मयमतम् अध्याय २४
मयमतम् अध्याय २४ गोपुर विधान —
इस अध्याय में अत्यन्त छोटे-छोटे, मध्यम तथा
उत्तम प्रकार के भवनों या देवालयों को दृष्टि में रखकर गोपुर-निर्माण पर प्रकाश
डाला गया है। प्रधान रूप से गोपुर के पाँच भेद प्राप्त होते हैं, जो द्वारशोभा, द्वारशाला, द्वारप्रासाद,
द्वारहर्म्य एवं गोपुर संज्ञक कहे गये हैं। इनका प्रमाणसहित वर्णन
प्राप्त होता है। इस प्रसंग में द्वारमान, अधिष्ठान आदि का
प्रमाण, गोपुर के श्रीकर आदि पन्द्रह भेद, एकतल गोपुर, द्वितल, त्रितल,
चतुस्तल, पञ्चतल, षट्तल
तथा सप्ततल गोपुरों का वर्णन किया गया है। तदनन्तर गोपुर का विस्तारमान एवं उनके
कूट-कोष्ठादि अंगों का विवेचन, द्वार- विस्तारमान, गोपुर के अलंकरण प्राप्त होते हैं। तत्पश्चात् द्वारशोभा, गोपुर के श्रीकर, रतिकान्त, कान्तविजय
भेद; द्वारशाला के विजयविशाल, विशालालय,
विप्रतिकान्त भेद; द्वारप्रासाद गोपुर के
श्रीकान्त, श्रीकेश तथा केशविशाल भेद; द्वारहर्म्य
गोपुर के स्वस्तिक, दिशास्वस्तिक तथा मर्दल संज्ञक भेद;
द्वारगोपुर संज्ञक गोपुर के मात्राकाण्ड संज्ञक भेद निरूपित हैं।
मयमतम् अध्याय २४
Mayamatam chapter 24
मयमतम् चतुर्विंशोऽध्यायः
मयमतम्वास्तुशास्त्र चोबीसवां
अध्याय
मयमत अध्याय २४– गोपुरविधान
दानवराजमयप्रणीतं मयमतम्
अथ चतुर्विंशोऽध्यायः
अधुना गोपुराणां तु लक्षणं वक्ष्यते
क्रमात् ।
क्षुद्राल्पमध्यमुख्यानां हर्याणां
स्वप्रमाणतः ॥१॥
गोपुर - अब में (मय ऋषि) बहुत
छोटे-छोटे, मध्यम एवं उत्तम आकार के प्रमुख
भवनों के अनुसार गोपुरों के लक्षण का वर्णन करता हूँ ॥१॥
मयमत अध्याय २४– पञ्चविधगोपुरमान
मूलप्रासादविस्तारे
सप्ताष्टनवभागिके ।
दशैकादशभागे तु तत्तदेकांशहीनक ॥२॥
द्वारशोभादिविस्तारं गोपुरान्तं
यथाक्रम ।
क्षुद्राल्पयोः समुद्दिष्टं
मध्यानां प्रविधीयते ॥३॥
पाँच प्रकार के गोपुरों का प्रमाण-
द्वार-शोभा से प्रारभ करते हुये गोपुर तक द्वार का विस्तार इस क्रम से रखना चाहिये
। प्रथम द्वार 'द्वारशोभा' का विस्तार प्रधान प्रासाद के विस्तार के सात भाग करने पर उससे एक भाग कम
अर्थात् छठवे भाग के बराबर रखना चाहिये । (दूसरे द्वार) का विस्तार मूल प्रासाद के
आठ भाग करने पर उससे एक भाग कम (सात भाग), का विस्तार मूल
प्रासाद के आठ भाग करने पर उससे एक भाग कम (सात भाग), (तीसरे
द्वार) का विस्तार मूल भवन के विस्तार के नौ भाग करने पर उससे एक भाग कम (आठ भाग),
(चौथे द्वार) का विस्तार मूल प्रासाद के दस भाग करने पर उससे एक भाग
कम (नौ भाग) तथा (पाँचवे द्वार-गोपुर) का विस्तार मूल प्रासाद के ग्यारह भाग करने
पर उससे एक भाग कम (दस भाग) रखना चाहिये । ये प्रमाण क्षुद्र एवं अल्प प्रासादों
के गोपुरों के होते है । मध्यम प्रासादों के गोपुरों का मान इस प्रकार विहित है
॥२-३॥
मूलधानस्तु विस्तारे
चतुष्पञ्चषडंशके ।
सप्ताष्टांसे च भागोनं गोपुरान्तं
यथाक्रम ॥४॥
(मध्यम आकार के देवालयो में) द्वार शोभा से
गोपुर तक पाँच द्वारो के क्रमशः मान इस प्रकार है - मूल प्रासाद की चौड़ाई के चार
भाग करने पर तीसरे भाग के बराबर, पाँच भाग करने
पर चौथे भाग के बराबर, छः भाग करने पर पाँचवे भाग के बराबर,
सात भाग करने पर छँठवे भाग के बराबर एवं आठ भाग करने पर सातवें भाग
के बराबर विस्तार रखना चाहिये ॥४॥
द्वारशोभादिविस्तारं पञ्चधा परिकीर्तित
।
त्रिभागैकांशमध्यं च द्विभागं
स्यात्त्रिभागिके ॥५॥
चतुर्भागे त्रिभागं तु पञ्चांशे
चतुरंशक ।
द्वारशोभादिविस्तारं गोपुरान्तं
क्रमेन तु ॥६॥
द्वारशोभा से लेकर गोपुरपर्यन्त
विस्तार उत्तम (बड़े) प्रासादों में विस्तारमान इस प्रकार क्रमशः रक्खा जाता है ।
(प्रधान प्रासाद के विस्तार के ) तीन भाग में से एक भाग,
डेढ़ भाग, दो भाग, चार
भाग में तीन भाग या पाँच मे से चार भाग के बराबर रखना चाहिये । अब विस्तार को
हस्त-माप मे वर्णित किया जा रहा है ॥५-६॥
उत्तमानामिदं प्रोक्तं हस्तैरप्यथ
वक्ष्यते ।
द्विहस्तादि द्विरष्टान्तमेकारत्निविवर्धनात्
॥७॥
एकैकं त्रिविधा मानं
द्वारशोभादिपञ्चसु ।
त्रिहस्तादेकत्रिंशान्तं
द्विद्विहस्तविवर्धनात् ॥८॥
प्रोक्तं त्रिः पञ्चधा मानं
द्वारशोभादिपञ्चके ।
नवहस्तं समारभ्य
द्विद्विहस्तविवर्धनात् ॥९॥
सप्तत्रिंशत्करं यावत् पञ्चपङ्क्तिप्रमाणक
।
शोभादिगोपुराणां च विस्तारं
परिकीर्तित ॥१०॥
(यदि प्रमुख देवालय छोटा हो तो) द्वारशोभा आदि
हारों का प्रमाण दो हाअथ माप से प्रारभ कर उसे एक-एक हाथ बढ़ाते हुये सोलह हाथ तक
रखना चाहिये । (मध्यम आकार के देवालय में) द्वारशोभा आदि पाँच द्वारों में से
एक-एक के तीन प्रकार के मान होते है । प्रथम द्वार द्वारशोभा से तीन हाथ मान से
प्रारभ करते हुये दो-दो हाथ बढ़ाते हुये इकतीस हाथ तक ले जाना चाहिये । (प्रमुख
देवालय के उत्तम आकार के होने पर) नौ हाथ से प्रारभ करते हुये सैतीस हाथ तक दो-दो
हाथ बढ़ाते हुये कुल पन्द्रह प्रकार के प्रमाण प्राप्त होते है । ये विस्तार-प्रमाण
पाँचों द्वारों में द्वारशोभा से प्रारभ होकर गोपुर-पर्यन्त रक्खे जाते है ॥७-१०॥
मयमत अध्याय २४– पञ्चविधगोपुर
द्वारशोभा द्वारशाला
द्वारप्रासादहर्यके ।
गोपुरेण तु पञ्चैते
द्वारशोभादिपञ्चसु ॥११॥
पाँच प्रकार के गोपुर - द्वारशोभा,
द्वारशाला, द्वारप्रासाद, द्वारहर्य एवं गोपुर ये पाँच द्वारों के क्रमशः नाम कहे गये है । प्रथम
द्वार की संज्ञा 'द्वारशोभा' कही गई है
॥११॥
अथवा हस्तमानेन विस्तारं परिगृह्यता
।
