कामकलाकाली खण्ड पटल ६
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ६
- प्रस्तुत पटल में कामकालीप्रयोग के अधिकारी, उनके
कर्त्तव्य, आसन, जपमाला के प्रकारों का
वर्णन करने के पश्चात् वशीकरण, उच्चाटन, मारण आदि के पाँच प्रयोग दिये गये हैं। तत्पश्चात् रक्षायन्त्र की
रचनाविधि उसका माहात्म्य और उपयोग का फल बतलाया गया है। इसके पश्चात् आकर्षण
पादुकासिद्धि, खेचरीसिद्धि आदि का उल्लेख है ।
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ६
Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal
6
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: षष्ठः पटल:
महाकालसंहिता कामकलाखण्ड षष्ठ पटल
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड छटवाँ पटल
महाकालसंहिता
कामकलाखण्ड:
(कामकलाकालीखण्ड :)
षष्ठः पटल:
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – [सामान्यप्रयोगविधेरवतरणम्
]
[कामकालिकप्रयोगस्य
मध्यमाधमकोट्यो: मध्यपूर्वलघुपूर्वाभिधानाभ्यां निर्देशः ]
महाकाल उवाच-
अथ देवेशि सामान्यप्रयोगान्
व्याहरामि ते ।
चिकीर्षयापि येषां हि राज्यं विद्या
च हस्तगा ॥ १ ॥
चतुर्विंशतिभिश्चासां मध्यपूर्वो
भवेद् विधिः ।
पूजामन्त्रप्रकारस्तु स एवं
परिकीर्तितः ॥ २ ॥
आसां द्वादशभिर्ज्ञेयो
लघुपूर्वविधिः प्रिये ।
सामान्य प्रयोग विधि - महाकाल ने
कहा- हे देवेशि ! अब मैं तुमको सामान्य प्रयोगों को बतलाऊँगा जिनके करने की
इच्छामात्र से राज्य और विद्या हस्तगत हो जाती हैं। इन (शक्तियों) में से चौबीस
(शक्तियों) के द्वारा मध्यपूर्वविधि होती है । पूजा और मन्त्र का प्रकार वही (पञ्चम पटल में उक्त) कहा गया है। हे प्रिये ! इनमें से बारह (शक्तियों) के द्वारा
लघुपूर्व विधि होती है ॥ १-३ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – कामकालिकप्रयोगेऽधिकारिनिर्देश:
राज्ञामेतत् प्रशस्तं हि न द्विजस्य
कदाचन ॥ ३ ॥
[ अधिकारिणां
कर्तव्यनिर्देश: ]
यथोक्तविधिना चीर्णपौरश्चरणिकक्रमः
।
एतान् प्रयोगान् वीक्षेत नाजपित्वा
कदाचन ॥ ४ ॥
पर्वते वा नदीकूले शून्यागारे
शिवालये ।
पीठे चतुःपथे कुर्यात्
पुरश्चरणमुत्तमम् ॥ ५ ॥
नियमास्तत्र भूयांसः प्रकर्तव्याः
प्रयत्नतः ।
अवैधकरणात् सिद्धिहानिः स्यान्नात्र
संशयः ॥ ६ ॥
त्रिकालमाचरेत् स्नानं हविष्यं
भक्षयेन्निशि
प्रयोग के अधिकारी और उनका
कर्त्तव्य - यह अनुष्ठान राजाओं के लिये श्रेयस्कर है ब्राह्मणों के लिये नहीं ।
(साधक) यथोक्त विधि के अनुसार पुरश्चरण का अनुष्ठान कर इन प्रयोगों को करे ।
(पुरश्चरण) जप के बिना कभी भी नहीं करना चाहिये । पर्वत,
नदी का किनारा, शून्यगृह, शिवालय, सिद्धपीठ और चौराहे पर उत्तमपुरश्चरण करना
चाहिये। उस ( पुरश्चरण अनुष्ठान के ) समय प्रयत्नपूर्वक नियमों का पालन करना
चाहिये । विधि के विपरीत (आचरण) करने से सिद्धि की हानि होती है । इसमें सन्देह
नहीं । (पुरश्चरण के अनुष्ठान में ) त्रिकाल स्नान ( और सन्ध्या) करनी चाहिये।
रात्रि में हविष्य खाना चाहिये ॥ ३-७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – तत्र
मन्त्रजपमालयोगोपनीयताभिधानम्
स्वमन्त्रं चाक्षसूत्रं च गुरोरपि न
दर्शयेत् ॥ ७ ॥
त्यजेद् दुष्टप्रवादं च परीवादं च
वर्जयेत् ।
तथा दुर्जनसंसर्गं
स्त्रीशूद्रालापनं तथा ॥ ८ ॥
मन्त्र जपमाला - आसन - अपने मन्त्र
को गुरु को भी नहीं बतलाना चाहिये । अक्षमाला गुरु को भी नहीं दिखानी चाहिये।
झगड़ा और परनिन्दा नहीं करनी चाहिये । दुर्जन का साथ और स्त्री एवं शूद्र से
वार्त्तालाप नहीं करना चाहिये ॥७-८ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – आसनप्रकाराः
वस्त्रं कुशासनं व्याघ्रचर्म चापि
