क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ७

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ७   

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ७ में यन्त्र निर्माण व धारण विधि, शिवस्नान तथा लिङ्गस्तव को कहा गया है।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ७

क्रियोड्डीश महातन्त्रराजः सप्तमः पटल:

Kriyoddish mahatantraraj Patal 7

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ७   

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज सप्तम पटल

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज सातवाँ पटल

क्रियोड्डीशमहातन्त्रराजः

अथ सप्तमः पटल:

श्रीदेव्युवाच

श्रुतं कवचचरितमपूर्वं देववाञ्छितम् ।

इदानीं श्रोतुमिच्छामि यन्त्रं कथय मे प्रभो ।। १ ।।

श्री देवी जी ने कहा- हे देव! वांछित फल को प्रदान करने वाले अपूर्व कवच को मैंने सुना । हे प्रभु! अब मेरी इच्छा यन्त्र को सुनने की है। कृपया आप उसे कहिये ।। १।।

यन्त्रम्

ईश्वर उवाच

मात्राहीनं रकारं तु पार्श्वे शीर्षं तथा पुनः ।

मायात्मकं तेन भवेत् षट्कोणं यन्त्रमुत्तमम् ।।२।।

मायाबीज ह्रीं गर्भम् ।

षट्कोण यन्त्र को लिखकर ह्रीं बीज को उसके मध्य में लिखना चाहिये शेष विधि सुगम है ।। २ ।।

स्त्रिया वामहस्ते धारणाद्वन्ध्या पुत्रवती भवेत् । बालाया बालकस्यापि कण्ठे सन्धार्य सुखी भवेत्। भूर्जे गोरोचनया विलिख्य स्वर्णस्थं धारयेत् । षोडशीचक्रस्य गोरोचनया भूर्जे विलिख्य धारणात् स्त्रीणां सौभाग्यवृद्धिः । चतुष्कोणचक्रं संलिख्य ह्रीं गर्भबाही धारणात् नारी जीवत्पुत्रिका अथवा चतुष्कोणे प्रणवादि क्षं पुन: मीनचक्रं संलिख्य धारणात् वन्ध्या जीवत्पुत्रिका भवति ।

इस यन्त्र को भोजपत्र पर लिखकर यदि स्त्री अपने बायें हाथ में बांधे तो वन्ध्या स्त्री के भी पुत्र उत्पन्न होते हैं। गोरोचन से भोजपत्र के ऊपर लिखकर स्वर्ण के ताबीज में बन्द कर इसे बालिका अथवा बालक के कण्ठ में यदि पहनाया जाय तो उसे अत्यन्त सुख होता है। षोड़शी चक्र को गोरोचन से भोजपत्र पर लिखकर धारण करने से स्त्रियों को सौभाग्य की प्राप्ति होती है। चतुष्कोण चक्र के मध्य में 'ह्रीं' बीज लिखकर भुजा में धारण करने से नारी जीवित्पुत्रिका होती है। मीन चक्र के चारो कोणों में प्रणवादि 'क्षं' बीज लिखकर धारण करने से वन्ध्या स्त्री भी सन्तानसुख को प्राप्त करती है।

अतः परम् अष्टदलकर्णिकामध्ये माया । ततः परं दलमध्ये द्वे द्वे मायाबीजे पुनः पुनः। इतः परं नवदलं मायाबीजं विलिखया बाहौ धारणात् मृतवत्सा जीवद्वत्सा।। गोरोचनाकुङ्कुमेन संलिख्य रक्तसूत्रेण संवेष्ट्य गुटिकां पञ्चामृतैः पञ्चगव्यैः स्नापयित्वा । प्रणवेनतु सम्मन्त्र्य स्नापयेद्गन्धद्रव्यकैः । प्राणान् प्रतिष्ठाप्य देवतारूपां गुटिकां सम्पूज्य धारयेत् ।।

तदुपरान्त अष्टदल कर्णिकामध्य में मायाबीज लिखे तथा दल के मध्य में दो-दो मायाबीज लिखे एवं नवदल में मायाबीज लिखकर एवं लाल धागा लपेटकर गुटिका को पञ्चामृत तथा पञ्चगव्य से स्नान कराकर प्रणव से अभिमन्त्रित कर पुनः गन्ध द्रव्यों से स्नान कराये एवं प्राणप्रतिष्ठा करके देवतारूप गुटिका को पूजन कर धारण करे।