त्रिपञ्चसप्तनन्दैकादशारत्नैर्विवर्धनात्
॥१२॥
पञ्चमानं द्विरत्निभ्यां
पञ्चस्वेकस्य समत ।
पञ्चसप्तत्रिस्त्र्येकादशत्रयोदशमानतः
॥१३॥
प्रथमावरणे द्वारशोभाव्यासस्तु
पञ्चधा ।
त्रिपञ्चाद्यात्रयोविंशद्
द्वारशालाविशालता ॥१४॥
पञ्चपञ्चकराद् यावत्
त्रयस्त्रिंशत्करान्तक ।
द्वारप्रासादविस्तारं पञ्चधा
परिकीर्तित ॥१५॥
पञ्चत्रिंशत्कराद् यावत्
त्रिचत्वारिंशदन्तक ।
द्वारहर्यस्य विस्तारं
पञ्चभेदमथोच्यते ॥१६॥
नवपञ्चकराद् यावत्
त्रिपञ्चाशत्करान्तक ।
पञ्चधा विपुलं प्रोक्तं गोपुरस्य
मुनीश्वरैः ॥१७॥
इनके विस्तार का मान हस्तप्रमाण से
ग्रहण करना चाहिये । इसके सभावित विस्तार-मान पाँच है । द्वार का विस्तार तीन,
पाँच, सात, नौ या ग्यारह
हाथ से प्रारभ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये (प्रथम द्वार से अन्तिम द्वार तक) ले जाना
चाहिये । इस प्रकार द्वारशोभा संज्ञक प्रथम द्वार का मान पाँच, सात, नौ, ग्यारह या तेरह हाथ
होने पर 'द्वारशाला' संज्ञक द्वार का
मान पन्द्रह से लेकर तेईस हाथ-पर्यन्त होता है । 'द्वार-प्रासाद'
संज्ञक द्वार का मान पाँच प्रकार का होता है, जो
पच्चीस हाथ से प्रारभ कर तैतीस हाथ तक जाता है । 'द्वारहर्य'
संज्ञक द्वार का मान पैंतीस हाथ से प्रारभ कर तैतालीस हाथ-पर्यन्त
पाँच प्रकार का होता है । अन्तिम 'गोपुर' संज्ञक द्वार का मान पैतालीस हाथ से प्रारभ कर तिरेपन हाथ-पर्यन्त पाँच
प्रकार का होता है ॥१२-१७॥
चक्रवर्तिमहाराजवेश्मन्यप्येवमूह्यता
।
सार्धं त्रिपादं द्विगुणं
त्र्यंशैकद्व्यंशमायत ॥१८॥
शोभादिनां तु पञ्चानां
द्वाराणामुदितं ततः ।
तेषामेवं क्रमाद् व्यासादुत्सेधं
पृथगुच्यते ॥१९॥
उक्त प्रकार से ही चक्रवर्ती एवं
महाराज राजाओं के भवनों में भी द्वार का निर्माण करना चाहिये । द्वारशोभा आदि पाँच
द्वारों की चौड़ाई उनके लबाई की डेढ़ गुनी, पौने
दो गुनी, दुगुनी अथवा पौने तीन गुनी निर्धारित करनी चाहिये ।
चौड़ाई के क्रम से ही अब उनकी ऊँचाई का वर्णन किया जा रहा है ॥१८-१९॥
सप्तांशे च दशांशं च चतुरंशे षडंशक
।
सप्तभागं चतुर्भागं त्रित्रिभागं तु
पञ्चके ॥२०॥
द्विगुणं तु यथासंख्यं
द्वरायतनतुङ्गता ।
गोपुरस्य तु
विस्तारत्रिभागादेकभागिक ॥२१॥
चतुर्भागैकभागं च पञ्चभागाद्विभागिक
।
निर्गमं गोपुराणां तु
प्राकाराद्भित्तिबाह्यतः ॥२२॥
द्वारों की चौड़ाई के सात भाग में
दशवाँ भाग, चार भाग में छठा भाग, चार भाग में सातवाँ भाग तथा पाँच भाग में नवाँ भाग एवं दुगुना मान ऊँचाई
के लिये क्रमशः ग्रहण करना चाहिये । गोपुर के द्वारायतन (द्वार पर निर्मित भवन) की
ऊँचाई के ये मान कहे गये है । प्राकारभित्ति की चौड़ाई का तीसरा भाग, एक चौथाई अथवा पाँच भाग में से दो भाग के बराबर गोपुरों का निर्गम (बाहर
की ओर निकला हुआ निर्माण विशेष) निर्मित करना चाहिये ॥२०-२२॥
मयमत अध्याय २४– द्वारमान
मूलं सार्धं तु पादोनद्विहस्तं तु
द्विहस्तक ।
तत्तत्षडङ्गुलैर्नन्दमात्रैर्द्वादशमात्रकैः
॥२३॥
वृद्ध्या पञ्चकरान्तं तु सप्तान्तं
तु नवान्तक ।
द्वारं त्रिःपञ्चधामानमेकैकं तु
पृथक् पृथक् ॥२४॥
क्षुद्रे मध्ये वरे द्वारविस्ताराः
परिकीर्तिताः ।
तत्तद्वैपुल्यवशतस्तत्तदुत्सेधमुच्यते
॥२५॥
द्वार-प्रमाण - क्षुद्र (छोटे),
मध्यम एवं श्रेष्ठ (बड़े) द्वारो का विस्तार-प्रमाण इस प्रकार होता
है । क्षुद्र द्वार की चौड़ाई डेढ़ से प्रारभ कर पाँच हाथ तक छः छः अंगुल बढ़ाते हुये
ले जाना चाहिये । मध्यम द्वार की चौड़ाई दो हाथ से प्रारभ करते हुये सात हाथ तक
नौ-नौ अंगुल बढ़ाते हुये ले जाना चाहिये । बड़े द्वार की चौड़ाई दो हाथ से प्रारभ
करते हुये नौ हाथ तक बारह अंगुल क्रमशः बढ़ाते हुये ले जाना चाहिये । इस प्रकार
प्रत्येक द्वार के पन्द्रह प्रमाण पृथक्-पृथक् प्राप्त होते है । विस्तार के
अनुसार उनकी ऊँचाई अग्र वर्णित प्रकार से प्राप्त होती है ॥२३-२५॥
पञ्चांशेभ्यश्च सप्तांशं
सप्तांशेभ्यो दशांशक ।
द्विगुणार्धाधिकं पादाधिकं
पञ्चोच्छ्रयाः स्मृताः ॥२६॥
उनकी ऊँचाई क्रमशः उनकी चौड़ाई के
पाँच भाग से सात भाग, सात भाग से दस भाग,
दुगुनी, ढाई गुनी एवं सवा दोगुनी होनी चाहिये
। ये पाँच ऊँचाई के प्रमाण कहे गये है ॥२६॥
मयमत अध्याय २४– अधिष्ठानादिमान
मूलवस्तु निरीक्ष्यैव
पादाधिष्ठानतुङ्गता ।
चतुष्पञ्चर्तुसप्ताष्टनन्दपङ्क्तीशभानुषु
॥२७॥
भागेष्वेकैकभागोनं
स्वाधिष्ठानान्ततुङ्गक ।
शेषं तदुपपीठं स्यात् पादबन्धं
मसूरक ॥२८॥
अधिष्ठान आदि के प्रमाण - प्रधान
भवन को देखकर ही गोपुर के पाद (स्तभ) एवं अधिष्ठान की ऊँचाई रखनी चाहिये ।
अधिष्ठान की ऊँचाई प्रधान भवन के चार, पाँच,
छः, सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह एवं बारह भागों
से एक-एक भाग कम रखना चाहिये । शेष भाग से उपपीठ का निर्माण करना चाहिये । शेष भाग
से उपपीठ का निर्माण करना चाहिये । यह पादबन्ध मसुरक (अधिष्ठान) होता है ॥२७-२८॥
प्रासादस्तभमानं वा वसुभागोनमेव वा
।
नन्दपङ्क्त्यंशहीनं वा
गोपुरस्तभतुङ्गक ॥२९॥
छेदयेत्तदधिष्ठानं होमान्तं खातपादक
।
उत्तरान्तं समुत्सेधं तदर्धं
द्वारविस्तृत ॥३०॥
प्रवेशदक्षिणे गर्भमारूढे भित्तिके
भवेत् ।
प्रासाद के स्तभ का प्रमाण भी इसी
प्रकार रखना चाहिये । अथवा गोपुर-स्तभ की ऊँचाई आठ, नौ या दस भाग में एक-एक भाग कम रखनी चाहिये । (स्तभ के लिये) अधिष्ठान में
होमान्त तक खातपादक (स्तभ के लिये गड्ढा) निर्मित करना चाहिये । इसकी (द्वार की)