नृमुण्डकम् ।
आसनेषु महादेवि प्रशस्तं
चोत्तरोत्तरम् ॥ ९ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – जपमालाप्रकारः
फलस्फटिकरुद्राक्षमुक्तान्रस्थिविनिर्मिताम्
।
जपमालां शुभां विद्धि
प्रशस्तामुत्तरोत्तराम् ॥ १० ॥
अनेनोक्तविधानेन लक्ष्यसङ्ख्यं
जपेन् मनुम् ।
होमं दशांशतः कुर्यात् तर्पणं
चाभिषेचनम् ॥ ११ ॥
ततः सिद्धमनुर्मन्त्री
प्रयोगानाचरेत् प्रिये ।
हे महादेवि ! आसनों में वस्त्र,
कुश, बाघम्बर, नरमुण्ड
के आसन उत्तरोत्तर प्रशस्य हैं । फल (कमलगट्टा आदि) स्फटिक, रुद्राक्ष,
मोती, नरास्थि से विनिर्मित जपमाला को शुभ
समझो। इनमें उत्तरोत्तर प्रशस्त हैं। इस पूर्वोक्त विधान से मन्त्र का एक लाख जप
करना चाहिये। (जप का) दशांश होम (होम का) दशांश तर्पण और (तर्पण का) दशांश अभिषेक
(=मार्जन) करना चाहिये। इसके बाद मन्त्र के सिद्ध होने से मन्त्रप्रयोगों को करे
।। ९-१२ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – प्रथमप्रयोगाभिधानम्
शताभिजप्तमन्त्रेण रोचनातिलके कृते
॥ १२ ॥
दासा इव महीपालाः स्वयमायान्ति
सन्निधौ ।
प्रमदा अपि तं दृष्ट्वा
भवेयुर्गलिताम्बराः ॥ १३ ॥
वशीकरण -
(मूल मन्त्र का) एक सौ आठ बार जप करता हुआ यदि गोरोचन को अभिमन्त्रित कर उससे तिलक
करे तो राजालोग भी (साधक के) पास दास की भाँति आ जाते हैं। प्रमदायें भी उसको
देखकर (कामोद्दीपित होने से ) निर्वस्त्र हो जाती हैं ।। १२-१३ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – द्वितीयप्रयोगाभिधानम्
काकोलूकनरास्थीनि गृहीत्वा भौमवासरे
।
रात्रौ कृष्णचतुर्दश्यां
सम्वेष्ट्यारक्ततन्तुना ॥ १४ ॥
शताभिमन्त्रितं कृत्वा
निक्षिपेच्छत्रुमन्दिरे ।
सप्ताहाभ्यन्तरे तेषां महदुच्चाटनं
भवेत् ॥ १५ ॥
उच्चाटन
—
कृष्णपक्ष की चतुर्दशी से युक्त मङ्गलवार की रात्रि को कौआ, उल्लू और आदमी की हड्डी लेकर रात्रि में लालधागे से वेष्टित करे ।
मूलमन्त्र से एक सौ आठ बार अभिमन्त्रित कर शत्रु के घर में रख दे। एक सप्ताह के
भीतर उन (शत्रुओं) का महा उच्चाटन हो जाता है ।। १४-१५ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – तृतीयप्रयोगाभिधानम्
उदयात् पूर्वमारभ्य जपेदस्तङ्गमावधि
।
एकविंशदिनं यावदर्धरात्रे बलिं
क्षिपेत् ॥ १६ ॥
नग्नो नग्नां स्त्रियं गच्छेत्
मूलमन्त्रं जपन् शतम् ।
एवं कृते प्रिये सद्यः सर्वज्ञः
साधको भवेत् ॥ १७ ॥
सर्वज्ञता प्राप्ति
- सूर्योदय के पहले से लेकर सूर्यास्त तक इक्कीस दिनों तक (मूल मन्त्र का) जप करे।
आधी रात को बलि दे । साधक नग्न होकर मूलमन्त्र का जप करते हुए नग्न स्त्री के पास
जाय । हे प्रिये! ऐसा करने पर साधक सर्वज्ञ हो जाता है ।। १६-१७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – चतुर्थप्रयोगाभिधानम्
नरास्थि निखनेद् भूमौ
स्वमूत्रप्लावितं निशि ।
शतं च प्रजपेन्मन्त्रं
रिपुर्ज्वरयुतो भवेत् ॥ १८ ॥
ज्वराक्रान्ति
- रात्रि में अपने मूत्र से धुली हुई नर अस्थि को भूमि के अन्दर गाड़ दे। एक सौ
बार मूलमन्त्र का जप करे तो शत्रु ज्वराक्रान्त हो जाता है ॥ १८ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – पञ्चमप्रयोगाभिधानम्
काकपक्षैः शिवासृग्भिः नरास्थिनि
लिखेदिदम् ।
तारं क्रोधत्रयं साध्यं
द्वितीयान्तं बलिं वदेत् ॥ १९ ॥
गृह्णद्वयं भक्षयुगं मारय द्वितयं
ततः ।
वह्निजायान्तगं मन्त्रं
मूलमन्त्रस्य साधकः ॥ २० ॥
सहस्त्र परिजप्याथ निशायां
वैरिमन्दिरे ।
क्षिपेद् देवीं हृदि ध्यात्वा
मृत्युस्तस्य त्रिमासतः ॥ २१ ॥
मारण
–
कौवे के पङ्ख और श्रृंगालिन के रक्त से मनुष्य की अस्थि के ऊपर इस
मन्त्र को लिखे -दो तार (= ॐ ॐ) तीन क्रोध, फिर साध्य का
द्वितीयान्त नाम, तत्पश्चात् 'बलि'
