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कर्मकाण्ड

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मानसिक पूजा

मानसिक पूजा

मानसिक पूजा का तात्पर्य मन से पूजा करना। जब आप भौतिक पूजा करते हैं उस समय मानसिक पूजा की भी आवश्यकता होती और यह काफी महत्वपूर्ण है। जब तक अंत:करण में भगवान की आशक्ति नहीं होगी तब तक कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। सीधे रूप अगर आप मानसिक पूजा को समझता चाहते हैं कि यह मन से भगवान को समर्पण है। मन को उनमें लीन करना होता है। मानसिक पूजा के दौरान मन की धारणा खंडित नहीं होनी चाहिए। संसारिक व लौकिक विचार मन में नहीं आने चाहिए, इससे पूजा खंडित हो जायेगी। मानसिक पूजा के दौरान मन और आंखे भगवान में लीन रहें। ऐसी एकाग्रता से की गई मानसिक पूजा ही फलीभूत होती है। यह साधना परम आनंद देने वाली होती है। अंत:करण में भगवान का वास होता है, तभी भगवान की असीम कृपा जीव को प्राप्त होती है और उसे इसकी अनुभूति होती है। भगवान की असीम कृपा कैसे प्राप्त हो?, इसके लिए भौतिक पूजा के विधान धर्म शास्त्रों में बताए गए हैं, इनका अपना ही महत्व है। भौतिक पूजा आवश्यक भी है, लेकिन किन्हीं परिस्थितियों में आप भौतिक पूजा करने में स्वयं को असमर्थ पाते हैं तो वाराह, मुगदल, नारद आदि पुराण आदि धर्मशास्त्रों में मानसिक पूजा का वर्णन किया गया है, मानसिक पूजा का अपना ही महत्व बताया गया है, लेकिन इसका आशय यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि भौतिक पूजा नहीं करनी चाहिए। भौतिक पूजा के साथ मानसिक पूजा भी करनी चाहिए, इससे भक्त पर भगवान की असीम कृपा होती है। अक्सर कुछ विद्बान यह कहते हुए दिख जाएंगे, कि ईश्वर तो भाव के भूखे हैं, यह सत्य है कि ईश्वर भाव को देखता है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि आप भौतिक पूजा ही न करें, क्योंकि अगर आपके लिए भौतिक पूजा संभव है और मानसिक पूजा करके ही इतिश्री कर लेते है, तो इसमें दोष लगता है। संक्षप में कहे तो भौतिक पूजा के साथ ही मानसिक पूजा भी करनी चाहिए। मानसिक पूजा के माध्यम हम भगवान से निजता के संभव सरलता से बना सकते हैं। ईश्वर के साथ जिस दिन व्यक्ति का निजिता का संबंध स्थापित हो जाएगा, उस दिन यह मान लें कि भगवान की भक्ति उसे आ गई है और उसे अब कोई भी मार्ग से नहीं हटा सकता चाहे कितनी ही बड़ी विपदाएं क्यों न मार्ग में आ जाए।

शिव मानसिक पूजा

शिव मानसिक पूजा

कैसे करें मानसिक पूजा

ओम लं पृथिव्यात्मक गन्धं परिकल्पयामि ।

अर्थ- हे भगवन आपको पृथ्वी रूपी चंदन आपको अर्पण करता हूं। आप मेरा यह मानसिक चंदन स्वीकार करें।

ओम आकाशात्मकं पुष्पं परिकल्पयामि ।

अर्थ- हे भगवन आपको आकाश रूप पुष्प आपको अर्पण करता हूं। आप मेरा आकाश रूप पुष्प स्वीकार करें।

ओम यं वाय्वात्मकं धूपं परिकल्पयामि ।

अर्थ- हे भगवन मैं आपको वायुदेव रूप में आपको धूप अर्पण कर रहा हूं। आप मेरा वायुदेव रूप धूप स्वीकार करें।

ओम रं वह्न्यात्मकं दीपं दर्शयामि ।

अर्थ- हे भगवन मैं आपको अग्निदेव के रूप में दीप प्रदान कर रहा हूं। आप मेरा अग्निदेव के रूप में दीप स्वीकार करें।

