माहेश्वरतन्त्र पटल ११
माहेश्वरतन्त्र के पटल ११ में श्री
कृष्ण की सगुण लीला, तृणावर्त उद्धार
आदि की कथा, राधा की कथा का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल ११
Maheshvar tantra Patal 11
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल ११
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र एकादश पटल
अथ एकादशं पटलम्
श्री शिव उवाच
हृत्वाथ पूतनाप्राणान् सहबालान्
कृपानिधिः ।
शकट पातयामास पादपल्लवलीलया ॥ १ ॥
भगवान् शङ्कर ने कहा- इसके बाद
पूतना के प्राणों का हरण करके बाल गोपालों के साथ कृपानिधि भगवान् कृष्ण ने गाड़ी
को पैर से पत्ता हटाने के समान लीलापूर्वक गिरा दिया ॥ १ ॥
तृणावर्तमथाकाशे हरन्तमहनद्धरिः।
स्तनं पीत्वा यशोदार्थं
जृम्भमाणस्तु केवलन् ॥ २ ॥
मुखे प्रदर्शयामास भुवनानि चतुर्दश
।
बाललीलाविनोदेन मृदमश्नन् कृपानिधिः
।
अकल्पयद्देहयोग कुमाराणामलौकिकम् ॥
३ ॥
नाश्नाति मृदमानन्दो दधिदुग्धान्यपि
स्वयम् ।
पुष्ट्यर्थं च कुमाराणामकरोत्सकलं
प्रभुः ॥ ४ ॥
आकाश में तृणावर्त नामक दैत्य को ले
जाकर भगवान् हरि ने मार डाला । स्तन पीकर मात्र जम्हाई लेते हुए ही मुख में माता
यशोदा को चौदहों भुवनों का दर्शन करा दिया । कृपानिधि भगवान् कृष्ण ने बालोचित
लीला द्वारा खेल-खेल में ही मिट्टी खाते हुए कुमारों के अलौकिक देहयोग को कर दिया।
उन्होंने आनन्द से मिट्टी ही नहीं खाईं किन्तु दही दूध आदि भी स्वयं खाया ।
वस्तुतः उन प्रभु ने यह सब कुछ कुमारों की पुष्टि के लिए ही किया ।। २-४ ॥
व्रजस्था गोपिकाः सर्वाः
कृष्णलीलाहृताशयाः ।
विलोभयन्त्यः श्रीकृष्णं दास्ये
दुग्धं दधीन्यपि ॥ ५ ॥
मृदूनि नवनीतानीत्युक्त्वा
निन्युर्गृहान् स्वकान् ।
ततोप्येकान्त आहूय दत्वा दधिमधूनि च
॥ ६ ॥
कृष्ण की लीलाओं से हृतचित्त वाली
व्रज में रहने वाली सभी गोपियाँ दूध और दही भी कृष्ण को देने के लिए प्रलोभन देती
हैं कि 'यह बड़ा ही मृदु मक्खन है' इसके बाद भी ऐसा कहकर
अपने अपने घरों पर लालच देकर उन्हें ले गई । एकान्त में बुलाकर दही और मधु देकर
कृष्ण का आलिङ्गन किया ॥ ५-६ ॥
कृष्णमालिङ्गयामासुश्च
चम्बुर्मुखपङ्कजम् ।
बालोभूत्वापि लोकस्य यशोदानन्दयोरपि
॥ ७ ॥
और उनके मुख कमल का चुम्बन किया।
बालक होकर भी सम्पूर्ण संसार के और यशोदा एवं नन्द दोनों के आनन्द का वे वर्धन
करते थे ॥ ७ ॥
आलिङ्ग्यत्यालिग्यमानः प्रतिचुम्बति
चुम्बितः ।
गोपिकाहृदयानन्दं वर्धयन्
रतिचेष्टितः ॥ ८ ॥
रतिज्ञमिव तं मत्वा गोपिका
रतिचेष्टयाः ।
कुतूहलनिमग्नास्ता न वक्तुं
शेकुरुत्सुकाः ॥ ९ ॥
उन्हें वे आलिङ्गन करते थे और
आलिङिगत किए जाकर प्रतिचुम्बन से डम्बित होते थे । अनेक प्रकार की रति चेष्टाओं से