फिर 'गृह्ण' को दो बार 'भक्ष' और 'मारय' को दो-दो बार और अन्त में वह्निजाया को कहे । ( इस प्रकार मूलमन्त्र का
स्वरूप होगा— ॐ ॐ हूँ हूँ हूँ अमुकं बलिं गृह्ण गृह्ण
भक्ष भक्ष मारय मारय स्वाहा ) साधक इस मन्त्र का एक हजार
जप कर रात्रि के समय देवी का ध्यान कर शत्रु के घर में फेंक दे तो तीन मास मे उसकी
मृत्यु हो जाती है । १९-२१ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – धारणीयाख्ययन्त्रस्य
निर्देश:
पद्ममष्टदलं भूर्जे
योनियुग्मसमन्विते ।
लाक्षागोरोचनाचन्द्रकाश्मीरमृगनाभिभिः
॥ २२ ॥
वक्ष्यमाणक्रमेणैव
लिखेन्मन्त्रमनन्यधीः ।
योनिमध्ये
लिखेन्मूलमन्त्रमष्टादशाक्षरम् ॥ २३ ॥
वक्ष्यमाणानि बीजानि
लिखेदष्टदलेष्वपि ।
आमृतं प्रथमं बीजं गारुडं तदनन्तरम्
॥ २४ ॥
महाक्रोधं क्षेत्रपालं प्रेतबीजं च
पञ्चमम् ।
प्रासादं चण्डबीजं च
कालीबीजमथाष्टमम् ॥ २५ ॥
दलयोरन्तरे लेख्यं तारं वाग्भवमेव च
।
मायाबीजं वधूबीजं बीजं कामलकामयोः ॥
२६ ॥
रतिबीजं मेघबीजं लिखित्वा तदनन्तरम्
।
पाशाङ्कुशक्रोधभूतबीजानि द्वारि
संलिखेत् ॥ २७ ॥
धारणीय यन्त्र की रचना
- साधक एकाग्रचित्त होकर दो योनि (= षट्कोण) बने हुए भोजपत्र पर लाक्षा,
गोरोचन, कपूर, केसर और
कस्तूरी से अष्टदल कमल बनाये। उस यन्त्र के बनाने का क्रम यह है- योनि के मध्य में
अट्ठारह अक्षरों वाला मूलमन्त्र (= त्रैलोक्याकर्षण मन्त्र) लिखे । कमल के आठ दलों
पर वक्ष्यमाण बीजों को लिखे। पहला बीज अमृत (= ग्लूं अं) दूसरा गारुड (=क्रों खं)
इसके बाद महाक्रोध (=क्षं कूं) क्षेत्रपाल (=क्षौं क्षं) प्रेत (= हसौं) प्रासाद
(= हौं) चण्ड (= औं) तथा काली बीज (=क्री) को लिखना चाहिये । दो दलों के मध्य में
तार (=ॐ) वाग्भव (=ऐं) माया (= ह्रीं) वधू (स्त्री) लक्ष्मी (= श्रीं) काम
(=क्लीं) रति ( =ईं) और मेघबीज (=क्लौं) को लिखना चाहिये । द्वारों पर पाश (=आं)
अङ्कुश (=क्रों) क्रोध (= हूं) और भूत बीज (= स्फें) लिखना चाहिये ॥ २२-२७ ॥
अकारादिक्षकारान्तैर्वर्णैर्बिन्दुसमन्वितैः
।
वेष्टयेद् वसुवज्राढ्यं यन्त्रं
सर्वोत्तमोत्तमम् ॥ २८ ॥
वेष्टितं रक्तवस्त्रेण
जतुभिर्वेष्टयेत् ततः ।
बध्नीयात् पट्टवस्त्रेण बाहौ
कण्ठेऽथ वा नृणाम् ॥ २९ ॥
स्त्रीणां वामकरे बद्धमन्येषां
दक्षिणे करे ।
सर्वं सम्पादयेत् सद्यो नात्र
कार्या विचारणा ॥ ३० ॥
आठ वज्रों से सुसज्जित इस यन्त्र को
बिन्दुयुक्त आदि क्षान्त (पचास) वर्णों से वेष्टित कर बाद में रक्तवस्त्र और फिर
लाख से वेष्टित करना चाहिये । तत्पश्चात् पट्टवस्त्र के द्वारा मनुष्यों की बाँह
या उनके कण्ठ में बाँधना चाहिये। स्त्रियों की बायीं भुजा और अन्य की दायीं भुजा
में बाँधना चाहिये। (ऐसा करने वाला साधक) शीघ्र ही समस्त लक्ष्य प्राप्त कर लेता
है। इसमें विचार नहीं करना चाहिये ।। २८-३० ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – रक्षायन्त्रस्य
माहात्म्यवर्णनं फलश्रुत्यभिधानं च
इयं रक्षा पुरा बद्धा सिद्ध्यर्थं
साधकोत्तमैः ।
शक्रेण नमुचेर्युद्धे विष्णुना
तारकामये ॥ ३१ ॥
हरेणान्धकसङ्ग्रामे
गरुडेनेन्द्रसंयुगे ।
वायुना माहिषे युद्धे
कुबेरेणामृताहवे ॥ ३२ ॥
स्कन्देन तारकानीके पाशिना सुरभीरणे
।
यमेन रावणस्याजौ चन्द्रेण
त्रिदशाजिरे ॥ ३३ ॥
रक्षा-यन्त्र का
माहात्म्य और फलश्रुति-विधान - प्राचीन काल में
यह रक्षायन्त्र उत्तम साधकों के द्वारा बाँधा गया था। नमुचि के साथ युद्ध करने में
इन्द्र ने तारकासुर के साथ युद्ध में विष्णु ने, अन्धकसङ्ग्राम में शिव, इन्द्र सङ्ग्राम में गरुड,
महिषासुर के युद्ध में वायु, अमृत के लिये
युद्ध में कुबेर, तारक के युद्ध में स्कन्द, सुरभियुद्ध में वरुण, रावणयुद्ध में यम देवताओं के
