क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७      

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७ में मृत्युञ्जयविधान, शिवयन्त्र, मृत्युञ्जयन्त्र, यन्त्रपूजाविधान, प्राणप्रतिष्ठा का वर्णन किया गया है।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७ - मृत्युञ्जययन्त्रम्

क्रियोड्डीश महातन्त्रराजः सप्तदश: पटलः

Kriyoddish mahatantraraj Patal 17

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७         

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज सप्तदश: पटलः

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज सत्रहवाँ पटल

क्रियोड्डीशमहातन्त्रराजः

अथ सप्तदश: पटलः

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७ - मृत्युञ्जयविधानम् 

श्रीदेव्युवाच

प्राणनाथ कृपासिन्धो ब्रूहि शास्त्रविशारद ।

मृत्युञ्जयस्य पूजायाः किं फलं किं विधानकम् ।। १ ।।

श्री देवी जी ने कहा- हे प्राणनाथ ! हे कृपासिन्धु ! हे शास्त्रविशारद ! मृत्युञ्जय के पूजा की विधि क्या है? उसका फल क्या है? इन सबका आप मुझसे वर्णन करें ॥ १ ॥

श्रीशिव उवाच

वक्तुं नाहं क्षमो गौरि त्वयि स्नेहात्प्रकाशितम् ।

मृत्युञ्जयविधानं तु न वक्तव्यं बहिर्मुखे ।।२।।

मुखे तु देवि ! वक्तव्यं यत्नतः प्राणवल्लभे ।

मृत्युञ्जयो महादेवः साक्षान्मृत्युहरः परः ।।३।।

विधानं तस्य संक्षेपाद्वक्तव्यं शृणु सुन्दरी ।

देवेशि रोगशान्त्यर्थं तस्य पूजाविधिर्यथा ।। ४ ।।

मृत्युञ्जयं समापूज्य लिङ्गं त्रिभुवनेश्वरम् ।

रोगार्तो मुच्यते रोगाद्वद्धो मुच्येत बन्धनात् ।। ५ ।।

यस्तु सम्पूजयेद्भक्त्या लिङ्गं मृत्युञ्जयाभिधम् ।

मोsपि प्रणमेद्भक्त्या किं करिष्यति पामरः ।। ६ ।।

श्री शिव ने कहा- हे गौरि ! यद्यपि मुझे इस प्रयोग को प्रकट करने की इच्छा नहीं है; फिर भी तुम्हारे स्नेहवश इसे कहता हूँ। मृत्युञ्जय विधान अन्य किसी भी पुरुष या साधक के प्रति प्रकट नहीं करना चाहिये। हे देवि ! हे प्राणवल्लभे ! श्रद्धावान व निष्ठवान साधक के प्रति ही इसे प्रकट करना चाहिये । मृत्युञ्जय महादेव साक्षात् मृत्यु का हरण करने वाले हैं। हे सुन्दरि ! मृत्युञ्जय शिव का विधान संक्षेप में वर्णन करता हूँ, श्रवण करो। हे देवेशि ! रोग की शान्ति हेतु त्रिभुवनेश्वर मृत्युञ्जय शिवलिङ्ग का पूजन करने से रोगी रोग से छूट जाता है, बन्दी बन्धन से मुक्त हो जाता है। जो व्यक्ति या साधक मृत्युञ्जय शिवलिङ्ग का पूजन करते हैं उनको यमराज भी भक्तिपूर्वक प्रणाम करते हैं; पामर मनुष्यों की तो बात ही क्या है ? ॥२-६॥