गोपिकाओं के हृदय का आनन्द बढ़ाते हुए रतिज्ञ के समान उन्हें जानकर वे गोपिकाएं
रतिचेष्टा से कुतूहल निमग्न हुई उत्सुक हुई भी कुछ न कह सकी ।। ८-९ ॥
अन्यापि गृहमानीय खाद्यपानरतोषयत् ।
भूषयित्वाजनाकल्प रङ्गरागः
सुगन्धिभिः ॥ १० ॥
शुभासने समारोप्य दत्वा
ताम्बूलवीटिकाम् ।
इहैव बालकैरेतः परिक्रीडस्व निर्भयः
॥ ११ ॥
इसी प्रकार दूसरी गोपियाँ भी अपने
घर पर उन्हें लाकर खान-पान से उन्हें सन्तुष्ट किया । उन्हें आँख में आँजन लगाकर
और सुगन्धित द्रव्यों एवं अङ्गरागों आदि से सजाकर, सुन्दर आसन पर बैठाकर और पान का बीड़ा देकर कहती थीं कि 'यहीं पर इन बालकों के साथ निर्भय खेलो ॥ ११ ॥
मान्यत्र गच्छ ते माता ज्ञापिता
ताडयिष्यति ।
इत्याहुग पिकाः काचित्प्रेमबद्धा
व्रजार्भके ॥ १२ ॥
'दूसरे जगह न जाना । नहीं तो यदि
तुम्हारी मां जान जाएगी तो पीटेगी' - इस प्रकार कोई प्रेम
में आबद्ध गोपिका ने उन व्रज के छोटे बालक से कहा ॥ १२ ॥
व्रजेश्वरसुतं नीत्वा गृहमूचुः पराः
स्त्रियः ।
यदि नृत्यति सरकृष्ण भवान् दास्ये
मनोरथम ॥ १३ ॥
अन्य स्त्रियां व्रजराज के सुत
भगवान् कृष्ण को अपने घर पर लाकर कहती हैं कि यदि हे कृष्ण आप नृत्य करें तो मैं
आपको मनोवाञ्छित वस्तु दूँगी ॥ १३ ॥
इत्युक्तो नृत्यति स्मासी रमसा वै
मुदान्वितः ।
हरन् कटाक्ष
मालाभिर्भावपूर्णाभिरावृतः ।। १४ ।।
वत्रे नृत्य विधानार्थं कामं देहि
प्रतिश्रुतम् ।
कस्ते कामस्तयोक्तसौ वव्रे कृष्णः
स्ववांछितम् ।। १५ ।।
त्वदीयहृदये भाति
कन्दुकद्वयमुत्तमम् ।
देह्य तद्रमणार्थाय मित्रः गोपसुतैः
सह ।। १६ ।।
ऐसा कहने पर वह बड़े ही आनन्द के
साथ शीघ्र ही नाचने लगते हैं। नेत्रों के कटाक्ष की शृङ्खलाओं और भावभङ्गिमाओं से
युक्त होकर उन्होंने उनके चित्तों का हरण करते हुए नृत्य विधान के लिए वर मांगा। तब
कृष्ण कहते हैं कि मुझे मेरी मनोवाञ्छित वस्तु दो, जो आपने कहा था । स्त्रिया कहती हैं कि 'आपकी
मनोवाञ्छित वस्तु क्या है ?' उनके ऐसा कहने पर कृष्ण अपनी
वाञ्छित वस्तु का वरण करते हुए 'यह है' ऐसा कहते हैं—-आपके हृदय में ये दो सुन्दर गेंद जो
सुशोभित हो रहे हैं इन्हें ही हमें अपने मित्रों गोपसुतों के साथ खेलने के लिए दे
दीजिए । १६ ।।
जहास गोपीकृष्णस्य
वाक्यश्रवणहर्षिता ।
वृषभानोः सुता देवि
राधिकानामविश्रुता ।। १७ ।।
बालक कृष्ण के इस प्रकार वाक्य को
सुनकर अत्यन्त हर्षित होकर गोपियाँ बड़ी जोर से हँस पड़ी । हे देवि वस्तुतः वह गोपी
राजा वृषभानु की कन्या 'राधिका' के नाम से प्रसिद्ध हैं ।। १७ ।।
स्वामिनी वासना जाता
श्रीकृष्णप्रमविह्वला |
द्वादशैव सहस्राणि याः सख्यः
परिकीर्तिताः ॥ १८ ॥
तदंगभूतास्ताः सर्वाः वस्तुभेदो न
किंचन ।
स्वामिन्यात्मा भवेत्कृष्णः
