क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ११

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ११      

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ११ में कुमार्यावेशनमूद्ध, काम्यकर्म दिव्यज्ञानादिलाभ, वशीकरण, मुखस्तम्भन, सर्वरोगहरण, विषहरण, नानाविधकार्य विविधवशीकरण, स्त्रीवशीकरण, रिपुस्तम्भन, शत्रूच्चाटन, मारण, गणेशयन्त्र, अणिमादिमन्त्र का वर्णन किया गया है। 

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ११

क्रियोड्डीश महातन्त्रराजः एकादश: पटल:

Kriyoddish mahatantraraj Patal 11

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ११      

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज एकादश पटल

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज ग्यारहवाँ पटल

क्रियोड्डीशमहातन्त्रराजः

अथैकादशः पटलः

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ११ – कुमार्यावेशनम्

श्रीश्वर उवाच

अथ वक्ष्यामि संक्षेपात् कुमार्यावेशनं शृणु ।

सुगुप्ते विजने दे गोमयेनोपलेपिते ॥१॥

आचार्यः प्रयतो भूत्वा सुस्नातो विजितेन्द्रियः ।

नवकुम्भान् समादाय शुद्धकुम्भेन पूरयेत् ॥२॥

नवं शरावमानीय कपिलाघृतपूरितम् ।

कुम्भोपरि समारोप्य दीपं प्रज्वालयेत्ततः ।। ३ ।।

शताष्टमन्त्रजापेन कुमारा वा कुमारिकाः ।

अतीतानागतश्चैव वर्तमानं च यद्भवेत् ॥४॥

शुभाशुभानि सर्वाणि पश्यन्ति नात्र संशयः ।

सम्यग्ध्यात्वा गणेशानं गते यामे जपेन्निशि ।।५।।

शुभाशुभानि कर्माणि कथयन्ति न संशयः ।

कन्यकार्थी शुचिर्भूत्वा भन्त्रराजं गणेशितुः ।। ६ ।।

जप्त्वा दशसहस्राणि भानुरक्ता श्वभावजैः ।

पुष्पैर्दशांशहवनात् तां कन्यां लभते ध्रुवम् ।।७।।

श्री ईश्वर ने कहा- हे देवि ! अब संक्षिप्त रूप से कुमारी - आवेशन की विधि कहता हूँ, श्रवण करो। सभी प्रकार से रक्षित एकान्त स्थान को गोबर से पोतकर आचार्य द्वारा कहे गये नियमानुसार स्नान करे एवं संयम से रहे। नये कुम्भ को शुद्ध जल से भरकर स्थापित करे तथा कुम्भ के ऊपर नये शराव (सरई) में कपिला गाय के घी से दीपक प्रज्ज्वलित कर स्थापित करे तथा एक सौ आठ बार मन्त्र का जप करे। यदि जप के समय कुमार अथवा कुमारी दोनों में से एक अथवा दोनों ही स्वयं पूजास्थान में आकर उपस्थित हों तो यथाविधि उनका पूजन करे उस पूजन के प्रसाद से बीते हुये अथवा आने वाले एवं वर्तमान शुभाशुभ स्वयं दिखायी पड़ेंगे; इसमें संदेह नहीं है। इसके उपरान्त गणेश जी का ध्यान कर एक प्रहर रात्रि बीतने पर जपकर्म में प्रवृत्त हो। ऐसा करने से प्रसन्न हो गणेश जी स्वयं प्रत्यक्ष आकर समस्त शुभाशुभ जैसा होना होगा; कहेंगे। कन्या के इच्छुक पुरुष को चाहिये कि वह पवित्र होकर गणेशमन्त्र का जप करे। मन्त्रजप के पश्चात् सूर्यमुखी पुष्प से दशांश हवन करे तो निश्चित ही कन्या की प्राप्ति होती है ॥१-७॥

काम्यकर्माणि

वक्ष्यामि काम्यकर्माणि साधकानां हिताय वै ।

शास्त्रोक्तेनैव मन्त्रेण संक्षेपान्न तु विस्तरात् ।।८।।

साधकों के हित के लिये काम्य कर्म का वर्णन करता हूँ। शास्त्रोक्त मन्त्र से ही संक्षेपपूर्वक कर्म करे; विस्तारपूर्वक न करे ॥ ८ ॥