तस्य पूजाविधिं वक्ष्ये शृणु मत्प्राणवल्लभे ।

जातिभेदैर्मृत्तिकां तु गृहीत्वाऽशीतितोलकाम् ।।७।।

निर्माय पार्थिवं लिङ्गं कान्त्याधारे निवेशयेत् ।

पौराणिकेन मन्त्रेण कुर्याच्च पठनं बुधः ।। ८ ।।

स्नापयेत् पञ्चगव्येन प्रत्येकस्याष्टतोलकम् ।

स्वस्वमन्त्रैश्च प्रत्येकद्रव्येण स्नापयेत् सुधीः ।। ९ ।।

रोगक्षयेच्छया विद्वान्नामगोत्रादिपूर्वकम् ।

उपविश्यासने विप्रो धृत्वा धौतं च वाससम् ।। १० ।।

रुद्राक्षमालां कण्ठे वै धृत्वा भस्मत्रिपुण्ड्रकम् ।

उपचाराः षोडशं तु देया भक्त्या प्रयत्नतः ।। ११ ।।

सुवर्णस्यासनं देयं तथैवाभरणानि च ।

वस्त्रयुग्मं प्रदद्यात्तु परिधेयं यथा भवेत् ।। १२ ।।

हे प्राणवल्लभे! अब पूजाविधि का श्रवण करो। जातिभेद से अस्सी तोले की मिट्टी का पार्थिव शिवलिङ्ग बनाकर उसे कांच के पात्र में स्थापित कर बुद्धिमान साधक पौराणिक मन्त्रों के द्वारा उसका पूजन करे। प्रत्येक को आठ तोले के पञ्चगव्य से स्नान कराये। अपने-अपने मन्त्र के द्वारा पृथक-पृथक् द्रव्य से स्नान कराये। रोगनाश की इच्छा हेतु नाम व गोत्र का उच्चारण कर स्नान कराये। विप्र आसन पर आसीन होकर एवं धुले हुये वस्त्र धारण कर गले में रुद्राक्ष की माला धारण कर भस्म का त्रिपुण्ड्र लगाकर भक्तिपूर्वक षोडशोपचार विधि से पूजन करके स्वर्णनिर्मित आसन प्रदान करे एवं वस्त्रादि तथा आभूषण भी प्रदान करे ।। ७-१२॥

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७ - शिवयन्त्रम्

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७ - शिवयन्त्रम्

षट्कोणमण्डलं कृत्वा तदन्ते साध्यनामकम् ।

प्रासादबीजं हौं संलिख्य यतः षट्कोणेषु प्रणवसहितपञ्चाक्षरवर्णान- षडङ्गमन्त्रांश्च विलिख्य तद्बहिः पञ्चदलानि विरच्य तद्दले ॐ ईशानाय नमः । ॐ तत्पुरुषाय नमः । ॐ अघोराय नमः । ॐ सद्योजाताय नमः । ॐ वामदेवाय नमः । इति पञ्चमन्त्रान् प्रागादिक्रमेण लिखेत् । तद्बहिरष्टदलानि रचयित्वा तद्दलेषु मातृकावर्णान् लिखेत् । तद्बहिर्वृत्तं त्र्यम्बकेण वेष्टयेत् । एतद्यन्त्र जपहोमादिना सम्पूज्य धारयेत् । आयुरारोग्यैश्वर्यादिसिद्धिर्भवति ।

सर्वप्रथम षट्कोण बनाकर उसके मध्य में साध्य व्यक्ति का नाम लिखे तथा प्रासादबीज 'हौं' लिखकर षट्कोणों में प्रणवयुक्त पंचाक्षर मन्त्रवर्णों को लिखे तथा षडङ्गमन्त्रों को भी लिखे। उसके बाह्य भाग में पञ्चदल निर्मित कर उसमें ॐ ईशानाय नमः, ॐ तत्पुरुषाय नमः, ॐ अघोराय नम, ॐ सद्योजाताय नमः, ॐ वामदेवाय नमः इन पाँच मन्त्रों को प्रागादि क्रम से लिखे। उस यन्त्र के बाहरी भाग में अष्टदल निर्मित कर उन दलों में मातृका वर्णों को लिखे। अष्टदल के बाहरी भाग को त्र्यम्बक मन्त्र से वेष्टित करे। इस यन्त्र को जप- होम आदि से पूजन करने के पश्चात् धारण करे तो आयु, आरोग्य, ऐश्वर्य आदि की वृद्धि होती है।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७ - मृत्युञ्जययन्त्रम्

