कामकलाकाली खण्ड पटल ३

कामकलाकाली खण्ड पटल ३  

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ३ - देवी के सात आवरण हैं- १. अन्तः त्रिकोण २. मध्य त्रिकोण ३. बाह्य त्रिकोण, इनमें क्रम से संहारिणी आदि छह तथा उग्रा आदि छह इस प्रकार बारह देवियों तथा ब्राह्मी आदि नव देवियों की पूजा होती है । ४. इस आवरण में अष्टभैरवों का पूजन होता है । ५. पञ्चम आवरण में आठ क्षेत्रपालों की पूजा होती है। ६. छठे आवरण में उल्कामुखी आदि आठ योगिनियाँ पूजी जाती हैं । ७. सातवें में दशों दिशाओं में दश दिक्पाल पूजित होते हैं । कामकला काली की पुरश्चरण- विधि का वर्णन करने के पश्चात् इसकी काम्य उपासना के तेरह प्रकारों को बतला कर अन्त में उत्तमसिद्धिलाभ के लिये विधेय हवन की चर्चा की गयी है ।

कामकलाकाली खण्ड पटल ३

महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ३  

Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal 3

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: तृतीय: पटल:

महाकालसंहिता कामकलाखण्ड तृतीय पटल

महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड तीसरा पटल

महाकालसंहिता

कामकलाखण्ड:

(कामकलाकालीखण्ड :)

तृतीय: पटल:

कामकलाकाली खण्ड पटल ३ - सप्तावरणपूजाविधिः

[ यन्त्रे कोणस्थदेवीनां पूजाविधिः ]

महाकाल उवाच-

पूर्वं यत्कथितं यन्त्रं त्रित्रिकोणपरिष्कृतम् ।

बहित्रिकोणे तस्यैव तयोर्मध्ये च षड् यजेत् ॥ १ ॥

संहारिणी भीषणा च मोहिनी कोणगा इमाः ।

कोणमध्यस्थितास्तिस्रः कुरुकुल्ला कपालिनी ॥ २ ॥

विप्रचित्ता क्रमेणैव पूज्याः षट् प्रथमावृतौ ।

सप्तावरणपूजान्तर्गत यन्त्रस्थदेवीपूजा - तीन त्रिकोणों से परिष्कृत जिस यन्त्र का मैने पहले वर्णन किया उसी के बाहर त्रिकोण में (पूर्वापर) दो कोणों तथा मध्य कोण में छह (देवियों) की पूजा करनी चाहिये। (वे छह देवियाँ हैं— ) संहारिणी, भीषणा और मोहिनी ये कोण के बाहर स्थित हैं तथा कुरुकुल्ला, कपालिनी और विप्रचित्ता ये तीन कोण के मध्य में स्थित हैं। प्रथम आवरण में ये क्रम से पूजनीय हैं। (ये एक त्रिकोण के बाहर और अन्दर स्थित छह देवियाँ हैं) ।। १-३ ॥

मध्यत्रिकोणेऽपि तथा कोणकोणान्तरस्थिताः ॥ ३ ॥

उग्रा चोप्रप्रभा दीप्ता त्रिकोणाग्रे व्यवस्थिताः ।

नीला घना वलाका च तयोरन्तरगोचराः ॥ ४ ॥

पूजनीया: प्रयत्नेन द्वितीयावरणे प्रिये ।

मध्य त्रिकोण में उसी प्रकार बाह्य कोण में एवं कोण के भीतर, (पूजा करनी चाहिये) उग्रा, उग्रप्रभा और दीप्ता त्रिकोण के बाहर स्थित हैं, नीला, घना और बलाका उन दोनों के बीच रहती हैं। हे प्रिये! द्वितीय आवरण में (इन छह देवियों की) प्रयत्नपूर्वक पूजा करनी चाहिये ॥ ३-५ ॥

सर्वान्तःस्थे त्रिकोणे तु त्रिस्त्रिरेकत्र पूजयेत् ॥ ५ ॥

ब्राह्मी नारायणी चैव सव्ये माहेश्वरी तथा ।

चामुण्डा चापि कौमारी तथा चैवापराजिता ॥ ६ ॥

दक्षिणे पूजयेत्तिस्त्रस्तिस्रः पश्चिमगा अपि ।

वाराही नारसिंही च तथेन्द्राणी प्रकीर्तिता ॥ ७ ॥

सबके अन्दर स्थित त्रिकोण में एक-एक जगह तीन-तीन की पूजा करनी चाहिये। बाँयी ओर ब्राह्मी, नारायणी माहेश्वरी की तथा दायीं ओर चामुण्डा, कौमारी तथा अपराजिता की पूजा करनी चाहिये। पश्चिम में भी वाराही, नारसिंही तथा इन्द्राणी (पूजनीय) कही गयी हैं ॥ ५-७ ॥