दिव्यज्ञानादिलाभः

स्वहृत्प गणेशानं कुन्देन्दुधवलप्रभम् ।

शुक्लालङ्कारसम्पन्नं भावयेद्यो निरन्तरम् ।। ९ ।।

भारती तस्य वक्त्राब्जे शास्त्रज्ञा बहुसुन्दरी ।

नित्यं प्रकाशते सत्यं दिव्यज्ञानप्रदायिनी ।। १० ।।

जो मनुष्य निरन्तर अपने हृदयकमल में कुन्देन्दु की भाँति धवलक वाले एवं श्वेत आभूषणों से विभूषित श्री गणेश जी का ध्यान करता है, उसक जिह्वा में सुन्दर रूप धारण करने वाली शास्त्रज्ञा, सत्य एवं दिव्य ज्ञान प्रदान करनेवाली भगवती भारती (सरस्वती) का वास होता है ।। ९-१० ॥

वशीकरणम्

न विनश्येद् गणेशानं सिन्दूरसदृशप्रभम् ।

पाशांकुशधरं ध्यात्वा यो जपेन्मन्त्रवित्तमः ।

अनङ्गवशसम्पन्ना तमभ्येति वराङ्गना ।। ११ ।।

पाश एवं अंकुश धारण करने वाले सिन्दूर के समान कान्ति वाले गणेशजी का जो साधक ध्यान कर पूजन एवं मन्त्रजप करते हैं, उन साधकों के निकट अवश्य ही कामविमोहित वरांगना स्वयं सेवा हेतु आती है ॥ ११ ॥

प्रकारान्तरम्

पाशांकुशवराभीतिं हिमकुन्देन्दुमल्लिभम् ।

दिग्वस्त्रं चन्द्रवर्णाभं स्फुरन्माणिक्यमण्डलम् ।

यः स्मरेत्तस्य वशगा ह्यवश्याऽपि वराङ्गना ।।१२।।

पाश, अंकुश, वर एवं अभय धारण करने वाले, हिमकुन्देन्दु की भाँति प्रभा वाले, दिग्वस्त्र धारण करने वाले, चन्द्रमा के समान वर्ण वाले, माणिक्यमण्डल की आभा वाले सदाशिव का जो साधक ध्यान करता है, सुन्दर मनोहारिणी वरांगना उसके वश में हो जाती है ।। १२ ।।

मुखस्तम्भनम्

विवादेषु गणेशानं ज्वलदग्निसमप्रभम् ।

प्रतिवादिमुखे ध्यायन्प्रजपेन्मनसा मनुम् ।। १३ ।।

तन्मुखं स्तम्भयेदाशु वादी दीनोऽपि नान्यथा ।। १४ ।।

मुख- स्तम्भन - विवाद के समय वादी के सम्मुख जलती हुई अग्नि के समान तेजवाले गणेशजी का ध्यान कर जो व्यक्ति मन्त्र का जप करता है, उससे वादी का मुख स्तम्भित हो जाता है तथा वादी दीन की भाँति व्यवहार करने लगता है; इसमें अन्यथा कुछ भी नहीं है ।। १३-१४ ॥

सर्वरोगहरणम्

अंगुष्ठमानं हृत्पद्मे शुद्धस्फटिकसन्निभम् ।

चिन्तयित्वा गणेशानं चिदम्बरसुधारसम् ।। १५ ।।

अभिषिच्य सुरश्रेष्ठ सततं धरणीतले ।

सर्वरोगविनिर्मुक्तश्चिरकालं स जीवति ।। १६ ।।

शुद्ध स्फटिक के समान उज्ज्वल, चेतनस्वरूप, अमृतरस से पूर्ण अंगुष्ठमात्र देहधारी श्री गणेशजी का जो साधक स्व- हृदयकमल में ध्यान कर निरन्तर पृथिवीलोक में अभिषेक करते हैं, वे सभी प्रकार के रोगों से मुक्त होकर चिरकाल तक जीवित रहते हैं ।। १५-१६ ।।

