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- अच्युताष्टकम्
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- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 17
- डी पी कर्मकांड भाग-१८ नित्य होम विधि
- डी पी कर्मकांड भाग-१७ कुशकंडिका
- भैरव
- रघुवंशम् छटवां सर्ग
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 16
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड– अध्याय 15
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 14
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 13
- हिरण्यगर्भ सूक्त
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 12
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 11
- कालसर्प दोष शांति मुहूर्त
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 10
- शिवमहापुराण – रुद्रसंहिता सृष्टिखण्ड – अध्याय 09
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- कालसर्प योग शांति प्रार्थना
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- शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता प्रथम-सृष्टिखण्ड...
- डी पी कर्मकांड भाग- १५ क्षेत्रपाल
- अग्न्युत्तारण प्राण-प्रतिष्ठा
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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
उच्छिष्ट गणपति सहस्रनामस्तोत्रम्
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल २९ में गणपतिपञ्चाङ्ग अंतर्गत महागणपति के सहस्रनाम का निरूपण के विषय में बतलाया गया है। अन्य ग्रन्थों में यह उच्छिष्ट गणपति सहस्रनामस्तोत्रम् नाम से वर्णित है। अतः जहां उच्छिष्ट गणपति लिखा गया है वहां भ्रमित न होयें दोनों में कोई भेद नहीं है।
श्रीउच्छिष्टगणपतिसहस्रनामस्तोत्रम्
देवीरहस्य पटल २९ महागणपतिसहस्रनामकम्
Shri Devi Rahasya Patal 29
देवीरहस्य पटल २९ महागणपति सहस्रनाम स्तोत्र
अथ गणपतिपञ्चाङ्गम्
उच्छिष्ट गणपति सहस्रनामस्तोत्रम्
अथैकोनत्रिंशः पटलः
सहस्त्रनामप्रस्तावः
महागणपतिसहस्रनामस्तोत्रं अथवा वरदगणेशसहस्रनामस्तोत्रम्
श्रीभैरव उवाच -
शृणु देवि रहस्यं मे यत्पुरा सूचितं
मया ।
तव भक्त्या गणेशस्य वक्ष्ये
नामसहस्रकम् ॥ १॥
सहस्रनाम- प्रस्ताव –
श्रीभैरव ने कहा- हे देवि ! पूर्व में जिसके बारे में मैंने तुम्हें
बताया था, उस गणेश के सहस्रनाम को तुम्हारी भक्ति के कारण अब
मैं कहता हूँ ।। १ ।
श्रीदेव्युवाच -
भगवन् गणनाथस्य वरदस्य
(उच्छिष्टस्य) महात्मनः ।
श्रोतुं नामसहस्रं मे हृदयं
प्रोत्सुकायते ॥ २॥
श्री देवी बोली- हे भगवन्! वर
प्रदान करने वाले, महान् आत्मा,
गणों के नायक गणेश के सहस्रनाम के सुनने के लिये मेरा हृदय अत्यन्त
उत्सुक हो रहा है ।। २ ।।
श्रीभैरव उवाच -
प्राङ् मे त्रिपुरनाशे तु जाता
विघ्नकुलाः शिवे ।
मोहेन मुह्यते चेतस्ते सर्वे
बलदर्पिताः ॥ ३॥
तदा प्रभुं गणाध्यक्षं स्तुत्वा
नामसहस्रकैः ।
विघ्ना दूरात् पलायन्त कालरुद्रादिव
प्रजाः ॥ ४॥
तस्यानुग्रहतो देवि जातोऽहं
त्रिपुरान्तकः ।
तमद्यापि गणेशानं स्तौमि
नामसहस्रकैः ॥ ५॥
श्री भैरव बोले- हे शिवे ! पूर्वकाल
में मेरे द्वारा त्रिपुरनाश के समय अतिशय विघ्न हुये थे;
वे सभी अतीव बलशाली थे एवं मेरे चित्त को अपने मोहनास्त्र द्वारा
सम्मोहित कर रहे थे। उस समय गणों के ईश्वर प्रभु गणेश की मैंने उनके सहस्रनाम से
स्तुति की थी, जिसके प्रभाव से वे सभी विघ्न उसी प्रकार दूर
भाग गये, जैसे कि कालरुद्र को देखकर लोग दूर भाग खड़े होते
हैं। हे देवि ! उसी गणपति के सहस्रनाम स्तोत्र के अनुग्रह से मैं त्रिपुरान्तक हूँ।
अतः उसी सहस्रनाम के द्वारा आज भी मैं गणेश की स्तुति करता हूँ ।। ३-५ ।।
तमद्य तव भक्त्याहं साधकानां हिताय
च ।
महागणपतेर्वक्ष्ये दिव्यं
नामसहस्रकम् ॥ ६॥
पाठकानां च दातॄणां
सुखसम्पत्प्रदायकम् ।
दुःखापहं च श्रोतॄणां
मन्त्रनामसहस्रकम् ॥ ७॥
हे देवि! महागणपति के उसी दिव्य
सहस्रनाम को आज मैं तुम्हारी भक्ति के कारण एवं साधकों के हित की कामना से कहता
हूँ। यह सहस्रनाम पाठ करने वालों के लिये एवं प्रदान करने वालों के लिये सभी
प्रकार की सुख एवं सम्पत्तियों को प्रदान करने वाला है;
साथ ही श्रवण करने वालों के समस्त कष्टों का विनाश करने वाला
है।।६-७।।
महागणपतिसहस्रनामस्तोत्र विनियोगः
अस्य
श्रीवरदगणेशसहस्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य (श्रीउच्छिष्टगणेशसहस्रनामस्तोत्रमन्त्रस्य)
श्रीभैरव ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीमहागणपतिर्देवता, गं बीजम्, ह्रीं शक्तिः, कुरु कुरु कीलकम्, धर्मार्थकाममोक्षार्थे सहस्रनामस्तवपाठे विनियोगः ।