युद्ध में चन्द्रमा ने इस यन्त्र को धारण किया था ॥ ३१-३३ ॥
तथा कृतयुगादौ च राजानो ये महाबलाः
।
तैश्चापि विधृतं यन्त्रं
सर्वापत्तिनिवारणम् ॥ ३४ ॥
मान्धाता जामदग्न्यश्च नहुषः
शिविरेव च ।
रामः पृथुः कार्तवीर्यः पुरुकुत्सौ
रघुर्नलः ॥ ३५ ॥
भरतः शशबिन्दुश्च
ययातिर्वसुकोऽर्जुनः ।
पूरुः पुरूरवा भीमो जरासन्धो
विदूरथः ॥ ३६ ॥
एभिश्चान्यैश्च भूपालैरेतद् यन्त्रं
धृतं पुरा ।
एतस्यान्यानि यन्त्राणि कलां
नार्हन्ति षोडशीम् ॥ ३७ ॥
इसी प्रकार सत्ययुग आदि में जो
महाबली राजा हुए उन्होंने भी सर्वापत्तिनिवारण इस यन्त्र का धारण किया। मान्धाता,
परशुराम, नहुष, शिवि, राम, पृथु, सहस्रार्जुन, पुरु,
कुत्स, रघु, नल, भरत, शशबिन्दु, ययाति, वासुदेव, अर्जुन, पूरु,
पुरूरवा, भीम, जरासन्ध,
विदूरथ, एवं अन्य राजाओं ने इस यन्त्र का धारण
किया । अन्य यन्त्र इसकी सोलहवीं कला भी बराबर नहीं हैं ॥ ३४-३७ ॥
य एतं यन्त्रराजं हि
धारयत्यप्रमादतः ।
स श्रिया विष्णुसदृशः प्रभया
सूर्यसन्निभः ॥ ३८ ॥
कान्त्या चन्द्रमसा तुल्यो
यक्षाधिपसमो धने ।
बलेन वायुना तुल्यो विद्यया गुरुणा
समः ॥ ३९ ॥
सौन्दर्ये मन्मथप्रायो
वैभवेनेन्द्रसन्निभः ।
तेजसा वह्निसदृशो रामार्जुनसमो रणे
॥ ४० ॥
जो मनुष्य इस यन्त्र को सावधानी के
साथ धारण करता है वह शोभा में विष्णु के समान, प्रभा
में सूर्य, कान्ति में चन्द्रमा, धन
में कुबेर, बल में वायु, विद्या में वृहस्पति,
सौन्दर्य में कामदेव, वैभव में इन्द्र,
तेज में अग्नि, युद्ध में राम और अर्जुन के
समान होता है ॥ ३८-४० ॥
अथ किं बहुनोक्तेन शृणु पार्वति
निश्चितम् ।
न कोऽपि भविता कश्चित् तत्तुल्यः
पृथिवीतले ॥ ४१ ॥
स सर्वसिद्धिमाप्नोति सुराणामपि
दुर्लभाम् ।
रिपुसैन्यं महाघोरं
स्तम्भयत्यचिरात् प्रिये ॥ ४२ ॥
बन्ध्यापि लभते पुत्रं निर्धनो
धनवान् भवेत् ।
विद्यार्थी लभते विद्यां कन्यार्थी
कन्यकामपि ॥ ४३ ॥
यं यं कामं हृदि ध्यात्वा यन्त्रमेतत्
प्रधारयेत् ।
तं तं काममवाप्नोति महाकालवचो यथा ॥
४४ ॥
हे पार्वति ! बहुत कहने से क्या लाभ
। निश्चित रूप से समझो कि उसके समान इस पृथ्वी पर कोई नहीं होता । वह सुरों के
लिये भी दुर्लभ समस्त सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है । हे प्रिये! वह शत्रु की
सेना को शीघ्र ही स्तम्भित कर देता है । (इस यन्त्र का धारण करने से) वन्ध्या
पुत्र प्राप्त करती है । निर्धन धनवान् हो जाता है । विद्यार्थी विद्या और
कन्यार्थी कन्या प्राप्त करता है। (मनुष्य) जिस-जिस इच्छा को मन में रखकर इस
यन्त्र का धारण करता है उस उस इच्छा की पूर्ति होती है । ऐसा महाकाल का वचन हैं ।
४१-४४ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – रक्षायन्त्रस्य
प्रकारान्तरेण प्रयोगनिर्देश:
अपरं च प्रवक्ष्यामि प्रयोगं
सिद्धिदायकम् ।
आनीय कामिनीमेकां नवयौवनशालिनीम् ॥
४५ ॥
असती सुन्दरी भीत्या परिहीनां
महानिशि ।
वस्त्रालङ्कारकनकं दत्वा तस्यै
यथाविधि ॥ ४६ ॥
नग्नो नग्नां मुक्तकेशो मुक्तकेशीं
जपन्मनुम् ।
मैथुनेनोपगच्छेत तस्याः
सन्तोषपूर्वकम् ॥ ४७ ॥
योनिं स्वरेतसा लिप्त्वा तत्रेदं
यन्त्रमालिखेत् ।
जिह्वया तल्लिहेत् सर्वं
सत्कृत्यैवमकुत्सयन् ॥ ४८ ॥
रक्षायन्त्रका अन्यविध
प्रयोग - अब मैं सिद्धिदायक दूसरा प्रयोग बतलाऊँगा ।
नवयौवनशालिनी पुंश्चली सुन्दरी भयरहित एक कामिनी को आधी रात को ले आकर वस्त्र,
अलङ्कार, स्वर्णाभरण आदि विधिवत् उसको देकर
सन्तुष्ट करे। स्वयं मुक्तकेश
और नग्न होकर उस कामिनी को भी खुले
बालों वाली तथा नग्न कर दें । मन्त्र का जप करता हुआ उसके साथ मैथुन कर उसको तृप्त
करे । तत्पश्चात् उसकी योनि को अपने वीर्य से उपलिप्त कर उस पर इस यन्त्र को लिखे।
