माहेश्वरतन्त्र पटल १०
माहेश्वरतन्त्र के पटल १० में नन्द
गृह के उत्सव की कथा, पूतना के सदगति की कथा, पूतना
द्वारा मारे गए शिशुओं की कथा, राम कथा, अग्निकुमारों द्वारा सीता की भर्त्सना, सीता द्वारा
शाप देना, राम द्वारा सीता की निन्दा, सीता
और अग्नि कुमारों के प्रति राम का अनुग्रह का वर्णन है।
माहेश्वरतन्त्र पटल १०
Maheshvar tantra Patal 10
माहेश्वरतन्त्र ज्ञानखण्ड पटल १०
नारदपञ्चरात्रान्तर्गतम्
माहेश्वरतन्त्र दशम पटल
अथ दशमं पटलम्
शिव उवाच-
अथ नन्दगृहे जातः प्रातरेव महोत्सवः
।
नन्दः स्नातः
शुचिविप्रानाहूयागमपारगान् ।
ददौ महामना गावो वासांस्याभरणानि च
॥ १ ॥
भगवान् शङ्कर ने कहा- इसके बाद नन्द
के घर पर प्रातःकाल से ही महान् उत्सव हुआ । नन्द स्नान करके शुद्ध होकर आगम के
पारगामी विप्रों को बुलाकर उन महामना ने बहुत से वस्त्रों,
आभूषणों एवं गायों का दान किया ॥ १ ॥
गोपा गोप्यो यष्टा
नानाभूषाम्बरावृताः ।
नन्दं वर्धापयामासुराशीभिः
सर्वतोमुखम् ॥ २ ॥
गोप और गोपियाँ अनेक वेष-भूषा से
आवृत होकर प्रसन्न होते हुए नन्द के घर पर गयीं और उन नन्द को चारो ओर से आशीर्वचनों
से वर्धापित किया ॥ २ ॥
यशोदां च महाभागां गत्वा गोप्योऽति
हर्षिता: ।
उत्सुकानि मनस्यासां बभूवुः कृष्ण
दर्शने ॥ ३ ॥
महान् भाग्यशाली यशोदा के पास जाकर
गोपियाँ अत्यन्त हर्षित हुई। उत्सुकतावश उनके मन में यह विचार आया कि किशोर रूप से
श्रीकृष्ण ने आखिर दर्शन तो दिया ॥ ३ ॥
श्री कृष्णदर्शनानन्दनिमग्ना निजमूर्तयः
।
बभूवुर्गोपिकाः सर्वाः निजलोकं गता
इव ॥ ४ ॥
भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन के आनन्द
समुद्र में निमग्न होकर उन्हें ऐसा जान पड़ा कि अपने स्वरूप में सबकी सब गोपियाँ
मानों अपने लोक में ही चली गई हों ॥। ४ ॥
गृहे समभवन्महोत्सव परम्पराः ।
याचका वन्दिनः सुता मागधाः
समुपाययुः ।। ५ ।।
गोकुल के घर-घर में महान् उत्सव की
श्रृङ्खला चल पड़ी । याचक, बन्दीजन [ स्तुति
करने वाले ], सूत [कथावाचक ], और मागध
[ गायक ] वहीं आ गए ॥ ५ ॥
तेभ्यो ददौ महार्हाणि भूषावासांसि
गोपराट् ।
अथ कंससमादिष्टा पूतना बालघातिनी ॥
६ ॥
निघ्नन्ती बालकान् जातान् चचार
