माहेश्वरतन्त्र पटल ९

माहेश्वरतन्त्र पटल ९  

माहेश्वरतन्त्र के पटल ९ में स्वामिनी राधा की प्राकट्य लीला, उनकी अन्य सखियों के नाम, स्वप्निल लीला वर्णन, सखियों और कूटस्थ के मध्य लीला के रहस्य का गोपन, ब्रह्म लीला वर्णन, श्रीकृष्ण जन्म और गोकुल में जाने की कथा का वर्णन है।

माहेश्वरतन्त्र पटल ९

माहेश्वरतन्त्र पटल ९     

Maheshvar tantra Patal 9

माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ९      

नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्

माहेश्वरतन्त्र नवम पटल

अथ नवमं पटलम्

श्री शिव उवाच

अथ श्रुत्वा सखीवाक्यं दर्शनावश्यकं प्रिये ।

तूष्णीं स्थितोऽपि मनसा मेने सर्वं भवत्विति ॥ १ ॥

भगवान् शङ्कर ने कहा--इसके बाद सखियों के वचनों को सुनकर और उन्हें लीला दिखाना आवश्यक समझकर, हे प्रिये! चुपचाप रहकर भी मन में उन्होंने यह माना ( इच्छा किया) कि 'यह सभी होवे' ॥ १ ॥

स्वामिनीसहिताः सर्वाः सख्यस्तन्मुखपङ्कजम् ।

वक्ष्यमाण इवातस्थुः प्रभृश्चापि तथा स्थितः ॥ २ ॥

अतः स्वामिनी [राधा ] के सहित सभी सखियां उनके मुख कमल की ओर देखती रहीं और प्रभु भी उनकी ओर देखते रहे । २ ॥

वासनांशैर्गताः सर्वा मथुरामण्डलस्थिते ।

गोकुले गोपिका जाता गोपगेहेषु ताः पृथक् ।। ३ ।।

वे सभी वासना से पराभूत होकर मथुरा मण्डल स्थित गोकुल में गोपों के घरों में अलग अलग गोपिकाएँ हुई॥३॥

वृषभानुगृहे जाता राधिकेति च विश्रुता ।

स्वामिनीवासनालेशः केनाप्यंशेन सुन्दरि ॥ ४ ॥

[स्वामिनी] राधा नाम से [राजा] वृषभानु के गृह में उत्पन्न हुई । हे सुन्दरि ! वह स्वामिनी कुछ अंश से उन प्रभु की वासना का लेश मात्र थी ॥ ४ ॥

तत्सख्यश्वापि सब्जातास्तासां नामानि कानिचित् ।

कथयिष्यामि देवेशि शृणुष्वैकाग्रमानसा ।। ५ ।।

उनकी सखियाँ भी वहाँ उत्पन्न हुईं। उनमें से कुछ के नाम मैं कहूँगा, हे- देवेशि ! आप एकाग्र मन से उन्हें सुने॥५॥