पूर्ववद् ध्यानम् ।
विनियोग –
वरद गणेश सहस्रनाम स्तोत्र के ऋषि श्री भैरव हैं, छन्द गायत्री हैं, इसके देवता श्री महागणपति हैं,
'गं' बीज है, 'ह्रीं'
शक्ति है, 'कुरु कुरु' कीलक
है एवं धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की प्राप्ति हेतु सहस्रनाम स्तुति के पाठ में इसका
विनियोग किया जाता है। गणपति का ध्यान पूर्वोक्त प्रकार से ही करना चाहिये।
महागणपति सहस्रनाम स्तोत्र
ॐह्रींश्रींक्लीं-गणाध्यक्षो
ग्लौंगं-गणपतिर्गुणी ।
गुणाद्यो निर्गुणो गोप्ता गजवक्त्रो
विभावसुः ॥ ८॥
विश्वेश्वरो विभादीप्तो दीपनो धीवरो
धनी ।
सदाशान्तो जगत्तातो विष्वक्सेनो
विभाकरः ॥ ९॥
विस्रम्भी विजयी वैद्यो
वारान्निधिरनुत्तमः ।
अणीयान् विभवी श्रेष्ठो ज्येष्ठो
गाथाप्रियो गुरुः ॥ १०॥
सृष्टिकर्ता जगद्धर्ता विश्वभर्ता
जगन्निधिः ।
पतिः पीतविभूषाङ्गो रक्ताक्षो
लोहिताम्बरः ॥ ११॥
विरूपाक्षो विमानस्थो विनयः सनयः
सुखी ।
सुरूपः सात्त्विकः सत्यः शुद्धः
शङ्करनन्दनः ॥ १२॥
नन्दीश्वरो सदानन्दी वन्दिस्तुत्यो
विचक्षणः ।
दैत्यमर्दी मदाक्षीबो मदिरारुणलोचनः
॥ ११॥
सारात्मा विश्वसारश्च विश्वचारी
विलेपनः ।
परं ब्रह्म परं ज्योतिः साक्षी
त्र्यक्षो विकत्थनः ॥ १४॥
वीरेश्वरो वीरहर्ता सौभाग्यो
भाग्यवर्धनः ।
भृङ्गिरीटी भृङ्गमाली
भृङ्गकूजितनादितः ॥ १५॥
विनर्तको विनेतापि
विनतानन्दनोऽर्चितः ।
वैनतेयो विनम्राङ्गो विश्वनेता
विनायकः ॥ १६॥
विराटको विराटश्च विदग्धो
विधिरात्मभूः ।
पुष्पदन्तः पुष्पहारी
पुष्पमालाविभूषणः ॥ १७॥
पुष्पेषुर्मथनः पुष्टो विकर्ता
कर्तरीकरः ।
अन्त्योऽन्तकश्चित्तगणश्चित्तचिन्तापहारकः
॥ १८॥
अचिन्त्योऽचिन्त्यरूपश्च
चन्दनाकुलमुण्डकः ।
लिपितो लोहितो लुप्तो (१००)
लोहिताक्षो विलोभकः ॥ १९॥
उच्छिष्ट गणपति सहस्रनाम —
ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं गणाध्यक्ष, ग्लौं गं
गणपति, गुणी, गुणाद्य, निर्गुण, गोप्ता, गजवक्त्र,
विभावसु, विश्वेश्वर, विभादीप्त,
दीपन, धीवर, धन, सदाशान्त, जगत्त्राता, विश्वक्सेन,
विभाकर, विस्रम्भी, विजयी,
वैद्य, वारांनिधि, अनुत्तम,
अणीयान, विभवी, श्रेष्ठ,
ज्येष्ठ, गाथाप्रिय, गुरु,
सृष्टिकर्त्ता, जगद्धर्ता, विश्वभर्ता, • जगन्निधि, पति,
पीत-विभूषाङ्ग, रक्ताक्ष, लोहिताम्बर, विरूपाक्ष, विमानस्थ,
विनय, सनय, सुखी,
सुरूप, सात्विक, सत्य,
शुद्ध, शंकरनन्दन, नन्दीश्वर,
जयानन्दी, वन्दीस्तुत्य, विचक्षण, दैत्यमर्दी, मदाक्षीव,
मदिरारूणलोचन, सारात्मा, विश्वसार, विश्वचारी, विलेपन,
परंब्रह्म, परज्योति, साक्षी,
त्र्यक्ष, विकत्थन, वीरेश्वर,
वीरहर्त्ता, सौभाग्य, भाग्यवर्धन,
भृङ्गिरीटी, भृङ्गमाली, भृङ्गकूजित,
भृङ्गनादित, विनर्तक, विनेतापी,
विनतानन्दनार्चित वैनतेय, विनम्राङ्ग, विश्वनेता, विनायक, विराटक,
विराट, विदग्ध विधिरात्मभूः, पुष्पदन्त, पुष्पहारी, पुष्पमालाविभूषण,
पुष्पेषुर्मथन, पुष्ट, विकर्ता,
कर्तरीकर, अन्त्य, अन्तक,
चित्तगण, चित्त, चिन्तापहारक,
अचिन्त्य, चन्दनाकुल, अचिन्त्यरूप,
मुण्डक, लिपित, लोहित,
लुप्त, लोहिताक्ष, विलोभक।।
८-१९।।
लुब्धाशयो लोभरतो
लाभदोऽलङ्घ्यगात्रकः ।
सुन्दरः सुन्दरीपुत्रः
समस्तासुरघातनः ॥ २०॥
नूपुराढ्यो विभवदो नरो नारायणो रविः
।
विचारी वान्तदो वाग्मी वितर्की
विजयेश्वरः ॥ २१॥
सुप्तो बुद्धः सदारूपः सुखदः
सुखसेवितः ।
विकर्तनो वियच्चारी विनटो नर्तको
नटः ॥ २२॥
नाट्यो नाट्यप्रियो
नादोऽनन्तोऽनन्तगुणात्मकः ।
विश्वमूर्विश्वघाती च विनतास्यो
विनर्तकः ॥ २३॥
करालः कामदः कान्तः कमनीयः कलाधरः ।
कारुण्यरूपः कुटिलः कुलाचारी
कुलेश्वरः ॥ २४॥
विकरालो गणश्रेष्ठः संहारो हारभूषणः
।
रुरू रम्यमुखो रक्तो रेवतीदयितो रसः
॥ २५॥
महाकालो महादंष्ट्रो महोरगभयापहः ।
उन्मत्तरूपः
कालाग्निरग्निसूर्येन्दुलोचनः ॥ २६॥
सितास्यः सितमाल्यश्च सितदन्तः
सितांशुमान् ।
असितात्मा भैरवेशो भाग्यवान् भगवान्
भगः ॥२७॥
भर्गात्मजो भगावासो भगदो भगवर्धनः ।
शुभङ्करः शुचिः शान्तः श्रेष्यः
श्रव्यः शचीपतिः ॥ २८॥
वेदाद्यो वेदकर्ता च वेदवेद्यः
सनातनः ।
विद्याप्रदो वेदसारो वैदिको
वेदपारगः ॥ २९॥
वेदध्वनिरतो वीरो वरो
वेदागमार्थवित् ।
तत्त्वज्ञः सवर्गः साधुः सदयः सद्
(२००) असन्मयः ॥ ३०॥
लुब्धाशय,
लोभरत लाभद, अलंघ्यगात्रक, सुन्दर, सुन्दरीपुत्र, समस्त
असुर घातक, नूपुराढ्य, विभवद, नर नारायण, रवि, विचारी,
वान्तद, वाग्मी, वित्तक,
विजयेश्वर, सुप्त, बुद्ध,
सदारूप, सुखद, सुखसेवित,
विकर्तन, वियच्चारी, विनट,
नर्तक, नाट्य, नाट्यप्रिय,
नाद, अनन्त, अनन्तगुणात्मक,
विश्वभू, विश्वघाती, विनतास्य,
विनर्तक, कराल, कामद,
कान्त, कमनीय, कलाधर,
कारुण्यरूप, कुटिल, कुलाचारी,
