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कर्मकाण्ड

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पञ्चश्लोकी

पञ्चश्लोकी

इस स्तोत्र में कुल पाँच श्लोक हैं । इसी कारण इसे 'पञ्चश्लोकी' कहा जाता है । इसमें शिव की विश्वोतीर्ण अवस्था का वर्णन है । अभिनवगुप्त पादाचार्य का विचार है कि बिना पूर्ण समर्पण के उस परम चैतन्य अथवा परमसत्ता से एकात्म्यभाव 'अर्थात् मोक्ष धाम' नहीं प्राप्त किया जा सकता है ।

पञ्चश्लोकी

पंचश्लोकी

Pañcaśloki

पञ्चश्लोकी स्तोत्र

यत्सत्यं तु मया कृतं मम विभो कृत्यं तु नातः परं

यन्मन्मानसमैशपादकमले भक्त्या मयैवार्पितम् ।

सर्वस्वमत एवमेतदितरन्नास्त्येव जानाम्यत-

स्त्यक्त्वा क्षिप्रमनाथनाथ करुणासिन्धो प्रसन्नो भव ॥ १ ॥

हे प्रभो ! जो मैंने किया वास्तव में उससे बढ़कर कोई कृत्य नहीं है जो कि मैंने अपने मन को भक्तिपूर्वक ईश्वर के चरणकमलों में अर्पित कर दिया । इसलिए इससे अतिरिक्त दूसरा कुछ नहीं है, यह मैं जानता हूँ, अतः सब कुछ छोड़कर हे अनाथ के नाथ! हे करुणासिन्धु! मेरे ऊपर प्रसन्न हो जाइये ॥ १ ॥

महेश त्वद्द्वारि स्फुरतु रुचिरा वागतितरां

ममैषा निर्दोषं जय जय महेशेति सततम् ।

शिवा सैषा वाणी भवतु शिवदा मह्यमनिशं

महेशानाथं मां शरणद सनाथं कुरु विभो ॥ २ ॥

हे महेश ! आपके द्वार पर मेरी यह रुचिर वाणी निरन्तर जय जय महेश करती रहे । वह कल्याणमयी वाणी मेरे लिए सतत् कल्याणप्रद हो । हे महेश ! हे शरणदाता प्रभो ! मुझ अनाथ को सनाथ करो ॥ २ ॥

ब्रूषे नोत्तरमङ्ग पश्यसि न मामेतादृशं दुःखितं

विज्ञप्तिं बहुधा कृतां न शृणुषे नायासि मन्मानसे ।

संसारार्णवगर्तमध्यपतितं प्रायेण नालम्बसे

वाक्चक्षुःश्रवणाङ्घ्रिणादिरहितं त्वामाह सत्यं श्रुतिः ॥ ३ ॥

हे भगवान्! आप उत्तर नहीं देते और इस प्रकार से दुःखी मुझे देखते नहीं । मेरे द्वारा की गई विज्ञप्ति को सुनते नहीं और मेरे मन में आते नहीं । संसाररूपी समुद्र के गर्त के मध्य में पतित मुझे सहारा नहीं देते, वेदों ने जो तुम्हें वाक्, चक्षु, श्रवण, पाद आदि से रहित कहा, वह सत्य है ॥ ३ ॥

गुरोर्वाक्याद् युक्तिप्रचयरचनोन्मार्जनवशात्

समाश्वासाच्छास्त्रं प्रति समुचिताद्वापि कथितम् ।

विलीने शङ्काभ्रे हृदयगगनोद्भासिमहस:

प्रभोः सूर्यस्येव स्पृशतु चरणान् ध्वान्तजयिनः ॥ ४ ॥

गुरु के वाक्य से, तर्कसमूहों के द्वारा रचना के उन्मार्जन से, शास्त्रों के प्रति विश्वास से अथवा समुचित के द्वारा शङ्कारूपी बादल के विलीन हो जाने पर, हृदय गगन में चमकनेवाले सूर्य के समान तेजस्वी अन्धकार को दूर करने वाले भगवान् के चरणों को स्पर्श करो ॥ ४ ॥

यातस्त्वत्सहवासतो बहुतरः कालो वतास्मिन् क्षणे

किं किं वा न कृतं त्वया वरगुरूपासानिमित्तेन मे ।

वारं वारमहं पुनर्निरुपमां दिव्यं भुवं प्रासुव-

त्कायस्त्वां किल विस्मरामि यदतः स्थेयं न भूयस्त्वया ॥ ५ ॥

तुम्हारे सहवास के कारण बहुत समय बीत गया और इस क्षण में श्रेष्ठ गुरु की उपासना के द्वारा आपने क्या-क्या नहीं किया? मैं बारम्बार अनुपम दिव्य पृथिवी पर जन्म लेकर तुम्हें भूल जाता हूँ, अतः आप पुनः मेरे अन्दर मत रहिए ॥५॥

॥ इति पञ्चश्लोकी ॥ 

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