रहस्यपञ्चदशिका
इस रहस्यपञ्चदशिका स्तोत्र में कुल
सैंतिस श्लोकों का संग्रह है । इसमें जीवनमुक्त, अभिनवगुप्त ने शिव की संविद्रूपा अनेक प्रकार की शक्तियों जैसे सरस्वती,
शिवा, अम्बिका आदि की स्तुति की है। संविद् के
स्वामी शिव अपनी शक्ति शिवा के माध्यम से पञ्चकृत्यों अर्थात् सृष्टि, स्थिति, विनाश, निग्रह और
अनुग्रह करते रहते हैं । बिना उसके शिव न तो कुछ करते हैं, न
जानते हैं और न ही इच्छा करते हैं । यही शक्ति (माया) अज्ञानी लोगों को त्वचा,
रुधिर, मांसादि से परिपूर्ण सदैव रोगयुक्त
शरीर में डुबोती रहती है । यही उसकी महिमा है । इस संविद्रूपा शक्ति का ज्ञान होने
पर व्यक्त का सम्पूर्ण मोहमय ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह शिवपद अर्थात् मोक्ष को
प्राप्त कर लेता है।
रहस्यपञ्चदशिका स्तोत्रम्
Rahasyapañcadaśikā
रहस्यपंचदशिका स्तोत्र
ब्राह्मे मुहूर्ते भगवत्प्रपत्ति
स्ततः समाधिर्नियमोऽथ सान्ध्यः ।
यामौ जपार्चादि ततोऽन्यसत्रं
शेषस्तु-
कालः शिवशेषवृति: ( वृत्तिः ) ?
॥ १ ॥
ब्राह्म मुहुर्त में भगवान् की
प्रार्थना, समाधि के नियम, सन्ध्या का अभ्यास बाकी दो प्रहर में जप-पूजा आदि, उसके
अतिरिक्त शेष समय शिवशेषवृत्ति के लिए होता है ॥ १ ॥
आदिमुखा कादिकरा टादिपदा
पादिपार्श्वयुङ्मध्या ।
यादिहृदया भगवती संविद्रूपा सरस्वती
जयति ॥ २ ॥
अकारादि जिसका मुख है,
ककारादि जिसके हाथ हैं, टकारादि जिसके पाद हैं,
'प' आदि जिसके दोनों पार्श्व एवं मध्य हैं,
'य' आदि जिसके हृदय हैं, वह संविद्रूपा सरस्वती सबसे बढ़कर है ॥ २ ॥
फलन्ति चिन्तामणिकामधेनुकल्पद्रुमाः
कांक्षितमेव पुंसाम् ।
अप्रार्थिता न प्रचितान्पुमर्थान्
पुष्णातु (ति) मे मातुरुदारभावः ॥ ३ ॥
चिन्तामणि,
कामधेनु और कल्पवृक्ष मनुष्यों को वाञ्छित फल देते हैं लेकिन माता
का उदारभाव बिना प्रार्थना के पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ,
काम, मोक्ष) को देता है ॥ ३ ॥
यया विना नैव करोति किञ्चिन्न
वेत्ति नापीच्छति संविदेशः ।
तस्यै परस्यै जगतां जनन्यै नमः
शिवायै शिववल्लभायै ॥ ४ ॥
जिसके बिना संविद् के स्वामी न कुछ
करते हैं,
न जानते हैं और न इच्छा करते हैं उस परासंसार की माता, शिव की प्रिया, शिवा को नमस्कार है ॥ ४ ॥
सदोदिते भगवति सर्वमङ्गले
शिवप्रदे शिवहृदयस्थिते शिवे ।
भजन्मनः कुमुदविकासचन्द्रिके
द्विजन्मनः कुरु मम खे गतिं परे ॥ ५
॥
हे सदोदिते भगवति! सर्वमङ्गले!,
शिवप्रदे! शिव के हृदय में स्थित शिवे ! भजन करनेवाले के मनरूपी
कुमुद का विकास करने में चन्द्रिका के समान मुझ ब्राह्मण की गति परमाकाश में करो ॥
५ ॥
प्रसीद सर्वमङ्गले शिवे शिवस्य
वल्लभे ।
उमे रमे सरस्वति त्वमेव देवता परा ॥
६ ॥
हे सर्वमङ्गले,
शिवे, शिव की वल्लभे, उमे,
रमे, सरस्वती प्रसन्न हो जाओ । तुम्हीं
परादेवता हो ॥ ६ ॥
अमे अम्बिके अस्वरूपे अनाख्ये
उमे रौद्रि वामे महालक्ष्मि माये ।