कुलेश्वर, विकराल, गणश्रेष्ठ,
संहार, हारभूषण, रुरु,
रम्य मुख, रक्त, रेवतीदयित,
रस, महाकाल, महादंष्ट्र,
महोरगभयापह उन्मत्तरूप, कालाग्नि, अग्निसूर्येन्दुलोचन, सितास्य, सितमाल्य, सितदन्त, सितांशुमान,
भैरवेश, भाग्यवान, भगवान्,
भग, भर्गात्मज, भगावास,
भगद, भगवर्धन, शुभङ्कर,
शुचि, शान्त, श्रेष्य,
श्रव्य, शचीपति, वेदाद्य,
वेदकर्ता, वेदवेद्य, सनातन,
विद्याप्रद वेदसार वैदिक, वेदपराग, वेदध्वनिरत, वीर, वर, वेदागमार्थवित्, तत्त्वज्ञ, सर्वग,
साधु, सदय, असन्मय । ।
२०-३०।।
निरामयो निराकारो निर्भयो
नित्यरूपभृत् । ।
निर्वैरो वैरिविध्वंसी
मत्तवारणसन्निभः ॥ ३१॥
शिवङ्करः शिवसुतः शिवः सुखविवर्धनः
।
श्वैत्यः श्वेतः शतमुखो मुग्धो
मोदकभोजनः ॥ ३२॥
देवदेवो दिनकरो धृतिमान् द्युतिमान्
धवः ।
शुद्धात्मा
शुद्धमतिमाञ्छुद्धदीप्तिः शुचिव्रतः ॥ ३३॥
शरण्यः शौनकः शूरः शरदम्भोजधारकः ।
दारकः शिखिवाहेष्टः शीतः
शङ्करवल्लभः ॥ ३४॥
शङ्करो निर्भवो नित्यो
लयकृल्लास्यतत्परः ।
लूतो लीलारसोल्लासी विलासी विभ्रमो
भ्रमः ॥ ३५॥
भ्रमणः शशभृत् सूर्यः
शनिर्धरणिनन्दनः ।
बुद्धो विबुधसेव्यश्च बुधराजो
बलन्धरः ॥ ३६॥
जीवो जीवप्रदो जैत्रः स्तुत्यो
नुत्यो नतिप्रियः ।
जनको जिनमार्गज्ञो जैनमार्गनिवर्तकः
॥ ३७॥
गौरीसुतो गुरुरवो गौराङ्गो गजपूजितः
।
परं पदं परं धाम परमात्मा कविः कुजः
॥ ३८॥
राहुर्दैत्यशिरश्छेदी केतुः
कनककुण्डलः ।
ग्रहेन्द्रो ग्राहितो
ग्राह्योऽग्रणीर्घुर्घुरनादितः ॥ ३९॥
पर्जन्यः पीवरो पोत्री पीनवक्षाः
परार्जितः ।
वनेचरो वनपतिर्वनवासः स्मरोपमः ॥
४०॥
पुण्यं पूतः पवित्रं च परात्मा
पूर्णविग्रहः ।
पूर्णेन्दुशकलाकारो मन्युः पूर्णमनोरथः ॥ ४१॥
युगात्मा युगभृद् यज्वा (३००)
याज्ञिको यज्ञवत्सलः ।
निरामय,
निराकार, निर्मय, नित्यरूपमृत,
निर्वैर, वैरिविध्वंसी, मत्तवारणसन्निभ,
शिवंकर, शिवसुत, सुखविवर्धन,
श्वैत्य, श्वेत, शतमुख,
मुग्ध, मोदकभोजन, देवदेव,
दिनकर, धृतिमान, द्युतिमान,
धव, शुद्धात्मा शुद्धमतिमान, शुद्धदीप्ति, शुचिव्रत, शरण्य,
शौनक, शूर, शरदम्भोजधारक,
दारक, शिखिवाहेष्ट, शीत,
शङ्करवल्लभ, शङ्कर, निर्भय,
नित्य, लयकृतलास्यतत्पर, लूत, लीलारसोल्लासी, विलासी,
विभ्रम, भ्रम, भ्रमण,
शशभृत्, सूर्य, शनि,
धरणिनन्दन, बुद्ध, विबुधसेव्य,
बुधराज, बलन्धर, जीव,
जीवप्रद, जैत्र, स्तुत्य,
नृत्य, नतिप्रिय, जनक,
जिनमार्गज्ञ, जैनमार्गनिवर्तक, गौरीसुत, गुरुरव, गौराङ्ग,
गजपूजित, परंपद, परंधाम,
परमात्मा, कवि, कुज,
राहु, दैत्यशिरश्छेदी, केतु,
कनककुण्डल, ग्रह, ग्राहित,
ग्राह्योऽग्रणी, घुघुरनादित, पर्जन्य, पीवर, पोत्री,
पीनवक्ष, परार्जित, वनेचर,
वनपति, वनवास, स्मरोपम,
पुण्य, पूत, पवित्र,
परात्मा, पूर्णविग्रह, पूर्णेन्दु,
शकलाकार, मन्त्र, पूर्णमनोरथ,
युगात्मा, युगभृत्, यज्व,
इन्द्र, याज्ञिक, यज्ञवत्सल
।। ३१-४१ ।।
यशस्वी यजमानेष्टो व्रजभृद्
वज्रपञ्जरः ॥ ४२॥
मणिभद्रो मणिमयो मान्यो
मीनध्वजाश्रितः ।
मीनध्वजो मनोहारी योगिनां योगवर्धनः
॥ ४३॥
द्रष्टा स्रष्टा तपस्वी च विग्रही
तापसप्रियः ।
तपोमयस्तपोमूर्तिस्तपनश्च तपोधनः ॥
४४॥
रुचको मोचको रुष्टस्तुष्टस्तोमरधारकः
।
दण्डी चण्डांशुरव्यक्तः
कमण्डलुधरोऽनघः ॥ ४५॥
कामी कर्मरतः कालः कोलः
क्रन्दितदिक्तटः ।
भ्रामको जातिपूज्यश्च जाड्यहा
जडसूदनः ॥ ४६॥
जालन्धरो जगद्वासी हासकृद् हवनो
हविः ।
हविष्मान् हव्यवाहाक्षो हाटको
हाटकाङ्गदः ॥ ४७॥
सुमेरुर्हिमवान् होता हरपुत्रो
हलङ्कषः ।
हालप्रियो हृदाशान्तः
कान्ताहृदयपोषणः ॥ ४८॥
शोषणः क्लेशहा क्रूरः कठोरः
कठिनाकृतिः ।
कूवरो धीमयो ध्याता ध्येयो धीमान्
दयानिधिः ॥
दविष्ठो दमनो द्युस्थो दाता त्राता
सितः समः ।
निर्गतो नैगमी गम्यो निर्जेयो
जटिलोऽजरः ॥ ५०॥
जनजीवो जितारातिर्जगद्व्यापी
जगन्मयः ।
चामीकरनिभोऽनाद्यो नलिनायतलोचनः ॥
५१॥
रोचनो मोचनो मन्त्री
मन्त्रकोटिसमाश्रितः ।
पञ्चभूतात्मकः पञ्चसायकः
पञ्चवक्त्रकः ॥ ५२॥
पञ्चमः पश्चिमः पूर्वः ( ४००)
पूर्णः कीर्णालकः कुणिः ।
यशस्वी,
यजमानेष्ट, वज्रभृत् वज्रपञ्जर, मणिप्रभ, मणिमय, मान्य,
मीनध्वजाश्रित, मीनध्वज, मनोहारी योगिन, योगवर्धन, द्रष्टा,
स्रष्टा, तपस्वी, विग्रही
तापसंप्रिय, तपोमय, ऋतुरूप, ध्रुव, द्रुतगति, धर्म,
धर्मी, रुष्ट, तुष्ट,
तोमरधारक, दण्डी, चण्डांशु,
अव्यक्त, कमण्डलुधर, अनघ,
कामी, कर्मरत, काल,
कोल, क्रन्दितदिक्तट, भ्रामक,
जातिपूज्य, जाड्यहा, जडसूदन,
जालन्धर, जगद्वासी, हासकृद्,
हवन, हवि हविष्मान, हव्यवाहाक्ष,
हाटक, हाटकाङ्गद, सुमेरु,
हिमवान, होता, हरपुत्र,
हलङ्कष, हालाप्रिय, हृदाशान्त,
कान्ताहृदय, पोषण, शोषण,
क्लेशहा, क्रूर, कठोर,
कठिनाकृति, कूवर, धीमय,
ध्याता, ध्येय, धीमान्
