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माहेश्वरतन्त्र पटल ८

माहेश्वरतन्त्र पटल ८      

माहेश्वरतन्त्र के पटल ८ में परब्रह्म द्वारा इच्छा से त्रिगुणात्मिका निद्रा की सृष्टि, मोह की दो शक्तियाँ, कूटस्थ ब्रह्म का ही मोह निद्रा रूप अज्ञान से आवृत होकर सृष्टि करना, कूटस्थ ब्रह्म के प्रतिपादन में वाणी की असमर्थता, पुरुषोत्तम की दिव्य लीलाओं का वर्णन, दिव्य आनन्द की लीला का वर्णन है।

माहेश्वरतन्त्र पटल ८

माहेश्वरतन्त्र पटल ८    

Maheshvar tantra Patal 8

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ८     

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र अष्टम पटल

अथ अष्टमं पटलम्

शिव उवाच

इच्छया ससृजे निद्रा त्रिगुणा मोहरूपिणी ।

तथा विस्रंसितज्ञानो ममोह जगदीश्वरः ॥ १ ॥

शिव ने कहा --[उस परब्रह्म ने अपनी ] इच्छा से मोहरूपी [सत्त्व रज और तम रूप ] त्रिगुणात्मिका निद्रा का सृजन किया। उस सृजित अज्ञान ने जगदीश्वर को ही मोह लिया ॥ १ ॥

मोहरूपं तदज्ञानं यस्य शक्तिद्वयं प्रिये ।

आवरणा प्रथमा देवि विक्षेपात्मा परा मता ।। २ ।।

हे प्रिये ! उस मोह रूप अज्ञान की दो शक्तियाँ हैं - (१) उसकी प्रथम शक्ति 'आवरणात्मक' है और (२) दूसरी शक्ति, हे देवि ! 'विक्षेपात्मक' है ।। २ ।।

स्वप्रकाशं यथा दीपमभ्रपत्रावृतिर्यथा ।

निगुह्येतं जितानेन नानाभावान्प्रदर्शयेत् ॥ ३ ॥

जैसे दीपक अपने ही प्रकाश से अपने को आवृत कर लेता है । उसी प्रकार अपने आवरण से इस [मोह निद्रा) के द्वारा इसे ही जीतकर और उनके प्रकाश को छिपाकर नाना प्रकार के भावों का प्रदर्शन किया जाता है ॥ ३ ॥

एवं कूटस्थ पुरुषमावत्या वरणात्मिका ।

ततो विक्षेपरूपेण विश्वमात्मन्यदर्शयत् ॥ ४ ॥

इस प्रकार वह कूटस्थ परब्रह्म ही आवरणात्मक [ मोहनिद्रा रूप अज्ञान ] से आवृत हो जाता है और उसके बाद तब विक्षेपात्मक [अज्ञान] से अपने में ही सम्पूर्ण विश्व की स्थिति को देखने लग जाता है ॥ ४ ॥

शक्तिद्वय समापेतमज्ञानमिति तद्विदुः ।

यथा शयानः पुरुषो जाग्रदृष्ट विमुञ्चति ॥ ५ ॥

तद्वासनावासितायां बुद्धी स्वप्नं प्रपश्यति ।

यथा ददर्श विश्वात्मा स्वप्नारूढं जगत्प्रिये ।। ६ ।।

ये शक्तिद्वय जो उसे आबद्ध कर लेती हैं विद्वान् लोग इसे ही 'अज्ञान' नाम से अभिहित करते हैं । यह उसी प्रकार होता है जैसे- सोया हुआ पुरुष जागकर [ भ्रमात्मक स्वप्न से ] विमुक्त हो जाता है। उसी की वासना [सुगन्ध से ] वासित [सुगन्धित] होने से वह प्रबुद्ध होकर भी स्वप्न देखता ही है उसी प्रकार हे प्रिये ? वह विश्वात्मा भी स्वप्तारूढ़ होकर समस्त चराचर जगत् को देखता है ।। ५-६ ।।

यथाशयानः पुरुषः स्वप्ने राजा यथा भवेत् ।

राजदेहेन प्रकृतीः सर्वा एव नियच्छति ।। ७ ।।

जैसे सोया हुआ पुरुष स्वप्न में राजा हो जाता है और उसी राजा के शरीर से सभी प्रकृति का नियमन करता है ॥ ७ ॥

तथा नारायणं रूपं धत्ते देवश्चिदात्मकः ।

तेन रूपेण देवेशि स्वप्नलीलां प्रपश्यति ॥ ८ ॥

उसी प्रकार नारायण रूप से चिदात्मक परब्रह्म शरीर धारण करते हैं, और उसी रूप से, हे देवेशि ! स्वप्न के समान लीलाओं को देखते हैं ॥ ८ ॥

