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मार्तण्ड भैरव स्तोत्रम्
महागणपति मूलमन्त्र स्तोत्र
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्यम्
उत्तरार्द्ध के पटल ३० में गणपतिपञ्चाङ्ग अंतर्गत महागणपति के मूलमन्त्र स्तोत्र
का निरूपण के विषय में बतलाया गया है।
रुद्रयामलतन्त्रोक्तं श्रीदेवीरहस्यम् त्रिंशः पटल: महागणपतिमूलमन्त्रस्तोत्रम्
Shri Devi Rahasya Patal 30
रुद्रयामलतन्त्रोक्त देवीरहस्य
तीसवाँ पटल
रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्यम् त्रिंश
पटल
देवीरहस्य पटल ३० महागणपतिमूलमन्त्रस्तोत्र
अथ गणपतिपञ्चाङ्गम्
अथ त्रिंशः पटल:
महागणपतिमूलमन्त्रस्तोत्रम्
स्तोत्रप्रस्तावः
श्रीदेव्युवाच
भगवन् परमेशान महागणपतेर्विभोः ।
स्तोत्रमङ्गतमं ब्रूहि मूलमन्त्रस्य
तत्त्वतः ॥ १ ॥
श्रीदेवी ने कहा- हे भगवन् परमेशान! अब आप विभु महागणपति के
उत्तमाङ्ग मूल मन्त्रगर्भित स्तोत्र का वर्णन कीजिये ।। १ ।।
श्रीभैरव उवाच
महागणपतेर्वक्ष्ये स्तोत्रं तत्त्वनिरूपणम्
।
जीवस्याङ्गे कलौ शीघ्रं
जीवन्मुक्तिप्रदायकम् ॥ २ ॥
श्री भैरव ने कहा कि अब मैं
महागणपति के स्तोत्रतत्त्व का निरूपण करता हूँ। देवता के सामने कलियुग में इसके
पाठ से शीघ्र ही जीवनमुक्ति प्राप्त होती है ।। २ ।।
महागणपतिमूलमन्त्रस्तोत्रम् विनियोगः
अस्य श्रीमहागणपतेः स्तोत्रस्य भैरव
ऋषिः गायत्र्यं छन्दः श्रीमहागणपतिर्देवता गं बीजं ह्रीं शक्तिः कुरु कुरु कीलकं
जीवन्मुक्तिकामनार्थे महागणपतिस्तवराजपाठे विनियोगः ।
विनियोग—इस महागणपति स्तोत्र के ऋषि भैरव, छन्द गायत्री,
देवता श्रीमहागणपति, बीज 'गं', 'शक्ति 'ह्रीं', कीलक 'कुरु कुरु' है एवं
जीवन्मुक्ति की कामना हेतु महागणपति के स्तोत्र पाठ में इसका विनियोग किया जाता
है।
ध्यानम्
द्विचतुर्दशवर्णभूषिताङ्गं
शशिसूर्याग्निविलोचनं सुरेशम् ।
अहिभूषितकण्ठमक्षसूत्रं भ्रमयन्तं
हृदये स्मरे गणेशम् ॥ ३॥
ध्यान - महागणपति का अङ्ग अट्ठाईस
अक्षरों के मन्त्रवर्णों से विभूषित है। ये देवताओं के अधिपति हैं। तीन नेत्र
चन्द्र,
सूर्य, अग्नि है, नागभूषित
कण्ठ है। ये अक्षसूत्र से युक्त हैं। अपने हृदय में भ्रमणरत उन गणेश का मैं स्मरण
करता हूँ ।।३।।
गणपतिमूलमन्त्रस्तोत्रम्
तारं नारदगीतमाद्यमनिशं यः
साधकेन्द्रो जपे-
द्रात्रावह्नि निशामुखे शवगृहे
शून्यालये वा प्रभो ।
तस्य स्मेरमुखाम्बुजाः प्रतिदिनं
लावण्यदर्पोज्ज्वलाः
स्वर्वेश्याश्च वशीभवन्ति त्रिदिवे
भूमौ समस्ता नृपाः ॥ ४ ॥
सकलां सकलां जपेद्यदा
गणनाथप्रियमन्त्रमेव यः ।
सकलक्ष्मापतिमूर्धसु
स्फुरच्चरणाब्जो भुवि शोभते च सः ॥५॥
कमलां कमलास्पृही च यो हृदये
ध्यायति देवमध्यगाम् ।
तव मन्त्रप्रभावतस्तदा कमला सद्मनि
तस्य निश्चला ॥ ६ ॥
स्तोत्र - नारद जिस आद्यगीत 'ॐ' का अहर्निश जप करते हैं, उस
ॐकार का जप जो साधक रात्रि के प्रथम प्रहर में घर के बाहर, श्मशान
में या शून्य गृह में करता है, उसके वश में लावण्य के दर्प
