श्रीदेवीरहस्य पटल २२

श्रीदेवीरहस्य पटल २२ 

रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम् के पटल २२ में सुराशोधन विधि का निरूपण के विषय में बतलाया गया है।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२

रुद्रयामलतन्त्रोक्तं श्रीदेवीरहस्यम् द्वाविंशः पटलः सुराशोधनविधिः

Shri Devi Rahasya Patal 22 

रुद्रयामलतन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य बाईसवाँ पटल

रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्यम् द्वाविंश पटल

श्रीदेवीरहस्य पटल २२ सुराशुद्धि विधि निरूपण

अथ द्वाविंशः पटलः

सुराशुद्धिविधिनिर्णयः

श्रीभैरव उवाच

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि सुराशुद्धिविधिं परम् ।

यं विधाय कलौ मन्त्री भविता मुक्तिभाजनम् ॥ १ ॥

यैरेव पातकी देवि साधको द्रव्यसङ्करैः ।

शुद्धैस्तैरेव पूजायां भवेद्भोगापवर्गभाक् ॥ २ ॥

यदा प्रभृति लोकेऽस्मिन् सुरा ख्यातिमुपागता ।

तदा सर्वे सुरा देवि ब्रह्मविष्णुहरादयः ॥ ३ ॥

तत्संसर्गोद्भवानन्दनिर्भरान्तरमानसाः ।

असुरा राक्षसा यक्षा गन्धर्वा मानवादयः ॥४॥

भजन्ति च सुरां दिव्यां मन्त्रसंस्कारमन्त्रिताम् ।

कालेन कलशस्थाभूत् सुरादेवी सुरेश्वरि ॥ ५ ॥

कलिना कालरूपेण बाधिते जगति प्रिये ।

शप्ता शुक्रेण देवेशि कचकारणहत्यया ॥ ६ ॥

सुराशुद्धि निर्णय - श्री भैरव ने कहा कि हे देवि ! सुनो, अब मैं सुराशुद्धि की श्रेष्ठ विधि को बतलाता हूँ। इस विधि से सुरा की शुद्धि करके कलिकाल में साधक मोक्ष का भागी होता है। हे देवि! द्रव्य में मिलावट करने से साधक पातकी होता है। शुद्ध सुरा से अर्चन करने पर वह भोग और पुरुषार्थचतुष्टय का भागी होता है। जैसे

इस लोक में सुरा की बड़ाई होती है, वैसे ही इस सुरा की ख्याति देवियों और ब्रह्मा, विष्णु, महेशादि देवताओं में भी है। सुरा के संसर्ग से जो आनन्द मिलता है, वह अन्तर मन का विषय है। असुर, राक्षस, यक्ष, गन्धर्व और मनुष्यादि इस सुरा का सदा स्मरण करते हैं। यह मन्त्र संस्कार से मन्त्रित होने पर दिव्य हो जाती है। हे सुरेश्वरि! कालवश यह सुरा कलशस्थ हो गई। कालरूप धारण कर कलि इस सुरा से संसार में बाधा उत्पन्न करने लगा। वृहस्पतिपुत्र कच की हत्या के कारण शुक्र ने इसे शाप दे दिया ।। १-६ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- कलिप्रादुर्भावे कलशस्था सुरा शुक्रेण ब्रह्मर्षिभिश्च शप्तेति विवेचनम्

शुक्रशापवशाद् देवा ब्रह्मविष्णुशिवादयः ।

ब्रह्मर्षयः सुरादेव्यै ददुः शापं यथाक्रमम् ॥ ७ ॥

ब्रह्महत्या सुरापानं समं ज्ञेयं महेश्वरि ।

कलि के प्रादुर्भाव से कलशस्थ सुरा को शुक्र और ब्रह्मर्षियों का शाप- शुक्रशाप के फलस्वरूप विवश होकर ब्रह्मा, विष्णु, शिवादि देवता और ब्रह्मर्षियों ने भी यथाक्रम से सुरा देवी को शाप दे दिया हे महेश्वरि! सुरापान को ब्रह्महत्या के समान माना गया है ।।७।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- सुरा शप्तेति श्रुत्वा मुदिता दैत्याः निर्बलान् देवान् स्वर्गान्निराकुर्वन्निति विवेचनम्

सुरा शप्ता यदा देवैस्तदा दैत्या मुदं ययुः ॥८॥

सुरां पीत्वा तु दितिजैर्देवा बलविवर्जिताः ।

स्वर्गान्निराकृता देवि पुरन्दरपुरःसराः ।।९।।

जब सुरा देवी को शाप मिला तब दैत्यों को अतिशय खुशी हुई। सुरा पीकर बलवान दैत्यों ने बलहीन देवताओं सहित इन्द्र को भी स्वर्ग से निष्कासित कर दिया।।८-९ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- निराकृतैर्देवैर्यज्ञे शिवादीनामावाहनम्

तदा जिष्णुं पुरस्कृत्य देवा यज्ञमतन्वत ।

सदाशिवादयो देवि प्रादुर्भूता मखोत्तमे ॥ १० ॥

वरं वृणु यथाभीष्टं देवनायक साम्प्रतम् ।

तं तवाशु प्रयच्छामो गच्छामो निलयं स्वकम् ॥ ११ ॥

स्वर्ग से निष्कासित देवों द्वारा यज्ञ में शिवादि का आवाहन तब विष्णु को आगे करके देवताओं ने यज्ञ का अनुष्ठान किया। उस उत्तम यज्ञ में सदाशिव आदि देवों का आगमन हुआ। सदाशिव ने कहा कि हे सुरपति इन्द्र! यथाभीष्ट वर माँगो तुम्हें वर प्रदान कर मैं अविलम्ब अपने लोक जाना चाहता हूँ।। १०-११ ॥

