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- सूर्य मूलमन्त्र स्तोत्र
- वज्रपंजराख्य सूर्य कवच
- देवीरहस्य पटल ३२
- देवीरहस्य पटल ३१
- अग्निपुराण अध्याय १४१
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- अग्निपुराण अध्याय १३९
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- रहस्यपञ्चदशिका
- महागणपति मूलमन्त्र स्तोत्र
- वज्रपंजर महागणपति कवच
- देवीरहस्य पटल २७
- देवीरहस्य पटल २६
- देवीरहस्य
- श्रीदेवीरहस्य पटल २५
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- देहस्थदेवताचक्र स्तोत्र
- अनुभव निवेदन स्तोत्र
- महामारी विद्या
- श्रीदेवीरहस्य पटल २४
- श्रीदेवीरहस्य पटल २३
- अग्निपुराण अध्याय १३६
- श्रीदेवीरहस्य पटल २२
- मनुस्मृति अध्याय ७
- महोपदेश विंशतिक
- भैरव स्तव
- क्रम स्तोत्र
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- अग्निपुराण अध्याय १३२
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- वीरवन्दन स्तोत्र
- शान्ति स्तोत्र
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- स्वयम्भू स्तोत्र
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- अग्निपुराण अध्याय १२९
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अगहन बृहस्पति व्रत व कथा
मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
वज्रपंजर महागणपति कवच
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम् उत्तरार्द्ध
के पटल २८ में गणपतिपञ्चाङ्ग अंतर्गत वज्रपंजर महागणपति कवच का निरूपण के विषय में
बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं देवीरहस्यम् अष्टाविंशः पटलः वज्रपञ्जरमहागणपतिकवचम्
Shri Devi Rahasya Patal 28
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य
अट्ठाईसवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् अष्टाविंश
पटल
देवीरहस्य पटल २८ वज्रपञ्जर महागणपति कवच
अथ गणपतिपञ्चाङ्गम्
महागणपति-कवचम्
अथाष्टाविंशः पटलः
वज्रपञ्जरमहागणपतिकवचम्
श्रीभैरव उवाच
महादेवि गणेशस्य वरदस्य महात्मनः ।
कवचं ते प्रवक्ष्यामि
वज्रपञ्जरकाभिधम् ॥ १ ॥
श्री भैरव ने कहा- हे महादेवि ! अब
मैं वरद महागणपति का वज्रपञ्जर नाम के कवच का वर्णन करता हूँ ।। १ ।।
वज्रपञ्जरमहागणपतिकवचम्
विनियोगः
अस्य श्रीमहागणपतिवज्रपञ्जरकवचस्य
श्री भैरव ऋषिः, गायत्र्यं छन्दः
श्रीमहागणपतिर्देवता, गं बीजं, ह्रीं
शक्तिः, कुरु कुरु कीलकं, वज्र-
विद्यादिसिद्ध्यर्थे महागणपतिवज्रपञ्जरकवचपाठे विनियोगः ।
गामित्यादिना षडङ्गन्यासं विधाय
ध्यायेत् ।
विनियोग- अस्य श्रीमहागणपतिवज्रपञ्जरकवचस्य
श्रीभैरव ऋषिः, गायत्र्यं छन्दः, श्रीमहागणपतिर्देवता, गं बीजं ह्रीं शक्तिः कुरुकुरु
कीलकं वज्रविद्यादिसिद्ध्यर्थे महागणपतिवज्र- पञ्जरकवचपाठे विनियोगः ।
गां गीं गूं गें गौं गः से
षडङ्गन्यास करके ध्यान करें।
वज्रपञ्जरमहागणपतिकवचम्
विघ्नेशं विश्ववन्द्यं सुविपुलयशसं
लोकरक्षाप्रदक्षं
साक्षात् सर्वापदासु प्रशमनसुमतिं
पार्वतीप्राणसूनुम्
प्रायः सर्वासुरेन्द्रैः