दयानिधि दविष्ट, दमन, घुस्थ, दाता, त्राता, सित, सम, निर्गत, नैगमी, गम्य, निर्जेय, जटिल, अजर, जनजीव, जिताराती, जगद्व्यापी, जगन्मय, चामीकरनिभ,
अनाद्य, नलिनायतलोचन रोचन, मोचन, मन्त्री, मन्त्रकोटिसमाश्रित,
पञ्चभूतात्मक, पञ्चसायक, पञ्चवक्त्रक, पश्चिम, पूर्व,
पूर्ण, कीर्णालक, कुणि
।।४२-५२ ।।
कठोरहृदयो ग्रीवालङ्कृतो ललिताशयः ॥
५३॥
लोलचित्तो बृहन्नासो
मासपक्षर्तुरूपवान् ।
ध्रुवो द्रुतगतिर्धर्म्यो धर्मी
नाकिप्रियोऽनलः ॥ ५४॥
अगस्त्यो ग्रस्तभुवनो भुवनैकमलापहः
।
सागरः स्वर्गतिः स्वक्षः सानन्दः
साधुपूजितः ॥ ५५॥
सतीपतिः समरसः सनकः सरलः सुरः ।
सुराप्रियो वसुपतिर्वासवो वसुपूजितः
॥ ५६॥
वित्तदो वित्तनाथश्च धनिनां धनदायकः
।
राजी राजीवनयनः स्मृतिदः
कृत्तिकाम्बरः ॥ ५७॥
आश्विनोऽश्वमुखः शुभ्रो भरणो
भरणीप्रियः ।
कृत्तिकासनगः कोलो रोही रोहणपादुकः
॥ ५८॥
ऋभुवेष्टोऽरिमर्दी च रोहिणीमोहनोऽमृतम्
।
मृगराजो मृगशिरा माधवो मधुरध्वनिः ॥
५९॥
आर्द्राननो महाबुद्धिर्महोरगविभूषणः
।
भ्रूक्षेपदत्तविभवो भ्रूकरालः
पुनर्मयः ॥ ६०॥
पुनर्देवः पुनर्जेता पुनर्जीवः
पुनर्वसुः ।
तित्तिरिस्तिमिकेतुश्च
तिमिचारकघातनः ॥ ६१॥
तिष्यस्तुलाधरो जम्भ्यो विश्लेषोऽश्लेष
एणराट् ।
मानदो माधवो माघो वाचालो मघवोपमः ॥
६२॥
मेध्यो मघाप्रियो मेघो महामुण्डो
महाभुजः ।
पूर्वफाल्गुनिकः स्फीतः
फल्गुरुत्तरफाल्गुनः ॥ ६३॥
फेनिलो ब्रह्मदो ब्रह्मा
सप्ततन्तुसमाश्रयः ।
घोणाहस्तश्चतुर्हस्तो हस्तिवक्त्रो
हलायुधः ॥ ६४॥
चित्राम्बरो(५००)ऽर्चितपदः स्वादितः
स्वातिविग्रहः ।
कठोरहृदय,
ग्रीवालंकृत, ललिताशय, लोलंचित,
बृहन्नासी, मासरूप, पक्षरूप,
ऋतुरूप, ध्रुव, द्रुतगति,
धर्म, धर्मी, नाकिप्रिय,
अनल, अगस्त्य, ग्रस्तभुवन,
भुवनैकमलापह सागर, स्वर्गति, स्वक्ष, सानन्द, साधुपूजित,
सतीपति, समरस, सनक,
सरल, सुर, सुराप्रिय,
वसुपति, वासव, वसुपूजित,
वित्तद, वित्तनाथ, धनीधनदायक,
राजी, राजीवनयन, स्मृतद,
कृत्तिकाम्बर, आश्विन, अश्वमुख,
शुभ्र, भरण, भरणीप्रिय,
कृत्तिकासनग, कोल, रोही,
रोहणपादुक, ऋभुवेष्ट, अरिमर्दी,
रोहिणीमोहन, अमृत, मृगराज,
मृगशिरा, माधव, मधुरध्वनि,
आर्द्रानन, महाबुद्धि, महोरगविभूषण,
भ्रूक्षेपदत्तविभव, थ्रूकराल, पुनर्मय, पुनर्देव, पुनर्जेता,
पुनर्जीव, पुनर्वसु, तित्तिरतिमि,
केतु, तिमिचारकघातन, तिष्यतुलाधर,
जम्भ्य, विश्लेषा, श्लेष,
एणराट, मानद, माधव,
माघ, वाचाल, माधवोपम,
मेध्य, मघाप्रिय, मेघ,
महामुण्ड, महाभुज, पूर्वपाल्गुनिक,
स्फीत, फल्गुरुत्तर, फाल्गुन,
फेनलि, ब्रह्मद, ब्रह्मा,
सप्ततन्तुसमाश्रय, घोणा, हस्त, चतुर्हस्त, हस्तिवक्त्र,
हलायुध, चित्राम्बर, अर्चितपद,
स्वादित, स्वातिविग्रह ।। ५३-६४।।
विशाखः शिखिसेव्यश्च शिखिध्वजसहोदरः
॥ ६५॥
अणू रेणुः कलास्फारोऽनूरू रेणुसुतो
नरः ।
अनुराधाप्रियो राध्यः
श्रीमाञ्छुक्लः शुचिस्मितः ॥ ६६॥
ज्येष्ठः श्रेष्ठार्चितपदो मूलं
त्रिजगतो गुरुः ।
शुचिः पूर्वस्तथाषाढश्चोत्तराषाढ
ईश्वरः ॥ ६७॥
श्रव्योऽभिजिदनन्तात्मा श्रवो
वेपितदानवः ।
श्रावणः श्रवणः श्रोता धनी धन्यो
धनिष्ठकः ॥ ६८॥
शातातपः शातकुम्भः शतंज्योतिः
शतम्भिषक् ।
पूर्वाभाद्रपदो
भद्रश्चोत्तराभाद्रपादितः ॥ ६९॥
रेणुकातनयो रामो रेवतीरमणो रमी ।
अश्वियुक् कार्तिकेयेष्टो
मार्गशीर्षो मृगोत्तमः ॥ ७०॥
पुष्यशौर्यः फाल्गुनात्मा
वसन्तश्चित्रको मधुः ।
राज्यदोऽभिजिदात्मीयस्तारेशस्तारकद्युतिः
॥ ७१॥
प्रतीतः प्रोज्झितः प्रीतः परमः
पारमो हितः ।
परहा पञ्चभूः पञ्चवायुः पूज्यः परं
महः ॥ ७२॥
पुराणागमविद् योग्यो महिषो
रासभोऽग्रगः ।
ग्राहो मेषो वृषो मन्दो मन्मथो
मिथुनार्चितः ॥ ७३॥
कल्कभृत् कटको दीनो मर्कटः कर्कटो
घृणी ।
कुक्कुटो वनजो हंसः परहंसः शृगालकः
॥ ७४॥
सिंहः सिंहासनो मूषो मोह्यो
मूषकवाहनः (६००) ।
विशाख,
शिखिसेव्य, शिखिध्वजसहोदर, अणु, रेणु, कलास्फार, आनूरु, रेणुसुत, नर, अनुराधाप्रिय, राध्य, श्रीमान्,
शुक्र, शुचिस्मित, ज्येष्ठ,
श्रेष्ठार्चितपद, मूल, त्रिजगत्, गुरु, शुचि, पूर्वाषाढ़,
उत्तराषाढ़, ईश्वर, श्रव्य,
अभिजित, अनन्तात्मा, श्रव,
वेपित, दानव, श्रावण,
श्रवण, श्रोता, धनी,
धन्य, धनिष्ठक, शातातप,
शातकुम्भ, शतज्योति, शतम्भिषक्
पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्र, भाद्रपादित,
रेणुकातनय, राम, रेवतीरमण,
रमी, अश्वियुक्, कार्तिकेयेष्ट,
मार्गशीर्ष, भृगोत्तम, पुष्यशौर्य,
फाल्गुनात्मा, वसन्त, चित्रक,
मधु, राज्यपद, अभिजित,
आत्मीय, तारेश, तारकद्युति,
प्रतीत, प्रोज्झित, प्रीत,
परम, पारम, हित, परहा, पञ्चभू, पञ्चवायु,
पूज्य, परं, मह, पुराण, आगमविद, योग्य, महिष, रास- भोऽग्रग, ग्राह,
मेष, वृष, मन्द, मन्मथ, मिथुनार्चित, कल्कभृत्,
कटक, दीन, मर्कट,