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- शिवादीनां समीपे गुरुं पुरस्कृत्य देवानां निर्बलताकारणं सुराशाप इति निवेदनम्

तदा शक्रोऽब्रवीद् देवि पुरस्कृत्य गुरं शिवे ।

तृणाप्रबिन्दुमात्रेण सुराया: प्राशितेन च ॥ १२ ॥

या तृप्तिर्जायतेऽस्माकं न सामृतघटीशतैः ।

सा शप्ता ब्रह्मणा देवी विष्णुना शङ्करेण च ॥ १३ ॥

तां विना निर्बला जाताः शत्रुभिश्च पराजिताः ।

तब इन्द्र ने बृहस्पति को आगे करके, तृणाग्र से बिन्दुमात्र सुरापान करके सदाशिव से कहा कि एक बून्द सुरा से जो तृप्ति मुझे मिली, वैसी तृप्ति सौ घड़ा अमृतपान से भी नहीं मिलती। यह सुरा ब्रह्मा, विष्णु, महेश से अभिशप्त है। सुरा के बिना देवता निर्बल होकर शत्रु से पराजित हो गये हैं।। १२-१३।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- देवानां शिवस्तुतिक्रिया

तदा सर्वे सुरा देवं शिवमीश्वरमव्ययम् ।।१४।।

तुष्टुवुः परया भक्त्या प्रणिपत्य पुनः पुनः ।

एकाक्षराय रुद्राय अकारायात्मरूपिणे ।। १५ ।।

उकारायादिदेवाय विद्यादेहाय वै नमः ।

तृतीयाय मकाराय शिवाय परमात्मने ।। १६ ।।

सूर्याय सोमवर्णाय यजमानाय वै नमः ।

नमस्ते भगवन् रुद्र भास्करामिततेजसे ॥१७॥

नमो भवाय देवाय शर्वाय च कपर्दिने ।

शिवाय क्षितिरूपाय सदासुरभये नमः ॥ १८ ॥

ईशानाय नमस्तुभ्यं संस्पर्शाय नमो नमः ।

पशूनां पतये चैव पावकामिततेजसे ।। १९ ।।

भीमाय व्योमरूपाय शब्दमात्राय वै नमः ।

महादेवाय सोमाय अमृताय नमो नमः ॥ २० ॥

उग्राय यजमानाय नमस्ते कर्मयोगिने ।

इति स्तुत्वा परं देवं भैरवं शिवमीश्वरम् ॥ २१ ॥

देवों के द्वारा शिव की स्तुति- तदनन्तर समस्त देवताओं ने बड़ी श्रद्धा-भक्ति से बार-बार उस अव्यय ईश्वर शिव जी को प्रणाम करके सन्तुष्ट किया और स्तुति किया। देवताओं ने कहा कि हे शिव जी ! आप एकाक्षर '' हैं। ॐ का '' आत्मारूप है, उकार आदिदेव है और विद्यारूप है। आपको नमस्कार है। तृतीय अक्षर 'मकार' शिवस्वरूप परमात्मा है। आप सूर्य-चन्द्र और यजमानरूप हैं, आपको नमस्कार हैं। अगणित सूर्यों के तेज से युक्त भगवन् रुद्र को प्रणाम है। भव, शर्व और कपर्दी देव को नमस्कार है। चितिरूप शिव को असुरों के संहारक को प्रणाम है। ईशानरूप आपको नमस्कार है। संस्पर्शरूप आपको नमस्कार है। पशुपति पतिस्वरूप के अमित तेजरूप अग्नि, व्योमरूप भीम और शब्दमात्ररूप आपको नमस्कार है। महादेव-चन्द्र- अमृतरूप आपको नमस्कार है। उग्र रूपधारी, यजमान, कर्मयोगी आपको नमस्कार है। इस प्रकार देवों ने परमदेव शिव ईश्वर की स्तुति की ।। १४-२१ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- आकाशवाणीश्रवणम्