परे देवते पञ्चकृत्यैकलोले
शिवे भैरवि श्रीमति त्वां प्रपद्ये
॥ ७ ॥
हे अमे! हे अम्बिके! हे रूपरहित! हे
नामरहित! हे उमे! हे रौद्री !, हे वामे!,
महालक्ष्मी!, माये!, परेदेवते!,
पञ्चकृत्य में लीन शिवे! भैरवी! श्रीमति ! मैं तुम्हारी शरण में आया
हूँ ॥ ७ ॥
माये विद्ये मातृके मानिनि त्वं
काये काये स्पन्दसे चित्कलात्मा ।
ध्यायेयं तां त्वां कथं
स्वस्फुरत्तां
ध्यायेयं त्वां वाचमन्तर्नदन्तीम् ॥
८ ॥
हे माया!,
हे विद्या!, हे मातृका !, हे मानिनी! तुम चित्कला आत्मा के रूप में प्रत्येक शरीर में स्पन्दन करती
रहती हो । स्वयं स्फुरण करनेवाली तुम्हारा मैं कैसे ध्यान करूँ? मैं तुम्हारा ध्यान अन्तर्नाद करती हुई वाणी के रूप में करता हूँ॥८॥
त्वग्रुधिरमांसमेदोमज्जास्थिमये
सदामये काये ।
माये मज्जयसि त्वं माहात्म्यं ते
जनानजानानान् ॥ ९ ॥
माया !,
तुम त्वक्, रुधिर, मांस,
मेदा, अस्थि से परिपूर्ण, सदा रोगमय शरीर में अज्ञानी जनों को सदा डुबोती रहती हो, यही तुम्हारी महिमा है ॥९॥
लोहालेख्यस्थापितान् वीक्ष्य देवान्
हा हा हन्तेत्याहुरेकेऽकृतार्थाः ।
देहाहन्ताशालिनां देहभाजां
मोहावेशं कं न माया प्रसूते ॥ १० ॥
लोहे के ऊपर चित्रित देवताओं को
देखकर कुछ कृतघ्न लोग हा, हा हन्त, हन्त कहते हैं क्योंकि देह में अहंभाव रखनेवाले शरीरधारियों के मन में
माया क्या-क्या मोहावेश उत्पन्न नहीं करती (अर्थात् अवश्य ही करती है ) ॥ १० ॥
मायाविलासोदितबुद्धिशून्यकायाद्यहन्ताजनितादशेषात्
।
आयासकादात्मविमर्शरूपात्
पायादपायात् परदेवता माम् ॥ ११ ॥
परदेवता माया के विलास के कारण उदित
बुद्धि शून्य शरीरादि के प्रति अहन्ता से जनित प्रयास उत्पन्न करनेवाले सम्पूर्ण
आत्मविमर्शरूप विनाश (पाय और अपाय ) से मेरी रक्षा करें ॥ ११ ॥
घोरात्मिकां घोरतमामघोरां
परापराख्यामपरां परां च ।
विचित्ररूपां शिवयोर्विभूतिं
विलोकयन् विस्मयमान आस्ते ॥ १२ ॥
मैं घोर,
घोरतम, अघोर, परापरा,
अपरा और परारूप में विचित्र रूप वाली शिव एवं शिवा की विभूति देखता
हुआ आश्चर्य में हूँ ॥ १२ ॥
परापरापरापरामरीचिमध्यवर्तिनो ।
न मे ऽभिदाभिदाभिदाभिदासु
कश्चिदाग्रहः ॥ १३ ॥
परापरा और अपरा ज्योति के बीच में
रहनेवाले मेरे मन में अभेद, भेद और भेदाभेद के
विषय में कोई आग्रह नहीं है ॥ १३ ॥
स्फुरति यत्तवरूपमनुत्तरं यदपरं च
जगन्मयमम्बिके ।
उभयमेतदनुस्मरतां सतामभयदे! वरदे !
परदेवते ! ॥ १४ ॥
हे अम्बिके! जो तुम्हारा यह अनुत्तर
और जगन्मय रूप है, इन दोनों का स्मरण
करनेवाले सज्जनों के लिए आप परदेवता अभय देनेवाली एवं वर देनेवाली होजाओ ॥ १४ ॥
परमेश्वरि पञ्चकृत्यलीले
परसंविन्मयि पार्वति ! प्रसीद ।
पतितं पशुपाशमुद्धरेमं शिशुमाश्वासय
शीतलैः कटाक्षैः ॥ १५ ॥
हे परमेश्वरि! हे पञ्चकृत्यरूपी
लीला करनेवाली परसंवित्मयि पार्वति ! प्रसन्न होजाओ । पशुपाश में पतित इस शिशु का
उद्धार करो और शीतल कटाक्षों से आश्वस्त करो ॥ १५ ॥
विवर्तते (प्रवर्तते ) ?