सर्वाः श्यामा असिकरा मुण्डमालाविभूषिताः ।

कपालं तज्र्ज्जनं चैव धारयन्त्यः सुसम्मदाः ॥ ८ ॥

सर्वासामपि वै देयो बलि पूजा तथैव च ।

अनुलेपनकं चापि विभवेनोपकल्पितम् ॥ ९ ॥

त्रिस्त्रिः पूजा प्रकर्तव्या सर्वासामपि सर्वदा ।

सभी देवियाँ साँवले रंग की तथा हाथ में खड्ग ली हुई हैं। मुण्डमाला से विभूषित ये मदमत्त देवियाँ (हाथों में) कपाल और तर्जन (तर्जनी ऊँगली को ऊपर उठाकर तर्जन मुद्रा) धारण की हैं। सभी के लिये बलि और पूजा प्रदान करनी चाहिये । अपने सामर्थ्य के अनुसार बनाया गया अनुलेप (शरीर में लेप के लिये सुगन्धित द्रव्य) भी देना चाहिये । समस्त देवियों की सर्वदा तीन-तीन बार पूजा करनी चाहिये ।। ८-१० ॥

[ अष्टभैरवपूजा ]

दलेषु पूजयेदष्टौ भैरवा ये प्रकीर्तिताः ॥ १० ॥

असिताङ्गो रुरुश्चैव चण्ड उन्मत्तसञ्ज्ञकः ।

क्रोधस्तथैव कापाली तथा भीषणनामकः ॥ ११ ॥

सम्मोहनस्तथा सर्वे कर्त्तृखर्परधारिणः ।

कालाञ्जनचयप्रख्या द्विभुजा रौद्ररूपिणः ॥ १२ ॥

अष्टभैरव पूजा - जो आठ भैरव बतलाये गये हैं उनकी अष्टदलों में पूजा करनी चाहिये । असिताङ्ग, रुरु, चण्ड, उन्मत्त, क्रोध, कापाली, भीषण तथा सम्मोहन (ये आठ भैरव कहे गये हैं)। सब के सब दो भुजावाले, कालाञ्जनसमूह के समान (काले) भयङ्कर रूपवाले, कैंची तथा खप्पर धारण किये हुए हैं (ये चतुर्थ आवरण में पूज्य कहे गये हैं) ।। १०-१२ ॥

[ अष्टक्षेत्रपालानां पूजा ]

एतान् सम्पूज्य विधिवत् क्षेत्रपालान् प्रपूजयेत् ।

एकपादो विरूपाक्षो भीमः सङ्कर्षणस्तथा ॥ १३ ॥

चण्डघण्टो मेघनादो वेगमाली प्रकम्पनः ।

एते चाष्टौ क्षेत्रपाला दलयोरन्तरे स्थिताः ॥ १४ ॥

विकृतास्या भीमरूपा गदापरिघपाणयः ।

दलयोरन्तरे पूज्याः पञ्चमावरणे प्रिये ॥ १५ ॥

अष्टक्षेत्रपाल पूजा - उपर्युक्त भैरवों की विधिवत् पूजा करने के बाद क्षेत्रपालों की पूजा करनी चाहिये । (इनके नाम हैं -) एकपाद, विरूपाक्ष, भीम, सङ्कर्षण, चण्डघण्ट, मेघनाद, वेगमाली तथा प्रकम्पन । ये आठ क्षेत्रपाल दो-दो दलों के भीतर स्थित हैं । विकृत मुख और भयङ्कर रूप वाले ये हाथ में गदा और परिघ लिये हैं । हे प्रिये! पञ्चम आवरण में इनकी दो दलों के बीच पूजा करनी चाहिये ॥ १३-१५ ॥

[ अष्टयोगिनीनां पूजा ]

षष्ठे चावरणे देव्या योगिनीरष्ट पूजयेत् ।

उल्कामुखी कोटराक्षी विद्युज्जिह्वा करालिनी ॥ १६ ॥

वज्रोदरी तापिनी च ज्वाला जालन्धरी तथा ।

व्यात्तानना घोररावा जिह्वाललनभीषणाः ॥ १७ ॥

वसासृङ्मांससम्पूर्णकपालासिकराः स्मृताः ।

एता दलाने सम्पूज्याः षष्ठावरणके क्रमात् ॥ १८ ॥

अष्टयोगिनी पूजा - देवी के षष्ठ आवरण में आठ योगिनियों की पूजा करनी चाहिये । वे इस प्रकार हैं- उल्कामुखी, कोटराक्षी, विद्युज्जिह्वा, करालिनी, वज्रोदरी, तापिनी, ज्वाला और जालन्धरी । ये सब खुले मुँह वाली, भयङ्कर शब्द करने वाली, लपलपाती हुई जिह्वा से भीषण तथा हाथों में वसा-रक्त-मांस से पूर्ण कपाल तथा खड्ग धारण की हुई हैं। छठें आवरण में इनकी पूजा कमलदलों के अग्रभाग में की जानी चाहिये ।। १६-१८ ।।