उस यन्त्र को आदरपूर्वक बिना घृणा के पूर्णतया जीभ से चाट जाय ॥ ४५-४८ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – उक्तप्रयोगस्य
फलश्रुतिः
ततश्चराचरं सर्वं ज्ञात्वा
सर्वज्ञतां लभेत् ।
मूकांश्च वादयेत् सत्सु कवित्वं
चापि कारयेत् ॥ ४९ ॥
अतीतानागतं वेत्ति वर्तमानं च
पश्यति ।
कुर्याच्च वादिनो मूकान् सभायां
पण्डितानपि ॥ ५० ॥
विवादे जयमाप्नोति पूजां सर्वत्र
विन्दते ।
किमन्येन प्रकारेण नराणां
मन्त्रसिद्धये ॥ ५१ ॥
अनेन विधिना विद्यां लक्ष्मीमपि
सदाप्नुयात् ।
द्वादशाब्दं चरन्नेवं
सिद्ध्यष्टकमवाप्नुयात् ॥ ५२ ॥
विद्याधरत्वमाप्नोति खेचरत्वं तथैव
च ।
पातालतलचारित्वं तथा वासिद्धिमेव च
॥ ५३ ॥
तस्य दर्शनमात्रेण मार्तण्डसमतेजसः
।
पिशाचयक्षोरक्षांसि पलायन्ते दिशो
दश ॥ ५४ ॥
उक्त प्रयोग का फल
–—
उसके फलस्वरूप वह समस्त चराचर को जानकर सर्वज्ञता प्राप्त कर लेता
है। गूंगे को वाणी प्रदान करता और सज्जनों में कविता का सञ्चार कर देता है। अतीत
और अनागत को जान लेता तथा वर्त्तमान का साक्षात् करता है । (अभियोग में) वादियों
को और सभा में पण्डितों को मूक बना देता है । विवाद में विजयी होता और सर्वत्र
पूजा प्राप्त करता है । मन्त्रसिद्धि के लिये मनुष्यों को दूसरे प्रकार की आवश्यकता
नहीं होती। इस विधि से विद्या और लक्ष्मी दोनों प्राप्त करता है। वह विद्याधर और
खेचर हो जाता है। उसे पातालतलचारिता तथा वाक्सिद्धि प्राप्त हो जाती है। सूर्य के
समान तेजस्वी उस व्यक्ति के दर्शनमात्र से पिशाच यक्ष राक्षस दशो दिशाओं में
पलायित हो जाते हैं ।। ४९-५४ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – आकर्षणप्रयोगविधिः
ताम्बूलपत्रे मधुना साध्यनाम लिखेत्
सुधीः ।
मूलमन्त्रेण सम्वेष्ट्य मुक्तवासाः
दिगम्बरः ॥ ५५ ॥
वक्ष्यमाणेन मन्त्रेण
भक्षयेदविचारयन् ।
प्रणवं च त्रपाबीजं कामबीजमनन्तरम्
॥ ५६ ॥
साध्यनाम द्वितीयान्तं क्लेदय
द्वितयं वदेत् ।
आकर्षय युगं चापि मथ द्वन्द्वं
वदेत्ततः ॥ ५७ ॥
युगं युगं वदेद् देवि पच द्रावय
शब्दयोः ।
आनय द्वितयं प्रोच्य मम
सन्निधिमुच्चरेत् ॥ ५८ ॥
क्रोधवाग्भवलक्ष्मीणां युगं
युगमुदीरयेत् ।
वह्निजायान्तगो मन्त्रः
सर्वाकर्षणकारकः ॥ ५९ ॥
आकर्षण प्रयोग-विधि ( १ )
–
विद्वान् वस्त्र उतार नग्न होकर पान के पत्ते पर साध्य का नाम लिखे
। (कामकला के अष्टादशाक्षर) मूलमन्त्र से उसको वेष्टित कर निःशङ्क होकर वक्ष्यमाण
मन्त्र से भक्षण करे। (मन्त्र का स्वरूप निम्नलिखित है - ) प्रणव लज्जाबीज
तत्पश्चात् कामबीज उसके बाद द्वितीयान्त साध्यनाम फिर 'क्लेदय'
को दो बार कहना चाहिये। 'आकर्षय' और 'मथ' को दो-दो बार कहे ।
तत्पश्चात् 'पच' और 'द्रावय' को दो-दो बार कहे । 'आनय'
को दो बार कहकर 'मम सन्निधिं' का उच्चारण करे । क्रोध वाग्भव और लक्ष्मी बीजों का दो-दो बार उच्चारण
करे । अन्त में वह्निजाया का उच्चारण करने पर यह सर्वाकर्षण कारक मन्त्र होता है ।
(इसका स्वरूप इस प्रकार होगा- 'ॐ ह्रीं क्लीं अमुकीं
क्लेदय क्लेदय आकर्षय आकर्षय मथ मथ पच पच द्रावय द्रावय मम सन्निधिं आनय आनय हूं
हूं ऐं ऐं श्रीं श्रीं स्वाहा ।। ५५-५९ ॥
अनेन विधिनाकर्षेद् यां यामिच्छति
साधकः ।
तथाप्यागच्छति क्षिप्रं यदि भूपस्य
वल्लभा ॥ ६० ॥
सहस्त्रजनगुप्तापि यद्यन्तः
पुरवासिनी ।
यदि साक्षात् स्वयं देवी यदि वा
स्यादरुन्धती ॥ ६१ ॥
तथापि तस्याः सामर्थ्यं न स्यात्
स्थातुं सुरेश्वरि ।
स्वयमायान्ति निर्लज्जा इतरासां तु
का कथा ॥ ६२ ॥
साधक जिस-जिस स्त्री को चाहता है इस
विधि से आकृष्ट कर लेता है । (यदि वह स्त्री) राजा की भी प्रियतमा हो,
हजारों लोगों से सुरक्षित हो, अन्तःपुर में