विषहरणम्

शुक्लवर्ण गणेशानं दशबाहूं मदोत्कटम् ।

भावयेद्धृदयाम्भोजे नित्यं निर्मलमानसः ।

शुक्लाम्बरधरं सौम्यं चिच्छशांकामृतप्लुतम् ।। १७ । ।

मन्त्री गरुडवत् सद्यस्त्रिविधं हरते विषम् ।। १८ । ।

शुक्ल वर्ण, दशभुजाधारी, मदोत्कट, शुक्ल (श्वेत) वस्त्र धारण करनेवाले, सौम्य, चन्द्र-अमृत से प्लुत गणेश जी का जो साधक शुद्ध चित्त से अपने हृदयकमल में ध्यान करते हैं, वे तीनों प्रकार के विषहरण करने में गरुड़ की भाँति समर्थ हो जाते हैं ॥१७- १८।।

नानाविधकार्याणि

धनार्थी मधुना नित्यं वशार्थी पायसैहुनेत् ।

घृतेन लक्ष्मीसम्प्राप्त्यै हुनेत् शर्करया तथा ।। १९ ।।

आयुषे चार्थसम्पत्तौ दध्ना च जुहुयात्तथा ।

अन्नेन चान्नसम्पत्त्यै द्रव्याप्त्यै तिलतण्डुलैः ।। २० ।।

लवणैरप्यनावृष्ट्यै वृष्टि कामस्तु बिल्वकैः ।

सौभाग्यार्थी तथा लाजैः कुसुमैश्चापि सोदनैः ।। २१ ।।

धनार्थी मधु से, वश्यार्थी खीर से, लक्ष्मीप्राप्ति हेतु घृत शर्करा से, आयु व अर्थ- सम्पत्ति हेतु दही से एवं अन्नप्राप्ति के लिये अन्न से हवन करना चाहिए, द्रव्य-प्राप्ति के लिये तिल एवं तण्डुल से हवन करे। अनावृष्टि हेतु लवण (नमक से, वृष्टि हेतु बेल से एवं सौभाग्यवृद्धि हेतु लाजा अथवा पके चावल (भात) मिश्रित फूलों की आहुति देनी चाहिये ॥१९-२१॥

विविधवशीकरणानि

वशिने जुहुयात् पद्यै राजानं वशमानयेत् ।

अश्वत्थोदुम्बरप्लक्षन्यग्रोधसमिधो हुनेत् ।। २२ ।।

विप्रक्षत्रियविट्शूद्राः सद्यो वश्या भवन्ति वै ।।२३।।

वशीकरण में कमलदल से हवनं करे। इससे राजा भी वशीभूत होता है। अश्वत्थ, उदुम्बर (गूलर) प्लक्ष, न्यग्रोध की समिधा से हवन करने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र सभी वशीभूत हो जाते हैं॥ २२-२३॥

स्त्रीवशीकरणम्

स्त्रीणां प्रतिकृतिं कृत्वा पिष्टेन प्रतिवासरम् ।

साज्याहुतित्रयन्तस्य वशमायान्ति नान्यथा ।। २४ ।।

प्रतिदिन पिष्टी से स्त्री के आकार की प्रतिमा बनाकर घी की तीन आहुतियाँ प्रदान करे तो अवश्य ही स्त्री का वशीकरण होता है ।।२४।।

प्रकारान्तरम्

मन्त्रराजं जपित्वा तु यथाविधि महोदरम् ।

दशांशे जुहुयान्मन्त्री राजिकालवणेन च ।। २५ ।।

तद्भस्म वामहस्तेन गृहीत्वा ताडयेत् स्त्रियम् ।

समागच्छति सा नारी मदनानलविह्वला ।। २६ ।।

साधक यथाविधि श्री गणेशजी के मन्त्र का जप कर राई तथा नमक से दशांश हवन करे। तत्पश्चात् हवन के भस्म को बाँयें हाथ में लेकर इच्छित नारी के ऊपर डाल दे। इससे निश्चित ही वह स्त्री कामातुर होकर साधक के निकट आ जायेगी ॥२५-२६॥

