर, कौआ एवं उल्लू इन दोनों की पूँछ को नीम के पत्ते एवं सरसों तेल में मिलाकर हवन करे। हवन के समय दारय, शोषण, मारय इन तीन शब्दों का उच्चारण करता रहे। विधिपूर्वक एक सौ आठ बार मन्त्र द्वारा हवन करे । पुनः अग्नि के सान्निध्य में इस प्रकार कहे हे कृत्ये! दूर देश में रहने वाला अथवा समीप में रहने वाला जो भी कोई मेरा शत्रु हो, उसके रक्त का पान करो। इस प्रकार कह कर मन्त्र के अन्त में 'हुँ' बीज मिश्रित करके आहुति प्रदान करे। विधिपूर्वक अग्नि की रक्षा कर नवरात्रि तक अथवा जब तक शत्रु का मारण न हो, तब तक नियमपूर्वक हवन करता रहे। आक (मदार) के दूध में मिर्च पीसकर एवं मन्त्रोच्चारण करके जल मिलाकर शत्रु का ध्यान करे तथा काले वस्त्रों से वेष्टित उस शत्रुप्रतिमा को पैर के अंगूठे से स्पर्श कर एवं वज्रशूल का ध्यान कर उस मिर्चमिश्रित जल को प्रतिमा पर छिड़क दे। इससे नवरात्रि के पश्चात् अवश्य ही शत्रु का मारण होता है; इसमें संशय नहीं है ।। ३०-४१ ॥

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ – वटुक भैरवप्रयोगः

अतः परं महेशानि! शृणुष्व कर्मसिद्धिदम् ।

वटुकं विमलाङ्गाख्यं पूजयेत् षट्सु कर्मसु ।। ४२ ।।

आचम्य स्वस्तिवाचनसूक्तं पठित्वा

अभ्यर्च्य च शिरः पद्मे श्रीगुरुं करुणामय् ।। ४३ ।।

हे महेशानि ! अब कर्मसिद्धिदायक वटुकभैरव का श्रवण करो। जिनके विमल अङ्ग हैं, उन श्री वटुकभैरव का पूजन समस्त षट्कर्मों में करना चाहिये। आचमन एवं स्वस्तिवाचन सूक्त का पाठ कर स्वयं के सहस्रार कमल में श्रीगुरुदेव का पूजन करे ।। ४२-४३ ॥

सङ्कल्पः

अद्येत्याद्यमुकगोत्रान्तनामग्रहविशिष्टोपशमनपूर्वकारोग्यायुर्वृद्धिकामो गणेशदिपूजापूर्वक वटुकपार्थिव शिव पूजन महं करिष्ये ।

गुरु-पूजन के पश्चात् यह संकल्प करे ।

शान्तिकादौ

रतिं च पूजयेदादौ क्षेत्रपालं ततः पुनः ।

रुद्रं च पूजयेद्देवि ध्यानं शृणु महामते ! ।। ४४ ।।

शान्ति आदि कर्म में सर्वप्रथम रति का पूजन करे; तदुपरान्त क्षेत्रपाल का पूजन करे। हे देवि! रुद्र का भी पूजन करे। हे महामते ! अब ध्यान को कहता हूँ; श्रवण करो ॥४४॥

प्रणवाद्यं ध्यानम्

शूलहस्तं महारौद्रं सर्वविघ्ननिषूदनम् ।

पूर्णचन्द्रसमाभासं रुद्रं वृषभवाहनम् ।

एवं ध्यात्वा महाकालीं पूजयेद्रुद्रदैवतम् ।।४५ ।।

प्रणवाद्यं रुद्राय नमः इतिभक्तियोगतः शततोलकपरिमितलिङ्गमानीय कांस्यपात्रे लिङ्गं संस्थाप्य ।

सामान्यार्घ्यं ततः कृत्वा भूतशुद्धिं महेश्वरि ।

प्राणायाममङ्गन्यासं पीठन्यासं समाचरेत् ।। ४६ ।।

हाथ में त्रिशूल धारण किये हुये महारौद्रस्वरूप, सर्वविघ्नविनाशक पूर्ण चन्द्र के समान आभा वाले, वृषभवाहन श्रीरुद्र का हम ध्यान करते हैं। इस प्रकार ध्यान करके भगवती महाकाली एवं रुद्रदेव का पूजन करे। प्रणवाद्य श्रीरुद्र को नमस्कार है। भक्तिपूर्वक सौ तोले के परिमाण का शिवलिङ्ग लाकर उसे कांस्य पात्र में स्थापित करे। सामान्य अर्घ्य प्रदान करे। हे महेश्वरि ! भूतशुद्धि, प्राणायाम, अंगन्यास एवं पीठन्यास भी करे ॥ ४५-४६ ॥