परितो व्रजम् ।
शिशवस्ते पराभूताः प्रविष्टाः
पूतनान्तरम् ॥ ७ ॥
गोपों के राजा नन्द ने उन्हें बहुत
से वस्त्राभूषण भेंट किए। इसके बाद कंस के आदेशानुसार बालकों को मार डालने वाली
पूतना राक्षसी व्रज के चारों ओर उत्पन्न बालकों को मारती हुई घूमने लगी । 'तुम्हारे बालक पराभूत होकर पूतना के अन्दर प्रविष्ट हो गए इस प्रकार
हाहाकार मच गया ।। ६-७ ।।
नन्दगृहे पुत्रजनि श्रुत्वा तस्य
जिघांसया ।
कृत्वा विमोहनं रूपं
दिव्यालङ्कारचचितम् ॥ ८ ॥
दिव्य मालाम्बरधरं दिव्यगन्धमनोहरम्
।
मनोहरन्ती नन्दस्य प्रविवेश शनैर्ग
हम् ॥ ९ ॥
वस्तुतः नन्द के घर पर पुत्र
उत्पन्न हुआ है यह सुनकर उसे मारने की इच्छा से उसने मायावी रूप बनाकर दिव्य
अलङ्कार से भूषित होकर, दिव्य माल्य और
दिव्य वस्त्र धारण करके तथा मनोहर दिव्य गन्ध लगाकर मन का हरण करती हुई धीरे-धीरे
नन्द के गृह में प्रविष्ट हुई ।। ८-९ ।।
अथ सासूतिकागारमध्येत्य
क्रूरनिश्चया ।
मोहयित्वा वचोभिस्तां बहिष्प्रेमनिरूपितेः
॥ १० ॥
उस क्रूर निश्चय वाली राक्षसी ने
सूतिका गृह में आकर उनको अपने दिखावटी प्रेम और मधुर वाणी से मोह लिया॥१०॥
सुप्ताहिमित जग्राह बालं कमललोचनम्
।
अङ्कमारोप्य बहुधा लालयन्ती
शुचिस्मिता ।। ११ ।।
सोए हुए सर्प के समान उस कमल के
तुल्य नेत्र वाले बालक को उसने उठा लिया और मधुर मधुर मुस्कुराहट के साथ वह अपने
गोद में रखकर बहुत प्रकार से लाड़-प्यार करने लगी ॥ ११ ॥
ददौ हालाहलालिप्तं स्तनं
तन्मुखपङ्कजे ।
तदन्तःस्थ शिशून् प्राणान् पूतनायाः
पप हरिः ।। १२ ।।
फिर इसी लाड़ प्यार के ही मध्य उस
बालक के मुख कमल में विष से लिपटे हुऐ स्तन को दे दिया। भगवान् हरि ने भी उस पूतना
के प्राणों को अन्तःकरण -से खींचकर पी लिया ।। १२ ।।
सार्द्धयोजनविस्तारो देहस्तस्या
महीतले ।
पपात पातध्वनिना कम्पयन्
व्रजमण्डलम् ॥ १३ ॥
डेढ़ योजन लम्बा उसका शरीर बड़ी तेज
आवाज के साथ सम्पूर्ण ब्रजमण्डल को कंपाते हुए पृथ्वी पर गिर पड़ा ।। १३ ।।
स्तन्यं हालाहलमयं हरये परमात्मने ।
दत्वापि सद्गति प्राप्ता किं पुनः
साधुकारिणः ।। १४ ।।
परमात्मा हरि को हालाहल से युक्त