प्रणेमुः सकला देवा ब्रह्मविष्णुहरादयः ।

तदा वागुदभूद् व्योम्नः पञ्चव्योमशरीरिणाम् ॥ २२ ॥

सुरेयं सर्वदा सेव्या सकलैस्तु मुमुक्षुभिः ।

युक्तन्यानया प्रसङ्गेन यथावदनुपूर्वशः ॥ २३ ॥

चतुर्धा वेदरूपोऽहमृग्यजुः सामरूपवान् ।

अथर्वाहं च मन्त्रात्मा परमात्मा शिवोऽव्ययः ॥ २४ ॥

वेदानालोड्य वेदार्थं मन्त्ररूपं विधाय च ।

कुरुकुल्लां महाविद्यां सदाशिव प्रकाशय ।। २५ ।।

आगमं नाम शास्त्रं तु चतुष्षष्ट्यात्मकं परम् ।

तस्मिन् सुरादिशुद्धिं तु प्रकाशय मनूत्तमैः ॥ २६ ॥

इति वाणी शिवोद्भूता विरराम यदा परा ।

सदाशिवं महेशानं तुष्टुवुः प्रणताः सुराः ॥ २७॥

आकाशवाणी श्रवण- ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि सभी देवों ने शिव को प्रणाम किया । पञ्च व्योम शरीरियों के लिये तब आकाशवाणी हुई कि यह सुरा सभी मुमुक्षुओं के द्वारा सेवन करने योग्य है। प्रसङ्गवश पूर्ववत् इससे आप सब संयुक्त होइये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद चारों वेदस्वरूप मैं हूँ मैं मन्त्रों की आत्मा, परमात्मा, अव्यय शिव हूँ। वेदों का आलोड़न करके वेदार्थ मन्त्ररूप का विधान मैंने किया है। कुरुकुल्ला महाविद्या को सदाशिव ने प्रकाशित किया है। श्रेष्ठ चौंसठ आगमशास्त्रों को शिव ने प्रकाशित किया है। उनमें सुराशोधन के उत्तम मन्त्रों को भी आप सब प्रकाशित करें। इस प्रकार कहकर शिवोद्भूत परावाणी का जब विराम हो गया तब महेश सदाशिव को प्रणाम करके देवों ने उनकी पुनः स्तुति की।। २२-२७।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- सदाशिवस्तुतिः

ॐ काररूपिणे देव नमस्ते विश्वरूपिणे ।

नमो देवादिदेवाय महादेवाय वै नमः ॥ २८ ॥

अर्धनारीशरीराय सांख्ययोगप्रवर्तिते ।

वेदशास्त्रार्थगम्याय शाश्वताय नमो नमः ॥ २९ ॥

दीनार्तत्राणकर्त्रे च नमस्ते दिव्यचक्षुषे ।

नमः सहस्त्रशीर्षाय नमः साहस्त्रिकाङ्घ्रये ॥ ३० ॥

नमो मन्त्राय चिद्व्योमवासिने परमात्मने ।

इति स्तुत्वा महादेवो महात्मा श्रीसदाशिवः ॥३१ ॥

प्रोवाचागमशास्त्रं तु मोक्षमार्गं महात्मनाम् ।

देवदेवीति या देवी या भवानीति विश्रुता ॥ ३२ ॥

सदाशिवं प्रणम्याशु प्रोवाच श्लक्ष्णया गिरा ।

वद देवागमं शास्त्रं रहस्यं परमाद्भुतम् ॥ ३३ ॥

यस्योच्चारणमात्रेण शापहीना भवेत् सुरा ।

देवों द्वारा पुनः शिवस्तुति - हे देव! ॐ काररूप आपको विश्वरूप नमस्कार है। देवादिदेव महादेव को नमस्कार है। अर्द्धनारी शरीर, सांख्य योगप्रवर्तक, वेदशास्त्र- अर्थगम्य शाश्वत को नमस्कार है। दीन आर्तों के त्राणकर्ता, दिव्य चक्षु को नमस्कार है। मन्त्ररूप आपको नमस्कार है। चिदाकाशवासी परमात्मा को नमस्कार है। देवताओं ने महात्मा महादेव श्री सदाशिव की इस प्रकार स्तुति करने के पश्चात् निवेदन किया कि आपने महात्माओं के मोक्षमार्ग का वर्णन आगमशास्त्र के रूप में किया, जिसे देवियों की देवी भवानी ने श्रवण किया आपका वर्णन श्लिष्ट भाषा में हुआ अब आप देवागम शास्त्र के परम अद्भुत रहस्य का वर्णन स्पष्ट करके करें, जिसके उच्चारण मात्र से सुरा शाप से मुक्त हो जाये ।। २८-३३।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- महादेवस्य सुराशोधनप्रकारकथनम्

श्रीशिव उवाच

शृणु देवि प्रवक्ष्यामि सुराशुद्धिं यथाक्रमम् ।

मकराणां च सर्वेषां शोधनं सिद्धिवर्धनम् ॥ ३४ ॥

वेदो निष्कलशब्दो वै वेदार्थोऽस्त्यागमः शिवे ।

वेदार्थागमतत्त्वज्ञैः सुरा सेव्या मुमुक्षुभिः ॥ ३५ ॥

न वेदागमयोर्भेदः सर्वथेति विनिश्चयः ।

शास्त्राणां परमेशानि भ्रान्तिः कार्या न कौलिकैः ॥ ३६ ॥

शिव का सुराशोधन प्रकार कथन- श्री शिव ने कहा कि हे देवि! सुनो, अब मैं यथाक्रम सुराशुद्धि और सभी मकारों के शोधन को बतलाता हूँ, जो सिद्धिवर्धक है। हे शिवे ! वेद निष्कल शब्द है। वेदार्थ आगम है। वेदार्थ आगम तत्त्व के ज्ञाता मुमुक्षु सुरा का सेवन करते हैं। यह सर्वथा निश्चित है कि वेद और आगम में भेद नहीं है। हे परमेशानि! कौलिक शास्त्रों में भेद नहीं करते। उन्हें भ्रान्ति नहीं होती है ।। ३४-३६ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- मण्डलनिर्माणं, तत्र कलार्चा तन्नाममन्त्राश्च

