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- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 16
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड– अध्याय 15
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 14
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- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 07
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
अग्न्युत्तारण प्राण-प्रतिष्ठा
अग्न्युत्तारण प्राण-प्रतिष्ठा
अथ अग्न्युत्तारण प्राण-प्रतिष्ठा
सबसे पहले यजमान को अक्षत जल व
द्रव्य देकर प्राण-प्रतिष्ठा के लिए सकल्प करावें –
सकल्प –
शुभपुण्यतिथौ आसां. मूर्तीनां
निर्माणविधौ अग्निप्रतपनताडनावघातादिदोषपरिहारार्थं अग्न्युत्तारणपूर्वकं
प्राणप्रतिष्ठाङकरिष्ये ।
।। इत्युग्न्युत्तारणम् ॥
अब मूर्ति में घृत का लेपन कर
दुग्धयुक्त जलधारा प्रदान करें-
ॐ समुद्रस्य त्वाऽवकयाग्ने
परिव्ययामसि ।
पावको ऽअस्मभ्य ँ शिवो भव ॥१॥
ॐ हिमस्य त्वा जरायुणाग्ने परि
व्यायामसि ।
पावको ऽअस्मभ्य ँ शिवो भव ॥२॥
ॐ उप ज्मन्नुप वेतसेऽव तर नदीष्वा
।
अग्ने पित्तमपामसि मण्डूकि ताभिरा
गहि सेमन्नो यज्ञं पावकवर्ण ँशिवङकृधि ॥३॥
ॐ अपामिदन्न्ययन ँसमुद्रस्य
निवेशनम् ।
अन्याँस्ते अस्मत्तपन्तु हेतय:
पावको ऽ अस्मभ्य ँशिवो भव ॥४॥
ॐ अग्ने पावक रोचिषा मन्द्रया देव
जिव्हया ।
आ देवान्वक्षि यक्षि च ॥५॥
ॐ स न: पावक दीदिवोऽग्ने देवाँ २
ऽइहा वहा ।
उप यज्ञ ँहविश्च न: ॥६॥
ॐ पावकया यश्चितयन्त्या कृपा
क्षामन्रुरुच ऽउषसो न भानुना ।
तूर्वन्न यामन्नेतशस्य नू रण ऽआ यो
घृणे न ततृषाणो ऽअजर: ॥७॥
ॐ नमस्ते हरसे शोचिषे नमस्ते
ऽअस्त्वर्च्चिषे ।
अन्याँस्ते ऽअस्मत्तपन्तु हेतय:
पावको ऽअस्मभ्य ँशिवो भव ॥८॥
ॐ नृषदेवेडप्सुषदेवेड् बर्हिषदेवेड्
वनसदेवेट् स्वर्विदेवेट् ॥९॥
ॐ ये देवा देवानां यज्ञिया
यज्ञियाना ँसंवत्सरीणमुप भागमासते ।
अहुतादो हविषो यज्ञे
ऽअस्मिन्त्य्वयं पिबन्तु मधुनो घृतस्य ॥१०॥
ये देवा देवेष्वधि देवत्वमायन्ये
ब्रम्हाण: पुर ऽएतारो ऽअस्य ।
येभ्यो न ऽऋते धाम किञ्चन न ते दिवो
न प्रथिव्या ऽअधि स्नुषु ॥११॥
ॐ प्राणदा ऽअपानदा व्यानदा वर्चोदा
वरिवोदा: ।
अन्याँस्ते ऽअस्मत्तपन्तु हेतय:
पावको ऽअस्मभ्य ँशिवो भव ॥१२॥
॥ प्राण-प्रतिष्ठा ॥
अब मूर्ति में प्राणप्रतिष्ठा करने
के लिए,
उससे पूर्व हाथ में जल लेकर विनियोग मन्त्र पढ़ कर धरती में छोड़े -
विनियोग -
अस्य श्रीप्राणप्रतिष्ठामन्त्रस्य
ब्रम्हाविष्णुरुद्रा ऋषय:, ऋग्यजु:सामानि
छन्दांसि, क्रियामयवपुः पराप्राणशक्ति र्देवता, आं बीजं, ह्रीं शक्तिः, क्रौं