कर्कट, घृणी, कुक्कुट,
वनज, हंस, परहंस,
श्रृंगालक, सिंहसिंहासन, मूषकवाहन।। ६५-७४।।
पुत्रदो नरकत्राता कन्याप्रीतः
कुलोद्वहः ॥ ७५॥
अतुल्यरूपो बलदस्तुलाभृत्
तुल्यसाक्षिकः ।
अलिचापधरो धन्वी कच्छपो मकरो मणिः ॥
७६॥
स्थिरः प्रभुर्महाकर्मी महाभोगी
महायशाः ।
वसुमूर्तिधरो व्यग्रोऽसुरहारी
यमान्तकः ॥ ७७॥
देवाग्रणीर्गणाध्यक्षो ह्यम्बुजालो
महामतिः ।
अङ्गदी कुण्डली भक्तिप्रियो
भक्तविवर्धनः ॥ ७८॥
गाणपत्यप्रदो मायी वेदवेदान्तपारगः
।
कात्यायनीसुतो ब्रह्मपूजितो विघ्ननाशनः
॥ ७९॥
संसारभयविध्वंसी महोरस्को महीधरः ।
विघ्नान्तको महाग्रीवो भृशं
मोदकमोदितः ॥ ८०॥
वाराणसीप्रियो मानी गहन आखुवाहनः ।
गुहाश्रयो विष्णुपदीतनयः स्थानदो
ध्रुवः ॥ ८१॥
परर्द्धिस्तुष्टो विमलो मौलिमान्
वल्लभाप्रियः ।
चतुर्दशीप्रियो मान्यो व्यवसायो
मदान्वितः ॥ ८२॥
अचिन्त्यः सिंहयुगलनिविष्टो
बालरूपधृत् ।
धीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो
महाबलसमन्वितः ॥ ८३॥
सर्वात्मा हितकृद् वैद्यो
महाकुक्षिर्महामतिः ।
करणं मृत्युहारी च पापसङ्घनिवर्तकः
॥ ८४॥
उद्भिद् वज्री महादैत्यसूदनो
दीनरक्षकः ।
भूतचारी प्रेतचारी बुद्धिरूपो
मनोमयः ॥ ८५॥
अहङ्कारवपुः
साङ्ख्यपुरुषस्त्रिगुणात्मकः ।
तन्मात्ररूपो भूतात्मा
इन्द्रियात्मा वशीकरः ॥ ८६॥
मलत्रयबहिर्भूतो
ह्यवस्थात्रयवर्जितः ।
नीरूपो बहुरूपश्च किन्नरो
नागविक्रमः ॥ ८७॥
एकदन्तो महावेगः सेनानी
स्त्रिदशाधिपः ।
विश्वकर्ता विश्वबीजं (७००) श्रीः सम्पदह्रीर्धृतिर्मतिः
॥ ८८॥
पुत्रद,
नरकत्राता, कन्याप्रीत, कुलोद्वह,
अतुल्यरूप, वलद, तुलाभृत्,
तुल्यसाक्षिक, अलिचापधर, धन्वी, कच्छप, मकर, मणि, स्थिर, प्रभुमहाकर्मी,
महाभोगी, महायश, वसुमूर्तिधर,
व्यग्र असुरहारी, यमान्तक, देवाग्रणी, गणाध्यक्ष, हाम्बुजाल,
महामति, अङ्गदी, कुण्डली,
भक्तिप्रिय, भक्तविवर्धन, गाणपत्यप्रद, मायी, वेदवेदान्तपारंग,
कात्यायनीसुत, ब्रह्मपूजित, विघ्ननाशन, संसारभयविध्वंसी, महोरस्क,
महीधर, विघ्नान्तक, महाग्रीव,
भृश, मोदकमोदित, वाराणसीप्रिय,
मानी, गहन, आखुवाहन,
गुहाश्रय, विष्णुपदीतनय, स्थानद, ध्रुव, परर्द्धितुष्ट,
विमल, मौलिमान, वल्लभाप्रिय,
चतुर्दशीप्रिय, मान्य, व्यवसाय,
मदान्वित, अचिन्त्य, सिंहयुगलनिविष्ट,
बालरूपधृत, धीर, शक्तिमत्,
श्रेष्ठ, महाबलसमन्वित, सर्वात्मा,
हितकृत्, वैद्य, महाकुक्षि,
महामति, करण, मृत्युहारी,
पापसङ्कटनिवर्तक, उद्भिद्, वज्री महादैत्यसूदन, दीनरक्षक, भूतचारी, प्रेतचारी, बुद्धिरूप,
मनोमय, अहङ्कारवपु, सांख्यपुरुष
त्रिगुणात्मक, तन्मात्ररूप, भूतात्मा,
इन्द्रिययात्मा, वशीकर, मलत्रयबहिर्भूत,
अवस्थात्रयवर्जित, नीरूप, बहुरूप, किन्नर, नाग, विक्रम, एकदन्त, महावेग,
सेनानी, त्रिदशाधिप, विश्वकर्ता,
विश्वबीज, श्री,सम्पद,
ह्रीं, धृति, मति ।।
७५-८८ ।।
सर्वशोषकरो वायुः सूक्ष्मरूपः
सुनिश्चलः ।
संहर्ता सृष्टिकर्ता च स्थितिकर्ता
लयाश्रितः ॥ ८९॥
सामान्यरूपः सामास्योऽथर्वशीर्षा
यजुर्भुजः ।
ऋगीक्षणः काव्यकर्ता शिक्षाकारी
निरुक्तवित् ॥ ९०॥
शेषरूपधरो मुख्यः
शब्दब्रह्मस्वरूपभाक् ।
विचारवाञ्शङ्खधारी सत्यव्रतपरायणः ॥
९१॥
महातपा घोरतपाः सर्वदो भीमविक्रमः ।
सर्वसम्पत्करो व्यापी
मेघगम्भीरनादभृत् ॥ ९२॥
समृद्धो भूतिदो भोगी वेशी
शङ्करवत्सलः ।
शम्भुभक्तिरतो मोक्षदाता भवदवानलः ॥
९३॥
सत्यस्तपा ध्येयमूर्तिः
कर्ममूर्तिर्महांस्तथा ।
समष्टिव्यष्टिरूपश्च
पञ्चकोशपराङ्मुखः ॥ ९४॥
तेजोनिधिर्जगन्मूर्तिश्चराचरवपुर्धरः
।
प्राणदो ज्ञानमूर्तिश्च
नादमूर्तियुतोऽक्षरः ॥ ९५॥
भूताद्यस्तैजसो भावो निष्कलश्चैव
निर्मलः ।
कूटस्थश्चेतनो रुद्रः क्षेत्रवित्
पुरुषो बुधः ॥ ९६॥
अनाधारोऽप्यनाकारो धाता च
विश्वतोमुखः ।
अप्रतर्क्यवपुः स्कन्दानुजो
भानुर्महाप्रभः ॥ ९७॥
यज्ञहर्ता यज्ञकर्ता यज्ञानां
फलदायकः ।
यज्ञगोप्ता यज्ञमयो
दक्षयज्ञविनाशकृत् ॥ ९८॥
वक्रतुण्डो महाकायः
कोटिसूर्यसमप्रभः ।
एकदंष्ट्रः कृष्णपिङ्गो विकटो
धूम्रवर्णकः ॥ ९९॥
टङ्कधारी जम्बुकश्च नायकः
शूर्पकर्णकः ।
सुवर्णगर्भः सुमुखः श्रीकरः
सर्वसिद्धिदः ॥ १००॥
सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो महात्मा
चन्दनच्छविः ।
स्वङ्गः स्वक्षः (८००) शतानन्दो
लोकविल्लोकविग्रहः ॥ १०१॥
सर्वशोषकर,
वायु, सूक्ष्मरूप, सुनिश्चल,
संहर्ता, सृष्टिकर्ता, स्थितिकर्ता,
लयाश्रित, सामान्यरूप, सामास्य,
अथर्वशीर्षक, यजुर्भुज, ऋगीक्षण,
काव्यकर्ता, शिक्षाकारी, निरुक्तवित्, शेषरूपधर, मुख्य,
शब्दब्रह्मस्वरूपभाक्, विचारवान, शङ्खधारी, सत्यव्रतपरायण, महातपा,
घोरतपा, सर्वद, भीमविक्रम,
सर्वसम्पत्कर, व्यापी, मेघगम्भीरनादभृत्,
समृद्ध, भूतिद, भोगी,
वेशी, शङ्करवत्सल, शम्भुभक्तिरत,