स्तन पिलाने वाली उस पूतना को भी सद्गति प्राप्त हुई तब फिर साधुजनों को सद्गति में
क्या सन्देह है ॥ १४ ॥
पार्वत्युवाच-
वज्रस्थाः शिशवो ये च तया
व्यापादिता इति ।
पूतनायां स्थितान् सर्वान्
तत्प्राणैरपिबद्धरिः ॥ १५ ॥
माँ जगदम्बा पार्वती ने कहा- ब्रज
के अन्य जिन वालकों की उसने हत्या की थी, पूतना
में स्थित उन सभी को उसके प्राणों के द्वारा श्री हरि ने पी लिया ।। १५ ।।
इति यद्भवता प्रोक्तं के तेऽत्र
शिशवः प्रभो ।
ये जो आपने कहा,
हे प्रभो ! वे शिशु कौन थे ।
शिव उवाच-
एकदा ब्रह्मणः सत्रे देवगन्धर्व
पन्नगाः ।। १६ ।
सिद्धा विद्याधराः सर्वे समाजग्मु
महर्षयः ।
आदित्या वसवो रुद्रा मरुतः
पितरस्तथा ।। १७ ।।
अग्नयो वायवश्चान्ये
तेषामासीन्महासदः ।
गुर्गन्धर्वपतयो ननृतुश्चाप्सरोगणाः
॥ १८ ॥
शिव ने कहा- एक बार ब्रह्मा के यज्ञ
में देव,
गन्धर्व, पन्नग, सिद्ध,
विद्याधर और सभी महर्षिगण आये थे । १२ आदित्य, अष्टवस्तु, ग्यारह रुद्र और (४९) मरुदगण तथा पितर
लोग वहाँ उपस्थित हुए । अग्नि, वायु एवं अन्य बहुत से देव
यज्ञ में महासभासद थे । वहाँ गन्धवों के स्वामियों ने गान किया तथा अप्सराओं ने
नृत्य किया ।। १६-१८।।
अप्सरो दर्शनक्षन्धस्मरग्रस्तोन्यथा
मतिः ।
न शशाक मनो यन्तुं यतन्नपि पितामहः
॥ १९ ॥
अप्सराओं के दर्शन से क्षुब्ध हुए
तथा कामदेव से ग्रस्त हुए पितामह ब्रह्मा की बुद्धि विकृत हो अन्यथा हो गई और वे
अपनी काम वासना को रोकने पर भी नहीं रोक सके ।। १९ ।।
चस्कन्द रेतस्तस्याशु तपो विद्यामयं
महत् ।
अज्ञात्वा तस्य संस्थानं कुण्डाग्नावजुहोत्प्रभुः
॥ २० ॥
उनका तप एवं विद्यामय महान् वीर्यं
शीघ्र ही स्खलित होने लगा जिसे उन्होंने उसके संस्थान को न जानकर एक कुण्ड की
अग्नि में यजन कर दिया ॥ २० ॥
अग्निमध्यात्समुद्भूताः कुमारा
वह्नितेजसः ।
बद्धाञ्जलिपुटाः सर्वे प्रणेमुस्ते
पितामहम् ॥ २१ ॥
अग्नि के तेज से अग्नि के मध्य से
ही अग्नि कुमारों का प्रादुर्भाव हुआ । उन कुमारों ने पितामह ब्रह्मा की
बद्धाञ्जलि होकर प्रणाम किया ।। २१ ।।
ब्रह्मन् पितासि नः कामं वयं ते
तनयाः प्रभो ।
उत्पादिताश्च भवता
किकुर्मस्तदुदीर्यताम् ॥ २२ ॥
उन्होंने उनसे कहा- हे ब्रह्मन् !