अथवा शृणु देवेशि यन्त्रं सर्वसुसिद्धिदम् ।। १३ ।।

मध्ये साध्याक्षराढ्यं ध्रुवमभिविलिखेन्मध्यमं दिग्दलेषु

कोणेष्वन्तं मनोस्तत् क्षितिभुवनमयो दिक्षु चन्द्रं विदिक्षु ।

ढान्तं यन्त्रं तदुक्तं सकलभयहरं क्ष्वेडभूतापमृत्यु-

व्याधिव्यामोहदुःखप्रशमनमुदितं श्रीपदं कीर्तिदायि ।। १४ ।।

हे देवि! अब सर्वसिद्धिप्रदायक मृत्युञ्जय यन्त्र का श्रवण करो। इसके धारण करने से अकालमृत्यु, व्याधि, दुःख, मोह आदि का नाश होकर श्री एवं कीर्ति की प्राप्ति होती है। (यन्त्रनिर्माण की विधि मूल में लिखी है। ) ।। १३-१४ ॥

मधुपर्क कांस्यपात्रे दद्याद्भोजनयुग्मकम् ।

बिल्वपत्रसहस्रन्तु भग्नं विनिवेदयेत् ।। १५ ।।

एवं संपूज्य लिङ्गैकं द्विसहस्रं मनुं जपेत् ।

समिद्धिस्तु गुडूच्यास्तु तत्र होमं समाचरेत् ।। १६ ।।

दक्षिणां ब्राह्मणे देवि सुवर्णं वस्त्रकं तथा ।

तदर्थं वा तदर्थं वा यथाविभवमानतः । । १७ । ।

अंगहीना न कर्त्तव्या पूजा चाफलदा यतः ।

एकलिङ्गं समाराध्य फलं स्यादन्यके युगे ।। १८ ।।

तत्फलं लभते देवि कलौ संख्या चतुर्गुणा ।

आम्रपात्रे तु संस्थाप्य जलं चाशीतितोलकम् ।। १९ ।।

तज्जलेनैव देवेशि कुलैः सम्मार्ज्य रोगिणम् ।

क्षिपेद्दीपशिखायां च मन्त्रमुच्चार्य मानकम् ।। २० ।।

एवं विधिविधानेन पूजयेन्मम लिङ्गकम् ।

यादृग्यादृग् भवेद्रोगो नाशमेति मयोदितम् । । २१ । ।

साङ्गेन पूजयित्वा तु लभते वाञ्छितं फलम् ।

अङ्गव्यतिक्रमेणैव वृथा भवति वासना ।। २२ ।।

रोगी प्रमुच्यते सद्यो भोगीवोज्झितकञ्चकः ।

यदि मद्वचने भक्तिस्तदा मुक्तो भवेद्ध्रुवम् ।। २३ ।।

अन्यथा यदि देवेशि सर्वं भवति निष्फलम् ।। २४ ।।

मधु एवं भोजन कांस्य के पात्र में प्रदान करे। टूटे-फूटे एवं छिद्र जिस बेलपत्र में न हों, उनको एक हजार की संख्या में प्रदान करे। इस प्रकार लिंग का पूजन कर दो हजार मन्त्र का जप करे। गिलोय के जड़ की समिधाओं से हवन करे। हे देवि! स्वर्ण एवं वस्त्र ब्राह्मणों को प्रदान करे तथा शुभ दक्षिणा, यथाशक्ति आधा अथवा आधे का आधा, जितना भी हो सके- भक्तिपूर्वक प्रदान करे। अंगहीन पूजादि कर्म न करे; क्योंकि इससे प्रयोग विफल हो जाता है। एकलिङ्ग का पूजन करने से अन्य युगों में भी फल प्राप्त होता है। हे देवि ! कलियुग में तन्त्रशास्त्र के अनुसार चार गुना अधिक जपादि कर्म करे तो फल प्राप्त होता है। आम्र पात्र में अस्सी तोले जल भर कर हे देवि ! रोगी का कुशाओं से मार्जन करे। इस विधि के अनुसार शिवलिंग का पूजन करने से समस्त रोग शीघ्र ही विनष्ट हो जाते हैं। सांगोपाङ्ग पूजन से वांछित फल की प्राप्ति होती है। अंग के व्यतिक्रमण से सारी वासना निरर्थक हो जाती है, रोगी रोग से एवं भोगी समस्त दोषों से मुक्त हो जाता है। हे देवि! जिन साधकों को मेरे वचनों पर भक्ति एवं विश्वास है, वे निश्चित रूप से मुक्त हो जाते हैं। अन्यथा समस्त ज्ञान एवं क्रियायें निष्फल हो जाती हैं ।। १५- २४ ॥