ऊँचाई उत्तर (भित्ति का भागविशेष) तक रखनी चाहिये एवं द्वार का विस्तार इसका आधा
होना चाहिये । प्रवेश के दक्षिण में भित्ति के नीचे गर्भन्यास (शिलान्यास) करना
चाहिये ॥२९-३०॥
मयमत अध्याय २४– गोपुरभेदाः
श्रीकरं रतिकान्तं च कान्तविजयमेव च
॥३१॥
विजयविशालकं चैव विशालालयमेव च ।
विप्रतीकान्तं श्रीकान्तं श्रीकेशं
च तथा पुनः ॥३२॥
केशविशालकं स्वस्तिकं
दिशास्वस्तिकमेव च ।
मर्दलं मात्रकाण्डं च श्रीविशालं
चतुर्मुख ॥३३॥
एते पञ्चदश प्रोक्ता
गोपुरस्याभिधानकाः ।
गोपुर के प्रकार - पन्द्रह प्रकार
के गोपुरों केनाम इस प्रकार है - श्रीकर, रतिकान्त,
कान्तविजय, विजयविशालक, विशालालय,
विप्रतीकान्त, श्रीकान्त, श्रीकेश, केशविशालक, स्वस्तिक,
दिशास्वस्तिक, मर्दल,मात्रकाण्ड,
श्रीविशाल एवं चतुर्मुख ॥३१-३३॥
एकादिपञ्चभूयन्तं शोभाद्यल्पप्रमाणक
॥३४॥
द्वितलाद षट्तलान्तं मध्यमक्रममुच्यते
।
त्रितलात् सप्ततलपर्यन्तं
चोत्तममुच्यते ॥३५॥
सोपपीठमधिष्ठानं पादोच्चमुत्तरान्तक
।
शेषं तत्सूथपिपर्यन्तं भागमानं
विधीयते ॥३६॥
छोटे मन्दिरों में पाँच गोपुर
द्वारशोभा से प्रारभ कर एक से पाँच तल तक क्रमशः होना चाहिये । मध्यम मन्दिरों में
दो से छः तल तक एवं बड़े मन्दिरो में तीन से सात तल तक होने चाहिये ॥३४-३६॥
मयमत अध्याय २४– एकतलगोपुर
स्थूप्यन्तमुत्तरान्तं च षड्भागं
विभजेत्समम ।
सपादभागमञ्चोच्चं कन्धरोच्चं तदंशक
।
सत्रिपादद्विभागं तु शिरःशेषं
शिखोदय ॥३७॥
एवमेकतलं प्रोक्तं द्वितले
भागमुच्यते ।
एक तल का गोपुर - एक तल के गोपुर की
ऊँचाई उत्तरान्त से स्थूपी (स्तूपिका) तक छः बराबर भागों में बाँटनी चाहिये । सवा
भाग मञ्च की ऊँचाई, एक भाग कन्धर,
तीन चौथाई सहित दो भाग से शिरोभाग एवं शेष से शिखोदय का निर्माण
करना चाहिये । इस प्रकार एक तल गोपुर का वर्णन किया गया । अब दो तल गोपुर के भागों
का वर्णन किया जा रहा है ॥३७॥
मयमत अध्याय २४– द्वितलगोपुर
उत्तरादिशिखान्तं यन्नवधा विभजेत्
सम ॥३८॥
सपादभागमञ्चोच्चं द्व्यंशार्धं
चरणायत ।
भागैकं प्रस्तरोत्सेधमेकांशं
कन्धरोदय ॥३९॥
सार्धद्व्यंशं शिरस्तुङ्गं
शेषभागाशिखोदय ।
एवं द्वितलमाख्यातं त्रितले
भागमुच्यते ॥४०॥
दो तल का गोपुर - (द्वितल गोपुर में
प्रथम तल के) उत्तर से प्रारभ करते हुए शिखा (शिरोभाग) तक नौ बराबर भागों में
बाँटना चाहिये । (प्रथम तल के) मञ्च की ऊँचाई सवा भाग,
ढाई बाग चरण (अर्थात् द्वितीय तल का भाग), एक
भाग से प्रस्तर की ऊँचाई, एक भाग कन्धर, ढाई भाग शिरोभाग की ऊँचाई एवं शेष भाग से शिखा (शीर्षभाग) का उदय निर्मित
करना चाहिये । इस प्रकार द्वितल का वर्णन किया गया । अब त्रितल गोपुर के भागों का
वर्णन किया जा रहा है ॥३८-४०॥
मयमत अध्याय २४– त्रितलगोपुर
स्थूप्यन्तमुत्तरान्तं च कृत्वोच्चं
द्वादशांशक ।
सर्पादांशं कपोतोच्चं द्व्यंशार्धं
चरणायत ॥४१॥
भागैकं प्रस्तरोत्सेधं द्विभागं
पाददैर्घ्यक ।
त्रिपादं तत्कपोतोच्चमंशं ग्रीवोदयं
भवेत् ॥४२॥
सार्धद्वयंश शिरस्तस्माच्छेषं
स्थूप्युच्छ्रयं भवेत् ।
एवं त्रितलमाख्यातं
चतुर्भौममथोच्यते ॥४३॥
तीन तल का गोपुर - (त्रितल गोपुर
में) स्थूपी से लेकर उत्तरपर्यन्त ऊँचाई को बारह बराबर भागों में बाँटना चाहिये ।
डेढ़ भाग से कपोत की ऊँचाई, ढाई भाग से चरण
(द्वितीय तल की ऊँचाई), एक भाग से प्रस्तर, दो भाग से पाद (तृतीय तल की ऊँचाई), पौने एक भाग से
कपोत, एक भाग से ग्रीवा, ढाई भाग से
शिर एवं शेष भाग से स्थूपी (स्थूपिका) की ऊँचाई रखनी चाहिये । इस प्रकार त्रितल
गोपुर का वर्णन किया गया । अब चतुस्तल गोपुर का वर्णन किया जा रहा है ॥४१-४३॥
मयमत अध्याय २४– चतुस्तलगोपुर
उत्तरादिशिखान्तं यन्मानमष्टादशांशक
।
सत्रिपादांशकं मञ्चं त्रिभागं
तलिपायत ॥४४॥
सार्धांशं प्रस्तरोच्चं स्याद्
द्व्यंशं सार्धं पदोदय ।
सपादभागं मञ्चोच्चं द्व्यंशं स्यात्
स्तभदैर्घ्यक ॥४५॥
मञ्चमंशं गलं भागं त्रिभागं शिखरोदय
।
शेषभागं शिखामानं पञ्चभौममथोच्यते ।
चार तल का गोपुर - (चार तल के गोपुर
में) उत्तर से शिखा तक के प्रमाण को अट्ठारह भागों में बाँटा जाता है । पौने दो
भाग से मञ्च, तीन भाग से तलिप (द्वितीय तल),
डेढ़ भाग से प्रस्तर की ऊँचाई, ढाई भाग से पद
(तृतीय तल), सवा एक भाग से मञ्च की ऊँचाई, दो भाग से स्तभ की ऊँचाई (चतुर्थ तल), एक भाग से
मञ्च, एक भाग से गल, तीन भाग से शिखर
एवं शेष भाग से शिका का प्रमाण रखना चाहिये । अब पाँच तल के गोपुर का वर्णन किया
जा रहा है ॥४४-४५॥
मयमत अध्याय २४– पञ्चतलगोपुर
स्थूप्यन्तमुत्तरान्तं च
त्रयोविंशतिभागिक ॥४६॥
द्विभागं प्रस्तरोच्चं
स्यात्त्र्यंशार्धं चरणायत ।
पादोन द्व्यंशकं मञ्चं पादायामं
त्रियंशक ॥४७॥
सार्धांशमुर्ध्वमञ्चोच्चं
द्व्यंशार्धं पाददैर्घ्यक ।
सपादांशं कपोतोच्चं द्व्यंशं
स्यात्तलिपायत ॥४८॥
प्रस्तरोच्चं तु भागेन कन्धरं
भागमिष्यते ।
द्व्यंशार्धं शिखरोत्सेधं शेषं
स्थूप्युच्छ्रयं भवेत् ॥४९॥
पाँच तल का गोपुर - (पाँच तल के
गोपुर के मान को) स्थूपी से उत्तर पर्यन्तप्रमाण को तेईस भागों में बाँटना चाहिये
। दो भाग से प्रस्तर की ऊँचाई, साढ़े तीन भाग
से चरण (दूसरा तल), पौने दो भाग से मञ्च, तीन भाग से पाद (तीसरा तल), डेढ भाग से मञ्च,
ढ़ाई भाग से पाद (चतुर्थ तल), सवा एक भाग से
कपोत, दो भाग से तलिप (पाँचवाँ तल), एक
भाग से प्रस्तर, एक भाग से कन्धर, ढाई
भाग से शिखर एवं शेष भाग से स्थूपी को ऊँचाई रखनी चाहिये ॥४६-४९॥
मयमत अध्याय २४– षट्तलगोपुर
उत्तरादिशिखान्तं
