कामकलाकाली खण्ड पटल ७
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ७
में अग्निस्थापन, कामनाभेद से हवनीय
द्रव्य एवं काष्ठ का वर्णन उद्धृत है। नविधि का वर्णन कर एकद्रव्य और मिश्रद्रव्य
के होम का फल बतलाने के पश्चात् विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिये भिन्न-भिन्न
पुष्पों के हवन का वर्णन किया गया है। एवमेव अनेक प्रकार के फलों का पृथक्-पृथक्
हवन करने से तत्तत् पृथक् फल का लाभ होता है यह बतलाने के बाद इस पटल में नानाविध
अन्न की आहुति के नानाविध फल का वर्णन करने के पश्चात् रसों एवं विविध वस्तुओं की
आहुति का फल वर्णित है । इसी प्रकार होम के लिये प्रयोज्य विभिन्न समिधाओं के
विभिन्न फलों का वर्णन कर अनेक प्रकार के पशुओं के द्विजाति पुरुषों के तथा
पक्षियों के मांस की आहुति के फल की चर्चा की गयी है । इसके पश्चात् आहुतिनिर्माण
तथा काम्यकर्म के अनुरूप कुण्डनिर्माण का विस्तृत वर्णन किया गया है।
महाकालसंहिता कामकलाकाली खण्ड पटल ७
Mahakaal samhita kaam kalaa kaali khanda patal
7
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड: सप्तमः पटल:
महाकालसंहिता कामकलाखण्ड सप्तम पटल
महाकालसंहिता कामकलाकालीखण्ड सातवाँ पटल
महाकालसंहिता
कामकलाखण्ड:
(कामकलाकालीखण्ड :)
सप्तमः पटल:
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
अवतरणम्
देव्युवाच-
कर्त्तव्यं केन रूपेण स्थापनं
जातवेदसः ।
देवेश तन्मे कथय महाकाल जगत्पते ॥ १
॥
देवी ने कहा- हे जगत् के स्वामी! हे
महाकाल! हे देवेश ! अग्नि की स्थापना किस प्रकार की जाती है उसे मुझको बतलाइये ॥ १
॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
वह्निस्थापनविधिः
महाकाल उवाच-
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि वह्नेः
स्थापनमुत्तमम् ।
जायते सर्वथा येन साधकस्येप्सितं
वरम् ॥ २ ॥
पूर्वोत्तरप्लवं रम्यमादौ
मण्डलमाचरेत् ।
ततस्त्रिकोणं षट्कोणं नवकोणमथापि च
॥ ३ ॥
तत्तत्कार्यानुसारेण विदधीत
विचक्षणः ।
अग्निस्थापन विधि –
महाकाल ने कहा- हे देवि ! अग्नि की उत्तम स्थापन-विधि को मैं
बतलाऊँगा, सुनो। इस स्थापना के द्वारा साधक का श्रेष्ठ
ईप्सित सिद्ध हो जाता है। सबसे पहले पूर्व और उत्तर की ओर ढालू एक मण्डल बनाना
चाहिये। उसके बाद विद्वान् तत्तत् कार्य (अर्थात् लक्ष्य) के अनुसार (उस मण्डल के
ऊपर) त्रिकोण षट्कोण अथवा नवकोण बनाये ॥ २-४ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
कामनाभेदेनाहवनीयद्रव्यकाष्ठयोर्भेदाभिधानम्
वाञ्छाभेदाद् द्रव्यभेदाः काष्ठभेदाः भवन्ति हि
॥ ४ ॥
फलं फलानामन्यत् स्यादन्यदन्नस्य
पार्वति ।
तथान्यदेव
पुष्पाणामन्यदेवान्यवस्तुनः ॥ ५ ॥
अन्यामन्यां होमकर्मकामनां
मन्त्रविच्चरेत् ।
ध्यायन् देवीं चरेद्धोमं समिद्भिः
सर्पिषा सह ॥ ६ ॥
ततो जपं प्रकुर्वीत होमान्ते सर्वथा
प्रिये ।
ततः सजपहोमाद्धि जायन्ते
सर्वसिद्धयः ॥ ७ ॥
इच्छा के भेद से हवनीय द्रव्य और
काष्ठ के भेद-इच्छा के भेद से द्रव्य और काष्ठ भिन्न-भिन्न होते हैं। हे पार्वति !