गर्वित से मुस्कुराती स्वकीया या वेश्या कमलमुखी प्रतिदिन रहती है। तीन दिनों में
भूतल के सभी नरेश उसके वश में हो जाते हैं। गणनाथ के प्रिय मन्त्र 'ह्रीं ह्रीं' का जो जप करता है, वह सभी भूपालों में मूर्धन्य होता है। सारी पृथ्वी उसके चरणकमलों में होती
है और वह शोभायमान होता है। लक्ष्मी के प्रिय मन्त्र "श्रीं" का ध्यान
जो अपने हृदय में देवताओं के मध्य में करता है, मन्त्र के
साथ तुम्हारे प्रभाव से उस साधक के घर में निश्चल लक्ष्मी का वास होता है।। ४-६ ।।
कामराजमनिशं स्मरातुरो यो जपेद्धृदि
गणेश तावकम् ।
उर्वशीवदनपद्मषट्पदो
धीयतेऽधरपरागकामृतम् ॥७॥
मठं जपेद्यो निशि शून्यगेहे
विमुक्तकेशो गणनाथ भक्त्या ।
रणे रिपूनिन्द्रसमान् विजित्य
प्राप्नोति राज्यं नृपचक्रवर्ती ॥८ ॥
शिवार्णमन्तर्यदि साधको
जपेदरण्यभूमौ शिवसन्निधौ विभो ।
चराचरे वै विचरेद्विमाने
जगत्यशेषामरचक्रवर्ती ॥ ९ ॥
गणपतय इत मूलमनुं यो जपते भजते
शृणुते पठते ।
गणकिन्नरसिद्धसुरासुरैर्नमितो लभते
गाणपत्यं सः ॥१०॥
हे गणेश! जो कामातुर अपने हृदय में
आपके 'क्लीं' मन्त्र का जप अहर्निश करता है, उसके सामने उर्वशी उपस्थित होती है, जिसके मुखकमल पर
भ्रमर अधरपराग के अमृत का ध्यान करते हुए मण्डराते रहते हैं। जो गणनाथ भक्त रात
में शून्य गृह में खुले केश होकर 'ग्लौं' का जप करता है, वह इन्द्र के समान शत्रु को भी युद्ध
में जीतकर चक्रवर्ती राजा का राज्य पाता है। जङ्गल में शिवमन्दिर में शिव के निकट
जो 'गं' मन्त्र का जप करता है, वह चराचर का स्वामी होकर विमान में विचरण करता है। सारे संसार का
चक्रवर्ती राजा होता है। 'गणपतये' इस
मूल मन्त्र का जो जप करता है, स्मरण करता है, या सुनता है, या पाठ करता है, उसे
गण, किन्नर, सिद्ध, देवता और दैत्य प्रणाम करते हैं और गाणपत्य पद को वह प्राप्त करता है।।
७-१० ।।
वर वरदेति च मन्त्रमिमं यो भजते
निशि वा दिवसेऽप्यनिशम् ।
वदने वसते सदने वसते हृदि वाक् कमला
तव भक्तिरपि ।। ११ ।।
सर्व जनं मे इति मन्त्रराजं जपन्ति
ये भोजनकावसाने ।
भजन्ति ते नन्दनचन्दनादिवृक्षेषु
लीलां सुरसुन्दरीभिः ॥१२॥
वशमानयेति भगवन् यदि जपति
स्मरतप्तहृदयश्च ।
वशमेति किन्नरसुताप्युर्वशी सततं
सुरतदक्षा ।।१३।।
स्वाहेति
मन्त्राक्षरयुग्ममेतज्जपेद् दिनान्तेऽप्यशनादिकाले ।
रोगा अशेषा विलयं प्रयान्ति तमांसि
सूर्येऽभ्युदिते यथाशु ॥ १४ ॥
पद्महस्तममृतांशुसन्निभं
शङ्खयुग्ममपरं च दधानम् ।
त्र्यक्षमग्निसदृशं स्मरन्ति ये ते
प्रयान्ति त्रिदिवं विमानगाः ।। १५ ।।
'वरवरद' मन्त्र
का भजन जो रात में या दिन में या अहर्निश करता है, उसके मुख में
सरस्वती का वास, घर में लक्ष्मी का वास और हृदय में देवी की
भक्ति का वास होता 'है। मन्त्रराज के 'सर्वजन'
का जप जो साधक भोजन के अन्त में करता है, वह
नन्दन चन्दन वन में देवकन्याओं के साथ विहार करता है। मन्त्रराज के 'वशमानय' को जो कामातुर हृदय में स्मरण करता है,