अधुना शृणु देवेशि सुराशोधनमुत्तमम् ।

येन शोधनमात्रेण सर्वसिद्धिः प्रजायते ॥ ३७॥

मण्डलं वामतः कृत्वा जलेन रजसापि वा ।

कुङ्कुमेनाष्टगन्धेन सर्वथा वीरभस्मना ॥ ३८ ॥

त्रिकोणं बिन्दुसंयुक्तं वृत्तं च चतुरस्रकम् ।

सामान्यायदकेनाशु सम्प्रोक्ष्य कुलसुन्दरि ।। ३९ ।।

तत्राधारं च संस्थाप्य वह्निमण्डलमर्चयेत् ।

वह्नेः कलाः समभ्यर्च्य यथावद्वर्ण्यते मया ॥ ४० ॥

रकारं बिन्दुसंयुक्तं वह्निबिम्बं च ङेऽन्तिकम् ।

दशकलात्मने विश्वमिति मन्त्रेण पूजयेत् ॥ ४१ ॥

धूम्रा च नीलवर्णा च कपिला विस्फुलिङ्गिनी ।

ज्वाला हैमवती कव्यवाहनी हव्यवाहनी ॥ ४२ ॥

रौद्री सङ्कर्षणी चैव वैश्वानरकला दश ।

पूजयित्वोक्तविधिना गन्धाक्षतप्रसूनकैः ॥४३॥

कलशं संस्थलं दिव्यं पुष्पमालादिशोभितम् ।

हैमं वा राजतं मार्दं स्थापयेद् वीरमुद्रया ॥ ४४ ॥

शम्भुना च यथा देवि विष्णुना च यथा पुरा ।

ब्रह्मणा च यथा पूर्वं तथा त्वां स्थापयाम्यहम् ॥ ४५ ॥

सुराशोधनमण्डल निर्माण हे देवेशि ! अब मैं सुराशोधन की उत्तम विधि कहता हूँ। जिस प्रकार के शोधनमात्र से ही सभी सिद्धियाँ मिलती हैं। अपने बाँये भाग में जल से, वीर्य से, कुङ्कुम से, अष्टगन्ध से या वीरभस्म से मण्डल बनावे । मण्डल में बिन्दु, त्रिकोण, वृत्त और चतुरस्त्र अङ्कित करे-

श्रीदेवीरहस्य बाईसवाँ पटल

इस कुलसुन्दरी का प्रोक्षण सामान्य अर्घ्य जल से करे। इस मण्डल पर आधार स्थापित करे। उस पर वह्निमण्डल का अर्चन करे। उसमें आगे वर्णित विधि से वह्निकलाओं का पूजन करे। पूजन मन्त्र है- रं वह्निमण्डलाय दशकलात्मने नमः । अग्नि की दश कलाओं का पूजन इस प्रकार करे-

१. यं धूम्रार्चिष्कलायै नमः ।

२. रं नीलवर्णकलायै नमः ।

३. लं कपिला विस्फुलिङ्गिनीकलायै नमः ।

४. वं ज्वालाकलायै नमः ।

५. शं हैमवतीकलायै नमः ।

६. षं कव्यवाहिनीकलायै नमः ।

७. सं हव्य वाहिनीकलायै नमः ।

८. हे रौद्रीकलायै नमः ।

९. लं सङ्कर्षिणीकलायै नमः ।

१०. क्षं वैश्वानरकलायै नमः ।

उक्त विधि से इनका पूजन गन्धाक्षतपुष्प से करे दिव्य पुष्पमालादि से सजाकर सोना, चाँदी या मिट्टी के बड़े कलश को वीरमुद्रा से स्थापित करे। पूर्व काल में शिव के द्वारा, विष्णु के द्वारा और ब्रह्मा के द्वारा जैसे तुम स्थापित हुए हो, वैसे ही अब मैं तुम्हें स्थापित करता हूँ।। ३७-४५ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- सूर्यपूजनम्

इति संस्थाप्य कलशं तत्र सूर्यं प्रपूजयेत् ।

सूर्यनाम समुच्चार्य जीवमन्त्रं महेश्वरि ॥ ४६ ॥

सूर्यमण्डलडेन्तं च श्रीद्वादशकलात्मने ।

विश्वमन्ते प्रयोक्तव्यं मनुनानेन पूजयेत् ॥४७॥

कला द्वादश सूर्यस्य पूजयेदुच्यते मया ।

तपिनी तापिनी चैव बोधिनी चैव रोधिनी ॥ ४८ ॥

कलिनी शोषणी चैव वरेण्याकर्षणी तथा ।

माया विश्वावती हेमप्रभा सौरकला इमाः ।। ४९ ।।

सूर्यमण्डल का पूजन - इस प्रकार कलश स्थापित करके कलश के ऊपर सूर्य का पूजन करे। पूजन मन्त्र है - ह्रीं सूर्यमण्डलाय श्रीद्वादशकलात्मने नमः । इसके बाद निम्नलिखित प्रकार से सूर्य के बारह कलाओं की पूजा करे-

१. ह्रीं तपिनीकलायै नमः ।

२. ह्रीं तापिनीकलायै नमः ।

३. ह्रीं बोधिनीकलायै नमः ।

४. ह्रीं रोधिनीकलायै नमः ।

५. ह्रीं कलिनीकलायै नमः ।

६. ह्रीं शोषिणीकलायै नमः ।

७. ह्रीं वरेण्याकलायै नमः ।

८. ही आकर्षिणीकलायै नमः ।

९. ह्रीं मायाकलायै नमः ।

१०. ह्रीं विश्वावतीकलायै नमः ।

११. ह्रीं हेमाकलायै नमः ।

१२. ह्रीं प्रभाकलायै नमः ।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- चन्द्रकलापूजनम्