आप हमारे पिता हैं। प्रभु ! हम आपके कामज पुत्र हैं । आपने हमें उत्पन्न किया है।
अतः कहिए कि मैं आपकी क्या सेवा करू ? ।।
२२ ।।
ब्रह्मोवाच-
अग्नी क्षिप्तं मया
रेतस्तपोविद्यामयं शुभम् ।
तत्र जाता भवन्तो हि
तस्मादग्निकुमारकाः ॥ २३ ॥
ब्रह्मा ने कहा- तप एवं विद्यामय
शुभ वीर्य से जो मेरे द्वारा अग्नि में आहुति दी गई थी उससे उत्पन्न हुए आप सब
अग्निकुमार कहे जाएंगे ॥ २३ ॥
दण्डकारण्यमासाद्य तपश्चरत पुत्रकाः
।
इत्युक्ता ब्रह्मणा सर्वे
दण्डकारण्यमाश्रिताः ॥ २४ ॥
अतः हे पुत्रों ! आप सब दण्डकारण्य जाकर
तपस्या कीजिए । ब्रह्मा के द्वारा आदेश प्राप्त होने पर उन सभी अग्निकुमारों ने
दण्डकारण्य की यात्रा की ॥ २४ ॥
तपः कुर्वन्तो यत्नेन
ब्रह्मणोद्देशयन्त्रिताः।
ततः कतिपये काले रामो दाशरथिः
स्वयम् ।। २५ ।।
फिर ब्रह्मा के उद्देश्य से
नियन्त्रित उन लोगों ने वहाँ तपस्या की । कुछ काल के अनन्तर ( त्रेता युग में)
दशरथ के पुत्र राम स्वयं वहाँ पहुँचे ।। २५ ।।
रावणं समरे हत्वा राज्यं कृत्वा
बिभीषणे ।
विमानं वरमारूढो दण्डकारण्यमाश्रितः
॥ २६ ॥
युद्ध में रावण को मारकर और विभीषण
को राजा बनाकर वे विमान पर दण्डकारण्य पहुँचे ।। २६ ।।
तत्रागस्त्याश्रमं रामो गत्वा चक्रे
भिवादनम् ।
मुनिः सम्भावयामास
कन्देर्मूलफलादिभिः ।। २७ ।
रामस्य दर्शनं चक्रर्मुनयोपि
धृतव्रताः ।
उवास रामः कतिचिद्दिनानि
मुनिसत्कृतः ॥ २८ ॥
दण्डकारण्य में वहाँ अगत्स्य के
आश्रम पर जाकर राम ने उनका अभिवादन किया । अगत्स्य मुनि ने भी कन्दमूल एवं नाना
प्रकार के फलों से उनका सत्कार किया । व्रतधारी उन मुनियों ने भी वहाँ पर राम का
दर्शन किया। उन मुनियों से सत्कृत होकर राम भी वहाँ कुछ दिनों तक रहे ।। २७-२८ ॥
एकदा जनकी दृष्ट मुनीनामाश्रमान्
शुभान् ।
जगाम मुनिपत्नीनां सौहार्देनापि
सुन्दरि ॥ २९ ॥
हे सुन्दरि ! एक बार मुनियों के शुभ
आश्रमों पर माता जानकी उनके दर्शन के लिए मुनिपत्नियों के पास अत्यन्त सौहार्द से
गई ॥ २९ ॥
चक्रे रामकथाः पुण्याः रावणस्य वधं
प्रति ।
सत्कृता मुनिपत्नीभिः मुनिभिः
साधुभिस्तथा ॥ ३० ॥
वहीं रावण के वध की पुण्य रामकथा
हुई। वहीं जानकी मुनिपत्नियों द्वारा और मुनियों तथा साधु सज्जनों द्वारा सत्कृत
हुई ॥ ३० ॥
निवृत्ता जानकी तत्र
जगामाग्निकुमारकान् ।
द्रष्टुं तपस्यतः पूर्णान्
मुनिकन्यासमावृता ॥ ३१ ॥
वहाँ से निवृत्त होकर जानकी
अग्निकुमारों के पास गई। तपश्चर्या से पूर्ण हुए अग्निकुमारों को देखने के लिए जब
वह वहां पहुंची तब मुनि कन्याओं द्वारा घेर ली गई ॥ ३१ ॥
जानकी तान्नमस्कृत्य
कुमाराननलप्रभान् ।
निषसाद क्षणं तत्र वनशोभाहितेक्षणा
॥ ३२ ॥
जानकी उन अग्निसदृश तेज वाले
कुमारों को नमस्कार करके वहाँ की वन- शोभा को देखने की इच्छा से कुछ क्षण वहीं बैठ
गई ॥ ३२ ॥
ते विचित्रेण देवेन प्रर्यमाणाः
कुमारकाः ।
अमर्षजननं वाक्यमब्रुवन्कृतहेलनाः
।। ३३ ।।
अहो सीते प्रभुः साक्षादीश्वरो
जगतां पतिः ।
वेदरक्षाविधानार्थमवतीर्णो महीतले
।। ३४ ।।
उन कुमारों ने विचित्र देव की गति
से प्रेरित होकर उनका निरादर करते हुए असहनशीलता से भरे वाक्यों को कहा। ओह सीते !
