देवीरहस्य पटल २६

देवीरहस्य पटल २६  

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध के पटल २६ में गणपतिपञ्चाङ्ग अंतर्गत महागणपति के मन्त्रोद्धार का निरूपण के विषय में बतलाया गया है।

देवीरहस्य पटल २६

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् षड्विंशः पटलः महागणपति मन्त्रोद्धारः

Shri Devi Rahasya Patal 26   

रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य छब्बीसवाँ पटल

रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् षड्विंश पटल

देवीरहस्य पटल २६ महागणपति मन्त्रोद्धार निरूपण

अथ गणपतिपञ्चाङ्गम्

महागणपति मन्त्रोद्धारः

अथ षड्विंशः पटलः

तन्त्रोत्तरार्धप्रस्तावः

श्रीभैरव्युवाच

भगवन् भूतभव्येश कुलधर्मप्रकाशम् ।

कुलेश श्रमिच्छामि तन्त्रस्यास्योत्तरार्धकम् ॥ १ ॥

तन्त्रोत्तरार्ध - प्रस्ताव- श्री भैरवी ने कहा कि हे भगवन् भूतभव्येश! कुल-धर्मप्रकाशक! कुलेश ! अब मुझे तन्त्र के उत्तरार्द्ध को सुनने की इच्छा है ॥ १ ॥

देवीरहस्य पटल २६- देवानां भवान्यैक्य निरूपणम्

श्री भैरव उवाच

अधुना देवि कौलेशि कौलिकानां हितेच्छया ।

तन्त्रोत्तरार्धं वक्ष्यामि रहस्यविजयाभिधम् ॥२॥

दुर्गादेवी परादेवी पराशक्तिः पराम्बिका ।

देवदेवीति या ख्याता गायत्रीति श्रुतौ स्मृता ॥ ३ ॥

तेजोमयी महाश्यामा महात्रिपुरसुन्दरी ।

पञ्चात्मिका पञ्चमीशी पञ्चव्योमप्रकाशिनी ॥४॥

उग्रदुर्गा परा या श्रीस्तज्ज्योतिः परमं पदम् ।

परादेवीति या दुर्गा सा शिवः सा हरिः स्मृता ॥ ५ ॥

सा सूर्य: सविता सैव महागणपतिः स्मृता ।

पञ्चाक्षरीति गायत्री परमात्मेति कीर्त्यते ।

पञ्चमी पञ्चिका देवी पञ्चमाचारवर्तिनी ॥ ६ ॥

पञ्चकृत्यमयी देवी सर्वदेवीमयी शिवा ॥७॥

गणेशार्क हरीशान-दुर्गारूपा सरस्वती ।

महाश्यामा महाविद्या पूजनीया यथाक्रमम् ॥८ ॥

न कुर्याद् भेदमेतेषां कौलिको वैष्णवोऽथवा ।

गणेशार्क हरीशान- दुर्गाणां परमार्थवित् ॥ ९ ॥

देवताओं के भवानी से एक्य का निरूपण-श्री भैरव ने कहा कि अब मैं इस तन्त्र के उत्तरार्द्ध का वर्णन कौलिकों के हित की इच्छा से करता हूँ इस उत्तरार्द्ध को रहस्यविजय भी कहते हैं। दुर्गा देवी ही परादेवी, पराशक्ति, पराम्बिका, देवदेवी के नाम से विख्यात गायत्री हैं। यह श्रुतियों का वचन है वही तेजोमयी महाकाली, महात्रिपुरसुन्दरी, पञ्चात्मिका, पञ्चमेशी, पञ्चव्योमप्रकाशिनी हैं। वही उग्र दुर्गा, पराश्री की ज्योति परमपद- परादेवी है। दुर्गा ही शिव हैं, वही विष्णु हैं। वही दुर्गा सूर्य, सविता, महागणपति हैं। वही देवी पञ्चमी, पञ्चिका, पञ्च मकार के आचार को वर्तिनी हैं। वहीं पञ्चाक्षरी मन्त्र, गायत्री, परमात्मा कही जाती हैं। वही पञ्चविद्यामयी देवी हैं। वही सर्वदेवमयी शिवा हैं। गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव दुर्गा के ही रूप हैं। सरस्वती दुर्गारूपा है। दुर्गा ही महाकाली, महाविद्या के रूप में यथाक्रम पूजनीय हैं। कौलिकों या वैष्णवों को गणेश, सूर्य, विष्णु, शिव में भेद नहीं करना चाहिये। दुर्गा के परमार्थ ज्ञानियों का यही मत है ।। २-९ ।।