रहती हो तो भी शीघ्र ही (साधक पास) आ जाती है। यदि साक्षात् स्वयं देवी हो या अरुन्धती
हो तो भी हे सुरेश्वरि ! वह रुक नहीं सकती एवं लज्जा का त्याग कर स्वयं आ जाती है;
फिर अन्य स्त्रियों की क्या बात ॥ ६०-६२ ॥
पत्युरङ्कं समुत्सृज्य
सुतमङ्कान्निरस्य च ।
पितरं चावमन्यापि बन्धून् धिक्कृत्य
सर्वतः ॥ ६३ ॥
गृहीता इव भूतेन स्वयमायान्ति
योषितः ।
तस्मान्निरीक्ष्य कर्तव्यः
प्रयोगोऽयं शुचिस्मिते ॥ ६४ ॥
(इस प्रयोग के बल से) स्त्रियाँ पति
की गोद छोड़कर, बच्चे को गोद से हटाकर, पिता-माता को अनादृत कर, बन्धुजनों को तिरस्कृत कर
मानो भूत से गृहीत होकर स्वयं आ जाती हैं। इसलिये हे शुचिस्मिते! इस प्रयोग को
सोच-समझ कर करना चाहिये ॥ ६३-६४ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – आकर्षणस्य
प्रयोगान्तरविधिः
प्रणवं रतिकामौ च
मायाक्रोधाङ्कुशश्रियः ।
पाशं वाग्भवमुच्चार्य
कालीबीजमथोच्चरेत् ॥ ६५ ॥
वदेत् कामकलाकालि सर्वाकर्षिणि
चेत्यपि ।
साध्यमाकर्षयेत्युक्त्वा
वह्निजायामुदीरयेत् ॥ ६६ ॥
आकर्षण प्रयोग विधि ( २ )
–
प्रणव, रतिबीज (=क्लं), कामबीज,
माया, क्रोध, अङ्कुश,
लक्ष्मी, पाश और वाग्भव बीजों का उच्चारण कर
बाद में कालीबीज का उच्चारण करना चाहिए। फिर कामकलाकालि सर्वाकर्षिणि' कहकर 'साध्य- माकर्षय' कहने के
बाद वह्निजाया का उच्चारण करे (मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार होगा - ॐ क्लूं
क्लीं ह्रीं हूं क्रों श्रीं आं ऐं क्रीं कामकलाकालि सर्वाकर्षिणि अमुकीं आकर्षय
स्वाहा ) ॥ ६५-६६ ॥
मन्त्रेणानेनाभिमन्त्र्य तोयं वामेन
पाणिना ।
पिबेत् प्रक्षालयेत्तेन मुखमात्मन
एव च ॥ ६७ ॥
या याः पश्यन्ति तं नार्यो यदि
साध्व्योऽपि भामिनि ।
तास्ता मुह्यन्ति
निर्धूतधर्मभर्तृकुलत्रपाः ॥ ६८ ॥
आविष्टा इव निर्लज्जास्तिष्ठेयुः
साधकाग्रतः ।
दास्यो भवाम इत्येवं वादिन्यस्ताः
कुलाङ्गनाः ॥ ६९ ॥
इस मन्त्र से जल को अभिमन्त्रित कर
बायें हाथ से पीये और उससे अपना मुख भी धोये । हे भामिनि! जो-जो स्त्रियाँ उसको
देखती हैं वे वे उससे मुग्ध हो जाती हैं। धर्म पति कुल और लज्जा का त्याग कर
निर्लज्ज हुई मानो (भूत से) आविष्ट होकर साधक के आगे आकर खड़ी हो जाती हैं और वे
कुलाङ्गनायें कहती हैं कि हम आपकी दासी हैं ।। ६७-६९ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – पादुकासिद्धिविधिः
पलाशकाष्ठसम्भूतपादुकायुग्ममाहरेत् ।
श्मशानाङ्गारमादाय तत्र मन्त्रं
लिखेदमुम् ॥ ७० ॥
तारं वाग्वादिनीबीजं कालीयं
कामलार्णकम् ।
लज्जां क्रोधं समुद्धृत्य देव्याः
सम्बोधनं लिखेत् ॥ ७१ ॥
गन्तव्य भूमिमुल्लिख्य खण्डय च्छेदय
द्वयम् ।
त्रुटयुग्मं छिन्धियुगं
भूतपाशाङ्कुशार्णकम् ॥ ७२ ॥
सिद्धिं देहीति सम्प्रोच्य दापयेति
पदं ततः ।
अस्त्रत्रितयमालिख्य वह्निजायायुतो
मनुः ॥ ७३ ॥
पादुका- सिद्धि
–
(साधक) पलाश के काष्ठ की बनी हुई दो पादुकायें (= खड़ाऊँ) ले आये।
श्मशान के कोयले से उस पर निम्नलिखित मन्त्र लिखे । तार वाग्भवबीज, कालीबीज, लक्ष्मीबीज, लज्जा और
क्रोधबीज लिखकर देवी का सम्बोधन लिखे । गन्तव्य स्थल का नाम लिखकर 'खण्डय' 'छेदय' को दो-दो बार 'त्रुट' और 'छिन्धि' को दो बार लिखकर भूत पाश और अङ्कुश बीजों को लिखकर 'सिद्धिं
देहि दापय' लिखने के बाद अस्त्र मन्त्र को तीन बार लिखकर
वह्निजाया लिखे। ( मन्त्र का स्वरूप इस प्रकार होगा - ॐ ऐं क्रीं श्रीं ह्रीं
हूं कामकलाकालि गन्तव्यभूमिं खण्डय खण्डय छेदय छेदय त्रुट त्रुट छिन्धि छिन्धि
स्फ्रें आं क्रों सिद्धिं देहि दापय फट् फट् फट् स्वाहा) ।। ७०-७३ ॥
लेपयित्वा स्नुहीदुग्धं पादयोः
साधकोत्तमः ।
इच्छागामी भवेद् देवि नात्र कार्या
विचारणा ॥ ७४ ॥