प्रभु साक्षात् ईश्वर है और जगत् के स्वामी हैं। वे प्रभु पृथ्वी पर वेद की रक्षा
के लिए ही अवतीर्णं होते हैं ।। ३३-३४ ।।
न यस्य स्वपरो वापि न द्वेष्यः
प्रिय एव च ।
सत्यसन्धः क्षमी शूरो रामः कमललोचनः
।। ३५ ।।
जटीवल्कलसंवीतो मोहमग्नो वने वने ।
भ्रान्तवचार निर्विण्णः पृच्छमानो
वनस्पतीन् ।। ३६ ।।
जिनका कोई अपना नहीं हैं,
कोई द्वेषी नहीं है और न ही कोई प्रिय है । वह सत्यपरायण, क्षमावान्, शूरवीर एवं कमललोचन राम जटा धारण किए हुए
वल्कल पहनकर तथा मोहासक्त होकर वन-वन भ्रान्त होकर घूमते रहे। निर्विण्ण चित्त हो
वनस्पतियों से आपको ही पूछते हुए भटकते रहे ।। ३५-३६ ।।
इयं कान्तेति वै मत्वा
मोहविभ्रंशिताशय: ।
क्वचित्पल्लविनीं हृद्यां
लतामालिंग्य निर्वृतः ॥ ३७ ॥
निवारितो लक्ष्मणेन नेयं कान्तेति
जल्पता ।
दधाराम्भोनिधो सेतुं सख्यं कृत्वा च
वानरैः ॥ ३८ ॥
त्वन्निमित्तमिदं सीते प्रभोरपि
विडम्बनम् ।
तस्मात्स्त्रियः पापरूपा
दोषेकनिलयाः सदा ।। ३९ ॥
'यह मेरी प्रिया है' - ऐसा समझकर मोह से भ्रमित हुए वे कभी-कभी पल्लविनी एवं हृद्य लता का
आलिङ्गन करने लगते थे। तब लक्ष्मण के द्वारा वे यह कहकर हटाए जाते थे कि यह कान्ता
नहीं है। उन्होंने ही वानरों से मित्रता कर समुद्र पर पुल बाँधा हे सीते ! आपके
लिए ही यह प्रभु की विडम्बना है । इसलिए स्त्रियाँ पापरूपा तथा सदैव दोषों का
खजाना हैं ॥ ३७-३९ ।।
न धार्या सुखमिच्छद्भिः कदाचित्
क्वापि पण्डितैः ।
इत्येवं वचनं तेषां श्रुत्वा
दाशरथेः प्रिया ॥ ४० ॥
किसी भी पण्डित जन को,
जो सुख चाहते हैं, कभी भी स्त्रियों को साथ
नहीं रखना चाहिए। दाशरथि राम की प्रिया सीता उनके इस प्रकार के वचनों को सुनकर
खिन्न हो गई ॥ ४० ॥
चक्रोध रक्तनयना शापं दातुं मनोदधे
।
ऐसा सुनकर लाल-लाल नेत्रों वाली जानकी
अत्यन्त क्रोधित हुई और शाप देने को उद्यत हुई।
सीतोवाच
मन्निन्दायाः फलं शीघ्रमवाप्स्यथ
कुमारकाः ॥ ४१ ॥
सीता ने कहा- हे अग्निकुमारों ! आप
लोग शीघ्र ही मेरी निन्दा का फल प्राप्त करोगे ॥ ४१ ॥
द्विवाविदीर्णदेहाच यूयं
पण्डितमानिनः ।
पतन्तु भूतले सर्वे सर्वे
स्वात्मकृतं भुजः ।। ४२ ।।
हे मानी पण्डित कुमारो ! आप सभी का
शरीर टूटकर द्विधा विभक्त हो जाय और आप सभी भूतल पर गिर जाइए और सभी की भुजा
स्वात्मकृत हो जाय ॥ ४२ ॥
इत्युक्ते सीतया तूर्णं
द्विधाभूतकलेवराः ।
शिशवः पेतुरुर्यान्ते मुनिपत्न्यो
विसिस्मिरे ॥ ४३ ॥
सीता के इस प्रकार कहने पर शीघ्र ही
उनके शरीर द्विधा विभक्त हो गए । और पृथिवी पर वे शिशु गिर पड़े। यह देखकर