सुन्दरी स्वर्णवर्णा च रम्याङ्गी स्वर्णमालिनी ।

ललिता चित्रवर्णा च विशाखा विजया जया ॥ ६ ॥

सकुण्डला कुण्डलिनी मालिनी स्वर्णमञ्जरी ।

मन्जुघोषा विचित्रा च देवसेना वरूथिनी ॥ ७ ॥

गौरी चित्राम्बरा तन्वी चन्द्रलेखा मनोजवा ।

अजिता जयिनी श्यामा बलाकी विमलप्रभा ॥ ८ ॥

तारा कुरङ्गनयना कमला वनमालिका ।

नित्या विलासिनी ताम्रा अनङ्गानङ्गमालिनी ।। ९ ।।

अनङ्गमेखला माध्वी मोहिनी मदनावती ।

पुष्पावती हेमलता हेपमाला मनोजवा ॥ १० ॥

कर्पूरगन्धा काश्मीरी पद्मगन्धा विहारिणी ।

हंसिनी चित्रिणी चित्रा सुनन्दा विन्दुमालिनी ॥। ११ ॥

मनोजापाङ्गलालित्या वेताली विमलप्रभा ।

पद्मरागा विचित्राङ्गी नित्यानन्दा निरङकुशा ।। १२ ।।

स्वर्णवर्णा, रम्याङ्गी, स्वर्णमालिनी, ललिता, चित्रवर्णा, विशाखा, विजया, जया, सुकुण्डला, कुण्डलिनी, मालिनी, स्वर्णमञ्जरी, मज्जुघोषा, विचित्रा, देवसेना, वरूथिनी, गौरी, चित्राम्बरा, तम्बो, चन्द्रलेखा, मनोजवा अजिता, जयिनी, श्यामा, बलाकी, विमलप्रभा तारा, फुरङ्गनयना, कमला, वनमालिका, नित्या, बिलासिनी, ताम्रा, अनङ्गा, अनङ्गमालिनी, अनङ्गमेखला, माध्वी, मोहिनी, मदनावती, पुष्पावती, हेमलता, हेममाला, मनोभवा, कपूरगन्धा, काश्मीरी, पद्मगन्धा, विहारिणी, हसिनी, चित्रिणी, चित्रा, सुनन्दा, बिन्दुमालिनी, मनोजा, अपाङ्ग लालित्या, वैताली, विमलप्रभा पद्मरागा, विचित्राङ्गी, नित्यानन्दा और निरङकुशा॥६-१२॥

इत्येव कोटिशः ख्याताः सख्यः कुवलयेक्षणाः

न संख्यया परिच्छेद्या नित्यवृन्दावनाश्रयाः ॥ १३ ॥

इस प्रकार कमल के समान नेत्रों वाली कोटिशः सखियाँ वही उत्पन्न हुई अतः उन्हें गिनना कठिन है । वे नित्य ही वृन्दावन में रहती है ॥ १३ ॥

तासां द्वादशसाहस्री संख्या प्रोक्ता तथापि या ।

अन्तःपुरगतानां च रहोमिलितचेतसां ॥ १४ ॥

तथापि अन्तःपुर में रहने वाली और एकान्त में मिलने वाली उन सखियों की संख्या बारह हजार बताई गई है ।। १४ ।।

जाग्रत्स्वप्नं गताः सर्वाः स्वात्मानं ददृशुस्तदा ।

नन्दव्रजमिवोपेतमनुल्लङ्घितकेतनाः ।। १५ ।।

जागते हुए वे सभी स्वप्नावस्था में हो गई । तब उन्होंने अपने को ही उस स्वप्न में देखा । नन्द के ब्रज के अपने घरों से उन्होंने अपने को मुक्त सा पाया ॥ १५ ॥

यथा समीर वेगेन नीयते पद्मसौरभः ।

न पद्मस्याधिकं किञ्चिन्त्यूनं वा भवति प्रिये ।। १६ ।।

तथा मोहेन ता नीता श्रपि स्वप्नं परात्मनः ।

अनुभूतवन्त्यस्तास्तत्र स्वप्नमायामनोरथम् ॥ १७ ॥

परात्मा भगवांश्चापि लीलामेतां ददर्श सः ।

वस्तुतः जैसे वायु के वेग से कमल की सुगन्ध ले जाई जाती है और हे प्रिये! वह सुगन्ध उस कमल से कुछ अधिक या कम नहीं होती है उसी प्रकार मोह के कारण वे परात्मक स्वप्नावस्था में भी ले जाई गई। उन्होंने वहाँ उस माया रचित स्वप्न में अपने मनोरथ की अनुभूति की और उस परमात्मा भगवान् ने भी इन लीलाओं को देखा ।। १६-१८ ।।

पार्वत्युवाच-

नन्दगोपव्रजं प्राप्ताः सख्यो या भवतोदिताः ।

कूटस्थलीलानुभवप्रकार वद शङ्कर ।। १८ ।।

माँ जगदम्बा ने कहा-हे कल्याण करने वाले ! नन्द और गोपों के घर पर उत्पन्न हुई जो उनसे उत्पन्न सखियाँ थीं, उनके और कूटस्थ के बीच हुई लीला की कुछ अनुभूति का प्रकार कहिए ।। १८ ।।

परात्मा भगवांश्चापि कथं लीलां ददर्श सः ।

कीदृशी सा भवेल्लीला सगुणानिर्गुणापि वा ॥ १९ ॥

उस परमात्मा भगवान् ने भी कैसे लीला का दर्शन किया ? वह लीला कैसी थी ? वह सगुण लीला थी या निर्गुण लीला थी ? ।। १९ ।।