उसके वश में किन्नर कन्याओं के साथ-साथ उर्वशी 'भी होती है और सदैव मैथुन में दक्षता रखती है। मन्त्रराज के दो अक्षर 'स्वाहा' का जप जो सूर्यास्त के बाद भोजन के समय करता
है, उसके सभी रोग ऐसे ही नष्ट होते हैं, जैसे सूर्योदय से अन्धकार समाप्त हो जाता है। हाथों के कमल और दो शङ्खसहित
चन्द्रप्रभा से युक्त त्रिनेत्र अग्नि के समान गणपति का जो स्मरण करता है, वह देवताओं के समान विमान से विहार करता है। । ११-१५ ।।
बिन्दुत्र्यश्रदशारवासवकलावेदाश्रमध्ये
विभो-
ये ध्यायन्ति भवन्तमीड्यवपुषं
त्रैलोक्यरक्षापरम् ।
जित्वा भूमिमनल्पकल्पनिवहान्
भुक्त्वा सहायैर्युताः
पश्चाद्यान्ति गणेश तावकपदं
देवासुरैर्दुर्लभम् ॥ १६ ॥
इति गणपतेः स्तोत्रं मन्त्रात्मकं
परमं जपेत्
पठति शृणुयाद्भक्त्या नित्यं
समस्तरहस्यकम् ।
इह धनपतिर्लक्ष्मीमायुः सुतांल्लभतेऽचिराद्
व्रजति त्रिदिवं जीवन्मुक्तः परत्र
स साधकः ॥ १७ ॥
बिन्दु,
त्रिकोण, दस दल, अष्टदल,
षोडशदल और भूपुर से युक्त यन्त्र में जो प्रभु का ध्यान
त्रैलोक्यरक्षा में तत्पर रूप में करता है, वह अल्प काल में
ही सम्पूर्ण भूमि पर विजय प्राप्त कर अपने सहायकों सहित अनन्त वर्षों तक भूतल का
भोग करता है और देहान्त होने पर देवासुर के लिये दुर्लभ गाणपत्य पद प्राप्त करता
है। गणपति के इस श्रेष्ठ मन्त्रात्मक स्तोत्र का यदि निरन्तर जप करे, सभी रहस्य का भक्तिसहित नित्य श्रवण करे या पाठ करे तो साधक इस संसार में
धन, पति, लक्ष्मी, आयु और पुत्र प्राप्त करता है। पञ्चात् जीवन्मुक्त होता है और परलोक में
स्वर्ग प्राप्त करता है ।। १६-१७ ।।
इति स्तवोत्तमं देवि महागणपतेः परम्
।
गोप्यं गुप्तं सदा गोप्यं पञ्चाङ्गं
सुरसुन्दरि ।। १८ ।।
पञ्चाङ्गं च गणेशस्य रहस्यं मम
पार्वति ।
विना शिष्याय नो दद्यात् साधकाय
विना तथा ॥ १९ ॥
विना दानं न दातव्यं विना दानं न
ग्राहयेत् ।
अन्यथा सिद्धिहानिः स्यात् सर्वथा
दानमाचरेत् ॥ २०॥
पटलं पद्धतिं वर्म
मन्त्रनामसहस्रकम् ।
स्तोत्रं पञ्चाङ्गमनिशं गोपनीयं प्रयत्नतः
॥ २१ ॥
हे देवि! इस प्रकार गणपति का यह
उत्तम स्तोत्र समाप्त हुआ। यह परम गोप्य है। हे सुरसुन्दरि ! गणेशपञ्चाङ्ग भी सदा
गुह्य और गोप्य है। हे पार्वति ! मेरे द्वारा वर्णित इस गणेश पञ्चाङ्ग-रहस्य को जो
शिष्य न हो, उसे न बतलाये। साधक को इसे बिना
दान लिये न तो देना चाहिये और न ही बिना दान दिये लेना चाहिये। अन्यथा सिद्धि नहीं
मिलती। इसलिये सर्वथा दान करे। इस पटल पद्धति, कवच -
मन्त्रात्मक सहस्रनाम और स्तोत्ररूपी पञ्चाङ्ग को यत्नपूर्वक सर्वदा गुप्त रखना
चाहिये ।। १८-२१ ।।
इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे
श्रीदेवीरहस्ये महागणपते: स्तोत्रनिरूपणं नाम त्रिंशः पटलः ॥ ३० ॥
इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त
श्रीदेवीरहस्य को भाषा टीका में महागणपतिमूलमन्त्र स्तोत्र नामक त्रिंश पटल पूर्ण
हुआ।
समाप्तमिदं गणपतिपञ्चाङ्गम्॥
आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त देवीरहस्य पटल 31
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