देवीरहस्य पटल २६- सर्वचक्रेष्वभेदबुद्ध्या सर्वदेवपूजा

पूजयेदैक्यभावेन देवीभक्त्यैव भक्तिमान् ।

देवीचक्रेऽर्चयेत् सर्वाश्छिवलिङ्गेऽथवा शिवे ॥१०॥

सालिग्रामशिलायां वा सूर्यपीठेऽथवा प्रिये ।

श्रीगणेश्वरचक्रेण न भेदं कारयेद् बुधः ॥ ११ ॥

भेदं वै कुरुते यस्तु स शैवः शिवहा भवेत् ।

पृथक् पृथक् शिवे कुर्यादर्चनं कौलिकोत्तमः ॥१२॥

गणेशस्य च सूर्यस्य विष्णोदेवि शिवस्य च ।

श्रीदेव्या उग्रदुर्गाया मन्त्री देवीरहस्यवित् ॥ १३ ॥

सभी चक्रों में अभेदबुद्धि से सर्वदेव पूजन- देवीभक्ति से युक्त भक्त सभी देवों का पूजन ऐक्य भाव से श्रीचक्र में करे अथवा शिवलिङ्ग में या शालग्राम शिला में या सूर्यपीठ में या गणेशचक्र में बुद्धिमान साधक भेद न करके ऐक्य भाव से पूजन करे। जो शैव भेद-भाव करता है, वह शिव घातक होता है श्रेष्ठ कौलिक सबका अर्चन पृथक्- पृथक् करे। देवी के रहस्य को जानने वाला गणेश, सूर्य, विष्णु, देवी, शिव, श्रीदेवी, उग्र दुर्गा का पूजन पृथक्-पृथक् करे ।। १०-१३ ।।