मुनिपत्नियों को महान् विस्मय हुआ ॥ ४३ ॥
हाहाकारो महानासीन्मुनीनां तत्र
शृण्वताम् ।
एवं शप्त्वा कुमारांस्तान् ययौ
सीतानिकेतनम् ॥ ४४ ॥
वहाँ पर जब मुनियों ने एसा सुना तो
महान् हाहाकार मच गया। इस प्रकार से शापग्रस्त कुमार उन सीता के आवास पर गए ॥ ४४ ॥
रामः श्रुत्वाथ तां
वार्त्तामप्रियां दुर्मना भृशम् ।
निनिन्द सीतां मनसा किमेतदुविनीतया
।। ४५ ।।
राम ने जब उनकी इस अप्रिय वार्ता को
सुना तब वे भी अत्यन्त दुःखी हुए और मन ही मन सीता की निन्दा की कि इन्होंने यह
दुर्नीति की बात क्यों कर दी ॥४५॥
अविचारितमेवेह कृतं नष्ट विमर्षया ।
अहो मूढधियो दुष्टाः स्त्रियो
दारुणचेतसः ॥ ४६ ॥
क्रोध के कारण भ्रष्ट बुद्धि से
बिना बिचारे हो ऐसा इन्होंने कर दिया। ओह स्त्रियाँ दुष्ट तथा मूर्ख बुद्धि वाली
तथा कठोर चित्त की होती हैं ।। ४६॥
श्रेयसां परिपन्थिन्यो मायेयं
देवनिर्मिता ।
ससारान्मुक्तिकामानां याः स्वयं
निगडोपमाः ।। ४७ ।।
यह देव निर्मित माया हैं जो कल्याण
के मार्ग में बाधक हैं। संसार से मुक्ति की कामना वाले साधु जनों के लिए जो स्वयं
बेड़ी के समान हैं ॥ ४७ ॥
महामोहस्य मञ्जूषा
स्वार्थायानर्थतत्पराः ।
क्रोध लोभानृतधियो न विश्वस्ताः
कदाचन ॥ ४८ ॥
ये स्त्रियाँ महान् मोह की पिटारी
हैं। ये सदैव अपने स्वार्थ में तत्पर रहती हैं। अत: क्रोध लोभ तथा असत्य बुद्धि
वाली स्त्रियां कभी भी विश्वास के योग्य नहीं होती ॥ ४८ ॥
न च ता विश्वसेत्क्वापि विश्वस्तान्
घ्नन्त्यसंशयम् ।
अल्पार्थे बह्वनर्थेषु
प्रवर्त्तन्ते दुराशयाः ।। ४९ ।
उन पर कभी भी साधक विश्वास न करे।
यदि कभी विश्वास करता है तो वे निश्चय ही मार डालती हैं। ये दुष्ट बुद्धि
स्त्रियाँ अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए बहुत अनर्थ में भी प्रवृत्त हो जाती हैं
।। ४९ ।।
न विद्वान् स्त्रीवश गच्छेद् वशं
प्राप्तो विनश्यति ।
इत्याकलय्य हृदये जानकीं प्राह स प्रभुः
॥ ५० ॥
अतः विद्वान् पुरुष को चाहिए कि कभी
भी वह स्त्री के वश में न आवे । यदि उसके वशीभूत हो जाते हैं तो निःसन्देह नष्ट हो
जाते हैं। यह सब हृदय में विचार कर प्रभु ने उन जानकी से कहा ॥ ५० ॥
राम उवाच -
किमेतत्साधुचरि विनिन्दितमचीकरः ।
नास्माकमुचितं कर्म यत्कुमार
विहिंसनम् ।। ५१ ।।
विनयाचारशालिनः तपोविद्याधियो ।
न चैते शापमर्हन्ति यदि धनन्त्यपि
सुन्दरि ।। ५२ ।।
राम ने कहा- हे सुन्दरि ! कहाँ यह
साधुओं का चरित और कहाँ यह आप द्वारा किया या विनिन्दित कार्य ?