कृष्णात्मा स्वामिनी हि सा ।। १९ ।।
न तयोविद्यते
भेदश्चन्द्रचन्द्रिकयोरिव ।
रसात्मक रसभोक्तृ परं ब्रह्म
श्रतीरितम् ।। २० ।।
श्रीकृष्ण के प्रेम में अत्यन्त
विह्वल होकर उन्होंने अपने को उनकी स्वामिनी बनना 'चाहा । बारह हजार सखियों से घिरी हुई जो उनको ही अङ्गभूत जान पड़ती थीं ।
उनमें लेशमात्र भी वस्तुभेद नहीं दिखता था। कृष्ण ने अपनी आत्मा में उन्हें
स्वामिनी बनाया और वह कृष्ण की आत्मा होने से उनकी स्वामिनी हो गई । उन दोनों में
कोई भेद नहीं था । जैसे चन्द्र की चांदनी में और चन्द्र में कोई भेद नहीं मालूम
होता। श्रुति में कहा है कि 'परब्रह्म ही रसात्मक है और वह
रस का भोक्ता है' ॥ २० ॥
रसः शृगार एवोक्तो
रसशास्त्रविशारदैः ।
संयोगो विप्रलम्भश्च शृंगारो
द्विविधो मतः ।। २१ ।।
'संयुक्तयोश्च संयोगो
विप्रलंभो वियुक्तयोः ।
रसनित्यतया जातो वियोगस्तद्दलात्मकः
॥ २२ ॥
रसस्वभाव एवायं यत्सयोगवियोगवान् ।
अन्यथा ह्यक्षरे कस्मादिक्षा जायते
तथा ॥ २३ ॥
कथं प्रियाणां च तथा रसस्तस्माद्धि
तादृशः ।
सच्चिदानन्दकं ब्रह्म यदुक्त
श्रुतिमोलिभिः ॥ २४ ॥
रसशास्त्र के पण्डितों ने इसे ही 'शृङ्गार रस' कहा है । वह शृङ्गार संयोग और विप्रलम्भ
रूप से दो प्रकार का होता है । संयोग शृङगार वह है-- जिसमें नायक नायिका संयुक्त
हों और विप्रलम्भ शृङ्गार वह है जिसमें नायक-नायिका वियुक्त हों। रस की नित्यता के
कारण वियोग भी उसी शृङगार की कोटि का ही है। यह रस का स्वभाव ही है कि यह संयोग और
वियोग से युक्त होता है । अन्यथा अक्षर रूप परब्रह्म में कैसे दृष्टा बनने की
इच्छा जागृत होए । कैसे प्रियाओं में वैसा रस हो और वैसा उनसे कैसे प्राप्त हो। यह
इसलिए है कि श्रुतिशास्त्र के शिरोमणियों ने जो यह कहा है कि 'ब्रह्म सत् चित् और आनन्द स्वरूप है' वह इसलिए कि --
॥ २४ ॥
चिदानन्दो तु कूटस्थे पुरुषोत्तमे
एव च ।
उभावपि भवेद्ब्रह्म
ब्रह्मभेदेविवर्जितम् ।। २५ ।।
कूटस्थ ( अविचल,
इच्छारहित ) पुरुषोत्तम में ही चित् और आनन्द हैं। दोनों ही ब्रह्म
के भेदों से रहित होकर ब्रह्म ही होते हैं ॥ २५ ॥
सजातीयविजातीय स्वगतेश्व सुलोचने ।
ब्रह्मत्वे ह्यक्षरस्यापि आनन्दो
द्विदलात्मकः ॥ २६ ॥
हे सुन्दर नेत्रों वाली ! स्वगत
सजातीय और विजातीय भेद से आनन्द अक्षर रूप ब्रह्मत्व में दो दल होता है।।२६।।
सदंशबीजमूला च
प्रकृतिर्ह्यक्षरात्मगा ।
न तस्माद्रसलीलायाः स्थितिः कूटस्थ
ईश्वरे ।
प्रकृतेश्च परत्वाच्च
निर्गुणत्त्वान्महेश्वरि ॥ २७ ॥
उत्तमे पुरुषे पूर्णं
ह्यानन्दात्मनि केवले ।
लीला रसमयी रम्याः प्रतिक्षणनवा
स्थिता ॥ २८ ॥
१. सत् - अंशबीजमूल और २. अक्षरात्मक
प्रकृति। इसीलिए रस लीला की स्थिति उस कूटस्थ ईश्वर में नहीं होती । हे महेश्वरि !