स्यादेकोनत्रिंशदंशक ।
द्विभागं प्रस्तरोत्सेधं पादोच्चं
चतुरंशकैः ॥५०॥
पादोनद्व्यंशकं मञ्चं त्र्यंशार्धं
पाददैर्घ्यक ।
सत्रिपादांशकं मञ्चं त्रिभागं
तलिपायत ॥५१॥
सार्धांशं प्रस्तरोत्सेधं
द्व्यंशार्धं पाददैर्घ्यक ।
सपादांशं कपोतोच्चमूर्ध्वभागं
द्विभागतः ॥५२॥
प्रस्तरोच्चं तु भागेन कन्धरं
तत्समं भवेत् ।
सार्धंद्व्यंशं शिरस्तस्माच्छेषभागं
शिखोदय ॥५३॥
एवं तु षट्तलं प्रोक्तं
सप्तभौममथोच्यते ।
छः तल का गोपुर - (छः तल के गोपुर
में) उत्तर से शिखान्तपर्यन्त प्रमाण को उन्तीस भागों में बाँटना चाहिये । दो भाग
से प्रस्तर की ऊँचाई, चार भाग से पाद
(द्वितीय तल), पौने दो भाग से मञ्च, साढे
तीन भाग से पाद (तीसरा तल), पौने दो भाग से मञ्च, तीन भाग से तलिप (चतुर्थ तल), डेढ़ भाग से प्रस्तर,
ढाई भाग से पाद (पाँचवाँ तल), सवा एक भाग से
कपोत, दो भाग से ऊर्ध्वभाग (ऊपरी तल, छठवाँ
तल), एक भाग से प्रस्तर, एक भाग से
कन्धर, ढाई भाग से शिरोभाग एवं शेष भाग से शिखाभाग की ऊँचाई
रखनी चाहिये । इस प्रकार छः तल गोपुर का वर्णन किया गया । अब सात तल के गोपुर का
वर्णन किया जा रहा है ॥५०-५३॥
मयमत अध्याय २४– सप्ततलगोपुर
उत्तरादिशिखान्तं यन्मानं षट्त्रिंशदंशक
॥५४॥
मञ्चं साङ्घ्रिद्वयं सार्धवेदांशं
पाददैर्घ्यक ।
द्विभागं प्रस्तरोत्सेधं पादोच्चं
चतुरंशक ॥५५॥
सत्रिपादांशकं मञ्चं त्र्यंशार्धं
चरणायत ।
पादोनद्व्यंशमञ्चोच्चं त्रिभागं
पाददैर्घ्यक ॥५६॥
सार्धांशं प्रस्तरोच्चं तु
द्व्यंशार्धं तलिपायत ।
सपादभागमञ्चोच्चमूर्ध्वपादं
द्विभागिक ॥५७॥
कपोतोच्चं तु भागेन तत्समं कन्धरोदय
।
सत्रिपादाश्विनीभागं शिरःशेषं
शिखोदय ॥५८॥
एवं भागानि
कर्तव्यान्युर्वीसंख्याक्रमेण तु ।
सात तल का गोपुर - (सात तल के गोपुर
के) उत्तर से प्रारभ कर शिखापर्यन्त प्रमाण को छत्तीस भागों में बाँटना चाहिये ।
सवा दो भाग से मञ्च, साढ़े चार भाग से
पाद (द्वितीय तल), दो भाग से प्रस्तर, चार
भाग से पाद (तृतीय तल), पौने दो भाग से मञ्च, साढ़े तीन भाग से चरण (चतुर्थ तल), पौने दो भाग से
मञ्च, तीन भाग से पाद (पाँचवाँ तल), डेढ़
भाग से प्रस्तर, ढाई भाग से तलिप (छठवाँ तल), सवा एक भाग से मञ्च, दो भाग से ऊर्ध्व पाद (सातवाँ
तल, ऊपरी तल), एक भाग से कपोत, एक भाग से कन्धर, पौने तीन भाग से शिरोभाग एवं शेष
भाग से शिखा की ऊँचाई रखनी चाहिये । इस प्रकार इस क्रम से गोपुरों का भाग
निर्धारित करना चाहिये ॥५४-५८॥
मयमत अध्याय २४– गोपुरविस्तारमान
विस्तारे पञ्चभागे तु नालीगेहं
त्रियंशक ॥५९॥
शेषं तु
भित्तिविष्कभमेकभूमेर्विधीयते ।
गोपुर के विस्तार का प्रमाण - एक तल
वाले गोपुर की चौड़ाई के पाँच भाग करने चाहिये । तीन भाग से नालीगेह (मध्य का
स्थान) एवं शेष भाग से भित्तिविष्कभ (भित्ति की मोटाई) निर्मित करनी चाहिये ॥५९॥
विस्तारे सप्तभागं स्याद्गर्भगेहं
युगांशक ॥६०॥
शेषं तु भित्तिविष्कभमेकांशं
कूटविस्तृत ।
कोष्ठकं त्र्यंशकं तारे पञ्चांशं
स्यात्तदायते ॥६१॥
कूटकोष्ठकयोर्मध्ये पञ्जरादिविभूषित
।
एवं द्वितलमुद्दिष्टं त्रितलस्य
विधीयते ॥६२॥
(यदि दो तलों का गोपुर हो तो) चौड़ाई के सात भाग
करने चाहिये । चार भाग से गर्भगृह (मध्य भाग) एवं शेष भाग से भित्तिविष्कभ (भित्ति
कीचौड़ाई) रखनी चाहिये । एक भाग से कूट का विस्तार रखना चाहिये । कोष्ठक का विस्तार
तीन भाग से एवं लबाई पाँच भाग से निर्मित करनी चाहिये । कूट एवं कोष्ठ के मध्य भाग
को पञ्जर आदि से अलंकृत करना चाहिये । इस प्रकार द्वितल गोपुर का वर्णन किया गया
है । अब त्रितल गोपुर का वर्णन किया जा रहा है ॥६०-६२॥
विस्तारे नवभागे तु नालीगेहं
त्रियंशक ।
गृहपिण्ड्यलिन्द्रहारा भागेन
परिकल्पयेत् ॥६३॥
कूटकोष्ठादिसर्वाङ्गं पूर्ववत्
परिकल्पयेत् ।
शेषं तु भित्तिविष्कभमेकांशं
कूटविस्तृत ॥६४॥
(त्रितल गोपुर में) चौड़ाई के नौ भाग करने चाहिये
। तीन भाग से नालीगेह (मध्य भाग), एक भाग से
गृहपिण्डी (अन्तःभित्ति) एवं एक भाग से अलिन्दहारा (बाह्य भित्ति) निर्मित करनी
चाहिये । कूट एवं कोष्ठ आदि सभी अंगो को पहले के समान निर्मित करना चाहिये । शेष
भाग से भित्ति-विष्कभ एवं एक भाग से कूट का विस्तार रखना चाहिये ॥६३-६४॥
शालायामं त्रिभागं स्यादेकांशं
लबपञ्जर ।
हाराभागमथार्धं स्यादायामे
कोष्ठकायत ॥६५॥
शाला (मध्य कोष्ठ) की लबाई तीन भाग
एवं लब-पञ्जर (मध्य में लटकता हुआ कोष्ठ) एक भाग, आधे भाग से हाराभाग निर्मित होना चाहिये । कोष्ठ की लबाई पाँच या छः भाग
होनी चाहिये एवं ऊर्ध्व भाग मे चौ़ड़ाई सात भाग होनी चाहिये ॥६५॥
पञ्चांशं वा षडंशं वाप्यूर्ध्वे
सप्तांशाविस्तृत ।
कूटमंशं द्विभागेन शालायामं
द्विभागिक ॥६६॥
हारायां क्षुद्रनीं तदर्धभागमिति
स्मृत ।
शालायामं तु पञ्चांशमायामे
प्रविधीयते ॥६७॥
कूट की चौड़ाई एक भाग से,
शाला (मध्य कोष्ठ) की चौड़ाई एवं लबाई दोनों दो भाग से, हारा (मध्य निर्मिति) दो भाग से एवं क्षुद्रनीड (छोटी सजावटी खिड़कीयाँ)
आधे भाग से निर्मित करनी चाहिये । शाला की लबाई को पाँच भाग से निर्मित करना
चाहिये । इस प्रकार त्रितल गोपुर का वर्णन किया गया है । शेष भागो का निर्माण
विद्वान लोगों को अपने विचार के अनुसार करना चाहिये ॥६६-६७॥
एवं त्रितलमाख्यातं शेषमूह्यं
विचक्षणैः ।
तारे पङ्क्त्यंशके नालीगेहं
तत्त्रिभिरंशकैः ॥६८॥
सार्धांशं भित्तिविष्कभमेकभागमलिन्द्रक
।
एकांशं खण्डहर्यं स्यात्कूटकोष्ठादि
पूर्ववत् ॥६९॥
मुखेऽमुखे महाशाला पञ्चांशं च षडंशक