मोक्षदाता, भवदवानल, सत्यस्तपा,
ध्येयमूर्ति, कर्ममूर्ति, महान्, समष्टिरूप, व्यष्टिरूप,
पञ्चकोशप-राङ्मुख, तेजोनिधि, जगन्मूर्ति, चराचरवपुघर, प्राणद,
ज्ञानमूर्ति, युतोऽक्षर, भुताद्य, तैजस, भाव, निष्कल, निर्मल, कूटस्थ चेतन,
रुद्र, श्रेत्रवित्, पुरुष,
बुध, अनाधार, धाता,
विश्वतोमुख, अप्रतर्क्यवपु, स्कन्दानुज, भानुर्महाप्रभ, यज्ञहर्ता,
यज्ञकर्ता, यज्ञानां फलदायक, यज्ञगोप्ता, यज्ञमय, दक्षयज्ञविनाशकृत्,
वक्रतुण्ड महाकाय, कोटिसूर्यसमप्रभ, एकदंष्ट्र, कृष्णपिङ्ग, विकट,
धूम्रवर्णक, टङ्कधारी, जम्बुक,
नायक, शूर्पकर्ण, सुवर्णगर्भ,
सुमुख, श्रीकर, सर्वसिद्धिद, सुवर्णवर्ण, हेमाङ्ग, महात्मा,
चन्दन, छवि, स्वङ्ग,
स्वक्ष, शतानन्द, लोकविल्लोक-
विग्रह ।।८९-१०१।
इन्द्रो जिष्णुर्धूमकेतुर्वह्निः
पूज्यो दवान्तकः ।
पूर्णानन्दः परानन्दः
पुराणपुरुषोत्तमः ॥ १०२॥
कुम्भभृत् कलशी कुब्जो
मीनमांससुतर्पितः ।
राशिताराग्रहमयस्तिथिरूपो जगद्विभुः
॥ १०३॥
प्रतापी प्रतिपत्प्रेयान्
द्वितीयोऽद्वैतनिश्चितः ।
त्रिरूपश्च
तृतीयाग्निस्त्रयीरूपस्त्रयीतनुः ॥ १०४॥
चतुर्थीवल्लभो देवो पारगः पञ्चमीरवः
।
षड्रसास्वादकोऽजातः षष्ठी
षष्टिकवत्सरः ॥ १०५॥
सप्तार्णवगतिः सारः सप्तमीश्वर
ईहितः ।
अष्टमीनन्दनोऽनार्तो
नवमीभक्तिभावितः ॥ १०६॥
दशदिक्पतिपूज्यश्च दशमी द्रुहिणो
द्रुतः ।
एकादशात्मा गणपो द्वादशीयुगचर्चितः
॥ १०७॥
त्रयोदशमनुस्तुत्यश्चतुर्दशसुरप्रियः
।
चतुर्दशेन्द्रसंस्तुत्यः
पूर्णिमानन्दविग्रहः ॥ १०८॥
दर्शादर्शो दर्शनश्च वानप्रस्थो
मुनीश्वरः ।
मौनी मधुरवाङ्मूलं मूर्तिमान्
मेघवाहनः ॥ १०९॥
महागजो जितक्रोधो
जितशत्रुर्जयाश्रयः ।
रौद्रो रुद्रप्रियो रुक्मो
रुद्रपुत्रोऽघतापनः ॥ ११०॥
भवप्रियो भवानीष्टो भारभृद् भूतभावनः
।
गान्धर्वकुशलोऽकुण्ठो वैकुण्ठो
विष्णुसेवितः ॥ १११॥
वृत्रहा विघ्नहा सीरः
समस्तदुरितापहः ।
मञ्जुलो मार्जनो मत्तो दुर्गापुत्रो
दुरालसः ॥ ११२॥
अनन्तचित्सुधाधारो वीरो
वीर्यैकसाधकः ।
भास्वन्मुकुटमाणिक्यः
कूजत्किङ्किणिजालकः ॥ ११३॥
शुण्डाधारी तुण्डचलः कुण्डली
मुण्डमालकः ।
पद्माक्षः पद्महस्तश्च (९००)
पद्मनाभसमर्चितः ॥ ११४॥
इन्द्र,
जिष्णु, धूमकेतु, वह्नि,
पूज्य, दवान्तक, पूर्णानन्द,
परानन्द, पुराण, पुरुषोत्तम,
कुम्भभृत्, कलशी, कुब्ज,
मीनमांससुतर्पित, राशिमयस्थितिरूप, ताराम-यस्थितिरूप, ग्रहमयस्थितिरूप, जगदूविभु प्रतापी, प्रतिपत्प्रोयान् द्वितीया,
अद्वैतनिश्चित, त्रिरूप, तृतीया अगिनत्रयीरूप, त्रयीतनु, चतुर्थीवल्लभ, देव, पारग,
पञ्चमीरव, षड्रसास्वाद, अजात,
षष्ठी, षष्टिकत्सर, सप्तार्णवगति,
सार, सप्तमीश्वर, ईहित,
अष्टमीनन्दन, अनार्त, नवमीभक्तिभावित,
दशदिक्पतिपूज्य, दशमी, द्रुहिण,
द्रुत, एकादशात्मा, गणप
द्वादशीयुगचर्चित, त्रयोदशमनुस्तुत्य, चतुर्दशसुरप्रिय,
चतुर्द- शेन्द्रसंस्तुत्य, पूर्णिमानन्दविग्रह,
दर्शादर्श, दर्शन, वानप्रस्थ,
मुनीश्वर, मौनी, मधुरवाड्मूल,
मूर्तिमान, मेघवाहन, महागज, जितक्रोध, जितशत्रु, जयाश्रय,
रौद्र, रुद्रप्रिय, रुक्म,
रुद्रपुत्र, अघतापन, भवप्रिय,
भारभृत्, भूतभावन, गान्धर्वकुशल,
अकुण्ठ, विष्णुसेवित, वृत्रहा,
विघ्नहा, सीर, समस्तदुरितापह,
मञ्जुल, मार्जन, मत्त,
दुर्गापुत्र, दुरालस, अनन्त,
चित्सुधाधार, वीर, वीर्यैकसाधक,
भास्वन्मुकुटमाणिक्य, कूजतकिङ्किणीजालक,
शुण्डाधारी, तण्डचल, कुण्डली,
मुण्डमालक, पद्माक्ष, पद्महस्त,
पद्मनाभसमर्चित।। १०२-११४ ।।
उद्गीथो नरदन्ताढ्यमालाभूषणभूषितः ।
नारदो वारणो लोलश्रवणः शूर्पकश्रवाः
॥ ११५॥
बृहदुल्लासनासाढ्यव्याप्तत्रैलोक्यमण्डलः
।
इलामण्डलसम्भ्रान्तकृतानुग्रहजीवकः
॥ ११६॥
बृहत्कर्णाञ्चलोद्भूतवायुवीजितदिक्तटः
।
बृहदास्यरवाक्रान्तभीमब्रह्माण्डभाण्डकः
॥ ११७॥
बृहत्पादसमाक्रान्तसप्तपातालवेपितः
।
बृहद्दन्तकृतात्युग्ररणानन्दरसालसः
॥ ११८॥
बृहद्धस्तधृताशेषायुधनिर्जितदानवः ।
स्फुरत्सिन्दूरवदनः
स्फुरत्तेजोऽग्निलोचनः ॥ ११९॥
उद्दीपितमणिस्फूर्जन्नूपुरध्वनिनादितः
।
चलत्तोयप्रवाहाढ्यनदीजलकणाकुलः ॥
१२०॥
भ्रमत्कुञ्जरसङ्घातवन्दिताङ्घ्रिसरोरुहः
।
ब्रह्माच्युतमहारुद्रपुरःसरसुरार्चितः
॥ १२१॥
अशेषशेषप्रभृतिव्यालजालोपसेवितः ।
गूर्जत्पञ्चाननारावप्राप्ताकाशधरातलः
॥ १२२॥
हाहाहूहूकृतात्युग्रसुरविभ्रान्तमानसः
।
पञ्चाशद्वर्णबीजाढ्यमन्त्रमन्त्रितविग्रहः
॥ १२३॥
वेदान्तशास्त्रपीयूषधाराप्लावितभूतलः
।
शङ्खध्वनिसमाक्रान्तपातालादिनभस्तलः
॥ १२४॥
चिन्तामणिर्महामल्लो भल्लहस्तो बलिः
कलिः ।
कृतत्रेतायुगोल्लासभासमानजगत्त्रयः
॥ १२५॥
द्वापरः परलोकैककर्मध्वान्तसुधाकरः
।
सुधासिक्तवपुर्व्याप्तब्रह्माण्डादिकटाहकः
॥ १२६॥
अकारादिक्षकारान्तवर्णपङ्क्तिसमुज्ज्वलः
।