अनित्या वाथ नित्या यथार्थं ब्रूहि शङ्कर ।

शिव उवाच-

शृणु पार्वति वक्ष्यामि तव प्रश्नान् सुगोपितान् ॥ २० ॥

वह लीला नित्य थी अथवा अनित्य थी ? हे शङ्कर ! जो यथार्थ बात हो वह कहिए ।

भगवान् शङ्कर ने कहा- हे पार्वति ! तुम्हारे रहस्यमय प्रश्नों का उत्तर मैं कहूँगा, उसे सुनों ॥ २० ॥

न नास्तिकेभ्यो धर्तभ्यो हैतुकेभ्यः सुरेश्वरि ।

न वेदनिन्दकेभ्यश्च नाविश्वासाय कर्हिचित् ॥ २१ ॥

हे सुरेश्वरि ! इसे नास्तिकों धूर्तों और अनिच्छुकों को कभी भी नहीं बताना चाहिए। किसी भी प्रकार इसे वेद की निन्दा करने वालों या [वेद में] अविश्वास रखने वालों को नहीं ही करना चाहिए ॥ २१ ॥

वेदशास्त्रपुराणादिश्रद्धापूतान्तरात्मने ।

अनिन्दकाय शुद्धाय सर्वत्र ब्रह्मदर्शिने ।। २२ ।।

इसका रहस्य वेद, शास्त्र और पुराण आदि में श्रद्धा रखने वाले पवित्रात्मा को, [पर] निन्दा से विरत रहने वाले, शुद्ध एवं सर्वत्र ब्रह्म का ही दर्शन करने वाले को ही बताना चाहिए ॥ २२ ॥

अलोलुपाय शान्ताय निर्मलाय महेश्वरि ।

कृतज्ञाय क्रियाकाण्डाचारसंशुद्धचेतसे ।। २३ ।।

हे महेश्वरि ! [ इन्द्रियों के प्रति ] लोलुपताविहीन, शान्त चित्त वाले, निर्मल एवं कृतज्ञ व्यक्ति को तथा क्रिया काण्ड [क्रियापद्धति], आचार विचार से शुद्ध अन्तरात्मा वाले व्यक्ति को ही इसका रहस्य बतलाना चाहिए ।। २३ ।

स्नानदानदयादाक्ष्यदमाद्यमलमूर्तये ।

परीक्ष्य शतधा देवि दद्यान्नान्यत्र कर्हिचित् ॥ २४ ॥

जो व्यक्ति स्नान, दान, दया, दाक्षिण्य [उदारता ), दम [इन्द्रियों के दमन] से निर्मल शरीर वाला हो उसी को इसका कथन करे। हे देवि सौ बार परीक्षा करके ही इसे योग्य व्यक्ति को ही देना चाहिए। कभी भी इसे अयोग्य को न देवे ॥ २४ ॥

स्नेहाद्वा धनलोभाद्वा अज्ञानाद्वा भयादपि ।

प्रकाशयति मूढात्मा नारक्याचन्द्रतारकम् ।। २५ ।।

स्नेहवशात् या धन के लोभ से अथवा अज्ञान से किंवा भ्रम से यदि कोई मूढ इसे बता देता है तो उसकी तब तक नारकीय गति होती है जब तक सूर्य और तारे रहते हैं ।। २५ ।।

तस्मात्त्वयापि देवेशि गोपितव्यं सुरेश्वरि ।

सखीनां ब्रह्मलीलाया दर्शनं तु यथा भवेत् ॥ २६ ॥

तत्प्रकारं प्रवक्ष्यामि शृणुष्वैकाग्रमानसा ।

मथुराधिपतिः कंसः उग्रसेनसुतः खलः ।। २७ ।।

श्रुत्वात्ममृत्युं देवक्याः पुत्रद्वारेण दुष्टधीः ।

भगिनीं हन्तुमारेभे खङ्गेन तरसा बली ।। २८ ।।

इसलिए, हे देवेशि तुम्हें भी इसका गोपन ही करना चाहिए। हे सुरेश्वरि सखियों को ब्रह्मलीला का जैसा दर्शन होता है, उसका प्रकार मैं तुमसे कहूँगा । उसे एकाग्र मन से सुनो-