ओम वं अमृतात्मकं नैवेद्यं निवेदयामि ।

अर्थ- हे भगवान मैं आपको अमृत रूपी नैवेद्य अर्पण कर रहा हूं। आप मेरा अमृत रूप नैवेद्य स्वीकार करें।

ओम सौं सर्वात्मकं सर्वोपचारं परिकल्पयामि ।

अर्थ- हे भगवन मैं सर्वात्म रूप से आपको संसार की सभी पूजा सामग्री आपको समर्पित कर रहा हूं। आप स्वीकार करें। प्रसन्न हों।

शिव मानसिक पूजा

शिव मानस पूजा भगवान शिव की ऐसी आश्चर्यजनक पूजा है जिसमें प्रत्यक्षत: भौतिक रूप से कुछ भी नहीं किया जाता है लेकिन अपने मानस में, कल्पना में विचारों में शिव जी की अत्यंत ऐश्वर्यशाली पूजा की जाती है अर्थात् इस पूजा में शिव का ध्यान लगाकर यह सोचना है कि आप भगवान शिव को अत्यंत कीमती रत्न, फूल, आभूषण व सौभाग्य सामग्री चढ़ा रहे हैं और शिव उन्हें प्रसन्नता पूर्वक ग्रहण कर रहे हैं। शास्त्रों में इस पूजा का फल प्रत्यक्ष पूजा से कहीं अधिक है क्योंकि आप भाव से पूजा करते हैं और प्रभु तो भाव के ही भूखे हैं आपकी सामग्री के नहीं.... यहाँ भगवान शिव को समर्पित श्रीशंकराचार्य व सदाशिवब्रह्मेन्द्र विरचित शिवमानसिक पूजा दिया जा रहा है-

श्रीशिवमानसपूजा

रत्नैः कल्पितमासनं हिमजलैः स्नानं च दिव्याम्बरं

नानारत्नविभूषितं मृगमदामोदाङ्कितं चन्दनम् ।

जातीचम्पकबिल्वपत्ररचितं पुष्पं च धूपं तथा

दीपं देव दयानिधे पशुपते हृत्कल्पितं गृह्यताम् ॥ १॥

हे दयानिधे ! हे पशुपते ! हे देव! यह रत्ननिर्मित सिंहासन, शीतल जल से स्नान, नाना रत्नावलिविभूषित दिव्य वस्त्र, कस्तूरिकागन्धसमन्वित चन्दन, जुही, चम्पा और बिल्वपत्र से रचित पुष्पाञ्जलि तथा धूप और दीप यह सब मानसिक [पूजोपहार] ग्रहण कीजिये ॥ १॥

सौवर्णे नवरत्नखण्डरचिते पात्रे घृतं पायसं

भक्ष्यं पञ्चविधं पयोदधियुतं रम्भाफलं पानकम् ।

शाकानामयुतं जलं रुचिकरं कर्पूरखण्डोज्ज्वलं

ताम्बूलं मनसा मया विरचितं भक्त्या प्रभो स्वीकुरु ॥ २॥

मैंने नवीन रत्नखण्डों से खचित सुवर्णपात्र में घृतयुक्त खीर, दूध और दधि सहित पाँच प्रकार का व्यञ्जन, कदलीफल, शर्बत, अनेकों शाक, कपूर से सुवासित और स्वच्छ किया हुआ मीठा जल और ताम्बूल-ये सब मन के द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किये हैं; प्रभो ! कृपया इन्हें स्वीकार कीजिये ॥२॥

छत्रं चामरयोर्युगं व्यजनकं चादर्शकं निर्मलं

वीणाभेरिमृदङ्गकाहलकला गीतं च नृत्यं तथा ।

साष्टाङ्गं प्रणतिः स्तुतिर्बहुविधा ह्येतत्समस्तं मया

सङ्कल्पेन समर्पितं तव विभो पूजां गृहाण प्रभो ॥ ३॥

छत्र, दो चँवर, पंखा, निर्मल दर्पण, वीणा, भेरी, मृदङ्ग, दुन्दुभी के वाद्य, गान और नृत्य, साष्टाङ्ग प्रणाम, नानाविधि स्तुति-ये सब मैं संकल्प से ही आपको समर्पण करता हूँ; प्रभो ! मेरी यह पूजा ग्रहण कीजिये ॥३॥