।
सर्वावयवसंयुक्तं चतुर्भौममिदं वर
॥७०॥
(चार तलों वाले गोपुर में) चौड़ाई के दस भाग करने
चाहिये । तीन भाग से नालीगेह (मध्य भाग), डेढ़
भाग से भित्ति-विष्कभ (भीतरी भित्ति की मोटाई) एक भाग से अलिन्द एवं एक भाग से
खण्डहर्य (बाह्य भित्ति से सबद्ध संरचना) निर्मित करनी चाहिये । कूट एवं कोष्ठ का
निर्माण पहले के समान करना चाहिये । सामने एवं पीछे के भाग में महाशाला (बड़ा
प्रकोष्ठ) पाँच भाग एवं छः भाग से निर्मित करना चाहिये । इस प्रकार सभी अंगो से
युक्त चार तल से युक्त श्रेष्ठ गोपुर निर्मित होता है ॥६८-७०॥
तारे रुद्रांशके नालीगेहं
तत्त्रिभिरंशकैः ।
द्विभागं
भित्तिविष्कभमेकबागमलिन्द्रक ॥७१॥
एकांशं खण्डहर्यं स्याच्छेषं
पूर्ववदाचरेत् ।
एवं पञ्चतलं विद्यात् षट्तलं
चाधुनोच्यते ॥७२॥
(पञ्चतल गोपुर में) विस्तार के ग्यारह भाग करने
चाहिये । तीन भाग से नालीगेह, दो भाग से
भित्ति-विष्कभ, एक भाग से अलिन्द, एक
भाग से खण्डहर्य एवं अन्य अंगो का निर्माण पूर्व-वर्णित विधि से करना चाहिये । इस
प्रकार पञ्चतल गोपुर का निर्माण करना चाहिये । अब षट्तल गोपुर का वर्णन किया जा
रहा है । ॥७१-७२॥
विपुले द्वादशांशे तु नालीगेहं
युगांशक ।
द्विभागं भित्तिविष्कभमंशेनान्धारकं
भवेत् ॥७३॥
(षट्तल में) चौड़ाई के बारह भाग करने चाहिये ।
चार भाग से नालीगेह, दो भाग से
भित्ति-विष्कभ, एक भाग से अन्धारक (मार्गविशेष) एवं एक भाग
से खण्डहर्य निर्मित करना चाहिये । कूट एवं कोष्ठ आदि की संरचना पहले के समान करनी
चाहिये ॥७३॥
अंशेन खण्डहर्यं स्यात्कूटकोष्ठादि
पूर्ववत् ।
तारे त्रयोदशांशे तु गर्भगेहं
युगांशक ॥७४॥
द्व्यंशार्धं
भित्तिविष्कभमेकभागमलिन्द्रक ।
एकांशं खण्डहर्यं स्यात्कूटकोष्ठादि
पूर्ववत् ॥७५॥
मुखेऽमुखे महाशाला षड्भागेन
विधीयते ।
पञ्जरैर्हस्तिपृष्ठैश्च
पक्षशालादिभिर्युत ॥७६॥
नानामसूरकस्तभवेदीजालकतोरण ।
एवं सप्ततलं प्रोक्तं गोपुरं
सार्वदेशिक ॥७७॥
(सात तल के गोपुर में) चौड़ाई के तेरह भाग करने
चाहिये । चार भाग से गर्भगृह (नालीगृह, मध्यभाग),
ढाई भाग से भित्ति-विष्कभ, एक भाग से अलिन्द्र
एवं एक भाग से खण्डहर्य का निर्माण करना चाहिये । कूट एवं कोष्ठ आदि पूर्ववधि से
निर्मित करनी चाहिये । सामने एवं पृष्ठभाग में छः भाग से महाशाला निर्मित करना
चाहिये । इसे पञ्जर, हस्तिपृष्ठ, पक्षशाला
आदि से युक्त करना चाहिये । इसमें विभिन्न प्रकार के मसूरक (अधिष्ठान), स्तभ, वेदी एवं जालक-तोरण निर्मित करना चाहिये । इस
प्रकार सभी स्थानों के अनुकूल सप्ततल गोपुर का वर्णन किया गया ॥७४-७७॥
मयमत अध्याय २४– द्वारविस्तारमान
मूलद्वारस्य विस्तारे पञ्चभागैकहीनक
।
चतुर्भागैकहीनं वोपरिष्टाद्
द्वारविस्तृत ॥७८॥
उपर्युपरि वेशं च
मध्यपादोत्तरैर्युत ।
गर्भागारे तु सोपानं ह्यपर्युपरि
विन्यसेत् ॥७९॥
द्वार की चौड़ाई का प्रमाण - ऊपरी तल
के द्वार की चौड़ाई मूल द्वार (निचले तल, भूतल
के द्वार) के विस्तार से पाँच या चार भाग कम होना चाहिये । प्रत्येक तल के मध्य
भाग में पाद एवं उत्तर (चौखट) से युक्त द्वार स्थापित होना चाहिये । ऊपरी तलों में
सोपान का विन्यास गर्भ-गृह (मध्य भाग) में करना चाहिये । ॥७८-७९॥
चतुष्कर्णे तु सोपानमुपपीठे
प्रशस्यते ।
यथायुक्ति यथाशोभं तथा योज्यं
विचक्षणैः ॥८०॥
सोपान चौकोर उपपीठ से प्रारभ करना
प्रशस्त होता है । बुद्धिमान (स्थपति) को जिस प्रकार सोपान का निर्माण सुन्दर लगे,
उस प्रकार समुचित रीति से करना चाहिये ॥८०॥
मयमत अध्याय २४– गोपुरालङ्कारः
गोपुराणामलङ्कारं प्रत्येकं
वक्ष्यतेऽधुना ।
मण्डपाभा यथा द्वारशोभा तत्र
प्रकीर्तिता ॥८१॥
दण्डशाला यथा द्वारशाला तत्र
विधीयते ।
प्रासादाकृतवद् द्वारप्रासादं
प्रोच्यते बुधैः ॥८२॥
मालिकाकृतविद् द्वारहर्यं तु
प्रोच्यते बुधैः ।
सशालाकृतिसंस्थानं
द्वारगोपुरमिष्यते ॥८३॥
सवेषु गोपुरं कुर्याद्यथायुक्ति विशेषतः
।
गोपुर के अलङ्कार - गोपुरों के
प्रत्येक अलङ्कार का वर्णन अब किया जा रहा है । द्वारशोभा गोपुर का निर्माण मण्डप
के सदृश करना चाहिये । द्वारशाला गोपुर का निर्माण दण्डशाला के समान करना चाहिये ।
द्वारप्रासाद गोपुर का निर्माण प्रासाद (मन्दिर) की आकृति के सदृश करना चाहिये ।
द्वारहर्य गोपुर की आकृति मालिका की आकृति के समान होनी चाहिये । द्वारगोपुरसंज्ञक
गोपुर का स्वरूप शाला के समान होना चाहिये । सभी गोपुरो का अलङ्करण विशेष रूप से
यथोचित रीति से करना चाहिये ॥८१-८३॥
मयमत अध्याय २४– श्रीकर-द्वारशोभा
श्रीकरस्याप्यलङ्कारं
प्रवक्ष्यायनुपूर्वशः ॥८४॥
विस्तारद्विगुणं वाऽपि
पादोनद्विगुणायत ।
पञ्चसप्तनवांशं तु विस्तारे
प्रविधीयते ॥८५॥
विस्तारांशप्रमाणेन दैर्घ्यभागांश्च
कल्पयेत् ।
एकद्वित्रितालोपेतं सर्वावयवसंयुत
॥८६॥
श्रीकर-रीति से द्वारशोभा - श्रीकर
के भी अलङ्कारों का वर्णन क्रमानुसार किया जा रहा है । इसकी लबाई चौड़ाई की दुगुनी
या दुगुनी से चौथाई कम होनी चाहिये । विस्तार के पाँच,
सात या नौ भाग करने चाहिये । विस्तार के भाग-प्रमाण से लबाई के भाग
निश्चित करना चाहिये । इसे एक, दो या तीन तल से एवं सभी
अंगों से युक्त निर्मित करना चाहिये ॥८४-८६॥
स्वस्तिकाकृतिकं नासो सर्वत्र
प्रविधीयते ।
मुखेऽमुखे महानासी वंशनासी
द्विपार्श्वयोः ॥८७॥
शिरःक्रकरकोष्ठं वा
युग्मस्थूपिसमायुत ।
लुपारोहिशिरो वाऽपि मण्डपाकृतिरेव
वा ॥८८॥
स्वस्तिक के आकृति की नासा (सजावटी
छोटी खिड़की) सभी स्थानों पर होनी चाहिये । सामने एवं पीछे महानासी तथा दोनों