सम्पूज्य कलशे देवि कौलिकः कुलसिद्धये ।

सुरया पूरयेत् कुम्भं विलोमैर्मातृकाक्षरैः ॥५०॥

तदिदं चामृतं साक्षाच्चन्द्ररूपं विचिन्तयेत् ।

चन्द्रमण्डलमभ्यर्च्य मन्त्रेणानेन पार्वति ॥५१॥

शक्तिमुच्चार्य देवेशि सोममण्डलङेयुतम् ।

विश्वाञ्चलाय देवेशि श्रीषोडशकलात्मने ॥५२॥

इति सम्पूज्य चन्द्रस्य कलाः षोडश पूजयेत् ।

अमृता मानदा तुष्टिः पुष्टिः प्रीती रतिस्तथा ॥ ५३ ॥

श्रीश्च ह्रीश्च स्वधा रात्रिज्र्ज्योत्स्ना हैमवती तथा ।

छाया च पूर्णिमा नित्या चामावस्या च षोडशी ॥ ५४ ॥

चन्द्रकला-पूजन - कलश की पूजा के बाद कुलसिद्धि के लिये कौलिक विलोम मातृका का उच्चारण करते हुए कलश को सुरा से पूर्ण करें। विलोक मातृका क्षं लं हं सं.....आं अं कुल इक्यावन होती है। कलशस्थ सुरा को साक्षात् चन्द्र मान कर इस मन्त्र से चन्द्रमण्डल का अर्चन करे। अर्चन मन्त्र है-सौः सोममण्डलाय षोडशकलात्मने नमः इस पूजा के बाद निम्नांकित रूप में षोड़श चन्द्रकलाओं का पूजन करे-

१. अं अमृता कलायै नमः ।

२.आं मानदा कलायै नमः ।

३. ई तुष्टि कलायै नमः ।

४. ई पुष्टि कलायै नमः ।

५. उं प्रीति कलायै नमः ।

६. ॐ रति कलायै नमः ।

७. ऋ श्रीं कलायै नमः ।

८. ॠ ह्रीं कलायै नमः ।

९. लं स्वधा कलायै नमः ।

१०. लूं रात्रि कलायै नमः ।

११. ऐं ज्योत्स्ना कलायै नमः ।

१२. ऐं हैम वती कलायै नमः ।

१३. ओं छाया कलायै नमः ।

१४ औं पूर्णिमा कलायै नमः ।

१५. अं नित्या कलायै नमः ।

१६. अ: अमावस्या कलायै नमः ।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- भैरवीपूजनम्

एताः सम्पूज्य मन्त्रैस्तु यजेद् देवीं च भैरवीम् ।

मूलेन तत्र कलशे त्रिकोणं च विभावयेत् ॥ ५५ ॥

बिन्दुबिम्बे परां ध्यात्वा पूजयेदिष्टदेवताम् ।

प्रणवेनार्चयेद् देवि शिवं गन्धेन वायुना ॥ ५६ ॥

तत्र तारं च मायां च परमस्वामिन्युद्धरेत् ।

परमाकाशशून्यं च वाहिनीति समुद्धरेत् ॥५७॥

चन्द्रार्काग्निभक्षणीति पात्रे विशयुगं वदेत् ।

ठद्वयान्तामिमां विद्यां जपेत्तु दशधा घटे ॥५८॥

तत्रैव मातृकान्ते च जपेदृचमिमां प्रिये ।

आकृष्णेन रजसेति नाति परमपावनीम् ॥५९॥

दशधैतामृचं देवि मधुवातऋताभिधाम् ।

तत्रानन्देशगायत्रीं जपेत्तु दशधा प्रिये ॥ ६० ॥

वाङ्मायामाः समुच्चार्य तथानन्देश्वराय च।

विद्महे श्रीसुरादेव्यै धीमहीति ततो वदेत् ॥ ६१ ॥

तन्नोऽर्धनारीश्वरश्व प्रचोदयात् समुद्धरेत् ।

गायत्री दशधा जप्त्वा हंसः शुचिषदार्चयेत् ॥ ६२ ॥

अग्निमीळे पुरोहितं त्रिः सञ्जप्येति कौलिकः ।

वकारं दीर्घषट्काद्यं प्रोच्चार्य तदनन्तरम् ।।६३ ।।

ब्रह्मशापमोचितायै सुरादेव्यै कुटान्तकम् ।

दशधा प्रजपेद्विद्यामिषे त्वोर्जेत्यृचं जपेत् ॥ ६४ ॥

कलश में देवी भैरवी का पूजन - इस पूजन के बाद देवी भैरवी का पूजन मन्त्र से करे। उस कलश में मूल मन्त्र से त्रिकोण की कल्पना करे। त्रिकोण के बीच बिन्दु में परा देवी का ध्यान करके इष्ट देवता का पूजन करे। प्रणव से देवी का अर्चन करे और वायु से गन्ध के द्वारा शिव का अर्चन करे। देवीप्रणव 'ह्रीं' है और वायु 'खं' है। कलश में इस मन्त्र का जप दश बार करे।

ॐ ह्रीं परमस्वामिनि परमाकाशशून्यवाहिनि चन्द्रार्क-

अग्निमक्षिणि पात्रे विश विश स्वाहा ।

इसके बाद वहीं पर मातृकाओं के बाद 'आकृष्णेन रजसा' नाम की परम पावनी ऋचा का जप करे। पूरी ऋचा यह है

आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं सत्यञ्च ।

हिरण्मयेन सविता रथेन देवो याति भुवनानि पश्यन् ।।

इसके बाद 'मधुवातऋता' नाम की ऋचा का पाठ दश बार करे यह ऋचा है

माधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः ।

माध्वीर्नः सन्त्वोषधीर्मधु नक्तमुतोषसो ।

मधुमत् पार्थिवं रजः मधु चौरस्तु नः पिता ।

मधुमानन्नो वनस्पतिर्मधु मां अस्तु सूर्यः ।

माध्वीर्गावो भवन्तु नः मधु मधु मधु ।।

इसके बाद आनन्देश गायत्री का जप दश बार करे

ऐं ह्रीं श्रीं आनन्देश्वराय विद्महे सुरादेव्यै धीमहि

तन्नो अर्द्धनारीश्वर प्रचोदयात् ।

इसके बाद 'हंसः शुचिषदा' का जप करे। पूरी ऋचा यह है-

ॐ हंसः शुचिषत् वसुरन्तरिक्ष सद्धोता वेदीषद तिथिर्दुरोणसत्।

नृषवर सद्ऋतः सद् व्योम सदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतं वृहत् ।।

