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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
ब्रह्मस्तोत्रम् अथवा पञ्चरत्नस्तोत्रम्
भागवत पुराण में कई बार कहा गया है
कि ब्रह्मा वह है जो "कारणों के सागर" से उभरता है। यह पुराण कहता है कि
जिस क्षण समय और ब्रह्माण्ड का जन्म हुआ था, उसी
क्षण ब्रह्मा हरि (विष्णु, जिनकी प्रशंसा भागवत पुराण का
मुख्य उद्देश्य है) की नाभि से निकले एक कमल के पुष्प से उभरे थे। यह पुराण कहता
है कि ब्रह्मा निद्रा में हैं, गलती करते हैं और वे
ब्रह्माण्ड की रचना के समय अस्थायी रूप से अक्षम थे। जब वे अपनी भ्रान्ति और
निद्रा से अवगत हुए तो उन्होंने एक तपस्वी की तरह तपस्या की, हरि को अपने हृदय में अपना लिया, फिर उन्हें
ब्रह्माण्ड के आरंभ और अंत का ज्ञान हो गया, और फिर उनकी
रचनात्मक शक्तियां पुनर्जीवित हो गईं। भागवत पुराण कहता है कि इसके बाद उन्होंने
प्रकृति और पुरुष: को जोड़ कर चकाचौंध कर देने वाली प्राणियों की विविधता बनाई। जीवन
जब नीरस हो जाय कोई रचनात्मकता न रहे तो जीवन को सही दशा व दिशा देने के लिए
ब्रह्मा जी के ब्रह्मस्तोत्रम् अथवा पञ्चरत्नस्तोत्रम् का पाठ विशेषकर प्रदोष के
दिन या सोमवार को विशेषतः पाठ या श्रवण करें ।
ब्रह्मस्तोत्रम् अथवा पञ्चरत्नस्तोत्रम्
स्तोत्रं श्रृणु महेशानि ब्रह्मणः
परमात्मनः ।
उअच्छ्रुत्वा साधको देवि
ब्रह्मसायुज्यमश्नुते ॥
ॐ नमस्ते सते सर्वलोकाश्रयाय
नमस्ते चिते विश्वरूपात्मकाय ।
नमोऽद्वैततत्त्वाय मुक्तिप्रदाय
नमो ब्रह्मणे व्यापिने निर्गुणाय ॥ १॥
त्वमेकं शरण्यं त्वमेकं वरेण्यं
त्वमेकं जगत्कारणं विश्वरूपम् ।
त्वमेकं जगकर्तृपातृप्रहार्तृ
त्वमेकं परं निश्चलं निर्विकल्पम् ॥ २॥
भयानां भयं भीष्हणं भीष्हणानां
गतिः प्राणिनां पावनं पावनानाम् ।
महोच्चैः पदानां नियन्तृ त्वमेकं
परेशं परं रक्षणं रक्षणानाम् ॥ ३॥
परेश प्रभो सर्वरूपाविनाशिन्
अनिर्देश्य सर्वेन्द्रियागम्य सत्य ।
अचिन्त्याक्षर व्यापकव्यक्ततत्त्व
जगद्भासकाधीश पायादपायात् ॥ ४॥
तदेकं स्मरामस्तदेकं भजाम-
स्तदेकं जगत्साक्षिरूपं नमामः ।
सदेकं निधानं निरालम्बमीशं
भवाम्भोधिपोतं शरण्यं व्रजामः ॥ ५॥
पञ्चरत्नमिदं स्तोत्रं ब्रह्मणः
परमात्मनः ।
यः पठेत्प्रयतो भूत्वा
ब्रह्मसायुज्यमाप्नुयात् ॥
प्रदोषेऽदः पठेन्नित्यं सोमवारे
विशेषतः ।
श्रावयेद्बोधयेत्प्राज्ञो
ब्रह्मनिष्ठान्स्वभान्धवान् ॥
इति ते कथितं देवि पञ्चरत्नं
महेशितुः ।
॥ इति महानिर्वाणतंत्रे ब्रह्मस्तोत्रं एवं
पञ्चरत्नस्तोत्रं समाप्तम् ॥
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