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७ - यन्त्रपूजाविधानम्

अतः परं देवि! शृणु यन्त्रपूजाविधानकम् ।

कृतनित्यक्रियो देवि! स्वस्तिवाचनपूर्वकम् ।

संकल्पं च ततः कुर्याद्विधिवाक्यानुसारतः ।। २५।।

अद्येत्यादि अमुकगोत्र : श्रीपूर्वकदेवशर्मा यन्त्राधिष्ठित ।

देवतायाः पूजार्थंमुकमन्त्रसंस्कारमहं करिष्ये ।

इति संकल्प्य महादेवि ! गुरोरर्चनमाचरेत् ।

पञ्चगव्यं ततः कृत्वा शिवमन्त्रेण मन्त्रितम् ।। २६ ।।

तत्र चक्रं क्षिपेन्मन्त्री प्रणवेन समाकुलम् ।

तदुद्धृत्य ततश्चक्रं स्थापयेत्स्वर्णपात्रके ।। २७।।

पञ्चामृतेन दुग्धेन कस्तूरीकुङ्कुमेन च ।

पयोदधिघृत क्षौद्रशर्कराद्यौरनुक्रमात् ।।२८।।

तोयधूपान्तरैः कुर्यात् पञ्चामृतमनुत्तमम् ।

अष्टाभिः कलशैर्देवीमष्टाभिर्वारिपूरितैः ।। २९ ।।

कषायजलसम्पन्नैः कारयेत् स्नानमुत्तमम् ।

स्नानं समाप्य तां देवीं स्थापयेत् स्वर्णपीठके ।। ३० ।।

हे देवि! अब इसके उपरान्त यन्त्रपूजा का विधान श्रवण करो। हे देवि ! स्वस्तिवाचन करके नित्यक्रियादि से निवृत्त होकर विधि के अनुसार संकल्प करे। इस प्रकार संकल्प करके हे महादेवि ! गुरुपूजन करे, तदुपरान्त पञ्चगव्य का निर्माण कर उसे शिवमन्त्र से अभिमन्त्रित कर प्रणवयुक्त चक्र निर्मित करके उसे स्वर्णपात्र में स्थापित करे। पञ्चामृत, दुग्ध, कस्तूरी, कुङ्कुम, दूध, दधि (दही), घृत (घी), मधु (शहद), शर्करा इत्यादि से क्रम के अनुसार यन्त्र को स्नान कराये एवं धूप, दीप आदि प्रदान करे। आठ प्रकार के जलों से पूर्ण आठ कलशों में सभी औषधि आदि सुगन्धित पदार्थ मिश्रित कर उस जल से स्नान कराये एवं स्नान के पश्चात् देवता को स्वर्णपीठ पर स्थापित करे ।। २५-३० ।।

गायत्री यथा - यन्त्रराजाय विद्महे महामन्त्राय धीमहि तन्नो यन्त्रः प्रचोदयात् ।

स्पृष्ट्वा यन्त्रं कुशाग्रेण गायत्र्या चाभिमन्त्रयेत् ।

अष्टोत्तरशतं देवि देवताभावसिद्धये ।। ३१ ।।

आत्मशुद्धिं ततः कृत्वा षडङ्गैर्देवतां यजेत् ।

तत्रावाह्य महादेवि ! जीवन्यासञ्च कारयेत् ।। ३२ ।।

तत्पश्चात् यंत्रराजाय विद्महे महामन्त्राय धीमहि तन्नो यन्त्रः प्रचोदयात्- इस गायत्री मन्त्र का उच्चारण कर यन्त्र को कुश के अग्रभाग से अभिमन्त्रित करे हे देवि ! देवताभाव की सिद्धि हेतु मन्त्र का एक सौ आठ बार जप करे आत्मशुद्धि कर षडंग द्वारा देवता का पूजन करे। हे महादेवि ! यन्त्र में देवता क आवाहन कर जीवन्यास अर्थात् प्राणप्रतिष्ठा करे। ३१-३२ ॥