यह हम लोगों के लिए उचित नहीं है कि इन अग्नि कुमारों की हिंसा की
जाय। तप एवं विद्या की बुद्धि वाले विनय एवं आचार से युक्त साधुजन यदि हनन करें तो
भी ये शाप के योग्य नहीं हैं ।। ५१-५२ ।।
यथार्थवादिनां पुंसां त्वा वाचो
यथार्थकाः ।
'कुप्यन्ति ये
मूढधियो न तेषां निष्कृतिः क्वचित् ॥ ५३ ॥
यथार्थवादी जनों के यथार्थ वचनों को
सुनकर जो मूर्ख जन क्रोधित होते हैं उनकी निष्कृति कहीं भी नहीं होती ।। ५३ ।
सीते यथार्थमुक्त तेर्मामुद्दिश्य
दयालुभिः ।
तेष्वमर्षः कथ जात ईदृशो दर्शनः ॥
५४ ॥
हे सीते ! उन दयालु साधुओं द्वारा
मेरे उद्देश्य से यथार्थ बात कही गई है। अतः इस प्रकार का अनर्थकारी क्रोध उन पर
कैसे हुआ ? ।। ५४ ।।
यदि स्वल्पोपराधोऽपि तस्मिन् दण्डो
महान् घृतः ।
न चैतदुचितं चण्डि क्षत्रियाणां
दयावताम् ।। ५५ ।।
यदि उनका थोड़ा अपराध है भी तो आपने
महान दण्ड उन्हें दे दिया है । अतः हे चण्डि ! हम दयालु क्षत्रियों के लिए यह (
शाप देना) उचित नहीं है ।। ५५ ।।
वनचराणामस्माकं मुन्याश्रमवासिनाम्
।
साध्वीत्थमुक्ता रामेण लज्जया
नम्रकन्धरा ॥ ५६ ॥
बद्धहस्ताञ्जलिः प्राह भर्तृ
वाक्यविबोधिता ।
ये हमारे वनेचर तथा आश्रमवासी मुनि
हैं। ये साधु हैं ऐसा राम के कहने पर कन्धे को झुकाए हुए लज्जा से नम्र जानकी अपने
पति के समझाने से प्रबुद्ध होकर हाथ जोड़कर बोलीं ॥ ५६ ॥
सीतोवाच-
अपराधो महान् देव कृतो मे नात्र
संशयः ॥ ५७ ॥
अदण्डेष्वप्यपापेषु यन्मया ह्य
दुद्यमः कृतः ।
अपि मे दुर्नय देव क्षमस्व त्वं
दयानिधे ॥ ५८ ॥
तेष्वनुग्रहमाधस्त्व साधुष्वपि
तपस्विषु ।
सीता ने कहा- हे देव ! निःसन्देह
हमने महान् अपराध किया है। जो साधु दण्ड के योग्य नहीं हैं और जो पापात्मा नहीं
हैं उन्हीं को हमने दण्ड देना चाहा। अतः हे देव ! निःसन्देह यह मेरा अपराध है,
हे दयानिधि ! आप हमें क्षमा कर दें और उन साधु तपस्वियों पर अनुग्रह
करें ।। ५६-५९ ।।
राम उवाच -
न करिष्याम्यहं भद्रे
कुमाराणामनुग्रहम् ॥ ५९ ॥
मया त्वनुग्रहीतानां मुक्तिः
स्याज्जलवज्जले ।
वेदवेदान्तमङ्गीतः परमात्मा परः
प्रभुः ।
करोत्वनुग्रहं तेषामनुभूतिर्यथा
भवेत् ॥ ६० ॥
राम ने कहा- हे कल्याण करने वाली !