पूर्वस्यां दिशि गच्छेत् स योजनानां
शतद्वयम् ।
याम्यायां त्रिशतं विद्धि वारुण्यां
च चतुःशतम् ॥ ७५ ॥
उत्तरस्यां पञ्चशतं विदिक्षु शतमेव
च ।
व्रजेदलक्षितो भूत्वा यथेच्छं
साधकाग्रणीः ॥ ७६ ॥
परावृत्य समायाति तावदेव वरानने ।
हे देवि ! उत्तम साधक दोनों पैरों
में स्नुही (=सेहुँड़) के दूध का लेप कर (पादुका पहन कर ) इच्छागामी हो जाता है।
इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । पूर्व दिशा में वह दो सौ योजन दक्षिण में तीन सौ
पश्चिम में चार सौ उत्तर दिशा में पाँच सौ योजन और विदिशाओं में एक सौ योजन जा
सकता है। हे वरानने! साधकाग्रणी वह अलक्षित होकर यथेच्छ जा सकता है और लौटकर उतना
ही आ सकता है ।। ७४-७७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – खेचरीसिद्धिविधिः
अतश्च खेचरीसिद्धिं शृणु सावहिता मम
॥ ७७ ॥
स्वर्णक्षीरीलतामूलं ग्राह्यं
चन्द्रग्रहे सति ।
रजः स्वलाभगे स्थाप्यं दिवसं
त्रितयं प्रिये ॥ ७८ ॥
ततो धूपैश्च दीपैश्च नैवेद्यैस्तत्
प्रपूजयेत् ।
तावद् यत्नेन संस्थाप्यं यावत्
सूर्यग्रहो भवेत् ॥ ७९ ॥
सूर्यग्रहे तु सम्प्राप्ते
खञ्जरीटासृजा प्रिये ।
सञ्चर्ण्य गुटिका कार्या
यवत्रितयसम्मिता ॥ ८० ॥
भाद्रकृष्णचतुर्दश्यां बलिं दत्वा च
कुक्कुटम् ।
धारयीत शिखामूले मनुमेनमुदीरयन् ॥
८१ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – निरुक्तलतामूलस्य
शिखायां धारणस्य समन्त्रो विधिः
निगमादिं वाग्भवं च मायां
कामार्णमुच्चरेत् ।
पाशाङ्कुशक्रोधभूतलक्ष्मीबीजानि चोच्चरेत्
॥ ८२ ॥
नाम देव्याश्च सम्बोध्य रतिमोहिनि
चोल्लिखेत् ।
वसामांसपदं चोक्त्वा रक्तप्रिय
इतीरयेत् ॥ ८३ ॥
खेचरं मामिति प्रोच्य कुरु युग्मं
विनिर्दिशेत् ।
रक्षोभूतपिशाचेति पदमुच्चारयेत् ततः
॥ ८४ ॥
ततश्च विन्यसेद् देवि
सिद्धविद्याधरोरगान् ।
समुच्चरेत् कुरुद्वन्द्वमुक्त्वा मम
वशं पदम् ॥ ८५ ॥
ह्रां ह्रीं क्षां क्षं विनिर्दिश्य
क्रां क्रीं क्लां क्लूं समालिखेत् ।
खेचरीसिद्धिशब्दाच्च दायिनीति पदं
लिखेत् ॥ ८६ ॥
त्वरयुग्मं समाहृत्य कहयुग्मं ततो
वदेत् ।
कालि कापालि सम्बोध्य
क्रोधत्रितयमुल्लिखेत् ॥ ८७ ॥
अस्त्रत्रितयमुच्चार्य्य स्वाहान्तो
मनुरीरितः ।
खेचरी - सिद्धि
–
इसके बाद ध्यान देकर मुझसे खेचरी - सिद्धि को सुनो । चन्द्रग्रहण के
समय स्वर्णक्षीरी (= मकोय) लता की जड़ ले आये। हे प्रिये! उसे रजस्वला स्त्री के
भग में तीन दिनों तक रखे। इसके बाद (उसे भग में से निकाल कर) धूप दीप नैवेद्य से
उसकी पूजा करे। प्रयत्नपूर्वक उसे तब तक सुरक्षित रखे जब तक कि सूर्यग्रहण न लगे।
सूर्यग्रहण लगने पर हे प्रिये! चूर्ण बनाकर खञ्जन के रक्त से उसकी गोली बनाये। यह
गोली तीन जव के बराबर हो । भाद्रपद कृष्ण चतुर्दशी को मुर्गा की बलि दे । उसके बाद
निम्नलिखित मन्त्र को पढ़ता हुआ उसे शिखा में धारण करे। ( मन्त्र इस प्रकार है)
निगम का आदि, वाग्भव, माया, काम, पाश, अङ्कुश, क्रोध, भूत और लक्ष्मी बीजों का उच्चारण करे। फिर
देवी के नाम का सम्बोधन कर 'रतिमोहिनि वसामांसरक्तप्रिये
कहना चाहिये। तत्पश्चात् 'खेचरं माम्' कहकर
'कुरु' को दो बार कहे । पुनः 'रक्षोभूतपिशाच' पद का उच्चारण करने के बाद 'सिद्धविद्याधर उरगान्' कहकर 'मम
वशं' कहने के बाद 'कुरु' का दो बार उच्चारण करे । तत्पश्चात् 'ह्रां ह्रीं
क्षां क्षं क्रां क्रीं क्लां क्लू' कहना चाहिए । इसके बाद 'खेचरीसिद्धिायिनि' को कहकर 'त्वर'
और 'कह' को दो-दो बार
कहे । पुनः 'कालिकापालि' सम्बोधन कर
क्रोधबीज का तीन बार उल्लेख करना चाहिए। अन्त में अस्त्रमन्त्र का तीन बार कथन कर 'स्वाहा' कहे। (इस प्रकार मन्त्र का स्वरूप होगा - ॐ