ससुरमुनिगणैः साधकैः पूज्यमानं
कारुण्येनान्तरायामितभयशमनं
विघ्नराजं नमामि ॥ २ ॥
विघ्नेश,
विश्ववन्द्य, अत्यन्त यशस्वी, लोकरक्षा में दक्ष, सभी आपदाओं में साक्षात् प्रशमन
सुबुद्धि, पार्वती-प्राणप्रिय पुत्र, इन्द्र
सहित सभी देवों, मुनिगणों और साधकों से पूज्य, करुणार्द्रहृदय, अमित भयनिवारक विघ्नराज को मैं
नमस्कार करता हूँ॥ २ ॥
ॐ श्रीं ह्रीं गं शिरः पातु
महागणपतिः प्रभुः ।
विनायको ललाटं मे विघ्नराजो भ्रुवौ
मम ॥ ३ ॥
पातु नेत्रे गणाध्यक्षो नासिकां मे
गजाननः ।
श्रुती मेऽवतु हेरम्बो गण्डौ मे
मोदकाशनः ॥ ४ ॥
द्वैमातुरो मुखं पातु चाधरौ
पात्वरिन्दमः ।
दन्तान् ममैकदन्तोऽव्याद्
वक्रतुण्डोऽवताद् रसाम् ॥ ५ ॥
गाङ्गेयो मे गलं पातु स्कन्धौ
सिंहासनोऽवतु ।
विघ्नान्तको भुजौ पातु हस्तौ
मूषकवाहनः ॥ ६ ॥
ऊरू ममावतान्नित्यं
देवस्त्रिपुरघातनः ।
हृदयं मे कुमारोऽव्याज्जयन्तः
पार्श्वयुग्मकम् ॥७॥
कवच - ॐ श्रीं ह्रीं गं महागणपति
प्रभु मेरे शिर की रक्षा करें। विनायक ललाट की और विघ्नराज भ्रुवों की रक्षा करें।
गणाध्यक्ष मेरे नेत्रों की और गजानन नासिका की रक्षा करें। हेरम्ब मेरे कानों की
और मोदकाशन कपोलों की रक्षा करें। द्वैमातुर मेरे मुख की और अरिन्दम मेरे अधरों की
रक्षा करें। एकदन्त मेरे दाँतों की और रसना की रक्षा वक्रतुण्ड करें। गाङ्गेय मेरे
गले की और सिंहासन कन्धों की रक्षा करें। विघ्नान्तक मेरी भुजाओं की और मूषकवाहन
हाथों की रक्षा करें। त्रिपुरान्तक देव सदैव मेरे ऊरुओं की रक्षा करें। कुमार मेरे
हृदय की और जयन्त दोनों पार्श्वो की रक्षा करें।। ३-७।।
प्रद्युम्नो मेऽवतात् पृष्ठं नाभिं
शङ्करनन्दनः ।
कटिं नन्दिगणः पातु शिश्नं
वीरेश्वरोऽवतु ॥८ ॥
मेढ़्रे मेऽवतु सौभाग्यो भृङ्गिरीटी
च गुह्यकम् ।
विराटकोऽवतादूरू जानू मे
पुष्पदन्तकः ॥ ९ ॥
जङ्घ मम विकर्तोऽव्याद्
गुल्फावन्त्यगणोऽवतु ।
पादौ चित्तगणः पातु पादाधो
लोहितोऽवतु ॥ १० ॥
प्रद्युम्न मेरे पीठ की और
शंकरनन्दन मेरे नाभि की रक्षा करें। नन्दिगण मेरी कमर की और वीरेश्वर शिश्न की
रक्षा करें। सौभाग्य मेरे मेढ्र की रक्षा करें। भृङ्गिरीटी गुह्य देश की रक्षा
करें। विराट मेरे जङ्घों की और पुष्पदन्त मेरे घुटनों की रक्षा करें। विकर्तन मेरे
जङ्घों की और अन्त्यगण गुल्फों की रक्षा करें। चित्तगण पैरों की और पादतलों की
रक्षा लोहित करें।।८-१०।
पादपृष्ठं सुन्दरोऽव्याद्
नूपुराढ्यो वपुर्मम ।
विचारो जठरं पातु भूतानि चोग्ररूपकः
॥ ११ ॥
शिरसः पादपर्यन्तं वपुः सुप्तगणोऽवतु
।
पादादिमूर्धपर्यन्तं वपुः पातु
विनर्तकः ॥ १२ ॥
विस्मारितं तु यत् स्थानं गणेशस्तत्
सदावतु ।
सुन्दर पादपृष्ठों की और नूपराढ्य
मेरे शरीर की रक्षा करें। विचार मेरे उदर की और विनर्तक मेरे शरीर की रक्षा करें।
सुप्त गण मेरे शिर से पाँव तक के शरीर की रक्षा करें। आपादमस्तक शरीर की रक्षा
विनर्तक करें। जो स्थान छूट गये हैं, उनकी
रक्षा सदैव गणेश करें ।। ११-१२ ।।
पूर्वे मां ह्रीं
करालोऽव्यादाग्नेये विकरालकः ॥ १३ ॥
दक्षिणे पातु संहारो नैर्ऋते
रुरुभैरवः ।
पश्चिमे मां महाकालो वायौ
कालाग्निभैरवः ॥ १४ ॥
उत्तरे मां