फलों (के हवन) का फल दूसरा और अन्न (के हवन) का फल दूसरा होता है। इसी प्रकार
पुष्पों (की आहुति) का भिन्न और अन्य वस्तुओं (की आहुति) का फल भिन्न होता है।
मन्त्रवेत्ता को चाहिये कि वह होमकर्म की भिन्न-भिन्न कामना करे। देवी का ध्यान
करता हुआ वह समिधा और घी के साथ होम करे। हे प्रिये! सब प्रकार के होम के अन्त में
जप करना चाहिये। जप के सहित होम से समस्त सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ॥। ४-७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
होमविध्यभिधानम्
अथ होमविधिं वक्ष्ये (यः) शास्त्रे
विहितः सदा ।
यस्य सम्यग् विधानेन सर्वसिद्धिः
प्रजायते ॥ ८ ॥
पूर्ववन्मण्डलं कृत्वा कोणं चापि
यथाविधि ।
तत्राचरेच्छुचिर्भूत्वा स्थापनं
जातवेदसः ॥ ९ ॥
न्यासं कराङ्गयोः कृत्वा ध्यात्वा
देवीं हृदि स्थिताम् ।
मण्डले कोण ऐशान्यां होमकर्मारभेत
वै ॥ १० ॥
विधाय विधिवत्पूजां होमकर्मणि
मण्डले ।
अग्न आयाहि मन्त्रेण वह्नेरावाहनं
चरेत् ॥ ११ ॥
अग्नये रोचमानायेति मन्त्रैः
स्थापनं ततः ।
होमं पश्चात् प्रकुर्वीत समिद्भिः
कुसुमैरपि ॥ १२ ॥
फलैः पत्रैव्रीहिभिश्च तथान्यैरपि
वस्तुभिः ।
शतमष्टोत्तरं चापि सहस्त्रं चायुतं
तथा ॥ १३ ॥
लक्षं चापि प्रकर्त्तव्यं लक्षोपरि
न विद्यते ।
कामनागौरवादेव होमो गौरवमिच्छति ॥
१४ ॥
सर्वत्रैव तु होमान्ते जपं
कुर्यादनन्यधीः ।
होम - विधि- अब मैं तुमको उस होम
विधि को बतलाऊँगा जिसका सदा शास्त्रों में विधान है एवं जिसके सम्यक् विधान से
सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। (साधक) पूर्व की भाँति मण्डल और कोण की विधिवत् रचना
कर पवित्र हुआ उस पर अग्नि की स्थापना करे। हाथ और अङ्गों का न्यास कर हृदय में
स्थित देवी का ध्यान करे । तत: मण्डल और कोण के ऊपर ईशान दिशा में होमकर्म का
प्रारम्भ करे । होमकर्म में मण्डल में विधिवत् पूजन कर 'अग्न आयाहि'* मन्त्र से अग्नि का आवाहन करे
। इसके बाद 'अग्नये रोचमानाय* मन्त्र से स्थापन करे । तत्पश्चात् समित् के साथ
पुष्प फल पत्र धान तथा अन्य वस्तुओं के द्वारा भी एक सौ आठ,
एक हजार आठ अथवा दश हजार आठ बार हवन करे। एक लाख आठ बार भी हवन किया
जा सकता है किन्तु एक लाख के ऊपर नहीं । कामना की गुरुता के अनुसार होम की गुरुता
( = होम की अधिकता ) बतलायी गयी है । सब प्रकार के होम के अन्त में एकचित्त साधक
को जप करना चाहिये ।। ८-१५ ॥
* १. अग्न आयाहि वीतये गुणानो हव्यदातये ।
निहोता सत्सि बर्हिषि ।
ऋ. वे. ६।१६ १०
* २. द्रष्टव्य एवं तुलनीय अग्नये । आप.गृ.सू. ८।२२।७
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
होमे कथं फलवैविध्यमित्यभिधानम्
एकेन केवलेनैव द्रव्येणान्यत् फलं
भवेत् ॥ १५ ॥
अन्यदेव विमिश्रेण फलं देवि विधीयते
।
हे देवि! केवल एक ही वस्तु से हवन
करने का फल भिन्न होता है और कई द्रव्यों के मिश्रण से किये जाने वाले हवन का फल
अन्य होता है ॥ १५-१६ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
कुसुमाहुतिफलकथनम्
कुसुमानां फलं सर्वमादौ मत्तोऽवधारय
॥ १६ ॥
समिद्धृतमधून्मिश्रा
मालतीकुसुमाहुति: ।
बृहस्पतेरप्यधिका वागीशत्वप्रदायिका
॥ १७ ॥
वशगाः स्युर्महीपाला
जातीपुष्पैकहोमतः ।
मेधावृद्धिर्यूथिकाभिर्नृपत्वं
नागकेशरैः ॥ १८ ॥
माधवीभिर्महीलाभो हेमलाभश्च चम्पकैः
।
अतिमुक्तैर्बुद्धिवृद्धिर्मल्लिकाभिर्धनागमः॥
१९ ॥
कुन्दैः कीर्त्तिमवाप्नोति
बन्धूकैर्बान्धवप्रियः ।
जवापुष्पेण रिपवः सङ्ख्यं यान्ति
तत्क्षणात् ॥ २० ॥
पुष्पहोम का फल –
पहले मुझसे फूलों (के हवन) का फल जानो। समिध् घी मधु से मिश्रित