देवीरहस्य पटल २६- तत्रोत्तरार्धे पञ्चाङ्गनिरूपणम्

अद्याहं तव देवेशि प्रेम्णा वक्ष्ये कुलात्मकम् ।

रहस्यविजयं नाम तन्त्र तन्त्रोत्तरार्धकम् ॥ १४ ॥

पञ्चाङ्गभूतमेतेषां सर्वमन्त्रार्चनामयम् ।

गणेशस्य च पञ्चाङ्गं पञ्चाङ्ग सवितुस्तथा ।। १५ ।।

लक्ष्मीनारायणस्यापि पञ्चाङ्ग श्रीशिवस्य च ।

दुर्गादेव्याश्च पञ्चाङ्ग दुर्गादेवी रहस्यकम् ।। १६ ।।

उत्तरार्धमिति प्रोक्तं तन्त्रस्यास्य महेश्वरि ।

सर्वस्वमेतद् देवेशि तन्त्रं देवीरहस्यकम् ॥ १७ ॥

अवक्तव्यमभक्तेभ्यो गोपयेत् कुलनायकः ।

प्रथमं देवि पञ्चाङ्गं महागणपतेः शृणु ॥ १८ ॥

येन श्रवणमात्रेण विघ्ननाशो भवेत् क्षणात् ।

तन्त्रोत्तरार्द्ध में पञ्चाङ्ग निरूपण हे देवेशि ! तुम्हारे प्रेमवश अब मैं कुलात्मक रहस्यविजय नामक तन्त्रोत्तरार्ध तन्त्र का वर्णन करता हूँ। इसमें सभी मन्त्रार्चन के पञ्चाङ्गों का वर्णन समाविष्ट है। इसमें गणेश, सविता, लक्ष्मी, नारायण, शिव, दुर्गा के पञ्चाङ्गों का वर्णन है। दुर्गा देवी के रहस्य का वर्णन है। हे महेश्वरि इसे इस तन्त्र का उत्तरार्द्ध कहा जाता है। हे देवेशि ! यह देवीरहस्य का सर्वस्व है। अभक्तों के पास इसे नहीं कहना चाहिये। कुलनायक को इसे गुप्त रखना चाहिये। हे देवि! पहले महागणपति के पञ्चाङ्ग का वर्णन सुनो, जिसके श्रवणमात्र से क्षणमात्र में ही विघ्नों का विनाश हो जाता है। । १४-१८।।

देवीरहस्य पटल २६- गणपतिपञ्चाङ्गावतारः

मेरुपृष्ठे सुखासीनं महादेवं त्रिलोचनम् ।।१९।।

सुरासुरगणैर्युक्तं ब्रह्माच्युतनमस्कृतम् ।

सिद्धकिन्नरगन्धर्वैर्यक्षभूतपिशाचकैः॥२०॥

तोषितं नतिभिः स्तोत्रैः पार्वतीसहितं शिवम् ।

सस्मितं भाषमाणं च ब्रह्मणा हरिणा सह ॥ २१ ॥

पार्वती प्रणता भूत्वा वचनं समभाषत ।

गणेश पञ्चाङ्ग मेरुपृष्ठ पर त्रिलोचन महादेव सुख से बैठे हैं। देवता, दैत्यगण ब्रह्मा, विष्णु उन्हें नमस्कार कर रहे हैं। सिद्ध, किन्नर, गन्धर्व, यक्ष, भूत, पिशाच, पार्वती, सति अपने-अपने नमस्कार और स्तोत्रों द्वारा महादेव को सन्तुष्ट कर रहे हैं। मुस्कानयुक्त मुख से शिव ब्रह्मा और विष्णु से जब वार्ता कर रहे थे, उसी समय प्रणत होकर पार्वती इस प्रकार बोलीं ।। १९-२१।।

श्रीदेव्युवाच

भगवन् सर्वतत्त्वज्ञ सर्वधर्मप्रकाशक ।

कार्यस्य देवतानां च मनुष्याणां तथैव च ॥ २२ ॥

विघ्नः केन भवेद् देव संशयं छिन्दि शङ्कर ।

शिर नवाकर पार्वती ने कहा- सभी तत्त्वों के ज्ञाता भगवन्! आप सभी धर्मों के प्रकाशक हैं। हे शङ्कर! मेरी इस शंका का आप समाधान कीजिये कि देवताओं और मनुष्यों के शुभ कार्य में विघ्न क्यों होते हैं ।। २२ ।।