रिपुस्तम्भनम्

तद्वच्च प्रजपेदेनं पीतपुष्पैश्च मन्त्रवित् ।

स्तम्भयेद्रिपुसैन्यं च सामात्यबलवाहनम् ।। २७ ।।

प्रतिवादी भवेन्मूको मन्त्रस्यास्य प्रभावतः ।

स्तम्भयेत् पञ्चद्रव्याणि नात्र कार्या विचारणा ।। २८ । ।

रिपु (शत्रु) स्तम्भन - पूर्व की भाँति जप कर साधक पीतपुष्प से हवन करे। इस प्रयोग से साधक के शत्रु का मन्त्री सहित सैन्य बल का स्तम्भन होता है। प्रतिवादी का मुख बोलने में असमर्थ हो जाता है। इस मन्त्र का ऐसा प्रभाव है कि इसके द्वारा पञ्चद्रव्यों का भी स्तम्भन हो जाता है। इसमें अन्य विचार की आवश्यकता नहीं है ।। २७-२८॥

शत्रूच्चाटनम्

विभीतकसमिद्भिस्तु नियतं जुहुयात्तथा ।

सम्यगुच्चाटयेच्छत्रून् स्वस्थानात्तु विशेषतः ।। २९ ।।

मेरुमण्डलतुल्यो वा स देवोद्विग्नमानसः ।

ग्रामयुद्धे पुरे वापि इमं स्तुत्वा तु होमयेत् ।। ३० ।।

उच्चाटयति वेगेन मानुषेषु च का कथा ।। ३१ ।।

शत्रु के उच्चाटन हेतु बहेड़े की समिधाओं से हवन करे तो अवश्य ही शत्रु का उच्चाटन होता है। अधिक कहने से क्या लाभ; एक बार मेरु पर्वत जैसे स्थिर चित्तपुरुष का भी उच्चाटन किया जा सकता है। ग्राम अथवा पुरयुद्ध में मन्त्र का जप कर दशांश हवन करे। इस प्रयोग से जड़ पदार्थ का भी उच्चाटन किया जा सकता है; फिर मनुष्य मात्र का तो कहना ही क्या है? ।।२९-३१।।

मारणम्

मानुषास्थि समानीय सम्यगष्टांगुलीमितम् ।

मृतकेशैस्तु संवेष्ट्य सहस्राष्टाभिमन्त्रितम् ।। ३२ ।।

कुलिकोदयवेलायां शत्रुद्वारे खनेद्भुवि ।

सप्ताहान्मरणं तस्य भविष्यति न संशयः ।। ३३ ।।

मनुष्य के आठ अंगुल प्रमाण की अस्थि की कील को मृतक के सिर के बालों से लपेटकर एक हजार आठ बार मन्त्र से अभिमन्त्रित करके कुलिक योग के उदयकाल में शत्रु के द्वार पर भूमि खोदकर दबा दे। इससे व्यक्ति का मारण एक सप्ताह में हो जाता है ॥३२-३३॥

