क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ९

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ९    

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ९ में आसन तथा होमघटादिस्थापन की विधि का वर्णन किया गया है।  

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ९

क्रियोड्डीश महातन्त्रराजः नवमः पटल:

Kriyoddish mahatantraraj Patal 9

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ९    

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज नवम पटल

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज नौवाँ पटल

क्रियोड्डीशमहातन्त्रराजः

अथ नवमः पटल:

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ९ - आसनम्

एकं सिद्धासनं प्रोक्तं द्वितीयं कमलासनम् ।

व्याघ्राजिने सर्वसिद्धिर्ज्ञानसिद्धिर्मृगाजिने ।। १ ।।

वस्त्रासनं रोगहरं वेत्रजं प्रीतिवर्द्धनम् ।

कौशेयं पुष्टिदं प्रोक्तं कम्बलं सर्वसिद्धिदम् ।। २ ।।

शुक्लं वा यदि वा कृष्णं विशेषाद्रक्तकम्बलम् ।

मेषासनं तु वश्यार्थमाकृष्टौ व्याघ्रचर्म च ॥३॥

शान्तौ मृगाजिनं शस्तं मोक्षार्थं व्याघ्रचर्म च ।

गोचर्म स्तम्भने देवि! वाजिं चोच्चाटने तथा । । ४ । ।

विद्वेषे श्वानचर्म च

मारणे माहिषं चर्म कर्मोद्दिष्टं समाचरेत् ।

सर्वकामार्थदं देवि! पट्टवस्त्रासनं तथा ।। ५ ।।

कुशासनं कम्बलं वा सर्वकर्मसु पूजितम् ।

दुःखदारिद्र्यनाशं तु काष्ठपाषाणजासनम् ॥ ६ ॥

आसन - प्रथम आसन सिद्धासन एवं द्वितीय कमलासन है। व्याघ्रचर्म के आसन पर जप करने से सर्वसिद्धि, मृगचर्म के आसन पर ज्ञानसिद्धि एवं वेंत के आसन पर जप करने से प्रीतिवृद्धि होती है। कुश के आसन पर जप करने पर पुष्टि एवं कम्बल के आसन पर जप करने से सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। शुक्ल अथवा कृष्ण- इन दोनों प्रकारों से लाल कम्बल श्रेष्ठ है। वशीकरण कर्म में मेष का आसन, आकर्षण कर्म में व्याघ्रचर्म का आसन, स्तम्भन में गोचर्म का आसन, उच्चाटन कर्म में अश्वचर्म का आसन, विद्वेषण में श्वानचर्म का आसन एवं मारण कर्म में भैंसे के चर्म का आसन प्रयोग करना चाहिए। हे देवि ! रेशमी वस्त्र का आसन समस्त कामनाओं को प्रदान करने वाला होता है। कुशासन अथवा कम्बलासन समस्त कर्मों में पूजनीय होता है। काठ एवं पाषाण का आसन दुःख एवं दारिद्र्यनाशक होता है ॥१-६॥

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल ९ - होमघटादिस्थापनम्

नित्यं नैमित्तिकं कार्यं स्थण्डिले वा समाचरेत् ।

हस्तमात्रेण तत्कुर्याद्वालुकाभिः सुशोभनम् ।।७।।

तोयपूर्णान्घटान्पञ्च स्थापयेत्परमेश्वरि ।

एकेन मन्त्रयुग्मेन स्थापिताः स्युः सपल्लवैः ।।८।।

अशक्तौ च महादेवि एकैकेन च वाससा ।

कदाचिदपि चैकेन सर्वान्नाच्छादयेच्छिवे ।।९।।

अनाच्छादिततोयानि स्थापयित्वा व्रजत्यधः ।

होमघटादिस्थापन - हे परमेश्वरि ! नित्य एवं नैमित्तिक कर्म समाप्त कर बालुका से सुशोभित एक हाथ के परिमाण का स्थण्डिल बनाकर उसके ऊपर जल से भरे पाँच कलश (कुम्भ) स्थापित करे। एक या दो मन्त्रों से अभिमन्त्रित कर पाँचों कलशों को पाँच पल्लव से सुशोभित करे। हे महादेवि ! यदि भिन्न-भिन्न कलश को आच्छादित करने के लिये वस्त्र सम्भव न हो तो एक ही वस्त्र से पाँचों कलशों को लपेट दे; क्योंकि स्थापित जल को आच्छादित न करने से स्थापनकर्त्ता की अधोगति होती है ॥ ६-९ ॥

ततः स्थां स्थीं इति श्रीमिति मन्त्रेण घटं स्थिरीकृत्य ।

क्लीं इति घटप्रोक्षणम् । क्रामिति घटाभिमन्त्रणम् ।

ह्रीं इत्यारोपणम् । ह्रीं जलेन पूरणम् । ततः कृताञ्जलिः पठेत् ।

तत्पश्चात् स्थां स्थीं इन बीजमन्त्रों से तथा श्रीं इस मन्त्र से घट को स्थिर कर क्लीं इस बीजमन्त्र से घट को साफ करे। क्रां इस बीजमन्त्र से अभिमन्त्रित कर ह्रीं इस बीजमन्त्र से घट को स्थापित करे। ह्रीं मन्त्र से उनमें जल भर कर फिर अञ्जलि बनाकर प्रार्थनामन्त्र पढ़े।