उग्रसेन का पुत्र मथुरा का राजा कंस बड़ा ही दुष्ट प्रकृति का था। उस दुष्ट- बुद्धि वाले कंस ने अपनी मृत्यु देवकी के पुत्रों से जानकर उस बलबान ने [ ब्याह कर जाती हुई ] अपनी ही बहन को तीक्ष्ण कटार से मार डालना चाहा ।। २६-२८ ।।

वारितो वसुदेवेन नीत्या चाध्यात्मशिक्षया ।

न निवृत्तः खलः पापस्तदोपायमचिन्तयत् ॥ २९ ॥

[ उन देवकी के पति ] वसुदेव ने उसे आध्यात्य शिक्षा दे कर ऐसा करने से रोका । फिर भी वह दुष्ट पापी [ उस क्रूर कर्म से ] निवृत्त नहीं हुआ और उसका उपाय सोचने लगा ।। २९ ।।

न चास्यास्ते भयं वीर पुत्रेभ्यश्चेद्भयं तव ।

समर्पयिष्ये तान्पुत्रान्यानसी प्रसविष्यति ॥ ३० ॥

वसुदेव ने कहा- हे वीर ! तुम्हें इससे तो कोई भय नहीं है और जिन पुत्रों से तुम्हें भय है उन पुत्रों को, जिसे यह जन्म देगी, मैं लाकर तुम्हें सौंप दूंगा ॥ ३० ॥

न सन्देहस्त्वया कार्यों यतः सत्यमयः पुमान् ।

सत्ये नष्टे स्वयं नष्टो विशतेन्धं महत्तमः ॥ ३१ ॥

मेरी इस बात में तुम्हें सन्देह नहीं करना चाहिए क्योंकि पुरुष सत्य से युक्त ही होता है। सत्य के नष्ट होने पर स्वयं वह नष्ट हो जाता है और वह महान अन्धकारमय गर्त में गिर पड़ता है ॥ ३१ ॥

इत्युक्तो मोहितमतिर्मुमोच भगिनीं खलः ।

तया प्रसूतः समये पुत्रः पावकसन्निभः ।। ३२ ।।

इस प्रकार कहने पर मोह ग्रस्त बुद्धि से उस दुष्ट ने अपनी बहन को छोड़ दिया। उसके द्वारा प्रसूत पुत्र जन्म के समय अग्नि के समान तेजवान था ।। ३२ ।।

तमादाय गतः कंसं वसुदेवः प्रसादयन् ।

अर्पयामास तनयं कंसायात्मजमृत्यवे ॥ ३३ ॥

उसे लेकर वसुदेव कंस को प्रसन्न करने के लिए उसके पास गए और उसकी मृत्यु के कारणभूत उस पुत्र को कंस को दे दिया ॥ ३३ ॥

औग्रसेनस्तु तं दृष्ट्वा प्रसन्नेनान्तरात्मना ।

प्रत्यपर्यंन् सुतं प्राह प्रसन्नोऽहं तवानघ ॥ ३४ ॥

उग्रसेन के पुत्र कंस ने उसको देखकर प्रसन्न होकर उसे पुनः वसुदेव को ही देकर कहा कि 'हे पापरहित मैं तुमसे प्रसन्न हूँ' ॥ ३४ ॥

न चास्मान्म भयं शूर तस्मान्नो हन्मि ते शिशुम् ।

युवयोरष्टमाद्गर्भान्मृत्युमें संश्रुतः पुरः ॥ ३५ ।।

हे शुरवीर ! मुझे इस पुत्र से भय नहीं है । इसलिए मैं तुम्हारे इस बालक को नहीं मारूंगा । हमने तुम्हारे आठवें गर्भ से अपनी मृत्यु को पहले सुना है ।। ३५।।

वृथा किमर्थं ते बालान् हन्मि लोकविगर्हितः ।

अष्टमस्तु यदा पुत्रो भविष्यति तवानघ ।। ३६ ।।

तदा मां तूर्णमासाद्य निवेदयतु वै भवान् ।

स्वस्त्यस्तु ते चिरं याहि मा भयं धेहि सर्वथा ॥ ३७ ॥

अतः मैं व्यर्थ में तुम्हारे बालकों की हत्या क्यों करू ? यह कार्य लोक के द्वारा गर्हित है। अत: हे निष्पाप ! जब तुम्हारा आठवाँ पुत्र होगा, तब शीघ्र ही आप आकर उसके होने की सूचना मुझे दें। तुम्हारा सदैव कल्याण हो । अतः जाओ और सर्वथा भय का त्याग कर दो ।। ३६-३७ ।।