पार्श्वों में वंशनासी का निर्माण करना चाहिये । शिरोभाग में क्रकर कोष्ठ (विशिष्ट
आकृति) या सम संख्या में स्थूपी होनी चाहिये । साथ ही इसके शिरोभाग पर लुपा हो
अथवा इसकी आकृति मण्डप के सदृश होनी चाहिये ॥८७-८८॥
मयमत अध्याय २४– रतिकान्त-द्वारशोभा
रतिकान्तस्य संस्थानं
विस्ताराध्यर्धमायत ।
कूटकोष्ठादि सर्वाङ्गं पूर्ववत्
परिकल्पयेत् ॥८९॥
शालाकारशिरस्तस्मिन षण्णासी
मुखपृष्ठयोः ।
सार्धकोटिसमायुक्तं मध्यवेशनसंयुत
॥९०॥
रतिकान्त रीति से द्वारशोभा -
रतिकान्त शैली में लबाई चौड़ाई से डेढ़ गुनी अधिक होती है । कूट एवं कोष्ठ आदि सभी
अंगो को पूर्ववर्णित विधि से करना चाहिये । इसका शिरोभाग शाला के आकार का होना
चाहिये एवं षण्णासी (छोटी-छोटी छः सजावटी खिड़कियाँ) सामने एवं पीछे होनी चाहिये
तथा अर्धकोटि (विशिष्ट आकृति) का निर्माण करना चाहिये । स्थूपियों की संख्या सम
होनी चाहिये । इसे अन्तःपाद (भीतरी स्तभ) एवं उत्तर से युक्त तथा मध्यवेशन (मध्य
भाग में कक्ष) से युक्त सामने निर्मित करना चाहिये ॥८९-९०॥
मयमत अध्याय २४– कान्तविजय-द्वारशोभा
कान्तविजयसंस्थानं
तारत्रिद्वियंशमायत ॥९१॥
पूर्ववद् भूमिभागं च कूटकोष्ठादि
पूर्ववत् ।
अन्तःपादोतरैर्युक्तं नानाङ्गैः
समलंकृत ॥९२॥
शिखरे च मुखे पृष्ठे षण्णास्यः
पार्श्वयोर्द्वयोः ।
सभाकारः
शिरस्तस्मिन्नयुग्मस्थूपिकान्वित ॥९३॥
द्वारशोभात्रयं प्रोक्तं द्वाराङ्गं
मुखशोभित ।
कान्तविजय रीति से द्वारशोभा - कान्तविजय
द्वारशोभा की लबाई उसकी चौड़ाई से दो तिहाई अधिक होती है । इसके तल पूर्व वर्णित
एवं कूट तथा कोष्ठ आदि अंग भी पूर्ववर्णित विधि से निर्मित करने चाहिये । इसे
भीतरी स्तभो एवं उत्तर से युक्त तथा विविध अगो से सुसज्जित करना चाहिये । शिखर के
आगे एवं पीछे षण्णासी (छः नासियाँ) तथा दोनों पार्श्वो मे सभा के आकार का शिरोभाग
होना चाहिये, जिस पर विषम संख्या में
स्थूपिकायें होनी चाहिये । इस प्रकार द्वारशोभा के तीन भेदों का वर्णन किया गया,
जो अपने सभी अंगो से युक्त है एवं जिनका मुखभाग अलंकृत है ॥९१-९३॥
मयमत अध्याय २४– विजयविशाल-द्वारशाला
विजयविशालसंस्थानं
विस्तारद्विगुणायत ॥९४॥
सपादं वाऽथ सार्धं वा
पादोनद्विगुणायत ।
सप्तनन्दशिवांशैश्च तलं
द्वित्रिचतुष्टय ॥९५॥
द्वारशालासंज्ञक गोपुर का विजयविशाल
प्रकार - विजयविशाल द्वारशाला की लबाई उसकी चौड़ाई की दुगुनी,
सवा भाग, डेढ़ भाग अथवा चतुर्थांश कम दुगुनी
रखनी चाहिये । इसकी चौड़ाई के सात, नौ या ग्यारह भाग करने
चाहिये तथा इसके दो, तीन या चार तल होने चाहिये ॥९४-९५॥
सालिन्द्रे त्रिचतुर्भोमो चतस्त्रो
मुखपट्टिकाः ।
मुखे पृष्ठे महानासी सार्धकोटि
सभद्रक ॥९६॥
पार्श्वयोः पञ्जरैर्युक्तं शालाकारशिरःक्रिय
।
अयुग्मस्थूपिकोपेतं सर्वावयवसंयुत
॥९७॥
तीन या चार तले में अलिन्द्र एवं
चार मुखपट्टिकायें मुखभाग एवं पीछे महानासी (बड़ी सजावटी खिड़की) अर्धकोटि एवं भद्रक
होना चाहिये । इसका शिरोभाग शाला के आकार का होना चाहिये एवं दोनो पार्श्वों मे
पञ्जर होने चाहिये । इसे विषम संख्या में स्थूपिकाओं एवं सभी अंगो से युक्त करना
चाहिये ॥९६-९७॥
मयमत अध्याय २४– विशालालय-द्वारशाला
विशालालयसंस्थानं पादोनद्विगुणायत ।
पूर्ववद् भूमिभागं च
कूटकोष्ठाद्यलंकृत ॥९८॥
अर्धकोटि सभद्रं स्याद्भद्रनासी
मुखेऽमुखे ।
चतस्त्रः पार्श्वयोर्नास्यः
शालाशिखरसंयुत ॥९९॥
अयुग्मस्थूपिकोपेतं शेषं
पूर्ववदाचरेत् ।
विशालालय प्रकार की द्वारशाला -
विशालालय द्वारशाला की लबाई उसकी चौड़ाई से चतुर्थांश कम दुगुनी रखनी चाहिये । इसके
तल पुर्ववर्णित विधि से निर्मित होने चाहिये तथा इसे कूट एवं कोष्ठ आदि से
सुसज्जित होना चाहिये । इसको शीर्षभाग पर अर्धकोटि, भद्र तथा आगे एवं पीछे भद्रनासी से युक्त करना चाहिये । दोनों पार्श्वों
मे चार नासियाँ, शिखर भाग शालायुक्त एवं विषम संख्या मेम
स्थूपिकायें निर्मित होनी चाहिये । शेष अंग पूर्व के सदृश निर्मित होने चाहिये ॥९८-९९॥
मयमत अध्याय २४– विप्रतीकान्त-द्वारशाला
विप्रतीकान्तसंस्थानं त्र्यंशे
द्व्यंशाधिकायत ॥१००॥
कूटकोष्ठादि सर्वाङ्गं पूर्ववत्
परिकल्पयेत् ।
पूर्ववद् भूमिभागं च
चतुर्दिग्गतभद्रक ॥१०१॥
चतस्त्रः शिखरे नास्यः शिरो
भद्रसमन्वित ।
अन्तः पादोत्तरैर्युक्तमयुग्मस्थूपिकान्वित
॥१०२॥
द्वारशालात्रयं प्रोक्तं सर्वाङ्गं
परिमण्डित ।
विप्रतीकान्त रीति से द्वारशाला -
विप्रतीकान्त द्वारशाला की लबाई उसकी चौड़ाई से दो तिहाई अर्थात् तीन भाग में से दो
भाग के बराबर अधिक रखनी चाहिये । कूट एवं कोष्ठ आदि सभी अंगों को पहले समान
निर्मित करना चाहिये । तलों का निर्माण पूर्ववर्णित विधि से करना चाहिये । चारो
दिशाओं में भद्रक, शिखर पर चार
नासियाँ एवं शिरो भाग कोभद्र से युक्त करना चाहिये । इसके भीतरी भाग में स्तभ एवं
उत्तर निर्मित करना चाहिये एवं इसे विषम संख्या में स्थूपिकाओं से युक्त करना
चाहिये । इस प्रकार सबी अवयवों से युक्त तीन प्रकार की द्वारशालाओं का वर्णन किया
गया ॥१००-१०२॥
मयमत अध्याय २४– श्रीकान्त-द्वारप्रासादः
श्रीकानस्य च संस्थानं
विस्ताराध्यर्धमायत ॥१०३॥
नन्दपङ्क्तिशिवांशैश्च
त्रिचतुष्पञ्चभूमयः ।
अन्तः पादोत्तरैर्युक्तमन्धाराद्यैरलंकृत
॥१०४॥
द्वारस्योर्ध्वेऽन्तरे रङ्गं
परिभद्रसमन्वित ।
मुखेऽमुखे महानासी शालाकारशिरो
भवेत् ॥१०५॥
अर्धकोटिसमायुक्तं चतुष्पञ्जरशोभित
।
द्वारप्रासादसंज्ञक गोपुर का