[ लोकपालानां पूजा ]

लोकपालाश्च सम्पूज्या बहिर्दशसु दिक्ष्वपि ।

स्वस्वायुधासक्तकराः स्वस्ववाहनसंयुताः ॥ १९ ॥

सप्तावरणमेतत्ते कथितं भक्तितत्परे ।

देव्याः कामकलाकाल्याः समन्त्रध्यानपूर्वकम् ॥ २० ॥

लोकपाल पूजा - (सबसे) बाहर ( स्थित सप्तम आवरण) में दशो दिशाओं में लोकपालों (= दश दिक्पालों) की पूजा करनी चाहिये । ये अपने हाथों में अपने- अपने अस्त्र-शस्त्र लिये हुए अपने-अपने वाहनों के साथ हैं। हे भक्ति में तत्पर रहनेवाली! देवी कामकलाकाली का मन्त्र और ध्यान के साथ यह सात आवरण तुमको बतलाया गया । १९-२० ॥

एवं पूर्वोक्तरूपां तां सम्पूज्य परमेश्वरीम् ।

योगिनीचक्रसहितां भैरवेण समन्विताम् ॥ २१ ॥

ततश्च यत्नतः कान्ते बलिं सम्प्रतिपादयेत् ।

बलिमुत्सार्य नैवेद्यं नैर्ऋत्यां दिशि चोत्सृजेत् ॥ २२ ॥

हृदये चैव देवीं तां संस्थाप्य विधिवत्पुनः ।

निर्माल्यं च शुचौ देशे धारणीयं शिरस्यपि ॥ २३ ॥

हे कान्ते! इस प्रकार योगिनीचक्र के सहित भैरव से युक्त पूर्वोक्त रूप वाली उस परमेश्वरी की पूजा करने के बाद प्रयत्नपूर्वक उसके लिये बलि प्रदान करनी चाहिये । बलि प्रदान करने के बाद नैर्ऋत्य दिशा में उसके लिये नैवेद्य दे । पुनः देवी को हृदय में विधिवत् धारण कर माला को शिर पर भी धारण करे तथा पवित्र स्थान में त्याग दे ।। २१-२३ ॥

[ कामकलाकाल्याः पुरश्चरणविधिवर्णनम् ]

अतः परं प्रवक्ष्यामि पौरश्चरणिकं विधिम् ।

एकस्मिन् यत्र विहिते सिद्धिस्तात्कालिकी भवेत् ॥ २४ ॥

भूमिशुद्धिर्ब्रव्यशुद्धिः पुरैव कथिता मया ।

यमाश्च नियमा ये स्युः पुरश्चरणकर्मणि ॥ २५ ॥

सर्वानेव प्रयुञ्जीत सततं भक्तितत्परः ।

कामकलाकाली-पुरश्चरण- इसके बाद मैं पुरश्चरण विधि को बतलाऊँगा जिसका एक बार अनुष्ठान करने पर तत्काल सिद्धि मिलती है । भूमिशुद्धि और द्रव्यशुद्धि को मैंने पहले ही बतला दिया है। पुरश्चरण कर्म में जो यम और नियम हैं भक्तितत्पर साधक उन सबका निरन्तर प्रयोग करे ।। २४-२६ ॥