इसके बाद कौलिक 'अग्निमीळे पुरोहितं' नाम की ऋचा का तीन बार जप करे।

ब्रह्मशापविमोचन मन्त्र ॐ वां वीं वूं वै वौ वः ब्रह्मशापविमोचितायै सुरादेव्यै नमः ।

इसका जप दश बार करे। तब 'त्वोजें' नाम की ऋचा का जप करे ।। ५५- ६४।।

तारं मायार्णषड्दीर्घान् प्रोच्चार्येति सुधे ततः ।

शुक्रशापं मोचय द्विर्वनान्तं च मनुं जपेत् ॥ ६५ ॥

अग्न आयाहीति ऋचं दशधा प्रजपेत् प्रिये ।

शुक्रशापहरी विद्यां प्रजपेदुच्यते यथा ।। ६६ ।।

सूर्यमण्डलसम्भूते वरुणालयसम्भवे ।

अमाबीजमये देवि शुक्रशापाद्विमुच्यताम् ॥६७॥

देवानां ( वेदानां ) प्रणवो बीजं ब्रह्मानन्दमयं यदि ।

तेन सत्येन देवेशि ब्रह्महत्यां व्यापोहतु ।। ६८ ।।

एकमेव परं ब्रह्म स्थूलसूक्ष्ममयं परम् ।

कचोद्भवां ब्रह्महत्यां तेन ते नाशयाम्यहम् ।।६९।।

ब्रह्मशापविनिर्मुक्ता त्वं मुक्ता विष्णुशापतः ।

विमुक्ता रुद्रशापेन पवित्रा भव साम्प्रतम् ॥७०॥

एतैर्मन्त्रैः समभ्यर्च्य त्रिवारं कौलिकः शिवे ।

शन्नो देवीरिति ऋचं दशधा प्रजपेद् घटे ॥ ७१ ॥

शुक्रशाप विमोचन मन्त्र ॐ ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रैं ह्रीं ह्रः सुधे शुक्रशापं मोचय मोचय नमः ।

इस मन्त्र के जप के बाद 'अग्न आयाहि' ऋचा का जप दश बार करें। शुक्र- शापहरी विद्या इस प्रकार की भी है। इसका जप करे। श्लोक ६७-७० शापहरी मन्त्र है, जिसका आशय इस प्रकार है-

सूर्यमण्डल से उत्पन्न वरुणालय सम्भूत अमा बीजमयी देवी शुक्रशाप से विमुक्त हो। वेदों का बीज ॐ यदि ब्रह्मानन्दमय है तो उस सत्य के प्रभाव से हे देवेशि ! आप ब्रह्महत्या के शाप से विमुक्त होइये। श्रेष्ठ स्थूल सूक्ष्ममय परं ब्रह्म यदि एक ही है तो कच के वध से उत्पन्न ब्रह्महत्या का मैं विनाश करता हूँ। हे सुरांदेवि! तुम अब ब्रह्मशाप से विमुक्त हो गयी। विष्णुशाप से भी विमुक्त हो जाओ। रुद्रशाप से भी मुक्त होकर इस समय तुम पवित्र हो जाओ।

हे शिवे! कौलिक इस मन्त्र से तीन बार अर्चन करके शन्नोदेवी नामक ऋचा का दश बार जप करे। पूरी ऋचा इस प्रकार की है- ॐ शन्नो देवीरभीष्टये आपो भवन्तु पीतये शन्नोरभिस्रवन्तु नः ।। ६५-७१ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- छुरिकाविद्या प्रतिपादनम्

ततो मायां रमां देवि पङ्गं षड्दीर्घभाजितम् ।

छुरिकाकारिण्युच्चार्य शोभिनीति ततो वदेत् ॥७२॥

विकारानस्य द्रव्यस्य हर युग्मं च ठद्वयम् ।

छुरिकाख्यां जपेद्विद्यां दशधा कलशोपरि ॥ ७३ ॥

यो विश्वचक्षुरिति च ऋचं वै दशधा जपेत् ।

गुरुं ध्यात्वा सहस्त्रारे हृत्पद्येऽपीष्टदेवताम् ॥७४॥

छुरिका विद्या - ह्रीं श्रीं छां छीं छू छै छौं छः छुरिके भव शोभिनि विकारान् अस्य द्रव्यस्य हर हर स्वाहा। इस मन्त्र का जप दश बार कलश के ऊपर करे। 'यो विश्वचक्षुः' नाम की ऋचा का जप दश बार करे। सहस्रार में गुरु का और हृदयकमल में इष्टदेवता का ध्यान करे, प्रणाम करे।।७२-७४ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- तिरस्करिणीध्यानं तिरस्करिणीविद्या च