कीलकम् आसु मूर्तिषु प्राणप्रतिष्ठापने विनियोग: ।
तदनन्तर ऋष्यादियों का क्रम से शिर,
मुख, हृदय, नाभि,
गुह्य और पैरों में न्यास करें –
न्यास –
ॐ ब्रह्मविष्णुरुद्रऋषिभ्यो नमः
शिरसि।
ऋग्यजुः सामछन्दोभ्यो नमः मुखे।
ॐ प्राणाख्यदेवतायै नमः हृदि।
ॐ आं बीजाय नम: गुह्यस्थाने।
ह्रीं शक्तये नमः पादयोः।
ॐ कं खं गं घं ङं अं
पृथिव्याप्तेजोवाय्वाकाशात्मने आं हृदयाय नमः –हृदय।
ॐ चं छं जं झं ञं इं
शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मने ईं शिरसे स्वाहा- सिर।
ॐटं ठं डं ढं णं उं श्रोत्रत्वक्,
चक्षु, जिह्वा, घ्राणाऽत्मने
ॐ शिखायै वषट्- शिखा।
ॐ तं थं दं धं नं एं
वाक्पाणिपादपायूपस्थात्मने ऐं कवचाय हुम्- कवच।
ॐ पं फं बं भं मं ॐ
वचनादानविहरणोत्सर्गानन्दाऽत्मने ॐ नेत्रत्रयाय वौषट्- नेत्र।
ॐ अं यं रं लं वं शं षं सं हं लं
क्षं मनोबुद्धय्हङ्कारचित्तात्मने अः अस्त्राय फट् –सर से घुमाकर ताली बजावे।
इस प्रकार आत्मा और देवता में
उपरोक्त न्यासों को करके मूर्ति का हाथ से स्पर्श कर निम्न प्राणप्रतिष्ठा मंत्रों
का १६ आवृत्ति उच्चारण करें-
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं
सं हों ॐ क्षं सं हं स: ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों आसां मूर्तीनां प्राणा इह प्राणा:
।
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं
सं हों ॐ क्षं सं हं स: ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों आसां मूर्तीनां जीव इह स्थित: ।
ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं
सं हों ॐ क्षं सं हं स: ह्रीं ॐ आं ह्रीं क्रों आसां मूर्तीनां सर्वेन्द्रियाणि
वाङमनस्त्वक्चक्षुश्रोत्रजिव्हाघ्राण पाणिपादपायूपस्थानि इहैवागत्य सुखं चिरं
तिष्ठन्तु स्वाहा ।
आचार्य सहित सभी ब्राह्मण निम्न
ध्रुवसूक्त के मंत्रों का उच्चारण करें-
ध्रुवसूक्त-
ॐ ध्रुवासिध्रुवोयं
यजमानोस्मिन्नायतनेप्रजयापशुभिर्भूर्यात्।
घृतेन द्यावा पृथिवी
पूर्येथामिन्द्रस्यच्छदिरसि विश्वजनस्यछाया॥१॥
ॐ
आत्वाहार्षमन्तरभूद्ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलिः।
विशस्त्वा
सर्वार्वावाञ्छन्तुमात्वद्राष्टमधिभ्रशत्॥२॥
ॐ ध्रुवासिधरुणास्तृताविश्वकर्मणा।
मात्वासमुद्राऽउद्वधीन्मासुपर्णोव्यथमानापृथिवीन्दृ
ँह॥३॥
फिर आचार्य निम्न मन्त्र का उच्चारण
करें-
अस्यै प्राणा: प्रतिष्ठन्तु अस्यै
प्राणाः क्षरन्तु च।
अस्यै देवत्वमर्चायै स्वाहेति
यजुरीरयेत्॥
अब मूर्ति के कान में सम्बंधित गायत्री मंत्र बोले -