कृतनित्यक्रियः प्रातः कृतपूजाविधिः शुचिः ॥ २६ ॥

नारास्थि निखनेद् भूमावमं मन्त्रमुदीरयन् ।

तारक्रोधार्णह्रीपाशस्मरभूतान् समुद्धरन् ॥ २७ ॥

सिद्धिमुच्चार्य देहीति युग्मं बह्व्यङ्गनां वदेत् ।

तदुपर्येव चास्तीर्य स्वासनं सुष्ठु कल्पितम् ॥ २८ ॥

नृमुण्डमग्रतः कृत्वा नरास्थिजपमालया ।

लक्षमेकं जपेन्मन्त्री हविष्याशी दिवा शुचिः ॥ २९ ॥

अशुचिश्च तथा रात्रौ लक्षमेकं तथैव च ।

दशांशं होमयेन्मन्त्री तर्पयेदभिषेचयेत् ॥ ३० ॥

(यजमान) प्रातः काल नित्यक्रिया के बाद पूजा को सम्पन्न कर, पवित्र होकर निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करता हुआ, भूमि के अन्दर मनुष्य की हड्डी को गाड़े - तार क्रोधवर्ण, लज्जा, पाश, काम और भूतबीज का उच्चारण करता हुआ सिद्धि का नाम लेकर 'देहि देहि' कहकर वह्नि की स्त्री का उच्चारण करे । (मन्त्र का स्वरूप हुआ - ॐ हूं ह्रीं आं क्लीं स्फ्रें अमुकीं सिद्धिं देहि देहि स्वाहा)। उस (गड़ी हुई हड्डी) के ऊपर भली-भाँति बनाये गये अपने आसन को बिछाकर अपने सामने नरमुण्ड को रखकर नर अस्थि की जपमाला से मन्त्री एक लाख जप करे। दिन में हविष्यान्न खाय और पवित्र रहे। रात्रि में अशुचि हो कर एक लाख उसी प्रकार जप करे। (जप का) दशांश होम । (होम का दशांश) तर्पण (और तर्पण का दशांश मार्जन) या अभिषेक करे ॥ २६-३० ॥

होमे सन्तर्पणे चैव पूजावत्कथितो विधिः ।

पूजायां वा प्रयोगे वा होमे वा तर्पणेऽथ वा ॥ ३१ ॥

गुह्यकालीविधानेन सर्वं कार्यं शुचिस्मिते ।

अत्रानुक्तं विधानं यत्तत्रत्यं तत्प्रकल्पयेत् ॥ ३२ ॥

तत्राप्यनुक्तं यत्किञ्चित्तत्रोक्तो दक्षिणाविधिः ।

एतत्ते सर्वमाख्यातं समासेन वरानने ॥ ३३ ॥

देव्याः कामकलाकाल्याः पूजाविधिरनुत्तमः ।

होम और तर्पण में पूजा के समान विधि कही गयी हैं । हे शुचिस्मिते! पूजा अनुष्ठान होम अथवा तर्पण समस्त कार्य गुह्यकाली विधान के अनुसार करना चाहिये। यहाँ जिस विधान का उल्लेख नहीं हुआ उसे वहाँ (= गुह्यकाली प्रकरण में वर्णित विधान) के अनुसार करना चाहिये । वहाँ भी जो नहीं कहा गया उसको ( अनुष्ठान के सन्दर्भ में) दक्षिणकाली विधान (के अनुसार करना चाहिये) हे वरानने! यह सब मैंने तुमको संक्षेप में बतलाया । देवी कामकलाकाली की पूजाविधि सबसे उत्कृष्ट है ॥ ३१-३४ ॥

[ कामकलाकाल्याः प्रयोगविधिः प्रथमः प्रयोग: ]

अतः परं प्रयोगांस्तान् वक्ष्यामि प्रयता शृणु ॥ ३४ ॥

स्नातः शुक्लाम्बरधरः कृतनित्यक्रियो दिवा ।

रात्रौ नग्नः शयानश्च मैथुने च व्यवस्थितः ॥ ३५ ॥

अथवा मुक्तकेशश्च प्रजपेदयुतं नरः ।

भवन्ति तत्क्षणाद् देवि तेन सर्वार्थसिद्धयः ॥ ३६ ॥

स्तम्भनं मोहनं वापि वशीकारो विशेषतः ।

यद्यदिच्छति तत्सर्वं साधयेदविचारयन् ॥ ३७ ॥

कामकलाकाली के प्रयोग - प्रथम प्रयोगइसके बाद मैं उन प्रयोगों को बतलाऊँगा । पवित्र होकर सुनो (मन्त्री) स्नान कर दिन में श्वेत वस्त्र पहने । सन्ध्या वन्दन कर चुका हो । रात्रि में नग्न होकर सोये। मैथुन में लगा रहे । (यदि नग्न न हो सके तो बालों को खुला रखकर और मैथुन में आसक्त होकर दश हजार जप करे । हे देवि! उससे तत्क्षण समस्त सिद्धियाँ मिलती है। विशेषतया स्तम्भन, सम्मोहन, वशीकरण अथवा मनुष्य जो-जो चाहता है उस सबको विना विचारे सिद्ध कर लेता है ।। ३४-३७ ।।

[द्वितीयः प्रयोगः ]

नग्नां परस्त्रियं वीक्ष्य प्रजपेदयुतं सुधीः ।

स भवेत्सर्वविद्यानां पारगः सर्वदैव हि ॥ ३८ ॥

तस्य दर्शनमात्रेण वादिनो निष्प्रभा मताः ।

गद्यपद्यमयी वाणी सभायां तस्य जायते ॥ ३९ ॥

द्वितीय प्रयोग - बुद्धिमान साधक नग्न परस्त्री को देखता हुआ मन्त्र का दश हजार जप करे तो वह सदा समस्त विद्याओं का पारगामी होता है। उसके दर्शनमात्र से ही शत्रु निष्प्रभ हो जाते हैं। सभा के मध्य उसके मुख से गद्य-पद्यमयी वाणी निकलती है ।। ३८-३९ ॥