श्री भैरव उवाच

देवि वक्ष्ये रहस्यं ते प्रश्नोत्तरमिदं महत् ।

अवक्तव्यमभक्तेभ्यो भक्तेभ्यो मुक्तिसाधनम् ॥ २३ ॥

विनायको गणाध्यक्षो गणेश इति यः प्रभुः ।

विघ्नकर्ता जगत्त्राता विघ्नहर्तेति विश्रुतः ॥ २४ ॥

तस्य भक्तस्य देवस्य मर्त्यस्यापि महेश्वरि ।

विघ्नो न बाधते जातु यस्तं सम्पूजयेत् सदा ॥ २५ ॥

यो जपेद् देवि तन्मन्त्रं कवचं तस्य धारयेत् ।

पठेन्नाम्नां सहस्त्रं तु स्तोत्रं मूलैकसाधनम् ॥ २६ ॥

विघ्नो न बाधते तस्य कार्यहानिर्न वा भवेत् ।

श्री भैरव ने कहा कि इस रहस्य को मैं बतलाता हूँ। आपके प्रश्न और उत्तर दोनों महत्त्वपूर्ण हैं। इसे अभक्तों और मुमुक्षु भक्तों को भी नहीं बतलाना चाहिये। गणेश, जो विनायक और गणाध्यक्ष प्रभु हैं, वही विघ्नकर्ता, जगद्ररक्षक, विघ्नविनाशक के रूप में भी विख्यात हैं। गणेश के जो भक्त, देवता या मनुष्य सदैव उनकी पूजा करते हैं, उन्हें कभी भी विघ्न-बाधा नहीं होते। जो उनके मन्त्र का जप करता है, उनके कवच को धारण करता है, सहस्रनाम का पाठ करता है और स्तोत्रों का पाठ करता है, उसके लिये विघ्न बाधक नहीं होते और उसके कार्य में हानि भी नहीं होती ।। २३-२६ ।।

श्रीदेव्युवाच

देवदेव महादेव गणेशस्य जगत्प्रभो ।

मन्त्रं यन्त्रं स्तवं वर्म नाम्नां साहस्रमुत्तमम् ॥ २७ ॥

पूजां श्रोतुमहं त्वत्तो वाञ्छामि परमेश्वर ।

श्री देवी ने कहा कि हे देवों के देव महादेव! जगत् के स्वामी! गणेश के मन्त्र, यन्त्र, स्तोत्र, कवच, सहस्रनाम और पूजन के बारे में आपसे सुनने की मेरी इच्छा है; आप उन्हें बतलाने की कृपा करें।। २७।।

श्रीभैरव उवाच

यो देवदेवो वरदो गणेशो विघ्ननायकः ।

गजाननो गणाध्यक्षो विनायक इति श्रुतः ॥ २८ ॥

पञ्चाङ्गमखिलं तस्य वक्ष्यामि तव प्रीतये ।

तत्रादौ ते प्रवक्ष्यामि मन्त्रोद्धारं सुरेश्वरि ॥ २९ ॥

यन्त्रोद्धारं लयाङ्गं च महागणपतेः शिवे ।

श्री भैरव ने कहा कि जो देवों के देव, वरदायक, विघ्नविनाशक गणेश, गजानन, गणाध्यक्ष, विनायक के नाम से विख्यात है, तुम्हारे प्रेमवश मैं उन्हीं गणेश के पञ्चाङ्ग का वर्णन करूंगा; पर इसके पहले उन महागणपति के मन्त्र, यन्त्र एवं लयाङ्ग का वर्णन करता हूँ ।। २८-२९ ।।

देवीरहस्य पटल २६- महागणपतिमन्त्रोद्धारः

अथ मन्त्रोद्धारः-

तारं मा सकला स्मरो मठशिवौ नम्नो वरेति द्वयं

सर्पः सर्वमतो जनं डुलिलते जीमूतशर्माक्षरम् ।

भेकी खं लवणं समीरसहितं मन्त्राञ्चले ठद्वयं

ह्यष्टाविंशतिवर्णको निगदितो वैनायकोऽयं मनुः ॥ ३० ॥

इति मन्त्रोद्धारः ।

प्रकाशम् ॐ श्रीं ह्रीं क्लींग्लौं गं गणपतये वरवरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा ।।

महागणपति मन्त्रोद्धार - उपर्युक्त श्लोक के सांकेतिक शब्दों का उद्धार करने पर अट्ठाईस अक्षरों का गणपतिमन्त्र बनता है, वह है- ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं ग्लौं गं गणपतये वरवरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा।। ३० ।।