इति कंसमादिष्टो वसुदेवो महाशय ।

निवृत्तः सुतमादाय कंसवाक्ये संसंशयः ॥ ३८॥

इस प्रकार कंस से समादिष्ट होकर महाशय बसुदेव अपने पुत्र को लेकर भय से निवृत हो गए। किन्तु कंस की वाणी पर उन्हें सन्देह ही था ३८ ॥

ततो नारदवाक्येन विमोहितमतिः खलः ।

अहत सूतं भुवस्तत्र गत्वा रुषान्वितः ।। ३९ ।।

जग्राह निगडे चोभौ वमुदेवं च देवकीम् ।

यान्यान्शुवान्प्रसुश्रुवे मारयामास तान् खलः ॥ ४० ॥

इसके बाद महर्षि नारद के द्वारा उस दुष्ट की बुद्धि मोहयुक्त होने से क्रोषयुक्त होकर पुनः जाकर उनके बालक की हत्या कर दी और कारागार में उन दोनों वसुदेव और देवकी से उस दुष्ट ने कहा कि जो जो पुत्र तुम्हें उत्पन्न होंगे में उन्हें मारूंगा ।। ४० ।।

दधार सप्तमं गर्भं शेषसंज्ञ सुदुःसहम् ।

आदिष्टा देवदेवेन योगमाया महेश्वरि ।

गर्भमाकृष्य देवक्या रोहिणीं प्रणिनाय सा ॥ ४१ ॥

शेष संज्ञक सातवें दुर्धर गर्भ को जब उन्होंने धारण किया तब हे महेश्वरि ! देवों के देव प्रभु के आदेश से योगमाया ने देवकी के गर्भ से निकालकर रोहिणी के गर्भ में डाल दिया ॥ ४१ ॥

स्वयं प्रादूरभूत्तस्मिन् देवकीजठरे प्रभुः ।

शङ्खचक्रगदापद्मधरश्चारुचतुर्भुजः ॥ ४२ ॥

पीतवासा घनश्यामः स्फुरन्मकरकुण्डलः ।

स्फुरन्माणिक्यमुकुटो वलयाङ्गदभूषितः ।। ४३ ।।

तब प्रभु उस देवकी के गर्भ में स्वयं प्रादुभूत हुए। वह प्रभु शङ्ख, चक्र, गदाधारी थे। उनकी चार भुजाएं थी। वह पीला वस्त्र पहने थे । उनका वर्ण घन के समान श्याम वर्ण का था। उनके कानों में मकर की आकृति का कुण्डल दीप्तिमान था। उनका मुकुट माणिक्य से जाज्वल्यमान था। उनकी भुजाओं में वलयाङ्गद[ आभूषणविशेष ] सुशोभित था ।। ४२-४३ ।।

वसुदेवस्तु तं दृष्ट्वा विस्मयोदारलोचनः ।

तुष्टावोपनिषद्वाग्मिस्ततस्तुष्टोऽब्रवीद्वचः ।। ४४ ।।

विष्णुरुवाच ---

वया तोषितः पूर्वं तपसा दूश्वरेण हि ।

पृनिगर्भेति विख्यातो राना पत्रोऽभवं तव ॥ ४५ ॥

वसुदेव ने अत्यन्त आश्चर्यचकित नेत्रों से उन्हें देखकर उपनिषद् के वचनों से उनकी स्तुति

की। तब उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर प्रभु ने इस प्रकार कहा-----

भगवान् विष्णु ने कहा-- तुमसे पहले से ही तुम्हारी दुःसाध्य तपस्या से प्रसन्न होकर मैंने तुम्हें कहा था 'कि में 'पृश्निगर्भ' नाम से प्रसिद्ध तुम्हारा पुत्र होऊँगा ।। ४४-४५ ॥

द्वितीये जन्मनि तथा कश्यपस्त्वं प्रजापतिः ।

उपेन्द्र इति विख्यात गतोऽहं यदुनन्दन ।। ४६ ।।

दूसरे जन्म में आप प्रजापति कश्यप थे। वहाँ हे यदुनन्दन ! मैं उपेन्द्र नाम से प्रसिद्ध हुआ ।। ४६।।