[ तृतीयः प्रयोगः ]

अथ वा मुक्तकेशोऽसौ हविष्यं भक्षयन्नरः ।

अष्टोत्तरशतं जप्त्वा भगमामन्त्र्य यत्नतः ॥ ४० ॥

मैथुनं यः प्रकुर्वीत धनधान्यसमन्वितः ।

सर्वविद्यावतां श्रेष्ठः स भवेन्नात्र संशयः ॥ ४१ ॥

तृतीय प्रयोग अथवा मुक्तकेश यह मनुष्य दिन में हविष्य खाये । प्रयत्नपूर्वक भग को आमन्त्रित कर मैथुन करता हुआ १०८ बार जप करे तो वह साधक धनधान्य से समृद्ध हो जाता है। समस्त विद्वानों में वह श्रेष्ठ हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं । ४०-४१ ॥

[ चतुर्थः प्रयोगः ]

ऋतुमत्या भगं पश्यन्प्रजपेदयुतं नरः ।

अनर्थितापि तद्वाणी गद्यपद्यमयी भवेत् ॥ ४२ ॥

छन्दोबद्धा परं तस्य वाणी वक्त्रात्प्रजायते ।

चतुर्थ प्रयोगजो मनुष्य रजोवती स्त्री के भग को देखता हुआ दश हजार जप करता है बिना चाहे उसकी वाणी गद्यपद्यमयी हो जाती है। उसके मुख से छन्दोबद्ध वाणी निकलती है ॥ ४२-४३ ॥

[ पञ्चमः प्रयोग: ]

सुरतेषु च जप्तव्यं महापातकमुक्तये ॥ ४३ ॥

धनागमाय च तथा परयोषासमागमे ।

पञ्चम प्रयोग - महापातक से मुक्ति के लिये सुरति से संसक्त होकर जप करना चाहिये । धनप्राप्ति के लिये परायी स्त्री के साथ सम्भोग करते हुए जप करना चाहिये ॥ ४३-४४ ॥

[ षष्ठः प्रयोगः ]

यदि नो योषितः सङ्गस्तदा रेतः प्रयत्नतः ॥ ४४ ॥

समुत्सार्य जपं कुर्यात्सर्वकामार्थसिद्धये ।

तत्रैव रतिमारभ्य यो जपेन्मन्त्रवित्तमः ॥ ४५ ॥

अयुतं मैथुनीभूत्वा मन्त्रजापपरायणः ।

स याति परमां सिद्धिं देवेनापि सुदुर्लभाम् ॥ ४६ ॥

षष्ठ प्रयोग - यदि स्त्री का सङ्ग न मिले तो प्रयत्नपूर्वक अपने वीर्य को निकाल कर समस्त इच्छाओं की पूर्ति के लिये जप करना चाहिये। उसी (= वीर्य) में रति का प्रारम्भ कर जो मन्त्रज्ञानी जप करता है; मैथुनी होकर दश हजार जप में निरत रहता है वह देवदुर्लभ सिद्धि को प्राप्त करता है ।। ४४-४६ ।।

आकर्षणवशीकारौ मारणोच्चाटने तथा ।

स्तम्भनं मोहनं चैव बुद्धेः सन्त्रासनं तथा ॥ ४७ ॥

करोति तत्क्षणादेव नात्र कार्या विचारणा ।

वाग्मित्वं च धनित्वं च बहुपुत्रत्वमेव च ॥ ४८ ॥

न जरा न च रोगो वा न च मृत्युर्न वा भयम् ।

न च त्रासो मनुष्येभ्यो न च वाक्कायपातनम् ॥ ४९ ॥

अथवा स भवेन्नित्यं चतुर्विंशतिसिद्धिभाक् ।

( वह मन्त्रवेत्ता) आकर्षण, वशीकरण, मारण, उच्चाटन, स्तम्भन, सम्मोहन और बुद्धि का सन्त्रास तत्क्षण (= मन्त्रजपकाल में) ही प्राप्त करता है। वह वाग्मी धनी और बहुपुत्रवाला हो जाता है। उसे रोग, जरा, मृत्यु, भय, मनुष्यों से त्रास नहीं मिलता तथा उसके वाणी और शरीर का नाश नहीं होता। अथवा वह नित्य चौबीस सिद्धियों वाला हो जाता है ।। ४७-५० ।।

[ सप्तमः प्रयोगः ]