सत्वं रजस्तम इति पृथिव्यादीनि सुन्दरि ।

तत्र जातानि देवेशि येभ्योऽण्डमभवत्प्रिये ।। ९ ।।

हे सुन्दरि ! पृथ्वी आदि पश्चमहाभूत सत्त्व रज और तम रूप हैं । हे देवेशि हे प्रिये ! उसमें वही अण्ड होकर उत्पन्न होता है ।। ९ ।।

तत्र जाता इमे लोकाः सप्त चोर्ध्वमधस्तथा ।

सप्तार्णवाः सप्तद्वीपा जम्बूद्वीपस्तु मध्यगः ॥ १० ॥

उसी (अण्ड) में ये सात लोक ऊपर में और सात नीचे उद्भूत हो जाते हैं। उन्हीं में सात समुद्र, सात द्वीप हैं जिनके मध्य में जम्बू द्वीप है ।। १० ।।

तन्मध्ये भारतं वर्ष माथुरं तत्र मण्डलम् ।

तन्मध्ये गोकुलं जातं स्वाप्निकं सुरसुन्दरि ॥। ११॥

उस जम्बू द्वीप के मध्य में भारत देश हैं और उस [भारत] के मध्य में मथुरा मण्डल है । उस मथुरा मण्डल के बीच में गोकुल उत्पन्न हुआ और उनमें स्वप्न के समान ही देवाङ्गनाएं भी उत्पन्न हुई । ११ ॥

बहिर्वत् भासते विश्वं निद्रयान्तर्गतं प्रिये ।

ब्रह्मसत्तैव तत्सत्ता पृथक् सत्ता न विद्यते ।। १२ ।।

हे प्रिये ! उस परब्रह्म की निद्रा के अन्तर्गत यह विश्व बाह्य के समान भासता है । इस प्रकार ब्रह्म की सत्ता से ही उस बाह्यजगत् की सत्ता है । उसकी कोई पृथक् सत्ता नहीं हैं ॥ १२ ॥

भित्यन्तर्गतचित्राणि यथाधिष्ठानतः पृथक !

न सन्ति देवदेवेशि तदा श्रासमयान्यपि ॥ १३ ॥

एवं विश्वमयं चित्रं आत्ममित्तिमधिष्ठितम् ।

न पृथक् देवि कुत्रापि पृथक जानन्त्यपण्डिताः ॥ १४ ॥

भित्ति के ऊपर बने भयावह चित्र भी जैसे उस अधिष्ठान [ दीवार ] से पृथक् सत्ता नहीं रखते, उसी प्रकार हे देव देवेशि ! यह सम्पूर्ण विश्वमय चित्र उस ब्रह्म की आत्मा रूप भित्ति पर ही अधिष्ठित है । उसकी कहीं भी पृथक सत्ता नहीं है किन्तु हे देवि ! उसी को अज्ञानी जन पृथक् करके समझते हैं ।। १३-१४ ।।

ब्रह्मगुह्यमिदं देवि वक्तुं जिह्वा जडायते ।

गात्राणि शिथिलायन्ते वाणी मे गद्गदायते ।

तथापि प्रेमवशगो दिङ्मात्रं प्रब्रवीमि ते ।। १५ ।।

हे देवि ! वस्तुतः यह ब्रह्म रहस्यमय है । उसका प्रतिपादन करने में जिह्वा मूक हो जाती है । अङ्गप्रत्यङ्ग शिथिल होने लगते हैं और यहाँ तक कि मेरी वाणी गद्गद् हो जाने से अवरुद्ध हो जाती है। किन्तु फिर भी प्रेमवशात् मैं तुझसे कुछ संकेत मात्र कहता हूँ ॥ १५ ॥

एकदा पुरुष: साक्षात्पुरुषोत्तमसंज्ञकः ।

सखीनां मण्डलगतः स्वामिन्या श्लिष्टया प्रभुः ॥ १६ ॥

रत्नसिंहासनासीनः पदाक्रान्तमहीतलः ।

पाणिना भ्रामयन्पद्म पदावष्टब्धविग्रहः ।। १७ ।।

पुरुषोत्तम नामक वह साक्षात् पुरुष सखियों के मण्डल में आकर स्वामिनी [राधा ] से आविष्ट रत्न जटिल-सिंहासन पर आसीन थे । यह पृथ्वी तल उनके पैरों से आक्रान्त हुई थी। वह अपने हाथों में लीला कमल लिए हुए थे । उनका शरीर पैरों आदि से विग्रहवान् था ॥ १६-१७ ।।