ऽनुवर्तते हि वर्तते च यत्र सनयं
षडध्वडम्बरः (सन्निदं षडध्वडंवर ) ?
त्वमेव तच्चिदम्बरम् ॥ १६ ॥
जिसमें यह षडध्व का विस्तार
प्रवृत्त होता है, अनुवृत्त होता है
और सत्ता में आता है, तुम वही चिदाकाश हो ॥ १६ ॥
अज्ञानामसमर्थानामस्थानाभिनिवेशिनाम्
।
अम्ब त्वं बलमस्माकं शिशूनां
शिववल्लभे ॥ १७ ॥
हे शिववल्लभे! अज्ञानी,
असमर्थ और अनुचित स्थान में श्रद्धा रखने वाले हमारे जैसे शिशुओं का,
हे अम्बा! तुम्ही शक्ति हो ॥ १७ ॥
वेदप्रसिद्धाद्विविधप्रभावात्
पादप्रभावात्परदेवतायाः ।
छेदप्रदा
स्वात्ममहाविभूतेर्भेदप्रथा मे सकला निवृत्ता ॥ १८ ॥
वेद में प्रसिद्ध विविध प्रभाववाले
परदेवता के चरणप्रभाव से मेरी स्वात्म महाविभूति को नष्ट करनेवाली समस्त भेदप्रथा
निवृत्त हो गयी ॥ १८ ॥
वीरबाधक विपक्षभक्षिणी
धीरसाधकसपक्षरक्षिणी ।
साक्षिणी मम सदाधितिष्ठतः साक्षिणी
सकलसंविदां परा ॥ १९ ॥
वीराचारी साधकों के बाधकरूपी विपक्ष
की भक्षिणी, धीरसाधकों की सपक्ष रक्षिणी,
समस्त संविदाओं की अन्तिम साक्षिणी, सदा
अधिष्ठित मेरी साक्षिणी हो ॥ १९ ॥
सच्चिदम्ब सकलं त्वदात्मकं त्वत्त
उद्भवति लीयते त्वयि ।
भामती भगवती स्वयेच्छया केन नैव
वपुषा प्रकाशसे ॥ २० ॥
हे सच्चित् माता! यह सब आपसे
व्याप्त है, आपसे ही उत्पन्न होता है और आपमें
ही लीन होता है । प्रकाशवती तथा ऐश्वर्य से युक्त आप अपने किस शरीर से नहीं
प्रकाशित होती ? (अर्थात् सभी से प्रकाशित होती हैं) ॥ २० ॥
निर्द्वन्द्वचिद्धननिजात्मधृताध्वषट्के
दोर्द्वन्द्वसङ्कलितपुस्तकबोधमुद्रे
।
नेत्रैस्त्रिभिः
शिखिरवीन्दुमयैर्दयार्द्रैः
मातः शिवं कुरु शिवे शरणागतं माम् ॥
२१ ॥
निर्द्वन्द्व चिद्घन अपने स्वरूप
में षडध्वा को धारण करनेवाली दोनों भुजाओं में पुस्तक और व्याख्यामुद्रा धारण
करनेवाली माता शिवे! आप शरणागत मेरी अग्नि, सूर्य,
चन्द्रमावाले दयार्द्र तीनों नेत्रों से मेरा कल्याण करो ॥ २१ ॥
मुग्धा पुस्तकहस्ता
मुग्धेन्दुकलाललाटनेत्रवती ।
शारदशशाङ्कधवला दयामयी कापि देवता
जयति ॥ २२ ॥
सरल, हाथ में पुस्तक लिए हुई, मनोहारी, चन्द्रकलारूपी नेत्र को ललाट में धारण किए हुई शारदीय चन्द्रमा के समान
स्वच्छ, दयामयी कोई अद्भुत देवता सबसे बढ़कर है ॥ २२ ॥
सत्त्वभूतिनिजमूर्तिसम्भवत्तत्त्वभूतिपुरशालिपालिकाम्
।
हस्तयुग्मधृतपुस्तकतूलिकां बालिकां
परिचिनोमि तां पराम् ॥ २३ ॥
मैं उस पराबालिका का ध्यान करता हूँ
जो दोनों हाथों में पुस्तक और तूलिका धारण की है तथा अपनी महासत्ता स्वरूप से
उत्पन्न तत्त्वों के सुन्दर नगर की रक्षिका है ॥ २३ ॥
चन्द्रमुखि चन्द्रधरिणि चन्द्रनिभे
चन्द्रमण्डलान्तःस्थे ।
चन्द्राभरणकुटुम्बिनि
चन्द्रादित्याग्निलोचने रक्ष ॥ २४ ॥
हे चन्द्रमुखी ! हे चन्द्रधारिणी !