स्वदेहरुधिराक्तैश्च बिल्वपत्रैः सहस्रशः ॥ ५० ॥

श्मशानेऽभ्यर्चयेद् देवीं वागीशसमतां व्रजेत् ।

रेतोयुक्तजपापुष्पैः करवीरस्य वा प्रिये ॥ ५१ ॥

श्मशानेऽभ्यर्चयेद् देवीं सर्वसिद्धिं स विन्दति ।

धनवान् बलवान् वाग्मी सर्वयोषित्प्रियो भवेत् ॥ ५२ ॥

सुखी स्यान्नात्र सन्देहो महाकालवचो यथा ।

सप्तम प्रयोग - (जो मन्त्री) अपने देह के रक्त से लिप्त एक हजार विल्वपत्रों से श्मशान में देवी की पूजा करता है वह वृहस्पतितुल्य हो जाता है। अपने वीर्य से युक्त जवाकुसुम अथवा कनेर पुष्प से जो श्मशान में देवी की पूजा करता है वह सब सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है। वह धनवान्, बलवान्, वक्ता और सभी स्त्रियों का प्रिय हो जाता है। सुखी हो जाता है। इस (कथन) में उसी प्रकार सन्देह नहीं है जैसे महाकाल के वचन में ॥ ५०-५३ ॥

[ अष्टमः प्रयोगः ]

श्मशाने योषितं बीजैर्मध्येऽभ्यर्च्य सहस्रशः ॥ ५३ ॥

रक्तचन्दनदिग्धाङ्गी रक्तपुष्पैरलङ्कताम् ।

पूजयित्वा भगं वीक्ष्य ततो ध्यायेत कालिकाम् ॥ ५४ ॥

सद्यो हि लभते राज्यं यदि सा न भयायते ।

मेषमाहिषमांसेन वाग्मित्वं तस्य जायते ॥ ५५ ॥

अष्टम प्रयोग- श्मशान के मध्य में रक्त चन्दन से लिप्त अङ्गोंवाली तथा लालफूलों से अलङ्कृत स्त्री की बीजों* से एक हजार बार पूजा कर उसके भग को देखता हुआ जो काली का ध्यान करता है, यदि वह स्त्री भयभीत नहीं होती तो उस साधक को उसी दिन या शीघ्र राज्यलाभ होता है। मेष अथवा महिष के मांस से (पूजा करने पर साधक) वाग्मी हो जाता है ।। ५३-५५ ॥

* यहाँ पूजा में सम्भवतः लाल अनार के लाल बीजों का ग्रहण करना चाहिये क्योंकि रक्त चन्दन, रक्तपुष्प के वर्णन से रक्त बीज का ही संकेत होता है ।

[ नवमः प्रयोगः ]

श्मशाने शयने चैव शवासनगतः पुमान् ।

असकृच्च जपेन्मन्त्रं सर्वसिद्धिफलप्रदम् ॥ ५६ ॥

तर्पयेत्तां श्मशाने तु रक्तमांसादिभिस्त्रिधा ।

त्रिस्त्रिर्मनुमुदीर्यैव सर्वसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ॥ ५७ ॥

नवम प्रयोग - श्मशान में और (साधक के अपने) शयन में (अथवा श्मशान में या शयनकक्ष में) शव के ऊपर आसन (अथवा शवासन) लगाकर बैठा हुआ पुरुष देवी मन्त्र का बार-बार जप करे तो समस्त सिद्धि मिलती है। श्मशान में तीन-तीन बार मन्त्र का उच्चारण कर रक्त-मांस आदि से तीन बार तर्पण करे तो निश्चितरूप से सब सिद्धि प्राप्त होती है ।। ५६-५७ ॥

[ दशमः प्रयोगः ]

रेतोभिश्च तथा तद्वत् स्वकीयेन वरानने ।

मैथुनायितयोषाया भगप्रक्षालनोदकैः ॥ ५८ ॥

मेषमाहिषरक्तेन नररक्तेन चैव हि ।

उन्दुरोलूकरक्तेन वाग्मिता तस्य जायते ॥ ५९ ॥

धनित्वं जायते तस्य सर्वसिद्धिः प्रजायते ।

वचसा स भवेज्जीवो धनेन च धनाधिपः ॥ ६० ॥

आज्ञया देवराजोऽसौ रूपेण च मनोभवः ।

बलेन पवनो ह्येष सर्वतश्चार्थसाधकः ॥ ६१ ॥

पक्वापक्वे हि यन्मांसे सास्थि दद्यात्सदा बलिम् ।

मूषमार्जारमांस च मेषमाहिषसम्भवम् ॥ ६२ ॥

सर्वं सास्थि प्रदातव्यं सदा लोमसमन्वितम् ।

दशम प्रयोग - हे वरानने! उसी प्रकार अपने वीर्य, मैथुन के बाद स्त्री के भगप्रक्षालन के जल, मेष एवं महिष के रक्त, नर-रक्त, उन्दुर (= चूहा और उल्लू के रक्त से (देवी का तर्पण करने से उस (साधक) को वाग्मित्व प्राप्त होता है। वह धनी हो जाता है। उसे समस्त सिद्धि मिलती है। वाणी से वह बृहस्पति, धन से कुबेर, आज्ञा से देवराज इन्द्र रूप से कामदेव बल से पवन हो जाता है । सब प्रकार से वह अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेता है। पके एवं कच्चे दोनों प्रकार के मांस की अस्थि के साथ बलि देनी चाहिये । मूस मार्जार मेष भैंसा सबके मांस को अस्थि और लोम के साथ समर्पित करना चाहिये ।। ५८-६३ ॥