दिव्यक्रीडारसानन्दो दिव्यभूषणभूषितः ।

दिव्यमणिक्यमुकुटो दिव्यकुण्डलमण्डितः । १८ ॥

वह प्रभु दिव्य क्रीडा (देवों की क्रीड़ा) के रस में आनन्दित हुए। उनका शरीर दिव्य आभूषणों से भूषित था। उनका मुकुट दिव्य माणिक्य से युक्त था । उनके दिव्य कुण्डलों से मण्डित थे । १८ ।।

निश्चला लिकुलकारकुटिल : स्निग्ध कुन्तलः ।

शरत्पलसद्वको नयनानन्दवर्षणः॥१९॥

उनका विग्रह निश्चल सखियों से घिरा था और टेढ़ी आकृति का था । उनका वह वेष बहुत ही स्निग्ध तथा शरद् कालीन पद्म से शोभित था । उनकी इस टेढी आकृति में उनके नेत्र आनन्द की वर्षा कर रहे थे ।। १९ ।।

दिग्रही रादिशतः प्रवाल दशनच्छदः ।

अनङ्गधनुराकारकुटिलभ्रूलतोत्सवः ।। २० ।।

उनकी दन्तपक्ति दिव्य हीरे के समान चमचमा रही थी जो मानो दिव्य मूंगों में जड़ी सी हो । साक्षात् कामदेव के धनुष के आकार का उनका भृकुटि विलास टेढ़ा सा था ।। २० ।

स्मितमाधुर्यविजित माधुर्य रससागरः।

कम्बुकण्ठलस खात्र यशोभामनोहरः ।। २१ ।।

वह प्रभु अपने मन्दस्मित के माधुर्य से माधुर्य रस के समुद्र को भी जीत रहे थे। उनका कण्ठ सुराही के समान घेरेदार था। उनके पेट पर त्रिवली से उनकी मनोहर शोभा हो रही थी ।। २१ ।।

मुक्ताहारलसद्वक्षः स्फुरमाणमणिप्रभः ।

कांचीकपालविस्फूर्जटिकिणीजालमण्डितः ।। २२ ।।

उनका वक्षस्थल मुक्तामणि के हार से शोभित था । हार की मणियों से निकली दमदमाहट से प्रभावान् थे। कमर में करधनी आदि आभूषणों से वे मण्डित थे ।। २२ ।।

वलयांगद केयूरोर्मिका वृन्दविभूषितः ।

सुनासः सुन्दरमुखः स्मिनोदारमुखाम्बुजः ।। २३ ।।

हाथों में कंगन और भुजाओं में बाजूबन्द और सिर पर मोर के पंख का मुकुट आदि विभूषित था। सुडौल नाक और सुन्दर मुख तथा मन्द हास से उनका मुख कमल उदरता से परिपूर्ण था ॥ २३ ॥

दिव्यगन्धानुलिप्तांगो दिव्याम्बरविभूषितः ।

सुधा समुद्रलहरीशीतलाकृति सुन्दरः॥ २४ ॥

सम्पूर्ण शरीर के अङ्ग प्रत्यक्ष में दिव्य गन्ध का लेप था । उनका शरीर दिव्य वस्त्र से विभूषित था। सुधा समुद्र के लहरों से शीतल लगने वाली सुन्दर आकृति थी ।। २४ ।

गंभीरावर्तनाभ्युद्यत्तनुरोमलतांकुरः ।

स्वामिनी संस्थिता तस्य वामदेशे सहासना ।। २५ ।।

उनकी नाभि गहरी और भंवर के समान गोलाकार थी। शरीर रूपी लता में रोमावली अंकुर के समान सुशोभित थी। उन्हीं के साथ आसन पर उनके बाए ओर स्वामिनी राधा बैठी थी ।। २५ ।।

अचञ्चलत डिस्कोटिद्यतिभूषणभूषिता ।

दिव्यधात्री फलस्थूलनासानटितमौक्तिका ॥ २६ ॥

चाञ्चल्य विहीन विद्युत की कोटि-कोटि कान्ति से वह भूषित थीं। उनकी नासिका दिव्य धात्री फल (आँवला) के समान स्थूल थी। मौक्तिक से युक्त नथ उनकी नासिका में सुशोभित था ।। २६ ।।

शृङ्गाररस सम्पूर्ण नेत्रान्दोलनविभ्रमः ।

विलपन्तीव देवेशि भत्तुं श्चित्तगभीरताम् ।। २७ ।।

शृङ्गारस से परिपूर्णं चलायमान नेत्रों के विलासों से, हे देवशि ! वह भर्ता के चित्त की गम्भीरता को विचलित कर रही थी ॥ २७ ॥

मधुरोल्लापमाधुर्य विनिर्भत्सितकच्छपी ।

मन्दस्मितप्रभापूरमज्जत्प्राणेशमानसा ॥ २८ ॥

प्रभु के साथ मधुरालाप के माधुर्य में डूबी हुई कच्छपी के समान थी । मन्द- मन्द मुस्कान की प्रभा से परिपूर्ण प्राणनाथ के मानस सरोवर में वह मानों स्नान कर रहीं थी । २८ ॥