ततः ऋष्यादिन्यासः । ततो देहन्यासः । यथा मूर्ध्नि ॐ भैरवाय नमः । एवं ललाटे भीमदर्शनाय नमः । नेत्रयोः भूताश्रयाय नमः । मुखे तीक्ष्णदर्शनाय नमः । कर्णयोः क्षेत्रपाय नमः । हृदि क्षेत्रपालाय नमः । नाभिदेशे क्षेत्राख्याय नमः । कट्यां सर्वाघनाशनाय नमः । ऊर्वोस्त्रिनेत्राय नमः । जंघयोः रक्तपाणिकाय नमः । पादयोः देवदेवेशाय नमः । सर्वाङ्गे वटुकाय नमः ।।

तत्पश्चात् ऋष्यादिन्यास करे। तदुपरान्त देहन्यास करे। जैसेमूर्ध्नि भैरवाय नमः मन्त्र से मस्तक का स्पर्श करे। इसी प्रकार मूल में उल्लिखित तत्तत् मन्त्रों से ललाटादि सर्वाङ्ग का स्पर्श करे।

कराङ्गन्यासः

ॐ ह्रीं वाँ अंगुष्ठभ्यां नमः इत्यादि ।

ॐ हाँ वाँ हृदयाय नमः इत्यादि ।

ततो मूलेन व्यापकं कृत्वा ध्यायेत् ।

ॐ वन्दे बालमित्यादि संपूज्य-

द्वाविंशदक्षरञ्चैवं जपेद्रुद्रसहस्रकम् ।

अभिषेकं तर्पणञ्च यथाविधि समाचरेत् ।। ४७ ।।

एषा शान्तिर्महाशान्तिः कथिता तव श्रद्धया ।।४८ ।।

तत्पश्चात् करांगन्यास करे। ॐ ह्रीं वां अगुष्ठाभ्यां नमः इस मन्त्र से दोनों हाथों के अगूठों का स्पर्श करे। ॐ ह्रां वां हृदयाय नमः मन्त्र से हृदय का स्पर्श करे। तत्पश्चात् मूल मंत्र से व्यापक करन्यास कर ध्यान करे। ॐ वन्दे बालमित्यादि ध्यानमन्त्र से ध्यान करे। बाइस अक्षर के मन्त्र का ग्यारह हजार जप करे। अभिषेक एवं तर्पण यथाविधि करे। हे देवि ! यह शान्ति एवं महाशान्ति तुम्हारी श्रद्धा से मैने कहा है ।।४७-४८ ।।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ – वशीकरणम्

पूर्ववत् संकल्प्य राजसध्यानेन ॐ उद्यद्भास्करादि ध्यात्वा ।

वशीकरण - पूर्व की भाँति संकल्प करके ॐ उद्यद्भास्करादि मन्त्र से राजस ध्यान करे।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ – स्तम्भनम्

अतः परं महादेवि ! पूजनं क्रूरकर्मणि ।। ४९ । ।

पूर्ववत् संकल्प्य विद्वेषणोच्चाटनादिषु च क्रूरकर्मसु ध्यानम् ।

यथा- ध्यायेन्नीलाद्रिकान्तमित्यादि ध्यात्वा सम्पूज्य शिवसहस्त्रसंख्याकमुक्तं शेषे अमुकं व्वशमानय स्वाहा इति मन्त्रजपकर्माहं करिष्ये ।

हे महादेवि! अब मैं क्रूर कर्म हेतु पूजन-विधान को कहता हूँ। पूर्व की भाँति संकल्प करके कार्य करे। विद्वेषण, उच्चाटन आदि क्रूर कर्मों में ध्यायेन्नीलाद्रिकान्तम् श्लोक द्वारा ध्यान करके पूजन करे तथा ग्यारह हजार जप करे ॥ ४९ ॥