सितास्योऽव्यादैशान्यामसितात्मकः ।
प्रभाते शतपत्रोऽव्यात् सहस्रारस्तु
मध्यमे ।। १५ ।।
दन्तमाला दिनान्तेऽव्यान्निशि
पात्रं सदावतु ।
कलशो मां निशीथेऽव्यान्निशान्ते
परशुस्तथा ।
सर्वत्र सर्वदा पातु शङ्खयुग्मं च
मद्वपुः ॥ १६ ॥
पूर्व में मेरी रक्षा कराल और
आग्नेय में विकराल करें। दक्षिण में मेरी रक्षा संहार और नैर्ऋत्य में रुरुभैरव
करें। पश्चिम में रक्षा महाकाल और वायव्य में कालाग्नि भैरव करें। उत्तर में मेरी
रक्षा सितास्य और ईशान में असितात्मक करें। प्रभात में शतपत्र और मध्याह्न में
सहस्रार रक्षा करें। सायंकाल में दन्तमाला और रात में पात्र मेरी रक्षा करें। निशीथ
में मेरी रक्षा कलश, निशान्त में परशु
करें। सर्वत्र सर्वदा मेरे शरीर की रक्षा दोनों शङ्ख करें ।। १३-१६ ।।
ॐ ॐ राजकुले हहौं रणभये ह्रीं ह्रीं
कुद्यूतेऽवतात्
श्रीं श्रीं शत्रुगृहे शशौ जलभये
क्लीं क्लीं वनान्तेऽवतु ।
ग्लौं ग्लूं ग्लैं ग्लंगुं
सत्त्वभीतिषु महाव्याध्यार्तिषु ग्लौं गं गौं
नित्यं यक्षपिशाचभूतफणिषु ग्लौं गं
गणेशोऽवतु ॥ १७ ॥
ॐ ॐ राजदरबार में,
हहौं युद्धभय में, ह्रीं ह्रीं खराब जुआ में
रक्षा करें। श्रीं श्रीं शत्रुगृह में, शशौं जलभय में क्लीं
क्लीं वनान्त में रक्षा करें। ग्लौं ग्लूं ग्लैं ग्लं गुं सत्वभय में, महाव्याधि से कष्ट में ग्लौं गं गौं रक्षा करें। यक्ष-पिशाच भूत सर्पभय
में ग्लौं गं गणेश मेरी रक्षा करें ।। १७ ।।
वज्रपञ्जर महागणपति
कवच माहात्म्यकथनम्
इतीदं कवचं गुह्यं सर्वतन्त्रेषु
गोपितम् ।
वज्रपञ्जरनामानं गणेशस्य महात्मनः ॥
१८ ॥
अङ्गभूतं मनुमयं सर्वाचारैकसाधनम् ।
विनानेन न सिद्धिः स्यात् पूजनस्य
जपस्य च ॥ १९ ॥
तस्मात्तु कवचं पुण्यं पठेद्वा
धारयेत् सदा ।
तस्य सिद्धिर्महादेवि करस्था
पारलौकिकी ॥ २० ॥
यंयं कामयते कामं तंतं प्राप्नोति
पाठतः ।
अर्धरात्रे पठेन्नित्यं
सर्वाभीष्टफलं लभेत् ॥ २१ ॥
इति गुह्यं सुकवचं महागणपतेः
प्रियम् ।
सर्वसिद्धिमयं दिव्यं गोपयेत्
परमेश्वरि ॥ २२ ॥
कवच माहात्म्य —
यह कवच अत्यन्त गुह्य है। सभी तन्त्रों में गोपित है। महागणेश के इस
कवच का नाम वज्रपञ्जर है। सभी आचार के साधनों में इस मन्त्रमय कवच को धारण के बिना
पूजन और जप में सिद्धि नहीं मिलती। इसलिये इस पुनीत कवच का पाठ, धारण सदैव करना चाहिये। इस कवच को धारण करने वालों की पारलौकिकी सिद्धि
हस्तामलकवत होती है। वह जो-जो इच्छा करें, उन्हें इस कवच के
पाठमात्र से ही पा सकता है। सभी अभीष्टों की सिद्धि के लिये इसका पाठ अर्द्धरात्रि
में नित्य करना चाहिये। हे प्रिये! महागणपति का यह सुन्दर गुह्य कवच समाप्त हुआ।
यह कवच सभी सिद्धियों को देने वाला है। हे परमेश्वरि ! अतः इसे सदैव गुप्त रखना
चाहिये ।। १८-२० ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये महागणपतिकवचनिरूपणं नामाष्टाविंश: पटलः ॥ २८ ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में महागणपतिकवच निरूपण नामक अष्टाविंश पटल पूर्ण हुआ।
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्य पटल 29
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