मुखामोदविलुब्धा लिझङ्का रोद्विग्नलोचना ।

भ्रूलताजित कन्दर्पवर कार्मुकविभ्रमा ।। २९ ।।

मुख की सुगन्ध से लुभाए हुए भ्रमर की झंकार से उनके लोचन उद्विग्न से थे। उनकी सुन्दर भ्रूलता मानों कामदेव के श्रेष्ठ धनुष के विलास को भी जीत रही थी ।। २९ ।।

मणिमजीर निर्ह्रादविमोहितमरालिका ।

नखेन्दुरुचि सदोमज्जन्नपुर मण्डला ॥ ३० ॥

नूपुर से निकली हुई कान्ति से भ्रमर पक्ति मोहित हो रही थी । नखरूपी चन्द्र की कान्ति के संदोह में नूपुरमण्डल मानों स्नान कर रहा था ।। ३० ।।

आनन्दसागरोद्वेल विधूपममुखाम्बुजा ।

कुचकुम्भलसन्मुक्ताहारभारमनोहरा ।। ३१ ।।

आनन्द रूपी समुद्र में मुखकमल रूपी चन्द्र उद्वेलित हो रहा था । घड़े के समान गोलाकार शोभायमान पयोधर मुक्तामणि के हार के भार से मनोहर सा लग रहा था ।। ३१ ।।

ग्रैवेयाभरणोद्दीप्ता कम्बुकण्ठी शुचिस्मिता ।

सख्यः प्रियां पुरस्कृत्य प्राहुः प्राणेश्वरं मुदा ॥ ३२ ॥

ग्रैवेयक मणि के आभरण से उद्दीप्त उनका कण्ठ कम्बु ( सुराही के आकार का घेरेदार) था । सुन्दर स्मित से वह युक्त थी । वहाँ पर सखियों ने प्राणेश्वर से प्रिया को आगे करके प्रसन्नता से कहा-

सख्य ऊचुः

प्राणनाथ प्रियायास्ते मनोरथ महाद्रुमः ।

फलितो नव दृश्येत त्वयि भत्तेरि किं पुनः ॥ ३३ ॥

सखियों ने कहा- हे प्राणनाथ ! हम आपकी प्रिया हैं। हम लोगों के मनोरथ का महान् वृक्ष है । किन्तु जब आप भर्ता के रहते, वह फलीभूत होता नहीं दिखाई देता तो फिर और की तो बात ही क्या है ।। ३२-३३ ।।

मनोरथविघातेन धुनोत्येव प्रियामनः ।

बाललीलादिदृक्षास्मान् बाधते हृदयस्थिता ॥ ३४ ॥

मनोकामना की पूर्ति न होने से आपकी प्रिया का मन अन्यमनस्क सा हो रहा है । हृदय में स्थित आपकी बाल लीलाओं को देखने की हम सभी की इच्छा बाधित हो रही है ।। ३४ ।

यथेन्दोरचन्द्रिकायाश्च यथा कुसुमगन्धयोः

शब्दार्थयोर्यथेवेश यथा वह्नर्याचिषोः प्रभो ॥ ३५ ॥

हे प्रभो ! जैसे चन्द्रमा की चांदनी और फूलों की सुगन्ध, शब्द से अर्थ और शरीर से वेष तथा वह्नि से उसकी ज्वाला अलग नहीं है ।। ३५ ।।

अनाद्यभेदो देवेशि स्वामिन्यापि तथैव ते ।

अस्माकमपि भो स्वामिन् स्वामिन्यापि तथैव सः ।। ३६ ।।

हे देवेशि ! उसी प्रकार स्वामिनी और आप में अनादि अभेद है और हे स्वामिन्! उसी प्रकार हम सब और स्वामिन् भी हैं अर्थात् उनमें और हम में भी कोई भेद नहीं है ।। ३६ ।।

कस्य हेतोनं कुरुषे तन्मनोरथपूरणम् ।

अविलम्बितमेवैतत्कुरुष्व हृदयस्थितम् ॥ ३७ ॥

अतः हे प्रभो ! - आप किस कारण से उस मनोरथ की पूर्ति नहीं कर रहे हैं । हमारे हृदय में स्थित इस मनोरथ की आप अविलम्व पूर्ति करें ।। ३७ ।।

इति श्रीमहेश्वरतन्त्रे उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे अष्टमं पटलम् ॥ ८ ॥

इस प्रकार श्रीनारदपाञ्चरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड ) में माँ जगदम्वा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के अष्टम पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥ ८ ॥

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 9

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