प्रणम्य कौलिको ध्यायेत् श्रीतिरस्करणीं जपेत् ।

नीलतोयदसङ्काशां नीलकुन्तलशोभिताम् ॥७५॥

नीलाम्बरधरां देवीं नीलोत्पलविलोचनाम् ।

नीलपुष्पविभूषाढ्यां नीलालङ्कारभूषिताम् ॥ ७६ ॥

नीलाङ्गरागसञ्छनां नीलवैडूर्यमालिनीम् ।

इन्द्रनीलनिबद्धांशुमहार्घमणिभूषिताम् ॥७७॥

नीलवाजिसमारूढां नीलखड्गायुधां पराम् ।

निद्रापटेन नीलेन भुवनानि चतुर्दश ॥७८॥

मोहयन्तीं महामायां द्रव्यनिन्दक भक्षिणीम् ।

वीरपानरतान् वीरान् पालयन्तीं समन्ततः ॥ ७९ ॥

सङ्केतमण्डलं दिव्यं छादयन्तीं स्ववाससा ।

परमानन्दवपुषीं परमानन्द भैरवीम् ॥८०॥

परमानन्दजननीं प्रणमामि पराम्बिकाम् ।

इति ध्यात्वा जपेद्विद्यां यथावद् वर्ण्यते मया ॥८१॥

वाक्काममठमायाश्च तिरस्करणि संवदेत् ।

सकलजनं प्रोच्चार्य वाग्वादिनि ततो वदेत् ॥८२॥

सकलपशुजनं च वदेद् व्रातमनः पदम् ।

चक्षुः श्रोत्रजिह्वाघ्राणादीनि चेति तिरस्कुरु ॥८३॥

तिरस्कुरु ततः पद्मत्रयं ठद्वयमुद्धरेत् ।

श्रीतिरस्करणीं विद्यां सञ्जपेद् दशधा घटे ॥८४ ॥

तिरस्करणी विद्या और ध्यानकौलिक देवी तिरस्कारिणी का ध्यान करके तिरस्करणी मन्त्र का जप करे। तिरस्करिणी का ध्यान इस प्रकार है-

तिरस्करणी देवी का वर्ण नीले मेघ के समान है। नील केश से सुशोभित हैं। उनका वस्त्र नीला है, नील कमल के समान उनके नेत्र हैं। नील पुष्पों से विभूषित हैं। नीले अङ्गराग से लिप्त हैं। गले में नीले वैडूर्य की माला है। रेशमी वस्त्र नीलम महार्घमणि से जटित है। वे नीले घोड़े पर सवार हैं। उनके खड्ग आयुध भी नीले रंग के हैं। नीले निद्रापट से चौदहों भुवनों को मोहित करने वाली वे महामाया हैं। कुलद्रव्यों के निन्दक का भक्षण करती हैं। वीरपान में रत वीर साधकों का सम्यक् रूप से पालन करती हैं। अपने वस्त्रों से दिव्य संकेत मण्डल को ढके रहती हैं। इनका शरीर परमानन्ददायक है। ये परमानन्द भैरवी हैं। ये परम आनन्द की जननी हैं। ऐसी पराम्बिका को मैं प्रणाम करता हूँ।

ऐसा ध्यान करके अग्रलिखित तिरस्करिणी विद्या का जप करे। तिरस्करणी देवी का मन्त्र है-

ऐं ह्रीं श्रीं तिरस्करणि सकलजनवाग्वादिनि सकल पशुजनं त्रातः मनः पदं चक्षु, श्रोत्र, जिह्वा, घ्राणादीनि तिरस्कुरु तिरस्कुरु ठः ठः ठः स्वाहा। कलश पर इस मन्त्र का जप दश बार करे ।।७५-८४ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- पावमानी ऋक्कथनम्

पावमान्याः परं ब्रह्म शुद्धं ज्योतिः सनातनम् ।

पितॄंस्तस्योपतिष्ठति क्षीरं सर्पिर्मधुदकैः ॥८५ ॥

ऋचमेतां जपेदादौ त्रिवारं त्रिर्जपेत् ततः ।

पावमानी ऋचा श्लोक ८५ पावमानी ऋचा है। प्रारम्भ में इसका जप तीन बार करे। फिर तीन बार जप करे।। ८५ ।।

पावमान्यं परं ब्रह्म पावमान्यः परो रसः ॥८६॥

पावमान्यं परं ज्ञानं तेन त्वां पावयाम्यहम् ।

इति जप्त्वा गुरुं ध्यात्वा जपेद् वरुणबीजकम् ॥८७॥

श्लोक ८६ का उत्तरार्ध और ८७ का पूर्वार्द्ध दूसरी पावमानी ऋचा है। इसका जप करके गुरु का ध्यान करके वरुणबीज का जप करे।।८६-८७।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- कुण्डलिनीध्यानानीतेनामृतेनामृतीकरणम्