यन्त्रे पूजाक्रमः पुनर्ध्यात्वा यन्त्रे पुष्पं निधाय आवाहनादिकं कुर्यात् । यथा तत्र क्रमः - मूलादि सद्योजात मन्त्रेणावाहनम् । यथा मूलं ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय चै नमः । भवेऽभवेऽनातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः । पिनाकधृगिहागच्छ इहागच्छ । पुनर्मूलमुच्चार्य ॐ वामदेवाय नमः एवं ज्येष्ठाय रुद्राय कालाय कलविकरणाय बलाय बलविकरणाय बलप्रमथनाय सर्वभूतदमनाय नमो नमः । उन्मनाय नमः इह तिष्ठ इह तिष्ठ मूलं इह सन्निधेहि ।

यन्त्रपूजाक्रम - पुन: ध्यान कर यन्त्र में पुष्पादि स्थापित कर आवाहनादि कार्य करे।

आवाहन- ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमः भवेऽभवेनातिभवेभवस्य मां भवोद्भवाय नमः । पिनाकधृग् इहागच्छ इहागच्छ तत्पश्चात् मूल मन्त्र का उच्चारण कर निम्न मन्त्रों से आवाहन करे-

ॐ वामदेवाय नमः । ॐ ज्येष्ठाय नमः । ॐ रुद्राय नमः । ॐ कालाय नमः । ॐ कलविकरणाय नमः । ॐ बलाय नमः । ॐ बलविकरणाय नमः। ॐ बलप्रमथनाय नमः । ॐ सर्वभूतदमनाय नमो नमः । ॐ उन्मनाय नमः । इह तिष्ठ इह तिष्ठ मूलं इह सन्निधेहि ।

उपरोक्त प्रकार से आवाहन कर पूजन करे।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ – अघोरेण सन्निरोधनम्

पुनर्मूलं ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्योऽघोरघोरतरेभ्यः । सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमोऽस्तु ते रुद्ररूपेभ्यः । इह सन्निरुद्धस्व ।

अघोरमन्त्र से सन्निरोधन करे। अघोर मन्त्र मूल में (ॐ अघोरे...... रुद्ररूपेभ्य लिखा है।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १३ – तत्पुरुषेण योनिमुद्राप्रदर्शनम्

पुनर्मूलम् । ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयाय ।

इति योनिमुद्रां प्रदर्शयेत् ।

तत्पुरुषेण इस मन्त्र के द्वारा योनिमुद्रा दिखाये। तत्पश्चात् मूलमन्त्र का जप करे एवं ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् इस शिवगायत्री के द्वारा योनिमुद्रा का प्रदर्शन करे ।

ईशानेन वन्दनामिति । पुनर्मूलम् । ओं ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतान ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्माशिवो मेऽस्तु सदाशिव ॐ । शिवं वन्दयामि नमः। तत प्राणप्रतिष्ठा । आँ द्रीं क्रों हंसः वटुकाय नमः पशुपते शूलपाणे: प्राणा इह प्राणाः जीव इह स्थितः । सर्वेन्द्रियाणि । चक्षुः श्रोत्रप्राणप्राणाः इहागत्य सुरं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा। हुँ इत्यवगुण्ठ्य। वमिति धेनुमुद्रयाऽमृतीकृत छोटिकाभिर्दिग्बन्धनं कृत्वा षडङ्गानि सम्पूज्य देवं पूजयेत् ।

ईशान मन्त्र से वन्दना करे। पुनः मूलमन्त्र ॐ ईशान: सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्मधिपतिर्ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदाशिवः ॐ शिवं वन्दयामि नमः। इन मन्त्रों के द्वारा शिवजी की वन्दना करे। तत्पश्चात् प्राणप्रतिष्ठा करे। आँ ह्रीं क्रों हंसः वटुकाय नमः पशुपते शूलपाणेः प्राणाः इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा मन्त्र के द्वारा प्राणप्रतिष्ठा करे। हुं बीज का अवगुण्ठन कर वं बीज के द्वारा धेनुमुद्रा दिखाये एवं अमृतीकरण करे। ताली द्वारा दिग्बन्धन एवं षडंगपूजन कर श्री महादेव का पूजन करे।