हम कुमारों पर अनुग्रह नहीं करेंगे। क्योंकि मेरे अनुग्रह से तो ये उसी प्रकार
मुक्त होकर सायुज्य को प्राप्त करेंगे जैसे जल में जल मिल जाता है । अतः
वेद-वेदान्त एवं संगीत रूप परमात्मा परात्पर प्रभु इस पर ऐसा अनुग्रह करें कि
इन्हें मुक्ति के समान अनुभूति हो जाय ।। ५९-६० ।।
तस्मादिमे लिङ्गदेहमात्रशेषाः
सुलोचने ।
मयि स्थास्यन्ति सततं
कालाविर्भावहेतवे । ६१ ।।
इसलिए,
हे सुन्दर नेत्रों वाली! अब इनका मात्र लिङ्ग शरीर ही शेष रह जायेगा
। अतः ये मेरे में समय पर अविभूत होने के लिए सदैव स्थित रहेंगे ॥ ६१ ॥
रामे च भगवत्येते विलीनास्ते ततः
परम् ।
वसुदेवगृहे साक्षादवतीर्णे हरी
स्वयम् । ६२ ।।
तेवतीर्णा व्रजभूवि तद्देहस्थाः
कुमारका ।
पूतनायां स्थिताः सर्वे तया
व्यापादिता इति ।। ६३ ।।
तत्प्राणैरपिबद् बालान् दक्षिणां
गव्यवस्थितान् ।
वामांगभूताः सकलाः गोडदेशेऽभवन्
स्त्रियः ।। ६४ ।।
कुमारी रानयामास परचक्रं जिघांसता ।
निरुद्धा राजधर्मेण
नन्दस्तद्देशमागतः ॥ ६५ ॥
इतना ही कहने पर भगवान् राम में वे
विलीन हो गए । वसुदेव के गृह में आज वहीं हरि स्वयं जब अवतीर्ण हुए तब कुमार भी जो
उनके ही देह में विलीन हो गये थे, व्रज भूमि पर प्रगट
हो गए। पूतना में स्थित वे सभी उसके द्वारा मार डाले गए हैं और उन्हीं बालकों के
प्राणों को उन्होंने पी लिया जो दक्षिणाङ्ग में स्थित थे और वामाङ्गभूत सभी
स्त्रियाँ गौड़ देश में पैदा हुई । दूसरों को मारने की इच्छा से वे ही कुमारी लाई
गई हैं। राजधर्म के द्वारा नन्द ने अपने देश में उन्हें रोक लिया ।। ६२-६५ ।।
इति ते कथित देवि यत्सृष्टोऽहं
सुलोचने ।
समासेन महेशानि किं भूयः
श्रोतुमिच्छसि । ६६ ।।
इस प्रकार हे देवि ! जो आपने पूछा,
उसे हमने आपसे कहा । अब हे सुन्दर नेत्रों वाली महेश की शक्ति! आप
और क्या सुनना चाहती हैं ? ।। ६६ ।।
इति श्री माहेश्वरतन्त्रे
उत्तरखण्डे शिवोमासंवादे दशमं पटलम् ॥१०॥
इस प्रकार श्रीनारदपाश्चरात्र आगमगत
'माहेश्वरतन्त्र' के उत्तरखण्ड (ज्ञान खण्ड) में माँ
जगदम्बा पार्वती और भगवान् शङ्कर के संवाद के दशवें पटल की डॉ० सुधाकर मालवीय कृत 'सरला' हिन्दी व्याख्या पूर्ण हुई ॥१०॥
आगे जारी........ माहेश्वरतन्त्र पटल 11
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