अकाराकारप्रोद्गीततारनादनिनादितः ॥
१२७॥
इकारेकारमन्त्राढ्यमालाभ्रमणलालसः ।
उकारोकारप्रोद्गारिघोरनागोपवीतकः ॥
१२८॥
ऋवर्णाङ्कितॠकारपद्मद्वयसमुज्ज्वलः
।
लृकारयुतलॄकारशङ्खपूर्णदिगन्तरः ॥
१२९॥
एकारैकारगिरिजास्तनपानविचक्षणः ।
ओकारौकारविश्वादिकृतसृष्टिक्रमालसः
॥ १३०॥
अंअःवर्णावलीव्याप्तपादादिशीर्षमण्डलः
।
कर्णतालकृतात्युच्चैर्वायुवीजितनिर्जरः
॥ १३१॥
खगेशध्वजरत्नाङ्ककिरीटारुणपादकः ।
गर्विताशेषगन्धर्वगीततत्परश्रोत्रकः
॥ १३२॥
घनवाहनवागीशपुरःसरसुरार्चितः ।
ङवर्णामृतधाराढ्यशोभमानैकदन्तकः ॥
१३३॥
चन्द्रकुङ्कुमजम्बाललिप्तसुन्दरविग्रहः
।
छत्रचामररत्नाढ्यमुकुटालङ्कृताननः ॥
१३४॥
जटाबद्धमहानर्घमणिपङ्क्तिविराजितः ।
झाङ्कारिमधुपव्रातगाननादनिनादितः ॥
१३५॥
ञवर्णकृतसंहारदैत्यासृक्पूर्णमुद्गरः
।
टङ्कारुकफलास्वादवेपिताशेषमूर्धजः ॥
१३६॥
ठकाराढ्यडकाराङ्कढकारानन्दतोषितः ।
णवर्णामृतपीयूषधाराधरसुधाधरः ॥ १३७॥
ताम्रसिन्दूरपुञ्जाढ्यललाटफलकच्छविः
।
थकारधनपङ्क्त्याढ्यसन्तोषितद्विजव्रजः
॥ १३८॥
दयामयहृदम्भोजधृतत्रैलोक्यमण्डलः ।
धनदादिमहायक्षसंसेवितपदाम्बुजः ॥
१३९॥
नमिताशेषदेवौघकिरीटमणिरञ्जितः ।
परवर्गापवर्गादिमार्गच्छेदनदक्षकः ॥
१४०॥
फणिचक्रसमाक्रान्तगलमण्डलमण्डितः ।
बद्धभ्रूयुगभीमोग्रसन्तर्जितसुरासुरः
॥ १४१॥
भवानीहृदयानन्दवर्धनैकनिशाकरः ।
मदिराकलशस्फीतकरालैककराम्बुजः ॥
१४२॥
यज्ञान्तरायसङ्घातघातसज्जीकृतायुधः
।
रत्नाकरसुताकान्तकान्तिकीर्तिविवर्धनः
॥ १४३॥
लम्बोदरमहाभीमवपुर्दीनीकृतासुरः ।
वरुणादिदिगीशानरचितार्चनचर्चितः ॥
१४४॥
शङ्करैकप्रियप्रेमनयनानन्दवर्धनः ।
षोडशस्वरितालापगीतगानविचक्षणः ॥
१४५॥
समस्तदुर्गतिसरिन्नाथोत्तारणकोडुपः
।
हरादिब्रह्मवैकुण्ठब्रह्मगीतादिपाठकः
॥ १४६॥
क्षमापूरितहृत्पद्मसंरक्षितचराचरः ।
ताराङ्कमन्त्रवर्णैकविग्रहोज्ज्वलविग्रहः
॥ १४७॥
अकारादिक्षकारान्तविद्याभूषितविग्रहः
।
ॐश्रींविनायको ॐह्रींविघ्नाध्यक्षो
गणाधिपः ॥ १४८॥
हेरम्बो मोदकाहारो वक्त्रतुण्डो
विधिस्मृतः ।
वेदान्तगीतो विद्यार्थी
शुद्धमन्त्रः षडक्षरः ॥ १४९॥
गणेशो वरदो देवो
द्वादशाक्षरमन्त्रितः ।
सप्तकोटिमहामन्त्रमन्त्रिताशेषविग्रहः
॥ १५०॥
गाङ्गेयो गणसेव्यश्च
ॐश्रीन्द्वैमातुरः शिवः ।
ॐह्रींश्रींक्लींग्लौंगंदेवो
महागणपतिः प्रभुः (१०००) ॥ १५१॥
उद्गीथ,
भवानीष्ट, नरदन्ताढ्यमालाभूषणभूषित, नारद, वारण, लोलश्रवण, शूर्पकश्रवा, बृहत्कर्णाञ्चलोद्भूतवायुवीजितदिक्तट,
बृहदास्यरवाक्रान्तभीमब्रह्माण्डभाण्डक, बृहत्पाद-
समाक्रान्तसप्तपातालवेपित, बृहद्दन्तकृतात्युग्ररणानन्दरसालस,
बृहद्धस्तधृताशेषा- युधनिर्जितदानव, स्फुरत्सिन्दूरवदन,
स्फुरत्तेजोऽग्निलोचन, उद्दीपितमणिस्फूर्जन्नूपुरध्वनिनादित,
चलत्तोयप्रवाहाढ्यनदीजलकणाकुल, भ्रमत्कुञ्जरसङ्घातवन्दिताङ्घ्रिसरोरुह,
ब्रह्माच्युतमहारुद्रपुर, सरसुरार्चित,
अशेषशेषप्रभृतिव्यालजालोपसेवित, गूर्जत्पञ्चाननारावप्राप्ताकाशधरातल, हाहाहूहूकृतात्युग्रसुरविभ्रान्तमानस, पञ्चाशद्वर्णबीजाढ्यमन्त्रमन्त्रितविग्रह,
वेदान्तशास्त्रपीयूष- धाराप्लावितभूतल, शङ्खध्वनिसमाक्रान्तपातालादिनभस्तल,
चिन्तामणिर्महामल्लो भल्लहस्तो बलि, कलि,
कृतत्रेतायुगोल्लासभासमानजगत्त्रय, द्वापर,
परलोकैककर्मध्वान्तसुधाकर, सुधासिक्तवपुर्व्याप्तब्रह्माण्डादिकटाहक,
अकारादिक्षकारान्तवर्णपङ्किसमुज्ज्वल, अकारा-
कारप्रोद्गीततारनादनिनादित, इकारेकारमन्त्राढ्यमालाभ्रमणलालस,
उकारोकारप्रोद्गारिघोर- नागोपवीतक, ऋवर्णाङ्कितॠकारपद्मद्वयसमुज्ज्वल,
वकारयुतलृकारशङ्खपूर्णदिगन्तर, एकारैकारगिरिजास्तनपानविचक्षण,
ओकारौकारविश्वादिकृतसृष्टिक्रमालस, अंअः-
वर्णावलीव्याप्तपादादिशीर्षमण्डल, कर्णतालकृतात्युच्चैर्वायुवीजितनिर्जर,
खगेशध्व- जरत्नाङ्ककिरीटारुणपादक, गर्विताशेषगन्धर्वगीततत्परश्रोत्रक,
घनवाहन वागीशपुर: सरसुरार्चित, डवर्णामृतधाराढ्यशोभमानैकदन्तक,
चन्द्रकुङ्कुमजम्बाललिप्तसुन्दरविग्रह, छत्रचामर-
रत्नाढ्यमुकुटालंकृतानन, जटाबद्धमहानर्धमणिपङ्क्तिविराजित,
झांकारिमधुपत्रातगाननादनि- नादित, अवर्णकृतसंहारदैत्यासृक्पूर्णमुद्गर,
टङ्कारुकफलास्वादवेपिताशेषमूर्धज, ठकारा- ढ्यडकाराङ्कढकारानन्दतोषित,
णवर्णामृतपीयूषधाराधरसुधाधर, ताम्रसिन्दूरपुञ्जाढ्य-
ललाटफलकच्छवि, थकारघनपतयाढ्यसन्तोषितद्विजब्रज, दयामयहृदम्भोजधृतत्रैलोक्य- मण्डल, धनदादिमहायक्षसंसेवितपदाम्बुज,
नमिताशेषदेवौघकिरीटमणिरञ्जित, पर-
वर्गापवर्गादिमार्गच्छेदनदक्षक, फणिचक्रसमाक्रान्तगलमण्डलमण्डित,
बद्धभ्रूयुगभीमोग्र सन्तर्जितसुरासुर, भवानीहृदयानन्दवर्धनैकनिशाकर,
मदिराकलशस्फीतकरालककराम्बुज, यज्ञान्तरायसङ्घातघातसज्जीकृतायुध,
रत्नाकरसुताकान्तकान्तिकीर्तिविवर्धन, लम्बोदर-