तत्त्वलक्षं सवेदाङ्कं पुरश्चर्या प्रकीर्तिता ।

वटे चतुष्पथे शून्यगृहे प्रेतालये चरेत् ॥ ३१ ॥

नास्य विघ्नो न वाशौचं न वा मन्त्रविपर्ययः ।

न क्लेशो न च दुर्बुद्धिर्न मोहो न च शोकता ॥ ३२॥

सर्वथा सिद्धमन्त्रोऽयं महागणपतेः शिवे ।

चार लाख जप से इस मन्त्र का पुरश्चरण होता है। वटवृक्ष के नीचे, चौराहे पर, शून्य गृह में या श्मशान में इसका जप करना प्रशस्त कहा गया है। इसमें कोई विघ्न नहीं है, न अशौच है, न मन्त्रविपर्यय है, न कोई कष्ट है, न बुद्धि खराब होती है, न मोह होता है और न ही शोक होता है। महागणपति का यह मन्त्र सर्वथा सिद्ध है ।। ३१-३२।।

देवीरहस्य पटल २६- महागणपतियन्त्रोद्धारः

यन्त्रोद्धारं प्रवक्ष्यामि सर्वाशापरिपूरकम् ॥ ३३ ॥

सर्वसम्मोहनं चक्रं गणेशस्य जगत्प्रभोः ।

अब मैं सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाले महागणपति के यन्त्र का उद्धार बतलाता हूँ ।। ३३ ।।

अथ यन्त्रोद्धारः-

त्रिकोणं खयुक्तं दशारं महेशि

सुवृत्तं तथा नागपत्र कलारम् ।

सुवृत्तं चतुर्द्वारयुक्तं प्रयुक्तं

गजास्यस्य श्रीचक्रमेतत् प्रसिद्धम् ॥ ३४ ॥

यन्त्रोद्धार संसार के स्वामी श्री गणेश के सर्वसम्मोहन चक्र में बिन्दु, त्रिकोण, दशदल, अष्टपत्र, षोडशदल, वृत्त और चार द्वारयुक्त भूपुर अंकित होते हैं। गजानन का यह प्रसिद्ध यन्त्र है ।। ३४ ।।

महागणपतियन्त्र

देवीरहस्य पटल २६ महागणपतियन्त्र

देवीरहस्य पटल २६- गणपतिध्यानम्

अथ ध्यानं प्रवक्ष्यामि सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।

येन स्मरणमात्रेण सर्वो विघ्नः पलायते ॥ ३५ ॥

उद्यत्कोटिदिवाकरांशुसदृशं त्र्यक्षं किरीटोज्ज्वलं

मात्रं मोदकपूर्णमीड्यकलशं पद्माक्षसूत्रं भुजैः ।

बिभ्राणं शुचिनागसम्भवलसत्कायं भुजङ्गोज्ज्वलं

ध्यायेत् सिंहयुगासनं गणपतिं त्रैलोक्यचिन्तामणिम् ॥३६ ।।

गणपति-ध्यान- अब मैं सर्वसिद्धिप्रदायक गणपति के ध्यान का वर्णन करता हूँ, जिसके स्मरणमात्र से ही सभी विघ्न भाग जाते हैं करोड़ों उदीयमान सूर्य की आभा के समान उनका वर्ण है। तीन नेत्र और जगमगाता किरीट उनके शिर है। हाथों में मोदकपूर्ण पात्र, कलश, पद्माक्षसूत्र है। उनका मुख हाथी का है। श्वेत नाग उनके तन से लिपटा हुआ है। दो सिंहों के आसन पर विराजमान तीनों लोकों के चिन्तामणि गणेश का मैं ध्यान करता हूँ।। ३५-३६।।