प्रकृति के पर होने से और निर्गुण होने के कारण उत्तम एवं पूर्ण व आनन्दात्मक केवल
पुरुष में रसमयी और रमणीय तथा प्रतिक्षण नवीन होने वाली लीला स्थित होती है ॥।
२७-२८ ॥
दिदृक्षितान्तःकरणवृत्तिः
स्यादक्षरस्य या ।
पुरुषोत्तमावेशती जाता नन्दगृहे तु
सा ॥ २९ ॥
उस अक्षर परब्रह्म की जो देखने की
इच्छा वाली अन्तःकरण की वृत्ति थी वह पुरुषोत्तम नन्द के घर में आवेशवान् हुई ॥ २९
॥
गुणलीलादिदृक्षायुक्वासनास्तत्प्रियासु
याः ।
ता एवं व्रजसुन्दर्यस्ताभिः
संक्रीडते रसः ॥ ३० ॥
सगुण की लीला को देखने की इच्छा से
युक्त उनकी प्रिया में जो वासना थी वही व्रज सुन्दरियों के साथ सम्यक् रूप से
क्रीडा में रस लेने लगी ॥ ३० ॥
स्वामिनी वासना राधा स्वयं
वृन्दावनेश्वरी ।
लवमात्रकालावच्छिन्नो विरहोऽभूद्रसात्मकः
॥ ३१ ॥
स्वामिनी बनने की वासना वाली राधा
स्वयं वृन्दावन की ईश्वरी, लवमात्र काल से
युक्त विरहरस (विप्रलम्भ) को प्राप्त हुई ।। ३१ ।।
नलिनीपत्रसंहत्या:
सूक्ष्मसूच्याभिवेधने ।
दले दले च यः कालः स कालो लववाचकः ॥
३२ ॥
एक कमल की पखुड़ियों की संहति को बारीक
सुई से यदि वेधा जाय तो एक-एक दल में सुई जाने से जो काल होगा वह काल 'लव' कहलाता है ॥ ३२ ॥
अत्रापि संयोगवियोगभावः क्रीडति वे
हरिः ।
कृष्णो राधास्वरूपेण
विरहाक्रान्तचेतनः ॥ ३३ ॥
यहाँ पर भी हरि संयोग एव वियोगस्थ
भावों से क्रीडा करते हैं। वह कृष्ण ही हैं जो राधा स्वरूप से विरह से आक्रान्त
चित्त होते हैं ॥ ३३ ॥
कथं सा संगता मे स्यादिति
चितापरोऽभवत् ।
तत्सखीकृत मैत्रस्तु तत्कथाः
कुरुतेऽनिशम् ।। ३४ ।।
इसी चिन्ता में वे रहते हैं कि वह
कब मुझे मिल जाँय । उनकी सखी से, जिन्होंने मित्रता
की है उन्ही की, सदैव कथा किया करते हैं ॥ ३४ ॥
नित्यं स्वरूपस्तवनैर्गतिहास
निरूपणः ।
वस्त्रमद्यतनं हृद्य तब सख्याः
परिष्कृतम् ।। ३५ ।।
इत्यावेदितार्दास्ताः सख्यः
प्राहुश्च राधिकाम् ।
राधे नन्दसुतः सोऽयं सुन्दरः
प्रतिभाति मे ।। ३६ ।।
नित्य ही स्वरूप से स्तवनों से और
उनकी गति एवं हास आदि के निरूपणों से वे इस प्रकार कहते कि 'तुम्हारी सखी के द्वारा आज का पहना हुआ वस्त्र अत्यन्त हृदयाकर्षक है'
इस प्रकार की हृद्य बात उनको सखियाँ राधिका से कहती हैं । वे कहती
हैं कि 'हे राधे ! वही यह नन्द के पुत्र हैं जो मुझे सुन्दर
लगते हैं' ।। ३५-३६ ।।
तव रूपानुरूपोऽयं चतुरो व्रजबल्लभः
।
नित्यं च त्वत्कथालापः
त्वत्प्राणस्त्वन्मनाः सदा ।
त्वामेव ध्यायते चित्ते सङ्गमस्ते
यथा भवेत् ॥ ३७ ॥
तुम्हारे रूप के अनुरूप यह चतुर
व्रजवल्लभ नित्य ही आपकी कथा कहते हुए आप में ही प्राण [ श्वास प्रस्वास ] और आप
में ही सदा मन लगाकर आपका ही चित्त में ध्यान करते हुए जैसे सङ्गम होवे वैसी ही
चेष्टा किया करते हैं ॥ ३७ ॥
राधोवाच-
कुत्र सङ्गतिरेतेन मम स्यात्सखि
चिन्तय ।
अहमप्यस्य रूपेण सौन्दर्येण गुणेन च
।
मोहितास्मि क्षणं नैनं विस्मरामि
कथचन ॥ ३८ ॥