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७ - प्राणप्रतिष्ठा

अस्य प्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा ऋषयः । ऋग्यजुः सामानि च्छन्दांसि चैतन्यं देवता, प्राणप्रतिष्ठायां विनियोगः ।

उपचारै: षोडशभिर्महामुद्रादिभिस्तथा ।

फलताम्बूलनैवेद्यैः शिवं तत्र समर्चयेत् ।। ३३ ।।

पट्टसूत्रादिकं दद्याद्वस्त्रालङ्कारमेव च ।

अगुरुं चामरं घण्टां यथायोग्यं महेश्वरि ।। ३४ । ।

सर्वमेतत्प्रयत्नेन दद्यादात्महिते रतः ।

ततो जपेत्सहस्रन्तु सकलेप्सितसिद्धये ।।३५।।

जपसमापनं कुर्यादष्टाङ्गेन नमस्कृतम् ।

अष्टोत्तरशतं हुत्वा सम्पाताज्यं विनिक्षिपेत् ।। ३६ ।।

होमकर्मण्यशक्तश्चेद्विगुणं जपमाचरेत् ।

गुरवे दक्षिणां दद्यात्ततो देवीं विसर्जयेत् ।। ३७।।

सर्वप्रथम मूल में लिखे अनुसार विनियोग करे। तदुपरान्त सोलह षोडश) उपचार एवं महामुद्रादि द्वारा पूजन करे। फल, ताम्बूल एवं नैवेद्य शिवजी को समर्पित करे। पट्टसूत्र (रेशमी वस्त्र ) तथा विभिन्न प्रकार के वस्त्र, आभूषण आदि से पूजन कर शिवजी को प्रसन्न कर आत्महित हेतु हे महेश्वरि ! उन्हें अगुरु, चामर घण्टा आदि यथाशक्ति प्रदान करे। तत्पश्चात् सकलसिद्धि हेतु सहस्र बार मन्त्र का जप करे। जप समाप्त होने पर अष्टांग नमस्कार करे। एक सौ आठ बार हवन करके अग्नि में घृत प्रदान करे। होमकर्म में अशक्त होने पर मन्त्र का दुगुना जप करे और अन्त में गुरु को दक्षिणा प्रदान कर देवता का विसर्जन करे।।३३-३७।।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल १७ - अस्य प्रयोगः