ऐं ह्रीं क्लीं आं क्रों हूं स्फों श्रीं कामकलाकालि रतिमोहिनि वसामांसरक्त-
प्रिये खेचरं मां कुरु कुरु रक्षोभूतपिशाचसिद्धविद्याधरोरगान् मम वशं कुरु कुरु
ह्रां ह्रीं क्षां क्षं क्रां क्लां क्लूं खेचरीसिद्धिदायिनि त्वर त्वर कह कह कालि
कापालि हूं हूं हूं फट् फट् फट् स्वाहा ) ।। ७७-८८ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – खेचरीसिद्धिफलम्
ततः स खेचरो भूत्वा यादृच्छिकगतिर्भवेत्
॥ ८८ ॥
सिद्धैस्साध्यैरप्सरोभिर्देवैश्च सह
मोदते ।
मेरुमन्दरकैलासहेमकूटहिमालयान् ॥ ८९
॥
अद्रीनाहते सर्वान् प्रयोगस्यास्य
शक्तितः ।
इन्द्राग्नियमय
क्षेशवरुणानिलरक्षसाम् ॥ ९० ॥
ईशस्यापि पुरं गच्छेदन्यत्रैव च का
कथा ।
न गतिस्तस्य हन्येत पातालेऽपि कदाचन
॥ ९१ ॥
सर्वेषामप्यधृष्यः स्याद्
भूपातालखचारिणाम् ।
सिद्धैः साध्यैश्च देवैश्च यक्षै
रक्षोभिरेव च ॥ ९२ ॥
नागैश्च दानवैर्भूतैः सह सम्भाषणं
चरेत् ।
वज्रकाय: स्वयं भूत्वा
विचरत्यवनीतले ॥ ९३ ॥
न तस्याभिभवं कर्तुं शक्यते त्रिदशैरपि
।
फलश्रुति-
इसके बाद वह ( साधक) खेचर होकर इच्छानुसार गति वाला हो जाता है। सिद्ध साध्य
अप्सराओं और देवों के साथ आनन्द करता है । इस प्रयोग की शक्ति से वह मेरु मन्दर
कैलास हेमकूट हिमालय आदि समस्त पर्वतों पर चढ़ जाता है । वह इन्द्र,
अग्नि, यम, कुबेर,
वरुण, वायु, निर्ऋति और
ईशान के भुवनों में जा सकता है। अन्यत्र की क्या बात । पाताल में भी उसकी गति कभी
बाधित नहीं होती । पृथिवी पाताल और आकाशचारी समस्त जीवों के द्वारा वह अधृष्य होता
है । सिद्ध, साध्य, देवता, यक्ष, राक्षस, नाग, दानव, भूत के साथ वह सम्भाषण करता है । स्वयं
वज्रवत् शरीरवाला होकर वह पृथिवीतल पर विचरण करता है । देवता भी उसका अभिभव नहीं
कर सकते ।। ८८-९४ ।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ६ – खड्गसिद्धिविधिः
अथापरं प्रयोगं च वदतो मेऽवधारय ॥
९४ ॥
काम्बोजदेशसम्भूतं पलषोडशसम्मितम् ।
लौहमानीय देवेशि सङ्क्रान्तौ मकरस्य
च ॥ ९५ ॥
तावत्सम्पूजयेद् यत्नाद् यावत्
कर्कटसङ्क्रमः ।
ततो व्योकारमाहूय स्वगृहे
कारयेदसिम् ॥ ९६ ॥
शुचिर्दिगम्बरो मुक्तचिकुरो
लोहकारकः ।
कृष्णाष्टम्यामाश्विनस्य
प्रारभेतासिमुत्तमम् ॥ ९७ ॥
कुर्य्याच्छनैः शनैस्तावद्
यावन्मकरसङ्क्रमः ।
तत आनीय तं रात्रौ कृष्णपक्षे
चतुर्दशीम् ॥ ९८ ॥
पूजां विधाय विधिवत् स्थापयेत्
कालिकाग्रतः ।
आर्तवेन युवत्यास्तं लेपयेदविचारयन्
॥ ९९ ॥
वैद्यधूपदीपाद्यैर्जवापुष्पैश्च पूजयेत्
।
स्नुहीवटार्क दुग्धेन
विलिम्पेन्मुष्टिमेव च ॥ १०० ॥
खड्ग सिद्धि
–
अब दूसरा प्रयोग कहते हुए मुझसे सुनो। हे देवेशि ! मकर सङ्क्रान्ति
के दिन काम्बोज ( = हिन्दुकुश पर्वत पर स्थित वह प्रदेश जो तिब्बत और लद्दाख तक
फैला हुआ है) में उत्पन्न सोलह पल* के
परिमाण का लोहा ले आकर प्रयत्नपूर्वक तब तक उसकी पूजा करनी चाहिये जब तक कि कर्क
की सङ्क्रान्ति न हो जाय । इसके बाद लोहार को बुलाकर अपने घर में उसकी तलवार
बनवाये । वह लोहार पवित्र खुले बालों वाला तथा नग्न होकर अश्विन मास के कृष्ण पक्ष
की अष्टमी को तलवार बनाना प्रारम्भ करे । यह तलवार धीरे-धीरे तब तक बनाता रहे जब
तक कि मकर की सङ्क्रान्ति न हो जाय। उसके बाद कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि
में उस खड्ग को लाकर उसकी विधिवत् पूजा करे और काली के आगे रख दे । बिना किसी
सन्देह के युवती के आर्त्तव (= रजोरक्त) से उस पर लेप करे । नैवेद्य धूप दीप आदि
और जवाकुसुम से उसकी पूजा करे। सेंहुड़ बरगद और मदार के दूध का उसकी मुठिया में
लेप करे ।। ९४ १०० ॥
* एक पल लगभग अट्ठारह ग्राम का होता है ।
शेष भाग आगे जारी ........
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