मालती के पुष्पों की आहुति बृहस्पति से भी अधिक वागीशत्व प्रदान करती है। जूही के
फूलों के होम से राजा लोग वश में होते हैं। नागकेशर के साथ यूथिका (= जूही ) (के
फूलों का हवन करने) से मेधावृद्धि एवं राजत्व प्राप्त होता है । माधवी (के फूलों
के होम) से पृथ्वीप्राप्ति, चम्पा के फूलों से स्वर्णलाभ,
अतिमुक्तक (= आम के वृक्ष से लिपटी हुई लता के फूलों) से बुद्धि की
वृद्धि, मल्लिका से धनागम और कुन्द से (होता) कीर्ति प्राप्त
करता है । बन्धूक से बन्धु बान्धवों का प्रिय होता है और जवापुष्प से शत्रु
तत्क्षण नष्ट हो जाते हैं ॥ १६-२० ॥
पद्वैरायुरवाप्नोति कुमुदैः कविता
भवेत् ।
कदम्बैर्व्याधिनाशः
स्यादम्लानैर्वृद्धिभाग्भवेत् ॥ २१ ॥
जयप्राप्तिर्मरुवकैर्जयलाभः कुरुण्टकैः
।
झिण्टीभिर्हयलाभः स्यान्नौलाभो
मुनिपुष्पकैः ॥ २२ ॥
तथापराजितापुष्पैर्भवेत्
सर्वाङ्गसुन्दरः ।
शेफालिकाप्रसूनेन सुतलाभः
प्रदिश्यते ॥ २३ ॥
शोकहानिरशोकेन वकुलैः कुलमान्यता ।
दूर्वया धनधान्यानि शाल्मल्या
शात्रवक्षयः ॥ २४ ॥
कमल के फूलों से (होता) आयु (की
वृद्धि) प्राप्त करता है; कुमुद के फूलों से कवि
हो जाता है । कदम्ब से व्याधि का नाश और अम्लान (= भटकटैया) से वृद्धि होती है ।
मरुबक ( =मयनफल) से जयप्राप्ति, कुरुण्टक (= पीली झिण्डी) से
जयलाभ, झिण्डी से घोड़ा और मुनिपुष्पक (= आम के फूल अर्थात्
बौर) से नौकालाभ होता है । अपराजिता के पुष्पों से (होता) सर्वाङ्गसुन्दर हो जाता
है । शेफालिका (म्यौड़ी या न्यौड़ी) से पुत्रलाभ कहा गया है। अशोक से शोक का नाश और
मौलसिरी से कुल में सम्मानलाभ होता है । दूर्वा से धन-धान्य और सेमर (के फूल) से
शत्रुनाश होता है।।२१-२४॥
द्रोणपुष्पेणार्थलाभो वकपुष्पैर्धनागमः
।
राज्यलाभश्च पुन्नागैः
कर्णिकारैर्बहून्नतिः॥ २५ ॥
दीर्घायुष्ट्वं पाटलेन तगरैः
सर्वमान्यता ।
पलाशकुसुमैर्होमो बहुगोऽजाविकारकः ॥
२६ ॥
शिरीषपुष्पैः प्रमदा जयन्त्या च
जयश्रियः ।
विद्वेषणं प्रमदा जयन्त्या च
जयश्रियः ।
विद्वेषणं चार्कपुष्पैद्धुत्तूरै
रिपुमारणम् ॥ २७ ॥
कोविदारैर्बलावाप्तिः
पारिजातैर्जयोच्छ्रयः ।
अन्येषामपि पुष्पाणामन्यदन्यत् फलं
भवेत् ॥ २८ ॥
द्रोणपुष्प से अर्थलाभ,
वकपुष्पों से धनागम, पुन्नाग (= नागकेशर) से
राज्यलाभ, कनेर से अधिक उन्नति, पाटल
से दीर्घायु, तगर से सर्वमान्यता मिलती हैं । पलाशपुष्प से
होम अधिक गाय बकरी - भेड़ दिलाता है । शिरीष पुष्प से प्रमदा, जयन्ती से जयलक्ष्मी, मदार के पुष्प से विद्वेषण,
धतूर से रिपुमारण, कोविदार( = कचनार) से बलप्राप्ति, पारिजात से जय और उन्नति मिलती है। इसी प्रकार अन्य पुष्पों (के होम) का
अन्य फल होता है ।। २५-२८ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
फलाहुतीनां फलाभिधानम्
फलहोमस्यापि फलं कथयामि वरानने ।
श्रीफलैः श्रीफलावाप्तिः
क्रमुकैर्भोगसञ्चयः ॥ २९ ॥
नागरङ्गेण सौन्दर्य पनसैः
कान्तिमान् भवेत् ।
वशित्वं नारिकेलेन जम्बीरैः
शत्रुसङ्खयः ॥ ३० ॥
आप्रेण राज्यलाभः स्यात् स्तम्भनं
जाम्बवैः फलैः ।
रम्भाफलेन देवेशि
सर्वसिद्धिरवाप्यते ॥ ३१ ॥
रिपूच्चाट: कपित्थेन वदर्य्या
बलवान् रणे ।
क्षीरीफलेन तनयो
द्राक्षाभिर्मोक्षमाप्नुयात् ॥ ३२ ॥
फलहोम का फल - हे वरानने! अब फलहोम
का फल बतला रहा हूँ। श्रीफल (= बेल) से लक्ष्मी की प्राप्ति क्रमुक (= तूत) से
भोगसञ्चय,
नागरङ्ग (= नारङ्गी) से सौन्दर्य मिलता है। कटहल से (होता)
कान्तिमान् होता है। नारियल से वशित्व और नीबू से शत्रुनाश होता है। आम से
राज्यलाभ, जामुन से स्तम्भन और केला से हे देवेशि!