मूलमुच्चार्य एतत् पाद्यम् । ॐ महादेवाय सोममूर्तये बटुकत्मने पशुपतये शिवाय नमः । एवं क्रमेणार्ध्याचमनीयादिकं दद्यात् । स्नाने तु विशेषः । यथा- अद्येत्यादि अमुकस्याऽशेषा शुभनिवृत्तिपूर्वक ग्रहारिष्टोपशमनारोग्यायु- वृद्धिकामनया शततोलकपरिमितदुग्धेन वटुकात्मकपशुपतेर्लिङ्गं स्नापयामि। ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि इत्यादिना स्नापयेत् । ततो जलेन स्नापयित्वा मूलम्। एवं गन्धः । ॐ महादेवाय सोममूर्तये नमः । पुष्पे तु अद्येत्यादि उक्तवत् कामनया बटुकात्मकपशुपतये शिवायाष्टोत्तशतद्रोणपुष्पाण्यहं सम्प्रददे । मूलमुच्चार्य ॐ महादेवाय सोममूर्तये नमः । इति मन्त्रेण एकं एकं कृत्वा दद्यात् । एवं बिल्वपत्रम् । मधुपर्कं धूपदीपे तु गन्धवत् । नैवेद्यम् । अद्येत्यादि स्नानीयवत् कामनया एतत् सोपकरणशततोलक परिमितातप तण्डुलनैवेद्यं बटुकात्मकपशुपतये शिवाय तुभ्यमहं सम्प्रददे । ॐ महादेवाय सोममूर्तये नमः । शततोलक परिमितसंविदाचूर्णं पानीयं ताम्बूलं च पूर्ववत् संकल्प्य दद्यात् ।

मूलमन्त्र का उच्चारण कर ॐ महादेवाय सोममूर्तये बटुकात्मने पशुपतये शिवाय नमः इस मन्त्र के द्वारा शिवजी को पाद्य प्रदान करे। इसी क्रम से अर्घ्य- आचमन आदि करे। स्नान कुछ विशेष है। सर्वप्रथम संकल्प करे- अद्येत्यादि अमुकस्याशेषाऽशुभनिवृत्तिपूर्वक ग्रहारिष्टोपशमनारोग्यायुर्वृद्धि कामनया शलतोलकपरिमितदुग्धेन बटुकात्मक पशुपतेर्लिङ्गं स्नापयामि। ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि इस मन्त्र के द्वारा शिवजी को जल से स्नान कराये तथा मूल मन्त्र का जप करे। महादेवाय सोममूर्तये नमः मन्त्र से गन्ध प्रदान करे। पुष्प भी संकल्प करके चढ़ाये। संकल्प मूल में लिखा है। तत्पश्चात् मूलमन्त्र का उच्चारण करे। ॐ महादेवाय सोममूर्तये नमः इस मन्त्र से एक-एक पुष्प शिवप्रतिमा के ऊपर चढ़ाये। इसी भाँति बिल्वपत्र, मधुपर्क, धूप-दीप, गन्ध नैवेद्य मूल में लिखे संकल्प के द्वारा अर्पण करे तथा ताम्बूल एवं पूंगीफल भी संकल्प द्वारा अर्पण करे।

वशीकरणमन्त्रे मूलमुच्चार्य ॐ भवाय जलमूर्तये वटुकात्मने शिवाय नमः । एवंक्रमेण पूजयेत् । एवमर्ध्याचमनीयं दद्यात् । स्नाने तु अद्येत्यादि अमुकस्यामुक वशीकरणार्थ शततोलकपरिमितघृतेन मधुताना व बटुकात्मक पाशुपतशिवलिङ्गं स्नापयामि मूलमुच्चार्य। एवं गन्धः ॐ भवाय जलमूर्तये पुष्पे तु अद्येत्यादि अमुकस्यामुकवशीकरणार्थम् अष्टोत्तरशतद्रोणपुष्पं बटुकात्मने पशुपतिशिवायाऽहं सम्प्रददे । मूलमुच्चार्य एतत् द्रोणपुष्पं ॐ भवाय जलमूर्तये नमः इति प्रत्येकम् । एवं बिल्वपत्रम् । धूपदीपे तु ॐ भवाय जलमूर्तये नमः नैवेद्यं तु अद्येत्यादि अमुकस्यामुकवशीकरणार्थं शततोलकपरिमितसोपकरणनैवेद्यं ॐ वटुकात्मक पशुपतिशिवायाऽहं सम्प्रददे। मूलमुच्चार्य एतत् सोपकरणशत तोलकपरिमितनैवेद्यं संविदाचूर्णञ्च ॐ भवाय जलमूर्तये नमः । ततः पानार्थोदक आचमनीयं ताम्बूलं च दद्यात् ।