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः प्राणाः शरीरं गृहं

पूजा ते विषयोपभोगरचना निद्रा समाधिस्थितिः ।

सञ्चारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः स्तोत्राणि सर्वा गिरो

यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं शम्भो तवाराधनम् ॥ ४॥

हे शम्भो ! मेरी आत्मा तुम हो, बुद्धि पार्वतीजी हैं, प्राण आपके गण हैं, शरीर आपका मन्दिर है, सम्पूर्ण विषय-भोग की रचना आपकी पूजा है, निद्रा समाधि है, मेरा चलना-फिरना आपकी परिक्रमा है तथा सम्पूर्ण शब्द आपके स्तोत्र हैं। इस प्रकार में जो-जो भी कर्म करता हूँ, वह सब आपकी आराधना ही है ।। ४ ॥

करचरणकृतं वाक्कायजं कर्मजं वा ।

                  श्रवणनयनजं वा मानसं वापराधम् ।

विहितमविहितं वा सर्वमेतत्क्षमस्व ।

                  जय जय करुणाब्धे श्रीमहादेवशम्भो ॥ ५॥

प्रभो ! मैंने हाथ, पैर, वाणी, शरीर, कर्म, कर्ण, नेत्र अथवा मन से जो भी अपराध किये हों; वे विहित हों अथवा अविहित, उन सबको आप क्षमा कीजिये। हे करुणासागर श्रीमहादेव शङ्कर ! आपकी जय हो ॥ ५॥

॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचिता शिवमानसपूजा समाप्ता ॥

शिव मानसिक पूजा सदाशिवब्रह्मेन्द्र विरचित

अनुचितमनुलपितं मे त्वयि ननु शम्भो तदागसः शान्त्यै ।

अर्चां कथमपि विहितामङ्गीकुरु सर्वमङ्गलोपेत ॥ १॥

ध्यायामि कथमिव त्वां धीवर्त्मविदूरदिव्यमहिमानम् ।

आवाहनम् विभोस्ते देवाग्र्य भवेत् प्रभो कुतः स्थानात् ॥ २॥

कियदासनं प्रकल्प्यं कृतासनस्येह सर्वतोऽपि शिव ।

पाद्यं कुतोऽर्घ्यमपि वाऽऽपाद्यं सर्वत्रपाणिपादस्य ॥ ३॥

आचमनं ते स्यादपि भगवन् भव सर्वतोमुखस्य कथम् ।

मधुपर्को वा कथमिह मधुवैरिणि दर्शितप्रसादस्य ॥ ४॥

स्नानेन किं विधेयं सलिलकृतेनेह नित्यशुद्धस्य ।

वस्त्रेणापि न कार्यं देवाधिपते दिगम्बरस्येह ॥ ५॥

स्फुरति हि सर्पाभरणं सर्वाङ्गे सर्वमङ्गलाकार ।

अतिवर्णाश्रमिणस्तेऽस्त्युपवीतेनेह कःस्विदुत्कर्षः ॥ ६॥

गन्धवती हि तनुस्ते गन्धाः किं नेश पौनरुक्त्याय ।

पुष्करफलदातारं पुष्करकुसुमेन पूजये किं त्वाम् ॥ ७॥

शमधनमूलधनं त्वं सकलेश्वर भवसि धूपितः केन ।

दीपः कथं शिखावान् दीप्येत पुरः स्वयम्प्रकाशस्य ॥ ८॥

अमृतात्मकमपि भगवन्नशनं किन्नाम नित्यतृप्तस्य ।

त्वय्याम्रेडितमेतत् ताम्बूलं यदिह सुमुखरागेऽपि ॥ ९॥

उपहारीभूयादिदमुमेश यन्मे विचेष्टितमशेषम् ।

नीराजयामि तमिमं नानात्मानं सहाखिलैः करणैः ॥ १०॥

सुमनश्शेखर भव ते सुमनोऽञ्जलिरेष को भवेच्छम्भो ।

छत्रं द्युमन् द्युमूर्ध्नश्चामरमपि किं जितश्रमस्य तव ॥ ११॥

नृत्यं प्रथतां कथमिव नाथ तवाग्रे महानटस्येह ।

गीतं किं पुरवैरिन् गीतागममूलदेशिकस्य पुरः ॥ १२॥

वाद्यं डमरुभृतस्ते वादयितुं वा परेऽस्ति का शक्तिः ।

अपरिच्छिन्नस्य भवेदखिलेश्वर कः प्रदक्षिणविधिस्ते ॥ १३॥

स्युस्ते नमांसि कथमिव शङ्कर परितोऽपि विद्यमानस्य ।

वाचामगोचरे त्वयि वाक्प्रसरो मे कथन्नु सम्भवतु ॥ १४॥

नित्यानन्दाय नमो निर्मलविज्ञानविग्रहाय नमः ।

निरवधिकरुणाय नमो निरवधिविभवाय तेजसेऽस्तु नमः ॥ १५॥

सरसिजविपक्षचूडः सगरतनूजन्मसुकृतमूर्धाऽसौ ।

दृक्कूलङ्कषकरुणो दृष्टिपथे मेऽस्तु धवलिमा कोऽपि ॥ १६॥

जगदाधारशरासं जगदुत्पादप्रवीणयन्तारम् ।

जगदवनकर्मठशरं जगदुद्धारं श्रयामि चित्सारम् ॥ १७॥

कुवलयसहयुध्वगलैः कुलगिरिकूटस्थकुचभरार्धाङ्गैः ।

कलुषविदूरैश्चेतः कवलितमेतत् कृपारसैः कैश्च ॥ १८॥

वसनवते करिकृत्त्या वासवते रजतशैलशिखरेण ।

वलयवते भोगभृता वनितार्धाङ्गाय वस्तुनेऽस्तु नमः ॥ १९॥

सरसिजकुवलयजागरसंवेशनजागरूकलोचनतः ।

सकृदपि नाहं जाने सुरमितरं भाष्यकारमञ्जीरात् ॥ २०॥

आपाटलजाटानामानीलच्छायकन्धरासीम्नाम् ।

आपाण्डुविग्रहाणामाद्रुहिणं किङ्करा वयं महसाम् ॥ २१॥

मुषितस्मरावलेपे मुनितनयायुर्वदान्यपदपद्मे ।

महसि मनो रमतां मे महति दयापूरमेदुरापाङ्गे ॥ २२॥

शर्मणि जगतां गिरिजानर्मणि सप्रेमहृदयपरिपाके ।

ब्रह्मणि विनमद्रक्षणकर्मणि तस्मिन्नुदेतु भक्तिर्मे ॥ २३॥

अस्मिन्नपि समये मम कण्ठच्छायाविधूतकालाभ्रम् ।

अस्तु पुरो वस्तु किमप्यर्धाङ्गेदारमुन्मिषन्निटिलम् ॥ २४॥

जटिलाय मौलिभागे जलधरनीलाय कन्धराऽऽभोगे ।

धवलाय वपुषि निखिले धाम्ने स्यान्मामको नमोवाकः ॥ २५॥

अकरविराजत्सुमृगैः अवृषतुरङ्गैरमौलिधृतगङ्गैः ।

अकृतमनोभवभङ्गैरलमन्यैर्जगति देवतापशदैः ॥ २६॥

कस्मै वच्मि दशां मे कस्येदृग्घृदयमस्ति शक्तिर्वा ।

कस्य बलं चोद्धर्तुं क्लेशात् त्वामन्तरा दयासिन्धो ॥ २७॥

याचे ह्यनभिनवं ते चन्द्रकलोत्तंस किञ्चिदपि वस्तु ।

मह्यं प्रदेहि भगवन् मदीयमेव स्वरूपमानन्दम् ॥ २८॥

भगवन् बालतया वाऽभक्त्या वाऽप्यापदाकुलतया वा ।

मोहाविष्टतया वा माऽस्तु च ते मनसि यद्दुरुक्तं मे ॥ २९॥

यदि विश्वाधिकता ते यदि निगमागमपुराणयाथार्थ्यम् ।

यदि वा भक्तेषु दया तदिह महेशाशु पूर्णकामः स्याम् ॥ ३०॥

इति सदाशिवब्रह्मेन्द्रविरचिता शिवमानसिकपूजा समाप्ता ।

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