श्रीकान्त प्रकार - श्रीकान्त द्वारप्रासाद की लबाई उसकी चौड़ाई से डेढ गुनी अधिक
होती है । इसकी चौड़ाई को नौ, दस या ग्यारह
भागों में बाँटना चाहिये । इसमें तीन, चार या पाच तल का
निर्माण करना चाहिये । द्वार के ऊपर भीतरी भाग में रङ्ग एवं परिभद्र निर्मित करना
चाहिये । इसका शिरोभाग शाला (कोष्ठक) के आकार का हो एवं सामने तथा पीछे महानासी का
निर्माण होना चाहिये । इसे अर्धकोटि से युक्त एवं चार पञ्जरों से सुशोभित होना
चाहिये ।॥१०३-१०५॥
मयमत अध्याय २४– श्रीकेश-द्वारप्रासादः
श्रीकेशस्य तु संस्थानं
तारत्रिभागमायत ॥१०६॥
पूर्ववद् भूमिभागं च द्वारे
निर्गमकुट्टिम ।
सान्धारं कूटकोष्ठादिसर्वावयवसंयुत
॥१०७॥
श्रीकेश रीति से द्वारप्रासाद -
श्रीकेश द्वारप्रासाद में लबाई चौड़ाई से तीन गुनी अधिक होती है । इसके तल पहले के
सदृश होने चाहिये एवं द्वर पर निर्गम कुटिम (थोड़ा बाहर निकला हुआ अधिष्ठान)
निर्मित होना चाहिये । इसे अन्धार (मध्य में स्थित मार्ग) से युक्त एवं कूट-कोष्ठ
आदि सभी अवयवों से युक्त होना चाहिये ॥१०६-१०७॥
नानामसूरकस्तभवेदिकाद्यौरलंकृत ।
अन्तःपादोत्तरैर्युक्तं मध्ये
वारणशोभित ॥१०८॥
मुखेऽमुखे महानासी शालाकारशिरःक्रिय
।
पार्श्वयोर्वेदनास्यः स्युः
सर्वावयवशोभित ॥१०९॥
स्वस्तिकाकृतिवन्नासी सर्वत्र
परिशोभिता ।
नन्द्यावर्तगवाक्षाजालकाद्यैर्विचित्रित
॥११०॥
इसे विभिन्न प्रकार के अधिष्ठानों,
स्तभों एवं वेदिका आदि से सुसज्जित करना चाहिये । इसके भीतरी भाग
में स्तभ एवं उत्तर तथा मध्य भाग में वारण का निर्माण करना चाहिये । इसका शिरोभाग
शाला के आकार का हो एवं सामने तथा पीछे महानासी होनी चाहिये । दोनों पार्श्वो में
चार नासियाँ निर्मित होनी चाहिये एवं इसे सभी अंगो से युक्त होना चाहिये । सभी
स्थानों पर स्वस्तिक के आकृति वाली नासियाँ सुशोभित होनी चाहिये तथा इसे
नन्द्यावर्त गवाक्ष एवं जालक (झरोखा) आदि से सुसज्जित करना चाहिये ॥१०८-११०॥
मयमत अध्याय २४– केशविशाल-द्वारप्रासादः
केशविशालसंस्थानं
विस्ताराध्यर्धमायत ।
पूर्ववद् भूमिभागं च मध्यवारणशोभित
॥१११॥
कूटकोष्ठाद्यलङ्कारं पूर्ववत्
परिकल्पयेत् ।
मुखे पृष्ठे द्विपार्श्वे तु
महानासीचतुष्ट्य ॥११२॥
सभाकारशिरस्तय मुखे पृष्ठे
द्विपार्श्वयोः ।
अयुग्मस्थूपिकायुक्तं
द्वारप्रासादकत्रय ॥११३॥
केशविशालसंज्ञक द्वारप्रासाद गोपुर
- एक्शविशाल द्वारप्रासाद की लबाइ चौड़ाई के डेढ़ गुनी अधिक होती है तलों कानिर्माण
पहले के समान होना चाहिये एवं मध्य भाग में वारण (दालान,
ओसारा) होना चाहिये । कूट, कोष्ठ आदि अलंकरणों
का निर्मण पहले की भाँति होना चाहिये । सामने, पीछे एवं
दोनों पार्श्वों में चार महानासि निर्मित करनी चाहिये । इसका शिरोभाग सभा के आकार
का हो । उसके मुखभाग, पृष्ठभाग एवं दोनों पार्श्वों में विषम
संख्या में स्थूपिकायें होनी चाहिये । इस प्रकार द्वारप्रासाद गोपुर के तीन भेद
होते है ॥१११-११३॥
मयमत अध्याय २४– स्वस्तिक-द्वारहर्य
स्वस्तिकस्य तु संस्थानं
विस्तारद्विगुणायत ।
पङ्क्तिरुद्रार्कभागैस्तु
वेदपञ्चर्तुभूमयः ॥११४॥
अन्तःपादोत्तरैयुक्तं भूमिभागं च
पूर्ववत् ।
कूटकोष्ठादिसर्वाङ्गैरन्धाराद्यैरलङ्कृत
॥११५॥
सभाशिखरसंयुक्तं
स्वस्तिकाकृत्नासियुक् ।
अष्टनासि सभाग्रे तु
अयुग्मस्थूपिकान्वित ॥११६॥
द्वारहर्य गोपुर का स्वस्तिकसंज्ञक
भेद - स्वस्तिकसंज्ञक द्वारहर्य गोपुर की लबाई चौड़ाई की दुगुनी होती है एवं चौड़ाई
को दस,
ग्यारह या बारह भागों में बाँटना चाहिये । इसे चार, पाँच या छः तल से युक्त निर्मित करना चाहिये । भीतरी भाग में स्तभ एवं
उत्तर होना चाहिये तथा तलों की योजना पूर्व-वर्णित होनी चाहिये । कूट, कोष्ठ आदि सभी अवयवों तथा अन्धार आदि से सुसज्जित करना चाहिये । इस गोपुर
को सभाकार शिखर से युक्त तथा स्वस्तिकाकार नासियों से युक्त करना चाहिये । सभा के
अग्र-भाग में आठ नासियाँ एवं विषम संख्या में स्थूपिकाओं का निर्माण करना चाहिये
॥११४-११६॥
मयमत अध्याय २४– दिशास्वस्तिक-द्वारहर्य
दिशास्वस्तिकसंस्थानं
विस्तारद्विगुणायत ।
पूर्ववद् भूमिभागं च
कूटकोष्ठाद्यलंकृत ॥११७॥
अन्धार्यन्धारहाराङ्गं
खण्डहर्याभिमण्डित ।
मुखेऽमुखेऽतिभद्रांशं
शिरश्चायतमण्डल ॥११८॥
महानासि चतुर्युक्तं
चतुष्पञ्जरशोभित ।
अन्तःपादोत्तरैर्युक्तं
सर्वावयवसंयुत ॥११९॥
अनुक्तं पूर्ववत्
सर्वमयुग्मस्थूपिकान्वित ।
दिशास्वस्तिक संज्ञक द्वारहर्य -
दिशास्वस्तिक संज्ञक द्वारहर्य गोपुर की लबाई विस्तार की दुगुनी होनी चाहिये ।
इसके तलों की योजना कूट-कोष्ठादि सज्जा पहले के सदृश होनी चाहिये । इसे अन्धारी
(भीतरी भित्ति), अन्धार, हाराङ्ग
एवं खण्डहर्य से युक्त करना चाहिये । इसका शिरोभाग आयतमण्डलाकार (गोलाई लिये लबाई)
एवं सामने तथा पीचे अतिभद्रांश निर्मित करना चाहिये । इसे चार महानासियों एवं चार
पञ्जरों से अलंकृत करना चाहिये । भीतरी भाग को स्तभ, उत्तर
एवं सभी अंगो से युक्त करना चाहिये । जिनका जहाँ उल्लेख नही किया गया है, उन सबको पहले के समान निर्मित करना चाहिये तथा विषम संख्या में
स्थूपिकायें निर्मित होनी चाहिये ॥११७-११९॥
मयमत अध्याय २४– मर्दल-द्वारहर्य
मर्दलस्य तु संस्थानं
विस्तारद्विगुणायत ॥१२०॥
पूर्ववद् भूमिभागं च
कूटकोष्ठाद्यलंकृत ।
पुरे पृष्ठे सभागं स्याद्
विस्तारत्यंशनिर्गम ॥१२१॥
शालाकारशिरोयुक्तं
क्षुद्रनसीविभूषित ।
मुखे पृष्ठे महानासी
चतुष्पञ्जरशोभित ॥१२२॥
अन्तःपादोत्तरैर्युक्तं द्वारहर्यं