गंगाद्याः सरितः सर्वाः समुद्राश्च सरांसि च ।।१०।।

सर्वे समुद्राः सरितः सरांसि जलदा नदाः ।

ह्रदाः प्रस्रवणाः पुण्याः स्वर्गपातालभूगताः ।

सर्वतीर्थानि पुण्यानि घटे कुर्वन्तु सन्निधिम् ।।११।।

हे घट ! गंगा आदि नदियाँ, सभी समुद्र, सरोवर, शेष समुद्र क्षीरसागर आदि, सरितायें लघु सरितायें, नाले, पक्के सरोवर, झरने, स्वर्ग, पाताल एवं मृत्युलोक के समस्त बावड़ी आदि जलस्थान, समस्त काशी आदि पुण्यक्षेत्र तुझमें आकर वास करें।

ततः श्रीमिति पल्लवम्, हुमिति फलम्, रमिति सिन्दूरम्, बमिति पुष्पम्, मूलेन दूर्वाम्, ओं ओं ओं इत्यभ्युक्षणम्, ॐ फट् स्वाहा इति कुशेन ताडनम्। शान्त्यर्थं स्नापयेत्कुम्भम् ।

तत्पश्चात् श्रीं बीज से पञ्चपल्लव स्थापित करे। हुं इस बीज मन्त्र से घट के भीतर फल स्थापित करे, रं बीजमंत्र से घट के ऊपर सिन्दूर चढ़ाये, बं बीजमन्त्र उच्चारण कर पुष्प चढ़ाये। मूल मन्त्र से दूर्वा चढ़ाये। ॐ ॐ ॐइन तीन प्रणवों का उच्चारण कर अभ्युक्षण करे। ॐ फट् इस बीजमन्त्र को पढ़कर कुशा से घट का ताड़न करे। शान्ति के लिये कुम्भ को स्नान कराये।

पुण्याहं वाचयित्वा कर्म कुर्यात् दिग्बन्धनादि गणेशग्रहदिक्पालादीन्प्रतिकुण्डे पूजयेत् । स्थण्डिले पूजयेल्लिङ्गं सर्वापत्तिविनाशनम् । कुम्भे चापि पूजयेत् । ततः अग्निमानीय संस्कृत्य होमं कुर्यात् ।

पुण्याहवाचन कर दिग्बन्धनादि कर्म करे। गणेश, ग्रह, दिक्पालादिकों की प्रीति के लिये कुण्ड में पूजन करे । स्थण्डिल में लिंग का पूजन करने से समस्त प्रकार की आपत्तियाँ दूर होती हैं। कुम्भ में भी पूजन करे। तत्पश्चात् अग्नि को लाकर संस्कार करके हवन करे ।। १०-११ ॥

महाविपत्तौ जुहुयात् जवां कृष्णपराजिताम् ।

द्रोणं वा करवीरं वा मनोभीष्टफलं लभेत् ।। १२ ।।

करवीरैः श्वेतरक्तै रक्तचन्दनमिश्रितैः ।

द्रोणैश्च केतकीपुष्पैर्होमो रोगं विमोचयेत् ।। १३ ।।

चम्पकैः श्वेतपद्यैश्च कोकनदञ्च बन्धुकम् ।

बिल्वपत्रं कुरुवकं मुनिपुष्पं च केसरम् ।।१४।।

हुत्वा यदि महादेवि अवश्यं पुत्रवान्भवेत् ।

रक्तोत्पलं बिल्वपत्रं काञ्चनं रक्तवर्णकम् ।। १५ ।।

शान्तिमन्त्रत्रिकं चापि शतसंख्याक्रमेण तु ।

जुहुयात्तु महेशानि सर्वसिद्धिर्भवेत्तदा ।। १६ ।।

इति क्रियोड्डीशे महातन्त्रराजे देवीश्वर-संवादे नवमः पटलः । । ९ । ।

महाविपत्ति के समय में जवाकुसुम (अड़हुल) तथा कृष्ण अपराजिता के पुष्प से हवन करे। मनोवांछित फल की प्राप्ति के लिये द्रोणपुष्प व कनेर के पुष्पों से हवन करे। कनेर के पुष्प तथा श्वेत एवं रक्तचन्दन के मिश्रण से, द्रोणपुष्प व केतकीपुष्प से रोगशान्ति के लिये हवन करे । हे महादेवि! यदि चम्पक (चम्पा) पुष्प, श्वेत कमल, कोकनद, बन्धूक पुष्प, बिल्वपत्र, कुरुबक, अगस्त्यपुष्प व केशर से हवन किया जाय तो अवश्य ही पुत्र की प्राप्ति होती है। हे महेशानि! लाल कमल, बेलपत्र, रक्तवर्ण काञ्चन तथा शान्ति मन्त्र से १०८ बार हवन करने पर सर्वसिद्धि होती है ।। १२-१६ ॥

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज में देवी-ईश्वरसंवादात्मक नौवाँ पटल पूर्ण हुआ ।। ९ ।।

आगे जारी...... क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल 10

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