देवीरहस्य पटल २६- गणपतिलयाङ्गपूजनम्

गामित्यादिकरन्यासं हृदयादिषडङ्गकम् ।

षड्वर्गबीजभागेन कल्यन्यासं चरेत् ततः ॥ ३७॥

लयाङ्गमधुना वक्ष्ये यन्त्रस्य परमेश्वरि ।

पूजनं सर्वतन्त्रेषु गोपितं शरजन्मना ॥ ३८ ॥

इन्द्रधर्मेशवरुणाः कुबेरसहितास्तथा ।

पूर्वपश्चिमयोः पूज्या दक्षिणोत्तरयोस्तथा ॥ ३९ ॥

इति द्वारपालाः ।

गणपति लयाङ्ग पूजन गां गीं गूं गें गौं गः से करन्यास और हृदयादि षडङ्ग न्यास करे। अब मैं यन्त्र में षडङ्ग पूजन का वर्णन करता हूँ, जो सभी तन्त्रों में गुप्त रखा गया है। इन्द्र का पूर्व में, धर्मेश का दक्षिण में वरुण का पश्चिम में और कुबेर का पूजन उत्तर में करे। ये द्वारपाल कहे गये हैं ।। ३७-३९।।

नन्दिवीरेशसौभाग्य भृङ्गिरीटिविराटकाः ।

पुष्पदन्तविकर्तान्त्यचित्तलोहितसुन्दराः ॥४०॥

नूपुराढ्यविचारोग्ररूप- सुप्तविनर्तकाः ।

गणाः षोडश सम्पूज्याः षोडशारेषु सुन्दरि ॥ ४१ ॥

करालं विकरालं च संहारं रुरुमेव च ।

महाकालं च कालाग्निं सितास्यमसितात्मकम् ॥४२॥

षोडशार में नन्दी, वीरेश, सौभाग्य, भृङ्गी, विराट, पुष्पदन्त, विकर्तन, अन्त्य, चित्त, लोहित, सुन्दर, नूपुराढ्य, विचार, उग्र, सुप्त और विनर्तक इन सोलह गणों का पूजन करे ।।४०-४२ ।।

अष्टपत्रेषु देवेशि पूजयेदष्ट भैरवान् ।

विनायकं विघ्नराजं गणाध्यक्षं गजाननम् ॥४३॥

हेरम्बं मोदकाहारं द्वैमातुरमरिन्दमम् ।

एकदन्तं वक्रतुण्डं दशारेषु प्रपूजयेत् ॥४४॥

अष्टदल में आठ भैरवों का पूजन करे। ये हैंकराल, विकराल, संहार, रुरु, महाकाल, कालाग्नि, सितास्य और असितात्म। दशदल में विनायक, विघ्नराज, गणाध्यक्ष, गजानन, हेरम्ब, मोदकाहार, द्वैमातुर, अरिन्दम, एकदन्त, वक्रतुण्ड इन दश का पूजन करे ।। ४३-४४ ।।

कुमारं च जयन्तं च प्रद्युम्नं सुरसुन्दरि ।

त्रिकोणे पूजयेद्विन्दौ महागणपतिं प्रभुम् ॥४५ ।।

गणेशं चैव गाङ्गेयं सिंहासनमतः परम् ।

विघ्नान्तकाखुवाहा च त्रिपुरान्तकमीश्वरि ॥ ४६ ॥

उपर्युपरि सम्पूज्य पूजयेदायुधांस्ततः ।

शतपत्रं सहस्त्रारं दन्तमालां महेश्वरि ॥ ४७ ॥

मोदकाङ्कितपात्रं च कलशं परशुं ततः ।

शङ्खौ सम्पूजयेद्विन्दौ लयाङ्गमिदमुच्यते ॥ ४८ ॥

त्रिकोण के कोनों में कुमार, जयन्त और प्रद्युम्न का पूजन करे। बिन्दु में महागणपति का पूजन करे। सिंहासन पर गणेश, गाङ्गेय, त्रिपुरान्तक, विघ्नान्तक, मूषकवाहन का पूजन करे। इसके बाद उनके आयुधों का पूजन करे। आयुधों में शतपत्र, सहस्रार, दन्तमाला, मोदकपात्र, कलश, परशु और शङ्ख का पूजन करे। इसी पूजन को लयाङ्ग- पूजन कहते हैं ।।४५-४८ ।।