सर्वसिद्धि प्राप्त होती है। कपित्थ (=कैथ) से शत्रु का उच्चाटन और बेर के फल से
युद्ध में बलवान् होता है। खिरनी से पुत्रलाभ और द्राक्षा (= मुनक्का या अंगूर) से
मोक्ष मिलता है ।। २९-३२ ॥
उदुम्बरेण धर्माप्तिर्वटेनापत्यपूर्णता
।
जातीफलस्य होमेन
वशीकुर्याज्जगत्त्रयम् ॥ ३३ ॥
कूष्माण्डैर्ग्रहशान्तिः स्याद्
वृद्धिर्द्धात्रीफलैस्तथा ।
बीजपूरेणार्थपूरो मारणं च विभीतकैः
॥ ३४ ॥
मोक्षः स्यादेव
रुद्राक्षैर्हरीतक्या (ह्य) घक्षतिः ।
लकुचैर्युवतिप्राप्तिस्तालैरुन्मादयेद्
रिपून् ॥ ३५ ॥
मधूकैर्महती लक्ष्मीः
करमर्दैर्बलोन्नतिः ।
अन्येषां च फलानां हि भूयांसि हि
फलानि च ॥ ३६ ॥
गूलर से धर्म प्राप्ति,
वट से सन्तानपूर्ति मिलती है। जायफल के होम से होता तीनो लोकों को
वश में कर लेता है। कूष्माण्ड से ग्रहशान्ति, आँवले से
वृद्धि, जम्भीरी नीबू से प्रभूत धन, बहेड़ा
से मारण होता है। रुद्राक्ष से मोक्ष, हर्रें से पापनाश,
लकुच (= बड़हर) युवति की प्राप्ति, ताल से
शत्रुओं को पागल बनाया जाता है। महुआ से अधिक लक्ष्मी और करमर्द (=करौना / करौंदा)
से बल की उन्नति मिलती है। अन्य फलों (के होम) के अन्य बहुत फल हैं । ३३-३६ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
अन्नाहुतिफलाभिधानम्
महदायुर्यवैहोंमे मुद्गैरन्नप्रपूर्णता
।
शालिभिस्तण्डुलैर्वापि
सम्पत्तिर्भूयसी भवेत् ॥ ३७ ॥
सर्वसिद्धिस्तिलैहोंमे माषैर्मासे
रिपुक्षयः ।
श्यामाकैस्तपसो लाभो नीवारैस्तेज
उत्तमम् ॥ ३८ ॥
सर्वाकृष्टिः कोद्रवेण
कुल्माषैरामयक्षयः ।
सिद्धार्थकैस्सर्षपैश्च सर्वसिद्धिः
करे स्थिता ॥ ३९ ॥
अन्नहोम का फल –यव से होम करने पर दीर्घायु, मूंग से अन्नपूर्णता,
धान या चावल से (होम करने पर) अधिक सम्पत्ति होती है। तिल के होम से
सर्वसिद्धि, उड़द (के होम) से एक मास में शत्रुनाश, साँवाँ से तपस्या का लाभ, नीवार (= तिन्नी) से उत्तम
तेज, कोदव से सर्वाकर्षण, कुल्माष
(=कुलथी) से रोगनाश, पीली सरसो और अन्य सरसों से सर्वसिद्धि
हस्तगत हो जाती है ।। ३७-३९ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
रसाहुतिफलम्
दुग्धेन नृपवश्यत्वं दध्ना
नृपसुतास्तथा ।
इक्षुभिश्च गुडैर्वापि वशीभूताः
स्त्रियोऽखिलाः ॥ ४० ॥
सर्वानवाज्यहोमेन वशीकुर्यान्न
संशयः ।
मधुना भोगभूयस्त्वं
शर्कराभिर्महोदयः ॥ ४१ ॥
रसहोम का फल –
दूध से नृपवश्यता, दही से राजपुत्रवश्यता,
ईख और गुड़ से समस्त स्त्री का वशीकरण होता है। घी के होम से होता
निःसन्देह सबको वश में कर लेता है । मधु से भोगाधिक्य और शर्करा से महा अभ्युदय
होता है॥४०-४१॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
विविधवस्त्वाहुतिफलकथनम्
राज्यावाप्तिः पट्टवस्त्रैः कर्पूरै
कीर्त्तिरुत्तमा ।
विद्याधरत्वं देवत्वं सिद्धत्वं
मृगनाभिना ॥ ४२ ॥
कुङ्कुमै रूपशालित्वं
चन्दनैर्वाग्मिता भवेत् ।
सिद्ध्यष्टकं चागुरुणा जयो रोचनया
भवेत् ॥ ४३ ॥
मुक्तया शिवसायुज्यं
माणिक्येनार्कपूः स्थितिः ।
वैदूर्य्यान्नागलोकाप्तिर्वत्रैर्वज्रिपुरे
स्थितिः ॥ ४४ ॥
इन्द्रनीलेन मणिना
गन्धर्वत्वमवाप्यते ।
गोमेदैः किन्नरत्वं च पुष्परागेण
यक्षता ॥ ४५ ॥
गारुत्मतैः प्रबालैश्च तथा मरकतेन च
।
सप्तद्वीपेश्वरत्वं हि जायते नात्र
संशयः ॥ ४६ ॥
कनकेन भवेत् कान्तिर्दुर्वर्णेन यशो
भवेत् ।
ताम्रेण भूमिलाभः स्याद्रीत्या हि
कलहे जयम् ॥ ४७ ॥
नागेन विषहानित्वं
लोहैर्मारणमादिशेत् ।
लाक्षारसमयो होमः सर्वापत्तिनिवारणः
॥ ४८ ॥
विविधवस्तु की आहुति का फल -
पट्टवस्त्र ( = रेशमी / रंगीन वस्त्र) से राज्यलाभ, कपूर से उत्तम कीर्ति, कस्तूरी से विद्याधरत्व
देवत्व और सिद्धत्व प्राप्त होता है । कुङ्कुम से रूपवत्ता और चन्दन से वाग्मिता
मिलती है। अगुरु से अष्टसिद्धि और गोरोचन से विजय प्राप्त होती है । मुक्ता से