चन्द्रनिभे ! चन्द्रमण्डल के अन्दर रहनेवाली चन्द्रमा के आभरणों को धारण करनेवाली
तथा चन्द्र, सूर्य और अग्नि रूप
नेत्रोंवाली! मेरी रक्षा करो ॥ २४ ॥
महा (मही ?)
मूलमायोर्ध्वशक्त्यण्डरत्न
प्रभाकीर्णसौवर्णपीठाधि (पीणधि ?
) रूढा ।
सृजन्ती बहिर्विश्वमन्तश्च संवित्
परा देवताहम्परामर्शरूपा ॥ २५ ॥
परासंविद्रूपी देवी,
जो कि अहंपरामर्शरूप है आभ्यन्तर एवं बाह्य संसार की रचना करती है,
वह उस स्वर्ण के आसन पर बैठी हुई है जो कि मायाण्ड के ऊपर स्थित शाक्ताण्ड
के रत्नों से प्रकाशित है ॥ २५ ॥
सौवर्णपीठमारूढां
जाग्रतीमग्रपृष्ठयोः ।
चिच्चक्रवर्तिमहिषीं वन्दे तां
देवतां पराम् ॥ २६ ॥
जो सोने की पीठ पर बैठी हुई अग्रभाग
और पृष्ठभाग के विषय में सावधान चित्चक्र में रहनेवाली महिषी परादेवता की वन्दना
करता हूँ ॥ २६ ॥
सौवर्णसम्पुटकमध्यभुवि प्रविष्टं
ऊर्ध्वाधरानननिपीतविसृष्टसृष्टि ।
सारस्वतं किमपि रत्नमयत्नसिद्धं
जागर्ति यस्य हृदये जगतां स ईष्टे ॥
२७ ॥
जो सोने के सम्पुटक के मध्य भाग में
प्रविष्ट है । ऊपर और नीचे के मुख से सृष्टि का प्रलय एवं संहार करता है।
स्वभावसिद्ध ऐसा अद्भुत सारस्वत रत्न जिसके हृदय में विद्यमान हैं वह संसार का
स्वामी होजाता है ॥ २७ ॥
यत् सचराचरमिदं तदशेषमिच्छा-
ज्ञानक्रियाभिरनुविध्य यया
विसृष्टम् ।
स्वस्मिन्ननुत्तरपदेन्तरहन्तयास्ते
सासौ परा त्वमसि शक्तिरुमे शिवस्य ॥
२८ ॥
जो यह चराचर जगत् है वह सम्पूर्णरूप
से जिसके द्वारा इच्छा, ज्ञान, क्रिया से अनुविद्ध कर बनाया गया है और जो अपने अनुत्तरपद में अहन्ता के
रूप में विराजमान है, हे शिव की पराशक्ति ! वह तुम ही हो ॥
२८ ॥
स्वस्मिन्ननुत्तरविसर्गमये सदन्तः
संविन्मये सकलमेव सदा शिवाद्यम् ।
इच्छादिशक्तिभिरिदं बहिरात्मनासौ
सा त्वं शिवस्य दयिते
विसृजस्यजस्रजम् ॥ २९ ॥
हे शिव की दयिते! तुम अपने अनुत्तर
विसर्गमय तथा अन्तः सविन्मय में शिव से लेकर पृथिवी तक अपनी इच्छादि शक्तियों से बाह्यरूप
में भी निरन्तर सृजन करती रहती हो ॥ २९ ॥
याऽसौ
स्फुरस्यखिलशक्त्यविभागमूर्तेः
स्वौजः कृता भगवतः प्रथमा विभक्तिः
।
सत्त्वादिहेतुमखिलस्य पदार्थराशे-
स्तां त्वां सदाम्ब विमृशन् विजयी
भवेयम् ॥ ३० ॥
सम्पूर्ण शक्ति के अविभक्त
मूर्तिवाले भगवान् परमशिव की अपने ओज के द्वारा की गयी जो प्रथम विभक्ति अर्थात्
विभूति के रूप में स्फुरित होती है समस्त पदार्थराशि की सृष्टि,
स्थिति और विनाश की जो हेतु है । हे माँ! उस आपका ध्यान करता हुआ
मैं विजयी होजाऊँ ॥ ३० ॥