त्रिधोदित ।
मर्दल संज्ञक द्वारहर्य गोपुर -
मर्दल की लबाई उसकी चौड़ाई की दुगुनी होती है । तलों का निर्माण एवं कूट तथा कोष्ठ
आदि अलंकरणों का निर्माण पूर्ववर्णित विधि से होता है । सामने एवं पीचे सभा के
अग्र भाग के सदृश निर्माण होना चाहिये तथा इसका निर्गत विस्तार के तीसरे भाग के
बराबर होना चाहिये । इसका शीर्षभाग शाला के आकार का हो एवं क्षुद्रनासियों से
सुसज्जित हो । मुखभाग एवं पृष्ठभाग की महानासी एवं चार पञ्जरों से सज्जा होनी
चाहिये । भीतर स्तभ एवं उत्तर निर्मित होना चाहिये । इस प्रकार द्वारहर्य तीन
प्रकार से वर्णित है ॥१२०-१२२॥
मयमत अध्याय २४– मात्राकाण्ड-द्वारगोपुर
मात्राकाण्डस्य संस्थानं
विस्तारद्विगुणायत ॥१२३॥
रुद्रार्क त्रयोदशांशैः पञ्चषट्सप्तभूमयः
।
पूर्ववद्भूमिभागं च कूटकोष्ठादि
पूर्ववत् ॥१२४॥
अन्तःपादोत्तरैर्युक्तं
चतुर्दिग्गतभद्रक ।
गृहपिण्ड्यलिन्द्रहाराभिर्मण्डितं
खण्डहर्यवत् ॥१२५॥
शालाकारशिरः कुर्यान्महानासी
मुखेऽमुखे ।
पार्श्वयोः क्षुद्रनास्यश्च
यथायुक्त्या प्रयोजयेत् ॥१२६॥
द्वारगोपुर का मात्राकाण्ड संज्ञक
भेद - मात्राकाण्ड की लबाई चौड़ाई की दुगुनी होती है । इसकी चौड़ाई के ग्यारह,
बारह या तेरह भाग करने चाहिये एवं पाँच, छः या
सात तल होने चाहिये । तलयोजना पूर्ववत् एवं कूट तथा कोष्ठ आदि भी पहले के सदृश
होने चाहिये । इसके भीतरी भाग में स्तभ एवं उत्तर हो तथा चारो दिशाओं में भद्रक
निर्मित हो । इसे गृहपिण्डी (भीतरी भित्ति), अलिन्द एवं हारा
से अलंकृत करना चाहिये तथा खण्डहर्य निर्मित होना चाहिये । इसका शिरोभाग शाला की
आकृति का हो तथा सामने एवं पीछे महानासी निर्मित हो । दोनों पार्श्वों में
क्षुद्रनासियाँ यथोचित रीति से निर्मित होनी चाहिये ॥१२३-१२६॥
मयमत अध्याय २४– श्रीविशाल-द्वारगोपुर
श्रीविशालस्य संस्थानं पञ्चांशे
द्व्यंशमायत ।
पूर्ववद् भूमिभागं च मूलतः
क्रकरीकृत ॥१२७॥
शिरः क्रकरकोष्ठं च सभा वा तत्र
शीर्षक ।
नानामसूरकस्तबवेदिकाद्यैरलंकृत
॥१२८॥
चतुर्दिक्षु महानासी
क्षुद्रनासीविभूषिता ।
स्वस्तिकाकृतिवन्नास्यः सर्वत्र
परिकल्पयेत् ॥१२९॥
श्रीविशाल संज्ञक द्वारगोपुर -
श्रीविशाल द्वारगोपुर की चौड़ाई के पाँच भाग में से दो भाग के बराबर अधिक लबाई रखनी
चाहिये । तल-योजना पहले के सदृश होनी चाहिये तथा मूल से ऊपर क्रकरी आकार (क्रास का
आकार) में निर्मित करना चाहिये । इसके शिरोभाग पर क्रकरश्रेष्ठ (क्रास के आकार का
कोष्ठ) या सभा का आकार निर्मित करना चाहिये । इसे विभिन्न प्रकार के अधिष्ठानों,
स्तभों एवं वेदिकाओं से सुसज्जित करना चाहिये । चारो दिशाओं में महानासी
एवं क्षुद्रनासी निर्मित करना चाहिये । स्वस्तिकाकार नासियाँ सभी ओर निर्मित होनी
चाहिये ॥१२७-१२९॥
मयमत अध्याय २४– चतुर्मुख-द्वारगोपुर
चतुर्मुखस्य संस्थानं
चतुर्भागाधिकायुत ।
पूर्ववद् भूमिभागं च
दिशाभद्रकसंयुत ॥१३०॥
हारामध्ये तु कर्तव्यं कुड्यकुभलतान्वित
।
तोरणैर्जालकैर्वृत्तस्फुटिताद्यैरलंकृत
॥१३१॥
कूटैर्नीडैस्तथा कोष्ठैः
क्षुद्रकोष्ठैर्विभूषित ।
गृहपिण्ड्यलिन्द्रहाराभिर्मण्डितं
खण्डहर्यवत् ॥१३२॥
चतुर्मुख संज्ञक द्वारगोपुर -
चतुर्मुख द्वारगोपुर की लबाई उसकी चौड़ाई से चार भाग अधिक होती है । इसके तलों का
भाग पूर्व-वर्णित हो एव प्रत्येक दिशा में भद्रक हो । हारा के मध्य में कुभलता से
युक्त भित्ति हो एवं तोरण,जालक तथा
वृत्तस्फुटित (अलङ्करणविशेष) आदि से सुसज्जित हो । कूटों, नीडों
(सजावटी खिड़कियों), कोष्ठो एवं क्षुद्रकोष्ठों से अलंकृत हो
एवं गृहपिण्डी, अलिन्द्र, हारा एवं
खण्डहर्य आदि से सुसज्जित हो ॥१३०-१३२॥
सभाशिरस्तु वा शालाकारं वा शीर्षकं
तु तत् ।
चतुर्नासिसमायुक्तं पार्श्वे द्वे
द्वे तु नासिके ॥१३३॥
उपर्युपरिकूटाद्यैः सर्वाङ्गैः
समलङ्कृत ।
अन्तःसोपानसंयुक्तं द्वारगोपुरकं
त्रिधा ॥१३४॥
इसका शिरो-भाग सभा की आकृति का या
शाला की आकृति का होता है । यह चार नासियों से युक्त होता है एवं पार्श्वों में
दो-दो नासिकायें होती है । ऊपरी (तल) कूट आदि सबी अंगो से सुसज्जित होता है तथा
भीतर सोपान से युक्त होता है । इस प्रकार यह गोपुर तीन प्रकार का होता है
॥१३३-१३४॥
वर्षस्थलसमोपेतं निर्वारितलकं तु वा
।
घनाघनाङ्गयुक्तानि श्रीकरादिनि
युक्तितः ॥१३५॥
श्रीकर आदि गोपुर वर्षा के स्थल
(वर्षा के जल के निकास-स्थल) से युक्त अथवा इससे रहित हो सकते है एवं ये सघन अथवा
घनरहित अंगों से युक्त आवश्यकतानुसार निर्मित किये जाते है ॥१३५॥
नानाविधस्तभमसूरकाणि नानाविधाङ्गानि
सलक्षणानि ।
नानोपपीठानि समण्डकानि
भद्राण्यभद्राणि घनाघनानि ॥१३६॥
एकादिसप्तान्ततलानि युक्त्या
शोभादिपञ्चादशगोपुराणि ।
शालासभामण्डपशीर्षकाणि प्रोक्तानि
सद्मन्यमरेश्वराणा ॥१३७॥
शोभा आदि पन्द्रह गोपुरों में अनेक
प्रकार के स्तभ, मसूरक (अधिष्ठा), अनेक प्रकार के लक्षणों से युक्त अवयव, विविध प्रकार
के उपपीठ मण्डक सहित, भद्र से युक्त या भद्ररहित तथा घने या
विरल अंग आदि से युक्त एक से लेकर सात तलों तक का निर्माण उचित रीति से करना
चाहिये । इनके शीर्षभाग शाला के आकार, सभा के आकार या मण्डप
के आकार के निर्मित होने चाहिये । इस प्रकार राजाओं एवं देवों के भवनों के गोपुरों
का वर्णन किया गया ॥१३६-१३७॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे
गोपुरविधानं नाम चतुर्विंशोऽध्यायः॥
आगे जारी- मयमतम् अध्याय 25
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