शिवसायुज्य और माणिक्य से सूर्यलोक में स्थिति होती है । वैदूर्य से नागलोक की
प्राप्ति, हीरे से इन्द्रलोक में स्थिति होती है। नीलम से
गन्धर्वत्व प्राप्त होता है। गोमेद से किन्नरता और पुष्पराग से यक्षता मिलती है ।
गारुत्मत् (= पन्ना) मूँगा और मरकत से सात द्वीपों का स्वामित्व प्राप्त होता है ।
कनक से कान्ति और दुर्वर्ण (= चाँदी) से यश मिलता है । ताँबा से भूमिलाभ, रीति (= पीतल) से झगड़े में विजय मिलती हैं। नाग (शीशा) से विषहानि और
लोहा से मारण जानना चाहिये । लाक्षारस से किया गया होम सर्वापत्तिनिवारक होता है ॥
४२-४८ ॥
कज्जलैरपधृष्यत्वं सिन्दूरैर्मोहनं
भवेत् ।
बिल्वपत्रैर्नागवल्लीदलैर्लक्ष्मीरवाप्यते
॥ ४९ ॥
यावत्यः सिद्धयः सन्ति तावत्यः
पायसैर्भवेत् ।
अपूपैः शष्कुलीभिश्च
लक्ष्मीविद्याप्तिरेव च ॥ ५० ॥
कटुत्रयेण शत्रूणामुच्चाटनमुदीर्यते
।
लवणेन भवेद् द्वेषः
केशैर्मरणमादिशेत् ॥ ५१ ॥
रजस्वलानां नारीणामार्त्तवेन धनागमः
।
रेतसा स्तम्भनं देवि मोहनं
स्वमलैरपि ॥ ५२ ॥
स्वीयेनोद्वर्त्तनेनैव त्रैलोक्यं
वशमानयेत् ।
उलूककाकयोः पक्षैर्महद् विद्वेषणं
भवेत् ॥ ५३ ॥
कटुतैलस्य होमेन
वशीकुर्याज्जगत्त्रयम् ।
धाना लाजाश्च पक्वान्नमोदनं
सर्वकामदम् ॥ ५४ ॥
कृशरान्नैर्मोदकैश्च
सर्वसिद्धिर्भवत्यसौ ।
कज्जल से अपधर्ष,
सिन्दूर से मोहन, बिल्वपत्र और नागवल्ली
(=पान) के पत्ते से लक्ष्मी मिलती है। दूध से बने पदार्थ खीर आदि से जितनी
सिद्धियाँ हैं सब मिलती हैं। मालपुआ और पूड़ी से क्रमशः लक्ष्मी और विद्या का लाभ
होता है । त्रिकटु (=सोंठ, पीपर, मिर्च)
से शत्रुओं का उच्चाटन कहा जाता है। नमक से द्वेष और बालों (के होम) से मरण जानना
चाहिये । रजस्वला स्त्रियों के आर्तव से धनागम हे देवि! वीर्य से स्तम्भन तथा अपने
मल (= मूत्र, विष्ठा, थूक आदि) से
सम्मोहन होता है। अपने उद्वर्त्तन (उबटन के हवन) से साधक त्रैलोक्य को वश में कर
लेता है। उल्लू और कौवे के पङ्ख से महाविद्वेषण होता है। सरसो के तेल से हवन के
द्वारा (होता) तीनों लोक को वश में कर लेता है। धान, लावा
पकाया गया अन्न और चावल सर्वकामप्रद है । खिचड़ी और लड्डू से होता सर्वसिद्धि वाला
हो जाता है ।। ४९-५५ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
होमे समिधां भेदेन फलभेदाभिधानम्
कञ्चिद्विशेषं ते वक्ष्ये समिधां
देवि तच्छृणु ॥ ५५ ॥
पालाश्याः समिधः शुद्धाः प्रशस्ताः
सर्वकर्मणि ।
महद्धनाप्तिर्बिल्वेन खादिरेण नृपो
वशः ॥ ५६ ॥
वाटेन कामिनीप्राप्तिर्विद्याप्तिः
पैप्पलैन च ।
औदुम्बर्या च समिधा खेचरत्वं
प्रजायते ॥ ५७ ॥
सर्वज्ञत्वमपामार्गैरामलक्या महीपता
।
धुत्तरेणारिनिधनं मुनिवृक्षैः
स्थिरा मतिः ॥ ५८ ॥
शाखिभिर्यज्ञियैर्मेध्यैर्भिन्नं
भिन्नं फलं भवेत् ।
समिधा के भेद से फलभेद - हे देवि!
तुम्हें कुछ विशेष बतला रहा हूँ। इस विशेष के नाम पर समिधा को सुनो। पलाश की समिधा
शुद्ध और सब कार्यों में श्रेष्ठ मानी गयी है। बेल की समिधा से धनलाभ और खैर की
समिधा से राजा वश में होता हैं । बरगद की समिधा से कामिनी की प्राप्ति,
पीपल से विद्यालाभ एवं गूलर की समिधा से खेचरत्व प्राप्त होता है।
चिचिड़ा से सर्वज्ञता, आँवले से राजत्व, धतूर से शत्रु की मृत्यु, मुनिवृक्ष (= आम के वृक्ष)
से स्थिर बुद्धि मिलती है । यज्ञीय मेध्य भिन्न-भिन्न वृक्षों से भिन्न-भिन्न फल
मिलता है ।। ५५-५९ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
मांसाहुतिफलकथनम्
निशामयाथ देवेशि मांसहोमफलं महत् ॥
५९ ॥
छागमांसेनार्थलाभो विद्या मेषेण
लभ्यते ।
कृष्णसारस्य मांसेन भवेयुर्वशगा
नृपाः ॥ ६० ॥
रुरुमांसेन साज्येन कृत्वा होमं
वरानने ।
सर्वसिद्धिमवाप्नोति देवानामपि