गणेशयन्त्रम्

अतः परं यन्त्रराजं शृणु देवि ! गणेशितुः ।

सुसमे भूतले शुद्धे गजाद्यैः सुपरिष्कृते ।। ३४ ।।

कामक्रोधविनिर्मुक्तः पूर्ववन्याससंयुतः ।

संपूज्य देवदेवेशं गणेशं शङ्करात्मजम् ।। ३५ ।।

भूर्जे क्षौमे तस्योपरि यन्त्रराजं समुद्धरेत् ।

कस्तूरीरोचनायन्त्रकाश्मीरं चन्दनं रसम् ।। ३६ ।।

गोशकृद्रससंयुक्तैर्मातङ्गमदमिश्रितैः ।

सर्वैश्च सुसमैरेभिः प्राणमापूर्य संलिखेत् ।। ३७ ।।

लेखन्या हेमशूच्या वा जातिकाष्ठेन दूर्वया ।

षट्त्रिंशत्कोणमष्टारं द्वादशारं ततः परम् ।।३८ ।।

कवर्गादीनि गायत्र्या वर्णान्यपि लिखेद्बहिः ।

महाभूमण्डलं कुर्याद्गजाष्टकविभूषितम् ।। ३९ ।।

तद्वाह्यं वारुणं कूर्ममण्डलञ्च नतं शुभम् ।

कर्णिकायां लिखेन्मन्त्री दक्षौ प्रणववेष्टितौ ।। ४० ।।

अङ्गानि चाष्टकोणेषु लक्ष्मीमनुदलं लिखेत् ।

द्वादशारे लिखेच्छक्तिं विना नपुंसकस्वरम् ।। ४१ ।।

स्वरपत्रं कलापत्रे ततश्चाष्टदलाम्बुजे ।

कादिमन्ताक्षरञ्चापि सर्वं पूर्वादितो लिखेत् ।।४२।।

पुनः पार्श्वककोणेषु वादि सान्तं समालिखेत् ।

एतन्मन्त्रं समाख्यातं न देयं यस्य कस्यचित् ।। ४३ ।।

अणिमाद्यष्टमन्त्रेण चाष्टबाहुं प्रपूजयेत् ।। ४४ ।।

हे देवि ! अब गणेशयन्त्र का श्रवण करो। गजादिकों से विधिवत् परिष्कृत युद्ध समान भाग पृथिवीतल में काम-क्रोधादि से पूर्णतया मुक्त होकर पूर्व की भाँति आस करके शिवपुत्र देवदेवेश भगवान् गणेश जी का पूजन करे। भूर्जपत्र अथवा राम वस्त्र पर कस्तूरी, गोरोचन, केशर, रक्तचन्दन, मातंग-मद इत्यादि गन्धित द्रव्यों से स्वर्ण, रजत, जातिकाष्ठ अथवा दूर्वा की लेखनी से यन्त्र को अंकित करे । यन्त्र छत्तीस कोण, अष्टार तथा द्वादशार हो। बाहर के भाग में गायत्री - कवर्गादि वर्णों को लिखे। महाभूमण्डल की रचना करके उसे गजाष्टक से भूषित करे। उस महाभूमण्डल के बाह्य भाग में नत वरुणदेव के कूर्ममण्डल को लिखे। कमलदल की कर्णिका में हकार तथा क्षकार इन दो वर्णों को लिखें। अष्टकोण में अंग तथा लक्ष्मीमन्त्र दलों में लिखे। द्वादशार कमल में बीज नपुंसक वर के विना लिखे। कलापत्र में स्वरपत्र लिखे। अष्टदल कमल में ककारादि तथा कारादि वर्णों को क्रमानुसार लिखे। पुनः पार्श्व कोण में वकार से आरम्भ कर गकार तक के वर्णों को लिखे। इस प्रकार के यन्त्र को किसी को न दे। अणिमादि बाठ मन्त्रों से अष्ट बाहु का पूजन करे ॥३४- ४४ ॥

अं अणिमायै नमः स्वाहा। लं लक्ष्म्यै नमः । व्यं व्याप्त्यै । प्रं प्राकाम्यायै । मं महिमा । ई ईशित्वायै । वं वशित्वायै । कं कामावशायित्वायै नमः स्वाहा । ।

उपरोक्त मन्त्र अणिमादि मन्त्र हैं।

एवं सम्पूज्य विधिवन्मन्त्री मुनिगणान्यजेत् ।

भोजयित्वा विधानेन नानामिष्टफलादिभिः । । ४५ ।।

दिव्यगन्धयुतैः पुष्पैर्दिव्यगन्धप्रलेपनैः ।

मूषिकं पूजयामास नानामिष्टफलादिभिः ।। ४६ ।।

ॐ समूषिकाय गणाधिपवाहनाय धर्मराजाय स्वाहा ।

इत्यनेनैव मन्त्रेण मूषिकं पूजयेत्ततः ।। ४७ ।।

एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि, तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ।

साधक इस प्रकार से पूजन कर मुनिगणों का पूजन करे एवं विधिवत विभिन्न प्रकार के मिष्टान्नों एवं फलों द्वारा भोजन कराये । पुनः दिव्य गन्ध, पुष्प एवं दिव्य लेपन आदि से गणेशजी के वाहन मूषक का पूजन कर मिष्टान एवं फलादि से उन्हें तृप्त करे। ॐ समूषिकाय गणाधिपवाहनाय धर्मराजाय स्वाहा मन्त्र से मूषकराज का पूजन करे। एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् यह गणेश का गायत्री मन्त्र है ।। ४५-४७।।

इति क्रियोड्डीशे महातन्त्रराजे शिवगौरी- संवादे एकादशः पटलः ।।११।।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज में देवी-ईश्वरसंवादात्मक ग्यारहदाँ पटल पूर्ण हुआ ।। ११ ।।

आगे जारी...... क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल 12

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