शिवस्नानम्

घृतेन मधुना वापि स्नापयेद्वश्यकर्मणि ।

दुग्धादिना तथा देवि शान्तौ मृत्युञ्जयेऽपि च ।।३।।

आकर्षणे तु मधुना भस्मना क्रूरकर्मणि ।

शिवस्नान - वश्य कर्म में घृत एवं मृधु से शिव को स्नान कराये । शान्ति कर्म में तथा मृत्युञ्जय जपकर्म में दुग्धादि से स्नान कराये, आकर्षण कर्म में मधु से स्नान कराये और क्रूर कर्म में भस्म से स्नान कराये ॥ ३ ॥

अस्य परिमाणम्

शततोलकमानेन द्रव्यमेत्प्रकीर्तितम् ।।४॥

तन्मानं संविदाचूर्णं नैवेद्यं च सुरेश्वरि ।

बिल्वपत्रं तथा पुष्पं दद्यादष्टोत्तरं शतम् ॥५॥

शान्तिकादौ द्रोणपुष्पं बर्बरा चाभिचारके ।

स्तम्भने मोहने चैव धत्तूरं कनकाह्वयम् ॥६॥

विद्वेषोच्चाटने देवि विजयाप्यपराजिता ।

चतुर्दश्यां समारभ्य यावदन्या चतुर्दशी ॥७॥

एकैकं क्रमशो लिङ्गं पूजयेद्भक्तिभावतः ।

अष्टाधिकसहस्रं तु जपं कुर्याद्दिने दिने ॥८॥

सप्ताहे सप्त लिङ्गानि पञ्चाहे वाथ पञ्चकम् ।

चण्डोग्रेण विधानेन जपपूजादिकं स्मृतम् ।।९।।

वटुकेन तु मन्त्रेण मञ्जुघोषेण वा प्रिये ।

त्रैयम्बकेण देवेशि ! शान्तिके जपपूजनम् ।। १० ।।

तत्तत्कल्पविधानेन जपं पूजां समाचरेत् ।

जातिध्वंसे कुलोच्छेदे ज्वरादौ रोगसङ्कटे ।। ११ ।।

महाभये समुत्पन्ने सर्वाभिचारसम्भवे ।

यत्नेन पूजयेद्देवि लिङ्गमष्टोत्तरं शतम् ।।१२।।

अतिरुद्रयोगादौ रुद्राध्यायेन वा पुनः ।

नीलकण्ठेन वा देवि स्तवेन तोषयेच्छिवम् ।।१३।।

स्नानद्रव्यतोलपरिमाण- सौ तोले के परिमाण का स्नानद्रव्य एवं इतने ही नैवेद्य होना चाहिये तथा उतना ही संविदा - (भांग)- चूर्ण होना चाहिये। सुरेश्वरि ! बिल्वपत्र एवं पुष्प १०८ होने चाहिये। शान्ति आदि कर्म में द्रोणपुष्प अभिचार प्रयोग में बर्बरापुष्प तथा स्तम्भन एवं मोहन कर्म में धतूरे के पुष्प होने चाहिये। विद्वेषण एवं उच्चाटन में विजया एवं अपराजिता का पुष्प प्रयोग करना चाहिये । प्रयोग की प्रक्रिया एक चतुर्दशी से प्रारम्भ करके दूसरी चतुर्दशी पर्यन्त करनी चाहिए। एक-एक लिङ्ग का भक्तिभावपूर्वक पूजन करना चाहिए । प्रतिदिन १००८ मन्त्र का जप एवं सप्ताह में सात तथा पञ्चाह में पांच लिंगों का पूजन करना चाहिए। चण्डोग्र विधान पूर्वक जप व पूजन करना चाहिये। हे प्रिये! शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण किये हुये बटुकमन्त्र, मञ्जुघोषमन्त्र अथवा त्र्यम्बकमन्त्र से एवं शान्तिकर्म में जप व पूजन करना चाहिए। तत्तत् कल्प के अनुसार पूजा व जप करना चाहिये। जातिध्वंस, कुलोच्छेद, महाज्वर, रोग, संकट, महाभय की प्राप्ति और सभी प्रकार के अभिचार आदि प्रयोगों में यत्नपूर्वक १०८ लिङ्गों का पूजन करना चाहिए। हे देवि! अतिरुद्रयोग, रुद्राध्याय अथवा नीलकण्ठ- स्तवन द्वारा भगवान् शिव को प्रसन्न करना चाहिए ॥५- १३॥

आगे श्लोक १४ - २० तक लिङ्ग स्तवन दिया गया है। इसे पढ़ने के लिए क्लिक करें-  

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ७   

लिङ्गस्तव:

इति क्रियोड्डीशे महातन्त्रराजे देवीश्वर- संवादे सप्तमः पटलः ।।७।।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज में देवी-ईश्वरसंवादात्मक सातवाँ पटल पूर्ण हुआ ।।७।।

आगे जारी...... क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल 8

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