[ एकादशतम: प्रयोगः ]

स्ववीर्य स्वनखं छिन्नं केशं सम्मार्जनागतम् ॥ ६३ ॥

निवेदयेत् श्मशाने तत्सर्वसिद्धिं स विन्दति ।

एकादश प्रयोग - अपना वीर्य, कटा हुआ अपना नख और कंघी करने से (टूट कर हाथों में) आया हुआ बाल (इन सबको यदि) श्मशान में (देवी को) अर्पित करे तो वह (साधक) समस्त सिद्धियों को प्राप्त करता है ।। ६३-६४ ॥

[ द्वादशतमः प्रयोगः ]

नारीरजोऽन्वितं कृत्वा पर्णानां शतमुत्तमम् ॥ ६४ ॥

प्रत्येकं प्रजपेन्मन्त्रं ततस्तद्धोमयेद् बुधः ।

युगानामयुतं तेन मान्मथी पूजिता भवेत् ॥ ६५ ॥

सर्वसिद्धिर्भवेत्तस्य वाग्मी धीरश्च जायते ।

न तस्य दुर्लभं किञ्चित्पृथिव्यां जातु विद्यते ॥ ६६ ॥

द्वादश प्रयोग - पलाश के एक सौ पत्ते को स्त्री के रज से सम्मिश्रित करे। प्रत्येक के पहले मन्त्र का जप कर विद्वान्, उसका ( अग्नि में) होम करे । इससे कामकलाकाली की दश हजार युगों की पूजा हो जाती है। ( इस पूजा से) उस साधक को सब सिद्धि मिलती है। वह वाग्मी और धीर बन जाता है। उसके लिये पृथिवी में कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता ॥ ६४-६६ ॥

[ त्रयोदशतमः प्रयोगः ]

योनिरूपं हि कुण्डं वै कृत्वा वैतस्तिमानतः ।

हस्तविस्तारतः कृत्वा हस्तं चापि तथा अधः ॥ ६७ ॥

तत्र कार्या हि मन्त्रेण वह्निस्थापनिकाः क्रियाः ।

संहार भैरवायादौ दद्यात्प्रथममाहुतिम् ॥ ६८ ॥

रुरुमांसेन साज्येन भक्तेन रुधिरेण च ।

कृष्णपुष्पेण साज्येन सरक्तेन विशेषतः ॥ ६९ ॥

आमिषादिभिरप्येवं श्मशाने जुहुयात्सुधीः ।

स्नातः शुक्लाम्बरधरः शुचिः प्रयतमानसः ॥ ७० ॥

दिवा चैव प्रकर्तव्यं सर्वकामार्थसिद्धये ।

रात्रौ नग्नो मुक्तकेशो मैथुने च व्यवस्थितः ॥ ७१ ॥

प्रकर्त्तव्यं प्रयत्नेन सर्वकामार्थसिद्धये ।

किं बहूक्तेन देवेशि सर्वं प्राप्नोत्यसंशयम् ॥ ७२ ॥

द्विजादीनां तु सर्वेषां दिवाविधिरिहोच्यते ।

शूद्राणां तु तथा प्रोक्तं रात्रिदृष्टं महामतम् ॥ ७३ ॥

यद्यत्कामयते चित्ते तत्तदाप्नोति नित्यशः।

त्रयोदश प्रयोग - एक वितस्ति (= १२ अङगुल) चौड़ा एक हाथ लम्बा और एक हाथ गहरा कुण्ड बना कर (साधक) उसमें अग्निस्थापन की क्रियायें करे । तत्पश्चात् पहले संहारभैरव के लिये प्रथम आहुति दे । (यह आहुति) रुरुमृग के मांस, घृतयुक्त भात, रुधिर, घृताक्त काला फूल, विशेष रूप से रक्ताक्त पुष्प से दी जानी चाहिये । बुद्धिमान् साधक श्मशान में अन्य प्रकार के मांस आदि से भी आहुति दे । स्नान के पश्चात् शुद्ध वस्त्र धारण कर स्वच्छ और पवित्र मन वाला ( मन्त्री उक्त होम को) दिन में समस्त कामनाओं की पूर्ति के लिये करे । रात्रि में नग्न तथा मुक्तकेश एवं मैथुनासक्त होकर सर्वकामार्थसिद्धि के लिये (आहुति दे ) । हे देवेशि अधिक कहने से क्या लाभ । (इस अनुष्ठान से साधक) निःसन्देह सब कुछ प्राप्त कर लेता है । समस्त द्विजातियों के लिये यहाँ दिवाविधि का विधान है। शूद्रों के लिये यह महा अनुष्ठान रात्रि में विधेय है। (साधक) मन में जो-जो कामना करता है वह वह नित्य प्राप्त करता है ।। ६७-७४ ।।