वसुदेव तृतीयेस्मिन् भवे जातो भवद्गृहे ।

मुक्तिदानाय भवते प्रादुर्भूतोऽस्मि साम्प्रतम् ॥ ४७ ॥

वसुदेव नाम से इस तृतीय जन्म में आप के घर पर पुनः हमने इस जगत में जन्म लिया है । वस्तुतः मैं आप लोगों को मुक्ति प्रदान करने के लिए इस समय प्रादुर्भूत हुआ है ॥ ४७ ॥

नय मां गोकुलं यत्र यशोदा नन्दगेहिनी ।

तत्र जाता महामाया तां नयस्व स्वकं गृहम् ॥ ४८ ॥

अतः मुझे आप गोकुल ले चलें जहाँ यशोदा नन्द की गृहिणी हैं, और वहाँ महामाया देवी ने जन्म लिया है उसे अपने घर पर आप लावें ॥ ४८ ॥

तव मास्तु भय क्वापि कंसान्मज्जन्मशङ्कितात् ॥

इत्युक्ता देवदेवेशो दम्पत्योः पश्यतोः पुरः ।। ४९ ।।

अक्षरस्य तु या चित्तवृत्तिर्लीलावलोकने ।

तदुपाधिक तत्सत्तारूपे व्यूहत्त्वमागतः ॥ ५० ॥

मेरे जन्म से सशंकित कंस से आपको कभी भी भय नहीं होगा - इस प्रकार उन देवदेवेश प्रभु ने उन दम्पतियों के देखते देखते साक्षात् रूप से कहकर उन अक्षर ब्रह्म की लीला के अवलोकन की जब चित्तवृत्ति हुई, तब उसी की उपाधि रूप से उसी की सत्ता रूप में माया का व्यूहन किया ।। ४९-५० ।।

बभूव द्विभुजः सद्यः शिशुभावं गतः प्रभुः ।

तस्मिन्नाविविशे साक्षाद्रसरूपी स्वयं प्रभुः ।। ५१ ।।

वह प्रभु उसी समय दो भुजा वाले बालक रूप में हो गए। वह स्वयं ही उस रस रूप समुद्र में अवशिष्ट हो गए ।। ५१ ।।

निनाय गोकुले नन्दगेहं निद्राविमोहिते ।

आदाय योगनिद्रां तां वसुदेवो गृहं गतः ॥ ५२ ॥

[ वसुदेव ने भी उन्हें प्रभु के आदेशानुसार ] गोकुल में नन्द के घर में लाकर सभी के निद्रा में सोए हुए ही उस योगमाया देवी को लेकर पुनः अपने कारागृह में वापस आ गए ॥ ५२ ॥

देवकीप्रसवं प्रातः कंसायाचख्युरुत्सुकाः ।

गृहपाला ध्वनि श्रुत्वा बालस्येति त्वरान्विताः ॥ ५३ ॥

देवकी के प्रसव की बात प्रातःकाल उत्सुक लोगों के द्वारा कंस तक पहुँचा दी गई। कारागृह के रक्षक ने बालक की रुदन की ध्वनि सुनकर शीघ्र ही कंस को सूचित किया ।। ५३ ।।

कंसस्त्वरितमागम्य हठादाक्षिप्य तां खलः ।

भूपृष्ठे प्रोथयद्देवीं ततः सा दिवमुत्पतत् ॥ ५४ ॥

सा प्रोवाच वचः क्रुद्धा हरिजातस्तवान्तकृत् ।

वेदधर्मरक्षार्थं पाखण्डविनिवृत्तये ।। ५५ ।

यो दुष्ट कंस भी शीघ्र ही आकर हठात् उसे लेकर ज्यों हि उस देवी को भूमि पर पटकना चाहा उसी समय हाथ से छूटकर जब देवी ने आकाश की ओर जाते हुए क्रोधित होकर कहा- तुम्हारे मारने वाले भगवान् विष्णु उत्पन्न हो गए हैं। जो वेद एवं धर्म की रक्षा के लिए और पाखण्ड की निवृत्ति के लिए जन्म ले चुके हैं ।। ५४-५५ ॥