अब प्रणव से रोककर मूर्ति का सजीव
ध्यान करें। पुनः मूर्ति के सिर या ह्रदय पर हाथ रखकर उनका ध्यान निम्न प्राणसूक्त
का पाठ करें।
प्राणसूक्तम्-
ॐ प्राणो रक्षति विश्वमेजत्। इर्यो
भूत्वा बहुधा बहूनि स इत्सर्वं व्यान शे। यो देवषु विभूरन्तः।
आवृदूदात्क्षेत्रियध्वगध्दृषा। तमित्प्राणं मनसोपशिक्षत। अग्रं देवानामिदमत्तु नो
हविः। मनसश्चित्तेदम्। भूतं भव्यं च गुप्यते। तद्धि देवेष्वग्रियम्॥१॥
आ न एतु पुरश्चरम्। सह देवैरिम ँहवम्।
मनश्श्रेयसि श्रेयसि। कर्मन् यज्ञपर्त्तिं दधत्। जुषतां मे वागिद ँहविः। विराड् ।
देवी पुरोहिता हव्यवाडनपायिनी। यमारूपाणि बहुधा वदन्ति। पेशा ँसि देवाः परमे
जनित्रे। सा नो विराडनपस्फुरन्ती॥२॥
वाग्देवी जुषतामिद ँहविः।
चक्षुर्देवानां ज्योतिरमृते न्यक्तम्। अस्य विज्ञानाय बहुधा निधीयते। तस्य
सुम्नमशीमहि। मानो हासीद्विचक्षणम्। आयुरिन्न: प्रतीर्यताम्। अनन्धाश्चक्षुषा
वयम्। जीवा ज्योतिरशी महि। सुवर्ज्योतिरुतामृतम्। श्रोत्रेण भद्रमुत श्रृण्वान्ति
सत्यम्।श्रोत्रेण वाचं बहुधोद्यमानाम्।श्रोत्रेण मोदश्च महश्च श्रूयते।श्रोत्रेण
सर्वा दिश आ श्रृणोमि। येन प्राच्या उत दक्षिणा। प्रतीच्यै
दिशश्रृण्वन्त्युत्तरात्। तदिच्छ्रोत्रं बहुधोद्यामानम्। आरान्न नेमिः परि सर्वं
बभूव। अग्रियमनपस्फुरन्ती सत्य ँसप्त च॥३॥
नेत्रोन्मीलनम्
मूर्ति के नेत्र में स्वर्ण की
शलाका के द्वारा (कास्य पात्र में) शहद एवं घृत इन दोनों को आचार्य मिश्रित कर इस
आधे वैदिक मन्त्र का उच्चारण करते हुए यजमान से चिह्न करावें-
ॐ व्वृत्रस्यासि कनीनकश्चक्षुर्दाऽ
असि चक्षुर्मे देहि ।
नेत्रोन्मीलन के अंगत्व यजमान से
आचार्य गोदान करावे-
फिर मूर्ति पर अक्षत छिड़कते हुए
निम्न श्लोक का आचार्य उच्चारण करें-
ॐ मनो जूतिर्जुषतामाज्यस्य
बृहस्पतिर्यज्ञमिमं तनोत्वरिष्टं यज्ञ ँसमिमं दधातु ।
विश्वे देवास इह मादयन्तामो३
प्रतिष्ठ ॥
ॐ एष वै प्रतिष्ठानाम यज्ञो
यत्रैतेन प्रज्ञेन यजन्ते सर्वमेव प्रतिष्ठितम्भवति ॥
सर्वे देवा: सुप्रतिष्ठिता,
वरदा भवत ।
मूर्ति के दाहिने भाग में घृत का
दीप और बायें भाग में तेल का दीप स्थापित कर प्रज्ज्वलित करावें और उसकी गन्धादि
से पूजा कर निम्न प्रार्थना करावें-
भो दीप देवीरूपस्त्वं कर्मसाक्षी
ह्यविघ्नकृत् ।
यावत्कर्मसमाप्ति: स्यात्तावत्त्वं
सुस्थिरो भव॥
इसके उपरान्त शंख,
घण्टा बजाकर गन्ध अक्षत एवं पुष्प आदि से षोडशोपचार पूजन के
कर्मपात्रासादनकृत्य यजमान से करावें।
इति डी पी कर्मकांड भाग-१६ अग्न्युत्तारण प्राण-प्रतिष्ठा विधि: ॥
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