महाभीमवपुर्दीनीकृतासुर, वरुणादिदिगीशानरचितार्चनचर्चित,
शङ्करैकप्रियप्रेमनयनानन्दवर्धन, षोडशस्वरितालापगीतगानविचक्षण,
समस्तदुर्गतिसरिनाथोत्तारणकोडुप, हरादिब्रह्म-
वैकुण्ठब्रह्मगीतादिपाठक, क्षमापूरितहत्पद्मसंरक्षितचराचर,
ताराङ्कमन्त्रवर्णैकविग्रहोज्ज्वलविग्रह, अकारादिक्षकारान्तविद्याभूषितविग्रह
ॐ श्री विनायक, ॐ ह्रीं विघ्नाध्यक्ष, गणाधिप,
हेरम्ब, मोदकाहारी, वक्रतुण्ड,
विधि, स्मृति, वेदान्त,
गीत, विद्यार्थी, सिद्धमन्त्र,
षडक्षर, गणेश, वरद,
देव, द्वादशाक्षरमन्त्रित, सप्तकोटिमहामन्त्रमन्त्रित, अशेषविग्रह, गाङ्गेय, गणसेव्य, ॐ श्री
द्वैमातुर, शिव ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ग्लौं गं देव, महागणपति, प्रभु।। ११५-१५१।।
महागणपति(उच्छिष्टगणपति) सहस्रनाम स्तोत्र माहात्म्यम्
इदं नाम्नां सहस्रं ते महागणपतेः
स्मृतम् ।
गुह्यं गोप्यतमं गुप्तं
सर्वतन्त्रेषु गोपितम् ॥ १५२॥
सर्वमन्त्रनिधिं दिव्यं
सर्वविघ्नविनाशनम् ।
ग्रहतारामयं
राशिवर्णपङ्क्तिसमन्वितम् ॥ १५३॥
सर्वविद्यामयं ब्रह्मसाधनं
साधकप्रियम् ।
गणेशस्य च सर्वस्वं रहस्यं
त्रिदिवौकसाम् ॥ १५४॥
यथेष्टफलदं लोके मनोरथप्रपूरणम् ।
अष्टसिद्धिमयं साध्यं साधकानां
जयप्रदम् ॥ १५५॥
सहस्रनाम माहात्म्य - हे देवि ! इस
प्रकार महागणपति के हजार नामों को मैंने तुमसे कहा। ये नाम गुह्य,
गोप्यतम, गुप्त एवं सभी तन्त्रों में गोपित
हैं। यह सहस्रनाम सभी मन्त्रों का निधि है, दिव्य और
विघ्नविनाशक है। ग्रह तारा राशि वर्ण-पंक्ति से समन्वित है। ये सहस्रनाम
सर्वविद्यामय, ब्रह्मसाधन साधकप्रिय हैं। यह गणेशरहस्य का
सर्वस्व है। देवताओं का सर्वोपरि रहस्य है। यथेष्ट फलप्रदायक है एवं संसार में सभी
मनोरथों का प्रपूरक है। यह अष्टसिद्धिमय है साध्य है और साधकों को जयप्रदायक है ।।
१५२-१५५ ।।
विनार्चनं विना होमं विना न्यासं
विना जपम् ।
अणिमाद्यष्टसिद्धीनां साधनं
स्मृतिमात्रतः ॥ १५६॥
चतुर्थ्यामर्धरात्रे तु
पठेन्मन्त्री चतुष्पथे ।
लिखेद्भूर्जे रवौ देवि पुण्यं
नाम्नां सहस्रकम् ॥ १५७॥
धारयेत्तु चतुर्दश्यां मध्याह्ने
मूर्ध्नि वा भुजे ।
योषिद्वामकरे बद्ध्वा पुरुषो
दक्षिणे भुजे ॥ १५८॥
बिना अर्चन,
बिना होम, बिना न्यास, बिना
जप के इसके स्मरणमात्र से अणिमादि अष्ट सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। चतुर्थी तिथि
की आधी रात में चौराहे पर साधक इसका पाठ करे। रविवार में भोजपत्र पर इन पुनीत हजार
नामों को लिखे। चतुर्दशी के मध्य दिन में इसे मूर्धा या बाँह में धारण करे स्त्री
वाम भुजा में और पुरुष दक्ष भुजा में धारण करे ।। १५६-१५८।।
स्तम्भयेदपि ब्रह्माणं मोहयेदपि
शङ्करम् ।
वशयेदपि त्रैलोक्यं मारयेदखिलान्
रिपून् ॥ १५९॥
उच्चाटयेच्च गीर्वाणान् शमयेच्च
धनञ्जयम् ।
वन्ध्या पुत्रांल्लभेच्छीघ्रं
निर्धनो धनमाप्नुयात् ॥ १६०॥
त्रिवारं यः पठेद्रात्रौ गणेशस्य
पुरः शिवे ।
नग्नः शक्तियुतो देवि भुक्त्वा
भोगान् यथेप्सितान् ॥ १६१॥
इसे धारण करके ब्रह्मा को भी
स्तम्भित और शंकर को भी मोहित किया जा सकता हैं। तीनों लोक साधक के वश में होते
हैं। उसके सभी शत्रुओं का विनाश हो जाता है। गीर्वाणों का उच्चाटन होता है। अग्नि
शान्त होती है बन्ध्या को शीघ्र पुत्रलाभ होता है। निर्धन को धन प्राप्त होता है।
रात में गणेश के सामने जो इसका तीन पाठ शक्ति के साथ नंगे होकर करता है,
वह यथेच्छ भोगों का भोग करता है। इसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं
।।१५९-१६१।।
प्रत्यक्षं वरदं पश्येद्गणेशं
साधकोत्तमः ।
य एनं पठते नाम्नां सहस्रं
भक्तिपूर्वकम् ॥ १६२॥
तस्य वित्तादिविभवो दारायुःसम्पदः
सदा ।
रणे राजभये द्यूते पठेन्नाम्नां
सहस्रकम् ॥ १६३॥
सर्वत्र जयमाप्नोति गणेशस्य
प्रसादतः ।
इतीदं पुण्यसर्वस्वं
मन्त्रनामसहस्रकम् ॥ १६४॥
महागणपतेर्गुह्यं गोपनीयं
स्वयोनिवत् ।
उत्तम साधक को गणेश का दर्शन
प्रत्यक्ष होता है। जो इस सहस्रनाम का पाठ भक्तिपूर्वक करता है,
वह सदैव धन, वैभव, पत्नी
और आयु से युक्त रहता है। युद्ध में, राजभय में जुआ में
सहस्रनाम का पाठ करने से गणेश की कृपा से पाठक को सर्वत्र विजय प्राप्त होती है।
पुण्यसर्वस्व यह मन्त्रनामसहस्र सम्पूर्ण हुआ। यह गुह्य गोपनीय है। अपनी योनि के
समान इसे गुप्त रखना चाहिये ।। १६२-१६४।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये महागणपतिसहस्रनाम-निरूपणं नामैकोनत्रिंशः पटलः ॥ २९ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में महागणपतिसहस्रनाम निरूपण नामक एकोनत्रिंश पटल
पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्य पटल 30
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