असुराणां विनाशार्थमाविर्भवति लीलया ।

युगान्ते तमसा प्रस्तान् वेदानुद्धत्तु मिच्छया ।

मत्स्यरूपी स्वयं जातः सर्वज्ञः सर्वशक्तिमान् ॥ ५६ ॥

वह प्रभु असुरों को मारने के लिए ही लीला से आविभूत होते हैं । युगान्त में तम से ग्रस्त वेदों को उद्धार की इच्छा से वह सर्वश एवं सर्वशक्तिमान् ब्रह्म ने ही स्वयं मत्स्य रूप में अवतार ग्रहण किया था ।। ५६ ।।

कूर्मरूपेण यः पृष्ठे दधार मन्दराचलम् ।

उदि्दधीर्षुभुवं मूढोऽसृजत् शौकरीं तनुम् ॥ ५७ ॥

कूर्म रूप से उन्होंने ही अपनी पीठ पर मन्दराचल धारण किया था । हे मूर्ख ! ( कंस ) पृथ्वी का उद्धार करने की इच्छा से ही जिन्होंने वराहावतार का सृजन किया था ॥ ५७ ॥

स्वभक्तद्रोहिणं हन्तुं त्रातुं भक्तजनं तु यः ।

नृसिंहरूपी यः स्तम्भात्प्रादुरासीत्कृपानिधिः ॥ ५८ ॥

अपने भक्त के द्रोही को मारने के लिए और भक्तों की रक्षा जिन कृपा के सागर भगवान् विष्णु नृसिंह रूप से खम्भे से आविर्भूत हुए ॥ ५८ ॥

आत्मानं वामनं कृत्वा भक्तकार्यार्थमुद्यतः ।

बलि बध्वा मघवते त्रिलोकीमददात्प्रभुः ॥ ५९ ॥

भक्त के कार्य का साधन करने के लिए उद्यत होकर प्रभु ने अपने को वामन बनाकर बलि को बाँध कर इन्द्र को तीनों लोक दे दिया ।। ५९ ।।

क्षत्रियान् दुर्नयान् दृष्ट्वा जमदग्निगृहे तु यः ।

जातश्चकार पृथिवीं क्षत्रवीजविवर्जिताम् ॥ ६० ॥

क्षत्रियों को दुष्ट जानकर जिन्होंने जमदग्नि के घर पर [ परशुराम नाम से अवतार लेकर ] पृथ्वी को क्षत्रिय बीज से विहीन कर दिया ॥ ६० ॥

योsसी दाशरथित्वा रावणं लोकरावणम् ।

जघान समरे दुष्टं शरण्यः शत्रुसूदनः ।। ६१ ।।

दशरथ के पुत्र [राम] होकर शत्रुओं को मारने वाले और भक्तों के शरणागत 'जिन भगवान् विष्णु ने लोकों को त्रस्त करने वाले दुष्ट रावण को युद्ध में मार डाला ।। ६१ ।

कलो जनिष्यमाणानां असुराणां दुरात्मनाम् ।

वेदमार्ग प्रवृत्तानां अतदर्हतया तु यः ॥ ६२ ॥

अरुच्युत्पादनार्थाय नानापाषण्डकल्पनाम् ।

कृत्या विनाशमेतेषां करिष्यति परः प्रभुः ॥ ६३ ॥

स जातो यत्र कुत्रापि मृत्युस्तव विमूढधे ।

इत्युक्त्वान्तर्दधे माया कंसस्तु विमनाः स्थितः ।। ६४ ।

कलियुग में उत्पन्न होने वाले दुरात्मा असुरों का और वेदों के बताए हुए मार्ग पर न चलने वाले तथा धर्म में अरुचि उत्पन्न करने वाले नाना प्रकार के पाखण्डियों का नाश करके वे प्रभु इस लोक का कल्याण करेंगे। हे मूर्ख बुद्धि तुम्हारी मृत्यु रूप परमात्मा कहीं न कहीं उत्पन्न हो गए हैं--ऐसा कहकर वह योगमाया अन्तर्धान हो गई और यह सब सुनकर कंस भी बहुत उदास हो गया ।। ६२-६४ ।

॥ इति श्रीपञ्चरात्र माहेश्वरतन्त्र उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे नवमं पटलम् ॥ ९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीनारदपाश्वरात्र आगमगत 'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड ) में माँ जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के सवाद के नवम पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ।। ९ ।।

आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 10

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