भुक्तिमुक्त्युभयप्राप्तिर्यदृच्छालब्धया
यया ।
पुंसां पुण्यकृतां साऽसौ
श्रीरन्तर्वसति स्थिरा ॥ ३१ ॥
जो भोग और मोक्ष दोनों की प्राप्ति
अपनी इच्छानुसार करती है, वह लक्ष्मी पुण्यवान्
पुरुषों के अन्दर स्थायीरूप से रहती है ॥ ३१ ॥
मूलाधारमुखोदितोदिततडित्स्फारस्फुरत्तामयी
कालाग्न्यादिशिवान्तचित्ररचनावैचित्र्यलोला
सदा ।
लीलापुस्तकलेखिनीधरकरा
चिच्चन्द्रविम्बास्थिता
बाला काचन देवता शिवकथालीलानुकूला
परा ॥ ३२ ॥
मूलाधार के मुख में उदित विद्युत के
चमक की स्फुरत्तावाली कालाग्नि रुद्र से लेकर शिवपर्यन्त विभिन्न प्रकार की रचना
के वैचित्र्य से चञ्चल हाथ में लीलापुस्तक, लेखनी
धारण की हुई चित्ररूपी चन्द्रबिम्ब में स्थित शिवकथा की लीला के अनुकूल कोई
बालादेवता अद्भुत है ॥ ३२ ॥
संविन्मूलालवाला त्रिवलयकलिता
वीजशक्त्यात्मगर्भा
या सा सौदामिनीव स्फुरति
परशिवज्योतिरक्रूररूपा ।
सैषा
शाखोपशाखोदितकुसुमफलव्याप्तविश्वावकाशा
धीश्रीविश्रान्तभूमिः शरणमुपयतां
कल्पनाकल्पवल्लीम् ॥ ३३ ॥
जो पराशिव की अक्रूररूपा ज्योति
संविद् की मूल आलवाल है, तीन वलय से बनी हुई
है, बीजरूपी शक्ति को अपने अन्दर छिपाई हुई है, वह सौदामिनी के समान स्फुरित हो रही है, वह शाखा
उपशाखा में उगे हुए फूलों एवं फलों से व्याप्त विश्व के अवकाशवाली है, वह कल्पनारूपी कल्पवृक्ष के शरण में जानेवालों के लिए शरण, आनेवालों की बुद्धि और लक्ष्मी की शरणस्थली है ॥ ३३ ॥
सदंशं चिदंशे चिदंशं मुदंशे
मुदंशं निरंशे तुरीये विलाप्य ।
परं शम्भुमेवाविशेद (आविशन्न) ?
प्रमेयं
प्रमेयप्रमाणप्रमातृप्रकाशम् ॥ ३४ ॥
सदंश को चिदंश में,
चिदंश को आनन्दांश में, आनन्दांश को चतुर्थ
निरंश में विलीन करके प्रमेय, प्रमाण और प्रमाता के प्रकाशक
अप्रमेय परशिव में प्रवेश करना चाहिए ॥ ३४ ॥
दक्षिणं पश्चिमं पूर्वमुत्तरन्तु
निरुत्तरम् ।
इदं परं पदं तस्मात् (देः सभापारम्)?
॥ ३५ ॥
दक्षिण,
पश्चिम और पूर्व, उत्तर, निरुत्तर, यह परम पद है ॥ ३५ ॥
............पालयेत् परमेश्वरीम् ।
अभेदेनाधिशय्यैनां (अतिशय्येन) ?
जीवन्मुक्तो भवेज्जनः ॥ ३६ ॥
...अभेद के साथ इस पर अधिष्ठित होकर
मनुष्य को जीवनमुक्त होना चाहिए ॥ ३६ ॥
पूर्वसिद्धान् गुरून् देवान् देवीं
नत्वाऽथ योगिनः ।
इमेsभिनवगुप्तेन श्लोकाः पञ्चदशोदिताः ॥ ३७ ॥
पूर्वसिद्ध गुरुओं,
देवताओं, देवी और योगियों को नमस्कार कर
अभिनवगुप्त ने इन पन्द्रह श्लोकों की रचना की ॥ ३७ ॥
॥ इति रहस्यपञ्चदशिका ॥
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