राधा ने कहा- सखि ! तुम्हीं सोंचो
कि कहाँ पर इनसे हमारी सङ्गति होवे। क्योंकि मैं भी इनके रूप,
सौन्दर्य और गुण से मोहित हो गई हूँ । मैं इन्हें "किसी भी
प्रकार विस्मृत नहीं कर पाती हूँ ॥ ३८ ॥
यशोदानन्दनं कृष्णं स्वप्ने पश्यामि
सन्ततम् ।
क्रीडमानं मया सार्द्धं
पिबन्तमधरासवम् ।। ३९ ।।
मैं सदैव यशोदानन्दन श्रीकृष्ण को
स्वप्न में देखती हूँ। वे मेरे साथ क्रीड़ा करते हुए और अधरामृत का पान करते हुए
दिखाई पड़ते हैं ॥ ३९ ॥
यस्मिन् दृष्टे ममांगेषु
स्वेदरोमांचकंचुकम् ।
वेपथुः स्वरभङ्गो वा जायते
साम्प्रतं सखि ।। ४० ।।
हे सखि ! '
वहीं स्वप्न में उन्हें देखकर मेरे अंगों में स्वेद ( पसीना ) तथा
कंचुक में रोमांच हो गया और इस समय कम्पन अथवा स्वरभंग हो रहा है ॥ ४० ॥
यत्सोन्दर्य रसाम्भोधी निमग्नं सखि
मे मनः ।
न निवृत्तिमवाप्नोति विना तद्दर्शनं
क्वचित् ॥ ४१ ॥
हे सखि ! मेरा मन जिस सौन्दर्य रस
के समुद्र में निमग्न है, उनका कहीं न कहीं दर्शन
बिना किए वह मन निवृत्ति को नहीं प्राप्त हो रहा है ।। ४१ ।
कृष्णमूर्ति प्रपश्यामि
भ्रमान्निकटवर्तिनीम् ।
क्षणादन्तहितां दृष्टवा मदात्मा
तप्यते भृशम् ॥ ४२ ॥
श्रीकृष्ण की मूर्ति को मैं अपने
आस-पास घूमती हुई देखती हूँ । क्षण भर के लिए भी यदि वह मूर्ति अन्तर्हित हो जाती
है तो उसे देखकर मेरी आत्मा अत्यन्त कष्ट प्राप्त करती है ॥ ४२ ॥
किं करोमि क्व गच्छामि कस्याग्रे
कथयाम्यहम् ।
नय मां नन्दतनयं कृष्णं प्राणाधिकं
मम ॥ ४३ ॥
क्या करू ?
कहाँ जाऊँ ? किसके आगे अपनी गाथा कहूँ ?
मेरे प्राणों से भी अधिक प्रिय नन्दतनय श्रीकृष्ण के पास मुझे ले
चलो ॥ ४३ ॥
विरहाग्निमहाज्वालावलीढा मे
वपुर्णता ।
कृष्णाधरसुधापूरप्लाविता
शान्तिमेष्यति ॥ ४४ ॥
मेरी शरीर रूपी लता विरह की अग्नि
की महनीय ज्वाला के द्वारा झुलसा दी गई है जो श्रीकृष्ण के अधरामृत में भरपूर
स्नान से ही शान्ति को प्राप्त करेगी ॥ ४४ ॥
तस्य मे सङ्गमोपायं विचारय निजे
हृदि ।
गच्छ कृष्णागमे यत्नं कुरु
सङ्केतसद्मनि ॥ ४५ ॥
अतः अपने हृदय में उनसे मेरे सङ्गम
का उपाय सोचो। जाओ और संकेत स्थल पर कृष्ण के आगमन के लिए यत्न करो ।। ४५ ।।
इत्येवं राधया प्रोक्ता सखी
प्राणपति ययौ ।। ४६ ।।
इस प्रकार श्रीराधिका के द्वारा कही
गई वह सखी प्राणपति भगवान् श्रीकृष्ण के पास गई ॥ ४६ ॥
॥ इति श्रीपञ्चरात्र माहेश्वरतन्त्र
उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे एकादश पटलम् ॥ ११ ॥
इस प्रकार श्रीनारदपाञ्चरात्र आगमगत
'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड ) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के ग्यारहवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय
कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई
॥ ११ ॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 12
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