कृतनित्यक्रियः स्वस्तिवाचनपूर्वकं सङ्कल्पं कुर्यात् । अद्येत्यादि अमुकगोत्रः श्री अमुकदेवशर्मा अमुकदेवतापूजार्थममुकयन्त्र संस्कारमहं करिष्ये । ततः पञ्चगव्यमानीय 'हौं' इति मन्त्रेणाष्टोत्तरशतमभिमन्त्र्य प्रणवेन यन्त्रं तत्र क्षिपेत् । तत उत्थाप्य स्नापयेच्छीतलजलचन्दनगन्धकस्तूरी कुङ्कुमैः । स्नापयित्वा पञ्चगव्यमानीय 'हौ' इति मन्त्रेणाष्टोत्तरशतमभिमन्त्र्य प्रणवेन शोधयित्वा स्नापयेत् । तत्र क्रमः । प्रथमं क्षीरेण स्नापयित्वा धूपं दद्यात् । एवं दध्ना घृतेन मधुना शर्करया च। ततोऽष्टाभिः कलशैः स्नापयेत्। कुङ्कुमगोरोचनया चन्दनमिश्रितै- स्तोयैः स्नापयेत्। सर्वत्र स्नानं मूलमन्त्रेण ततो यन्त्रमुत्तोल्य कुशाग्रेण तत्स्पृष्ट्वा गायत्र्यष्टोत्तरशताभिमन्त्रितं कृत्वा प्राणप्रतिष्ठां कुर्यात् । अस्य प्राणप्रतिष्ठमन्त्रस्य ब्रह्मविष्णुमहेश्वरा ऋषयः ऋग्यजुः सामानि च्छन्दांसि चैतन्यं देवता प्राणप्रतिष्ठायां विनियोगः । तद्यथा - आं ह्रीं क्रौं यं रं लं वं शं षं सं हौं हंसः । अमुकदेवतायाः प्राणा इह प्राणाः । जीव इह स्थितः । सर्वेन्द्रियाणि वाङ्मन इत्यादि प्राणान् प्रतिष्ठाप्य तत्र प्रकृतिदेवतामावाह्य षोडशोपचारैः पञ्चोपचारैर्वा पूजयेत् । तत्र पट्टसूत्रादिकं दत्त्वा अष्टोत्तरशतं सहस्रं वा जपित्वा शक्तश्चेद्वलिं दद्यात् । ततोऽष्टोत्तरशतं होमं कुर्यात् । होमाभावे द्विगुणो जपः कार्यः । ततो दक्षिणां दत्त्वा छिद्रावधारणं कुर्यात् । ।

नित्य कर्म करके स्वस्तिवाचन कर संकल्प करे। तदुपरान्त पञ्चगव्य को 'हौं' इस मन्त्र से अभिमन्त्रित कर प्रणव के द्वारा यन्त्र का उसमें निक्षेप करे, तत्पश्चात् शीतल जल, चन्दन, गन्ध, कस्तूरी एवं कुङ्कुम के द्वारा स्नान कराये। तदुपरान्त हौं इस मन्त्र का उच्चारण कर प्रणव के द्वारा शोधन कर स्नान कराये। सर्वप्रथम दुग्ध से स्नान कराकर धूप प्रदान करे। पुनः इसी क्रम से दही, घी, मधु एवं शर्करा से स्नान करा कर आठ कलश के द्वारा स्नान कराये। कुंकुम, रोचन (गोरोचन) और चन्दनमिश्रित जल से स्नान कराये। सर्वप्रथम मूलमन्त्र से स्नान कराये, तदुपरान्त यन्त्र को उठाकर कुश के अग्रभाग से स्पर्श कर गायत्री मन्त्र से उसे अभिमन्त्रित कर प्राणप्रतिष्ठा करे। प्राणप्रतिष्ठा का विनियोग मूल में लिखा है। आं ह्रीं, क्रौं, यँ रँ लँ वँ शँ षँ सँ हौं हंसः, अमुकदेवतायाः प्राणा इह प्राणा, जीव इह स्थितः इत्यादि उच्चारण कर देवता का आवाहन कर पञ्चोपचार अथवा षोडशोपचार द्वारा पूजन करे तथा रेशमी वस्त्र आदि प्रदान कर एक सौ आठ बार अथवा एक हजार बार मन्त्र का जप करे। सामर्थ्य होने पर बलि प्रदान करे; तदुपरान्त एक सौ आठ बार हवन करे। होम के अभाव में दुगना जप करे । तत्पश्चात् दक्षिणा प्रदान कर छिद्रावधारण करे।

इति क्रियोड्डीशे महातन्त्रराजे देवीश्वर-संवादे सप्तदश: पटलः । । १७ । ।

क्रियोड्डीश महातन्त्रराज में गौरी-शंकरसंवादात्मक सत्रहवाँ पटल पूर्ण हुआ ।। १७ ।।

आगे जारी...... क्रियोड्डीश महातन्त्रराज पटल 18

About कर्मकाण्ड

This is a short description in the author block about the author. You edit it by entering text in the "Biographical Info" field in the user admin panel.

0 $type={blogger} :

Post a Comment