देवीरहस्य पटल २६- महागणपतिमन्त्रतदृष्यादिकथनम्

मन्त्रस्यास्य गणेशस्य ऋषिर्ब्रह्मा प्रकीर्तितः ।

गायत्र्यं छन्द इत्युक्तं देवो गणपतिः स्मृतः ॥ ४९ ॥

शिवबीजं च बीजं स्यान्मायाशक्तिरुदाहृता ।

कुरुद्वयं कीलकं स्यात् सर्वमन्त्रैकसाधनम् ॥५०॥

त्रैलोक्यविजये देवि विनियोगः प्रकीर्तितः ।

महागणपति मन्त्र के ऋष्यादि- इस गणेश मन्त्र के ऋषि ब्रह्मा कहे गये हैं। गायत्री इसका छन्द कहा गया है एवं गणपति देवतारूप में प्रतिष्ठित किये गये हैं। 'गं' बीज एवं 'ह्रीं' शक्ति कहे गये हैं। 'कुरु कुरु' इसका कीलक कहा गया है। समस्त मन्त्रों के एकमात्र साधनस्वरूप इस मन्त्र का त्रैलोक्य विजय के लिये विनियोग कहा गया है ।। ४९-५०।।

देवीरहस्य पटल २६- महागणपतिमन्त्रद्वारा षट्कर्मसाधनम्

अयुतं च जपेन्मूलं हुत्वा सर्पिर्यवाङ्कुरम् ॥ ५१ ॥

मोहयेत् परमेशानि मारयेद् रिपुमण्डलम् ।

अयुतं च जपेन्मूलं वटे हुत्वा चितानले ॥५२॥

स्तम्भयेदखिलांल्लोकान् वादिदस्युबलानि च ।

नद्यां साधक एवाशु जपेदयुतसंख्यया ॥ ५३ ॥

जुहुयादिभविण्मांसं रिपुमुच्चाटयेद् ध्रुवम् ।

विद्वेषयेच्च ब्रह्माणं गिरिजे नात्र संशयः ॥ ५४ ॥

वने निम्बरसं हुत्वा जप्त्वा मूलमथायुतम् ।

वशयेदपि राजानमाकर्षयति योषितः ॥५५ ॥

इतीदं पटलं गुप्तं महागणपतेः शिवे ।

सर्वतन्त्रकसर्वस्वं गोपनीयं विशेषतः ॥ ५६ ॥

महागणपति मन्त्र से षट्कर्म साधन- महागणपति का जप दश हजार करके गोघृत और यव के अंकुरों से हवन करे। इससे सबका मोहन होता है और शत्रुसमूह का विनाश होता हैं। दश हजार मन्त्रजप वटवृक्ष के मूल में बैठकर करने के बाद चिता की अग्नि में हवन करे। इससे सभी लोकों का स्तम्भन होता है। बलवान प्रतिवादी एवं दस्युदलों का भी स्तम्भन होता है। नदी में मूलमन्त्र का जप दश हजार करके हाथी के मांस से हवन करने पर शत्रुओं का उच्चाटन होता है। मूल मन्त्र का जप दश हजार करके नीम के रस से जङ्गल में हवन करने से ब्राह्मणों में विद्वेषण होता है। इससे राजा वशीभूत होते हैं एवं रमणियाँ आकर्षित होती हैं। हे शिवे! इस प्रकार महागणपति का यह गुप्त पटल समाप्त हुआ। यह सभी तन्त्रों का सर्वस्व है और विशेष रूप से गोपनीय है ।।५१-५६।।

इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये महागणपति ( पटल ) - मन्त्रोद्धारनिरूपणं नाम षड्विशं पटलः । २६ ।।

इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में महागणपति-मन्त्रोद्धार निरूपण नामक षड्विंश पटल पूर्ण हुआ।

आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 27 

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