वशीकरण मन्त्र - मूलमन्त्र का उच्चारण करे। ॐ भवाय जलमूर्तये बटुकात्मने शिवाय नमः इस क्रम के अनुसार पूजन करे तथा अर्घ्य आचमन प्रदान करे। स्नान का संकल्प मूल में लिखा है। मूलमन्त्र का उच्चारण कर ॐ भवाय जलमूर्तये नमः इस मन्त्र के द्वारा गन्ध प्रदान करे। पुष्प संकल्प द्वारा प्रदान करे। मूलोक्त मूल मन्त्र का उच्चारण कर ॐ भवाय जलमूर्तये नमः इस मन्त्र के द्वारा अलग-अलग द्रोणपुष्प चढ़ाये एवं बिल्वपत्र चढ़ाये । ॐ भवाय जलमूर्तये नमः मन्त्र से धूप-दीप प्रदान करे। तत्पश्चात् संकल्प द्वारा नैवेद्य प्रदान करे। मूलमंत्र का उच्चारण कर ॐ भवाय जलमूर्तये नमः इस मन्त्र के द्वार नैवेद्य, जल, ताम्बूल एवं पूगीफल आदि प्रदान करे।

ततः अष्टावरणं पूजयेत् । ततोऽष्टमूर्तिं पूजयेत् । ततो मूलेन पुष्पाञ्जलि दत्त्वा संकल्प्य शिवसहस्रसंख्याकं तन्मन्त्रं जपेत् शान्तिकादौ क्रूरकर्मण्यपि ततो गुह्यादिना जपं समाप्य स्तोत्रादिकं पठेत् ।

तदुपरान्त आठ आवरण पूजन करके अष्टमूर्ति का पूजन करे। पुनः मूल मन्त्र से पुष्पाञ्जलि प्रदान कर ग्यारह हजार शिवमन्त्र का जप करे। शान्ति आदि कर्म में भी ग्यारह हजार शिवमन्त्र का जप करे। तत्पश्चात् गुह्यादि मन्त्र जप को समाप्त कर स्तोत्रादि का पाठ करे।

ततो बलिदानम् । यथा- मूलमुच्चार्य बटुकभैरवाय एष बलिर्नमः । भैरवपरिवारगणैः सह मम शत्रून् सरुधिरं पिव पिव इमं बलिं गृह्णगृह्ण स्वाहा ।

ॐ शत्रुपक्षस्य रुधिरं पिशितं च दिने दिने ।

भक्षय स्वगणैः सार्द्धं सारमेयसमन्वितम् ।। ५० ।।

ततो विहितद्रव्यैः अष्टोत्तरशतं सहस्रं वा होमयेत् ।

तत्पश्चात् बलिदान-विधि कहते हैं। मूलमन्त्र का उच्चारण कर बटुक भैरवाय एष बलिर्नमः इस मन्त्र से बलि प्रदान करे। भैरवपरिवारगणैः सह मम शत्रून् सरुधिरं पिब पिब इमं बलिं गृह्ण गृह्ण स्वाहा इस मन्त्र का बलि देते समय उच्चारण करे। ॐ शत्रुपक्षस्य रुधिरं पिशितं च दिने दिने । भक्षय स्वगणैः सार्द्धं सारमेयसमन्वितम् । यह समस्त मन्त्र बलिप्रदान के समय उच्चारण के पश्चात् पूर्वोक्त कर्मानुसार द्रव्यों के द्वारा एक सौ आठ अथवा एक हजार आठ आहुतियाँ प्रदान करे॥५०॥

वशीकरणे तु घृताक्तराजिकाभिरष्टोत्तरसहस्रहोमः । शान्त्यर्थं दूर्वादिकम् । क्रूरकर्मणि बिल्वपत्रम् । उच्चाटने तु ॐ ह्रीं हुं शिवाय स्वाहा । इति विशेषः । दक्षिणां बटुकात्मक पशुपतये शिवाय तुभ्यमहं सम्प्रददे । श्वेतसर्षपं लवणमिति ।

वशीकरण कर्म में घी से मिश्रित राई से एक हजार आठ बार होम करें। शान्ति कर्म के लिये दूर्वा से तथा क्रूर कर्म में विल्वपत्र से हवन करे। उच्चाटन योग में ॐ ह्रीं हुं शिवाय स्वाहा इस मन्त्र द्वारा हवन करे। मंत्र द्वारा दक्षिणा दान करे तथा सफेद सरसों एवं लवण (नमक) से हवन करे।

इति क्रियोडोशे महातन्त्रराजे उमामाहेश्वर- संवादे त्रयोदशः पटलः । । १३ ।।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज में गौरी-शंकर संवादात्मक तेरहवाँ पटल पूर्ण हुआ ।। १३ ।।

आगे जारी...... क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल 14

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