दुर्लभाम् ॥ ६१ ॥
स्तम्भयत्यरिसैन्यानि माहिषं पललं
प्रिये ।
अतीतानागतज्ञानं वाराहेण च लभ्यते ॥
६२ ॥
शत्रुवाक्स्तम्भनं
कुर्यादार्क्षमांसाहुतिं चरेत् ।
कापेयपललेनैव रणेऽधृष्यः प्रजायते ॥
६३ ॥
खाड्गेनाभेद्यकवचो भूत्वा भ्रमति
मेदिनीम् ।
गोधामांसस्य होमेन निधिं पश्यति
भूतले ॥ ६४ ॥
सामान्यमृगमांसेन वायुतुल्यबलो
भवेत् ।
राङ्कवामिषहोमेन वशे
स्युर्नृपयोषितः ॥ ६५ ॥
मांसहोम का फल - हे देवेशि ! अब
मांस- होम के फल को सुनो। छाग के मांस (के होम) से धनलाभ,
भेंड़ से विद्यालाभ एवं कृष्णसार के मांस से राजा वश में होते हैं ।
हे वरानने! घी से उपलिप्त रुरु मृग के मांस से होम कर (होता) देवदुर्लभ सर्वसिद्धि
को प्राप्त करता है। हे प्रिये! भैंसा के मांस से शत्रुसैन्य को स्तम्भित कर देता
है। वाराह से अतीत और अनागत का ज्ञान होता है। यदि भालू के मांस की आहुति दे (तो
साधक) शत्रुवाक् का स्तम्भन कर देता है । बन्दर के मांस से (होता) युद्धक्षेत्र
में अपराजेय होता है। गैंडा के मांसहोम से पृथिवी पर अभेद्य कवच वाला होकर घूमता
है। गोह मांस के होम से धरती के अन्दर खजाने को देख लेता है । साधारण मृग के मांस
से साधक वायुतुल्य बल वाला हो जाता है। राङ्कव (=कृष्णसार के) मांस से राजरानियाँ
वश में होती हैं । ५९-६५ ॥
शल्लकीपललाहुत्या कविः कविसमो भवेत्
।
गावयामिषहोमेन दीर्घमायुरवाप्यते ॥
६६ ॥
गोमांसं मधुनालोड्य वामहस्तेन
होमयेत् ।
अपि देवा वशं यान्ति किं पुनः
क्षुद्रमानुषाः ॥ ६७ ॥
शाशेनादृश्यतां गच्छेत्
कच्छपेनाप्नुयाद्धनम् ।
नाक्रमांसस्य होमेन विषं न लगति
क्वचित् ॥ ६८ ॥
नाकुलं पललं हुत्वा
वाक्सिद्धिर्भवति क्षणात् ।
मार्जारमांसहोमेन कुबेरसदृशो भवेत्
॥ ६९ ॥
सिंहमांसस्य होमेन साक्षाद्
विद्याधरो भवेत् ।
राज्यावाप्तिर्व्याघ्रमांसहोमेन
भवति ध्रुवम् ॥ ७०॥
तुरगामिषहोमेन सर्वपृथ्वीपतिर्भवेत्
।
दुःस्वप्नहानिरौष्ट्रेन हस्तिमांसैर्महीपतिः
॥ ७१ ॥
साही के मांस की आहुति से (होता)
शुक्राचार्य के समान कवि होता है । नीलगाय के होम से दीर्घायु मिलती है। गाय का
मांस मधु में मिलाकर बायें हाथ से होम करे तो देवता भी वश में हो जाते हैं क्षुद्र
मनुष्यों की क्या बात । खरगोश (के मांस) से अदृश्यता और कच्छपमांस (के होम) से
धनप्राप्ति होती है। नक्रमांस के होम से कहीं भी कभी भी विष का प्रभाव नहीं होता।
नेवले के मांस का होम कर एक क्षण में वाकसिद्धि होती है। बिल्ली के मांस के होम से
(होता) कुबेर के समान (धनवान्) हो जाता है। सिंहमांस के होम से विद्याधर और
व्याघ्रमांस के होम से राज्यलाभ होता है । घोड़ा के मांसहोम से समस्त पृथिवी का
राजा होता है। ऊँट के मांस से दुःस्वप्न का नाश और हाथी के मांस से महीपति होता है
॥ ६६-७१ ॥
गोमायुमांसहोमेन धनदेन समो भवेत् ।
विवादे जयलाभः स्याद् राज्यलाभोऽपि
जायते ॥ ७२ ॥
स्तम्भयत्यरिसैन्यं च स्त्रीणां
प्रियतमो भवेत् ।
अपि सर्वे महीपालास्तस्य दासा न
संशयः ॥ ७३ ॥
महामांसस्य होमेन किं तद् यन्न फलं
भवेत् ।
गुरुणा सदृशी विद्या कुबेरादधिकं
धनम् ॥ ७४ ॥
ब्रह्मणोऽप्यधिकं दीर्घमायुरस्य तु
निश्चितम् ।
ऐश्वर्ये शक्रसदृशः कान्त्या चन्द्र
इवापरः ॥ ७५ ॥
तेजसा रवितुल्योऽयं
दुःस्पृश्योऽप्यग्निना सह ।
क्रोधे यमेन सदृशः सर्वसिद्ध्याकरो
भवेत् ॥ ७६ ॥
वचसा बहुना किं स्यादेतदेवावधारय ।
स देवीपुत्र एव स्यात् सिद्धादीनां
तु का कथा ॥ ७७ ॥
शृगाल के मांस का होम करने से कुबेर
के समान (धनवान्) हो जाता है। साथ ही मुकदमे में जीत से राज्यलाभ होता है। (यह
होता ) शत्रुओं को स्तम्भित करता और स्त्रियों का प्रियतम होता है। समस्त राजा लोग
उसके दास हो जाते हैं। इसमें सन्देह नहीं है । महामांस (मुर्दा का मांस) के होम से