[ उत्तमसिद्धिलाभाय हवनविधिवर्णनम् ]

भैरवं तं यजेदादौ पश्चाद् देवीं प्रयत्नतः ॥ ७४ ॥

द्विधा विभज्य वस्तूनि यत्नात्साधकसत्तमः ।

मांसं रक्तं तिलं केशं नखं भक्तं च पायसम् ॥ ७५ ॥

आज्यं चेति प्रयत्नेन होतव्यं सर्वसिद्धये ।

एवं कृत्वा विधानं हि लभते सिद्धिमुत्तमाम् ॥ ७६ ॥

यद्यत्प्रार्थयते चित्ते तत्तदाप्नोति सर्वथा ।

देवत्वं दानवत्वं च सिद्धचारणतां तथा ॥ ७७ ॥

दत्वा सम्पूज्य चाप्नोति सर्वमेवमतन्द्रितः ।

किं बहूक्तेन देवेशि सत्यं कृत्वा त्वयि ब्रुवे ॥ ७८ ॥

ब्रह्माण्डगोलके सिद्धिर्या काचिज्जगतीतले ।

करामलकवत् सिद्धिस्तस्य स्यान्नात्र संशयः ॥ ७९ ॥

एते सामान्यतः प्रोक्ताः प्रयोगाः मन्त्रसिद्धये ।

उत्तम सिद्धि के लिये हवन-उत्तम साधक (होतव्य) वस्तुओं को दो भागों में बाँट कर (उनके द्वारा) पहले भैरव की और बाद में देवी का यजन करे। मांस, रक्त, तिल, केश, नख, भात, खीर और घी का होम प्रयत्नपूर्वक सर्वसिद्धि के लिये करना चाहिये । इस प्रकार अनुष्ठान कर साधक उत्तम सिद्धि प्राप्त करता है। देवत्व, दानवत्व, सिद्धत्व, चारणत्व आदि जिस-जिस की कामना (साधक) करता है अतन्द्रित होकर हवन करने से सर्वथा उस उस को प्राप्त करता है । हे देवेशि ! अधिक कहने से क्या (लाभ); तुमसे मैं सत्य कह रहा हूँ। ब्रह्माण्डगोलक में अथवा इस भूतल पर जो कोई सिद्धियाँ हैं साधक के लिये वह सिद्धि हाथ में स्थित आमलक की तरह होती है। इसमें सन्देह नहीं। मन्त्र की सिद्धि के लिये ये सामान्य प्रयोग कहे गये ।। ७४-८० ॥

[ आगामिपटलविषयसंसूचनम् ]

विशेषतस्तु तानेव कथयिष्याम्यतः परम् ॥ ८० ॥

आगामीपटल के विषय का संकेत- इसके बाद मैं विशेषतया उन्हीं को बतलाऊँगा ॥ ८० ॥

एवं देवीं कलुषदहनीं पूजयित्वा यथावद्

हुत्वा दत्वा बलिमिति तथा तर्पयित्वाभिषिच्य ।

यं यं कामं रचयति मनस्याहितं संहितं वा

तं तं प्राप्य श्रयति पदवीं योगिभिः प्रार्थनीयाम् ॥ ८१ ॥

इस प्रकार (साधक) कलुषदहनी देवी का विधिवत् पूजन कर होम कर बलि देकर तर्पण और अभिषेक कर मन में जो-जो अनिष्टकारी या मङ्गलकारी कामना करता है उस उस को प्राप्त कर (अन्त में) योगियों के द्वारा प्रार्थनीय पदवी को प्राप्त करता है ॥ ८१ ॥

इत्यादिनाथविरचितायां पञ्चशतसाहस्त्र्यां महाकालसंहितायां सप्तावरणसामान्यप्रयोगो नाम तृतीयः पटलः॥३॥

इस प्रकार श्रीमद् आदिनाथविरचित पचास हजार श्लोकों वाली महाकालसंहिता के कामकलाकाली खण्ड के सप्तावरण प्रयोग नामक तृतीय पटल की आचार्य राधेश्याम चतुर्वेदी कृत 'ज्ञानवती' हिन्दी व्याख्या सम्पूर्ण हुई॥३॥

आगे जारी ........ महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल 4

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