ऐसा कौन सा फल है जो नहीं प्राप्त होता । बृहस्पति के समान विद्या,
कुबेर से अधिक धन, ब्रह्मा से अधिक इसकी आयु निश्चित
रूप से होती है। ऐश्वर्य में वह इन्द्र के समान, कान्ति में
दूसरे चन्द्रमा के समान, तेज सूर्यसदृश, अग्नि के समान दुःस्पृश्य, क्रोध में यम के समान तथा
समस्त सिद्धियों का आकर हो जाता है । बहुत कहने से क्या लाभ यही समझ लो वह
देवीपुत्र ही हो जाता है सिद्ध आदि होने की क्या बात ॥ ७२-७७ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
द्विजातेर्नरमांसहोमेऽनधिकारः
किं तु न स्याद् द्विजातीनामेष
धर्मो वरानने ।
नृपस्य वाथ शूद्रस्य भवेत्तत्रापि
पाक्षिकः ॥ ७८ ॥
न तद्वधाद्भवेन्मांसं वधो वै
घोरपापकृत् ।
घोरपापान्न सिद्धिः स्यादिति
बुद्ध्या समाचरेत् ॥ ७९ ॥
नरमांस के होम में द्विजातियों का
अधिकार नहीं-हे वरानने! किन्तु यह धर्म द्विजातियों (ब्राह्मण और वैश्य) के लिये
नहीं है। क्षत्रिय (राजा) अथवा शूद्र का ही उसमें (नरमांस होम में) अधिकार है।
उसमें भी ( वह अधिकार) पाक्षिक है। (अर्थात् वे नरमांस का होम कर भी सकते हैं और
नहीं भी । उसके बदले अनुकल्प का प्रयोग कर सकते हैं) । उस (= राजा अथवा शूद्र) के
वध से मांस (हवनीय) नहीं होता । प्रत्युत वह वध घोर पाप का कारण बनता है। घोर पाप
होने से सिद्धि नहीं मिलती इस बुद्धि से (होम का अनुष्ठान) करना चाहिये ।। ७८-७९
।।
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
पक्षिमांसहोमफलाभिधानम्
इदानीं पक्षिपललहोमजन्यं फलं शृणु ।
वार्धीनसामिषाहुत्या जायते
धर्मभाजनम् ॥ ८० ॥
कपोतमांसहोमेन रम्यां कन्यां लभेत
वै ।
भारद्वाजेन मांसेन मृतं सञ्जीवयेदसौ
॥ ८१ ॥
पारावतक्रव्यहोमात् कामिनीनां
प्रियो भवेत् ।
कौयष्टिकस्य मांसेन खेचरीसिद्धिभाग्भवेत्
॥ ८२ ॥
महद्वैरं जनयति उलूकपललाहुति: ।
साधको मद्गुहोमेन कामरूपः क्षणाद्
भवेत् ॥ ८३ ॥
जङ्गमाजङ्गमं
सर्वमाकर्षेच्छ्येनहोमतः ।
शातपत्रामिषैर्होमो राजानं
वशमानयेत् ॥ ८४ ॥
पक्षिमांस के होम का फल –
अब पक्षिमांस के होम से जन्य फल को सुनो । वानस (= गैंडा) के मांस
की आहुति से (होता) धर्म का पात्र बनता है । कबूतरमांस के होम से रमणीय कन्या
मिलती है । भारद्वाज (= भरदूल) के मांस से यह (हवन कर्त्ता ) मृत व्यक्ति को जीवित
कर देता है। पारावत के मांस के होम से (साधक) कामिनियों का प्रिय होता है।
कौयष्टिक (टिटिहरी) के मांस से (होता) खेचरीसिद्धि वाला हो जाता है। उल्लू के मांस
का हवन महावैर उत्पन्न करता है। मद्गु के होम से साधक एक क्षण में कामरूप हो जाता
है। बाज के होम से (होता) जङ्गम और स्थावर सबको आकृष्ट कर लेता है ।। ८०-८४ ।।
अदृश्यः स्यात् खञ्जरीटैर्देवतासुररक्षसाम्
।
धनावाप्तिः सुतावाप्तिर्वार्त्तकेन
न संशयः ॥ ८५ ॥
चाषेन देवलोकादिगमनं विदधाति वै ।
कारण्डवस्य मांसेन भवेज्जातिस्मरो
नरः ॥ ८६ ॥
उच्चाटनं मारणं च विद्वेषः
काकमांसतः ।
हातमांसहोमेन पर्वतानुद्धरेदपि ॥ ८७
॥
कुररक्रव्यहोमेन मूकानपि च वादयेत्
।
लावमांसस्य होमेन तेजस्वी
चाग्निमान् भवेत् ॥ ८८ ॥
पिकक्रव्याहुतिः कुर्यात् साधकं
किन्नरेश्वरम् ।
धत्ते सत्यं परपुरप्रवेशं
टिट्टिभाहुतिः ॥ ८९ ॥
कुक्कुटक्रव्यहोमोऽयं सद्यो
लक्ष्मीफलप्रदः ।
साधकस्याथ तनुते चकोरश्चिरजीविताम्
॥ ९० ॥
शातपत्र (= कठफोड़वा) के मांस के
होम से (साधक) राजा को वश में कर लेता है । खञ्जरीट (= खञ्जन,
के मांसहोम) से देवता असुर और राक्षसों का अदृश्य हो जाता है ।
बत्तक (के मांस) से निःसन्देह धनप्राप्ति और पुत्रलाभ होता है । चाष से देवलोक आदि
में गमन करता है। कारण्डव (पक्षी विशेष) के मांस (के होम) से मनुष्य पूर्वजन्मों
के स्मरण वाला हो जाता है। कौवे के मांस से उच्चाटन मारण और विद्वेषण होता है।
हारीतमांस के होम से (साधक) पर्वतों को उखाड़ लेता है। कुरर मांस के होम से (साधक)
मूक व्यक्ति को भी वाग्मी बना देता है। लवामांस के होम से (होता) तेजस्वी और
अग्निमान् होता है। कोकिलमांस की आहुति साधक को किन्नरों का स्वामी बना देती है ।
टिट्टिभमांस की आहुति सत्यतः परकाय प्रवेश कराती है। मुर्गे के मांस का होम सद्यः
लक्ष्मी देता है। चकोर का मांस साधक को चिरञ्जीवी बना देता है ।। ८५-९० ॥
कान्ताप्रियत्वं सौन्दर्यं करोति
चटकाहुति: ।
सारसो योगसिद्धिं च वितनोति वरानने
॥ ९१ ॥
कालिङ्गस्तनुते होम आरोग्यमपराजयम्
।
चक्रवाकेन बन्धूनां सर्वेषामीश्वरो
भवेत् ॥ ९२ ॥
कारठेन तु होमेन धनायुः कवितां
लभेत् ।
हांसेन मोक्षमाप्नोति
दात्यूहैरतिबुद्धिताम् ॥ ९३ ॥
तित्तिरैश्चिरजीवित्वं चातकैर्मोहनं
तथा ।
मायूरमांसहोमेन विमानाधिपतिर्भवेत्
॥ ९४ ॥
गार्घेण खड्गसिद्धिः स्याद् वकैः
सौभाग्यसौख्यभाक् ।
चैलेन धातुसिद्धिः स्यात्
क्रौञ्चैस्तरति दुर्गतिम् ॥ ९५ ॥
यावत्यः सिद्धयः सन्ति त्रिलोक्यां
वरवर्णिनि ।
तावतीर्लभते सद्यो होमं कीरामिषैश्चरन्
॥ ९६ ॥
गौरैया की आहुति (साधक के अन्दर )
कान्ताप्रियत्व और सौन्दर्य उत्पन्न करती है । हे वरानने! सारस (का मांस)
योगसिद्धि देता है। कलिङ्ग (=जिसके मस्तक पर शिखा रहती है उस पक्षी का होम आरोग्य
और विजय देता है। चक्रवाक के होम से समस्त बन्धुओं का स्वामी हो जाता है। कारट (=
कौवे के मांस) के होम से, (साधक) धन, आयु और कवित्व प्राप्त करता है। हंस के मांस से मोक्ष और दात्यूह (=काले
कौवे) के मांस से अतिबुद्धि प्राप्त होती है । तित्तिर से चिरञ्जीविता और पपीहा से
सम्मोहन प्राप्त होता है। मयूर के मांसहोम से विमान का स्वामी होता है । गृध्र के
मांस से खड्गसिद्धि, बगुले से सौभाग्य और सुख का भागी होता
है । चैल (= चील्ह) से धातुसिद्धि और क्रौञ्च से दुर्गतिनाश होता है । हे
वरवर्णिनि ! इस त्रिलोक में जितनी सिद्धियाँ हैं; शुक के
मांस से आहुति करने वाला उन सब सिद्धियों को प्राप्त करता है ।। ९१-९६ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
आहुतिनिर्माणप्रकाराभिधानम्
आज्येन वापि मधुना दध्ना वा पयसाथ
वा ।
आमिक्षयेक्षुदण्डेन तिलैः शर्करयापि
वा ॥ ९७ ॥
मिश्रितैराहुतिर्ब्राह्या केवला न
कदाचन ।
प्रसृतिर्मुख्यपक्षः स्यान्मध्यमोऽर्द्धमितो
भवेत् ॥ ९८ ॥
होमकर्मणि चैवात्र त्रिपर्व (प्र)
मितोऽधमः ।
आहुतिनिर्माणविधि—घी, मधु, दधि, दूध, छेना, ईख, तिल अथवा शक्कर से मिश्रित आहुति बनानी चाहिये । केवल (एक वस्तु की आहुति)
कभी भी नहीं होनी चाहिये । होमकर्म में (आहुति की मात्रा आदि) एक प्रसृति (=पसर)
हो तो उत्तम पक्ष है। आधा पसर मध्यम होता है। (ऊँगली के) तीन पर्व से परिमित आहुति
अधम होती है ॥ ९७ ९९ ॥
कामकलाकाली खण्ड पटल ७ -
काम्यकर्मानुरूपकुण्डनिर्माणाभिधानम्
चतुरस्त्रं भवेत् कुण्डं
शान्तिपुष्ट्यादिकर्मणि ॥ ९९ ॥
मारणोच्चाटने द्वेषवशीकारे
त्रिकोणकम् ।
स्तम्भने मोहने वापि वर्त्तुलं
कुण्डमाचरेत् ॥ १०० ॥
भुक्तिमुक्त्यैकसिद्ध्यर्थं दीर्घं
कुण्डं समाचरेत् ।
यथा यत् समये प्रोक्तं तत्र
कुर्यात्तथाविधिम् ॥ १०१ ॥
एष ते कथितो देवि होमक्रमविधिर्मया
।
काम्यकर्म के अनुरूप कुण्ड का
निर्माण - शान्ति-पुष्टि आदि (शुभ) कर्मों में कुण्ड को चौकोर होना चाहिये । मारण
उच्चाटन विद्वेषण और वशीकरण में त्रिकोण होना चाहिये । स्तम्भन अथवा सम्मोहन में
गोल कुण्ड बनाना चाहिये । भोग अथवा मोक्ष की सिद्धि के लिये लम्बा कुण्ड बनाना
चाहिये। जिस समय में जिस कुण्ड को जैसा कहा गया उस समय उसी प्रकार का कुण्ड बनाना
चाहिये। हे देवि ! यह मैंने तुमको होमक्रम की विधि बतलायी ॥ ९९-१०२ ॥
शेष भाग आगे जारी ........
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