हंस इत्यर्कमन्त्रं च देवी कुण्डलिनीं स्मरेत् ।

प्रसुप्तभुजगाकारां सार्धत्रिवलयां शुभाम् ॥८८॥

सूर्यकोटिकरालाभां चन्द्रकोटिसुशीतलाम् ।

वह्निकोटिदुराद (ध) र्षा बिसतन्तुतनीयसीम् ॥८९ ।।

षट् चक्राणि विभिद्याशु सुषुम्नावर्त्मना नयेत् ।

सहस्त्रारस्थितं देवं नत्वा शिवपदे लयेत् ॥ ९० ॥

शिवशक्त्योर्महज्ज्योतिर्ध्यात्वा चन्द्रकलास्रुतम् ।

अमृतं वामनासाग्रान्निः सार्य कलशे क्षिपेत् ॥ ९१ ॥

अमृतीकृत्य तद् द्रव्यं धेनुमुद्रां प्रदर्शयेत् ।

कुण्डलिनी ध्यान से अमृतीकरण - सूर्यमन्त्र हंस से कुण्डलिनी का स्मरण करे। साढ़े तीन कुण्डलयुक्त यह कुण्डलिनी सुप्त नागिन के समान है। यह करोड़ों अग्नि के समान दुराधर्ष है। प्रकाशयुक्त है। पतले धागे के समान इसका शरीर है करोड़ों सूर्य के समान इसकी प्रखर किरणें हैं करोड़ों चन्द्रमा के समान यह शीतल है। इस कुण्डलिनी को मूलाधार चक्र से उठाकर स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्धि और आज्ञाचक्र का भेदन करते हुए सुषुम्ना मार्ग से सहस्रार स्थित शिव को प्रणाम करके शिवपदनख में उसे विलीन कर दे। शिव-शक्ति की महाज्योति का ध्यान करके चन्द्रकला से स्रवित अमृत को वाम नासाग्र से निकाल कर कलश में डाल दे। अमृतकृत उस द्रव्य को धेनुमुद्रा दिखावे ।।८८- ९१।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- अमृतीकरणमन्त्रकथनम्

मायां रमां कामकलाममृतेऽप्यमृतोद्भवे ॥ ९२ ॥

अमृतवर्षिण्युच्चार्य अमृतं स्स्रावयद्वयम् ।

अं आं विष्णुकलान्ते च पठेत् पार्वति कौलिकः ॥९३॥

विश्वान्तममृतेश्वर्यै मनुमेनं जपेद् घटे ।

ध्यात्वामृतमयं द्रव्यं कर्पूरादिसुवासितम् ॥ ९४ ॥

एलालवङ्गकस्तूरी-चन्दनोशीरमिश्रितम् ।

विधाय मूलमन्त्रेण तीर्थान्यावाहयेद् घटे ।। ९५ ।।

तारं शिवं शिवोद्भूतिं मूलमेतत् समुद्धरेत् ।

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ॥ ९६ ॥

नर्मदे सिन्धुकावेरि द्रव्येऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ।

इत्यावाह्य महादेवि मुद्रयाङ्कुशरूपया ॥ ९७ ॥

सर्वतीर्थमयं द्रव्यं ध्यायेत् परमपावनम् ।

द्रव्यमध्ये बिन्दुयुतं त्रिकोणं च विभावयेत् ॥ ९८ ॥

योनिमुद्रां निबद्ध्याशु ध्यायेदानन्दभैरवम् ।

अमृतीकरण मन्त्र - अमृतेश्वरी मन्त्र हैह्रीं श्रीं क्लीं अमृते अमृतोद्भवे अमृतवर्षिणि अमृतं स्रावय स्त्रावय अं आं क्लीं ह्रीं नमः । इस मन्त्र का जप कलश में करे। कलशस्थ द्रव्य को अमृतमय मानकर कर्पूरादि से सुवासित करके इलायची, लवंग, कस्तूरी, चन्दन, खश आदि का मिश्रण करे। मिलाते समय मूल मन्त्र का जप करे। इसके बाद कलश में तीर्थों का आवाहन करे। मन्त्र हैं-

ॐ ह्रां ह्रीं।

गङ्गे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वति ।

नर्मदे सिन्धु कावेरि द्रव्येऽस्मिन् सन्निधिं कुरु ।।

अङ्कुश मुद्रा से उन तीर्थों का आवाहन करके सर्वतीर्थमय द्रव्य को परम पावन समझे। द्रव्य में बिन्दुयुक्त त्रिकोण की कल्पना करके योनिमुद्रा बनाकर आनन्दभैरव का ध्यान करे ।। ९२-९८ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- आनन्द भैरवध्यानकथनम्

सूर्यकोटिप्रतीकाशं चन्द्रकोटिसुशीतलम् ।। ९९ ।।

अष्टादशभुजं देवं पञ्चवक्त्रं त्रिलोचनम् ।

अमृतार्णवमध्यस्थं ब्रह्मपद्मोपरिस्थितम् ॥ १०० ॥

वृषारूढं नीलकण्ठं सर्वा (र्पा) भरणभूषितम् ।

कपालखट्वाङ्गधरं घण्टाडमरुवादिनम् ॥ १०१ ॥

पाशाङ्कुशधरं देवं गदामुसलधारिणम् ।

खड्गखेटकपट्टीश-मुद्गरोच्छूलकुन्तिनम् ॥१०२॥

विचित्रखेटकं मुण्डवरदाभयपाणिकम् ।

लोहितं देवदेवेशं भावयेत् साधकोत्तमः ॥ १०३ ॥

आनन्दभैरव का ध्यान आनन्दभैरव करोड़ों सूर्यो के समान प्रकाशमान हैं। करोड़ों चन्द्रों के समान शीतल हैं। वे तीन नयनों से युक्त हैं। उनके पाँच मुख हैं। अट्ठारह भुजायें हैं। सुधासागर के मध्य में ब्रह्मकमल पर विराजमान हैं। नन्दी पर सवार हैं। उनका कण्ठ नीला है। सभी वस्त्राभूषण से सुशोभित हैं। हाथों में कपाल, खट्वांग है। घण्टा और डमरू बजा रहे हैं। पाश, अंकुश, गदा, मुशल, ढाल, तलवार, पट्टीश, मुद्गर, शूल, कुन्त, विचित्र ढाल, मुण्ड, वर और अभय धारण किए हुए हैं। देवदेवेश का वर्ण लोहित है। इस प्रकार आनन्दभैरव का ध्यान श्रेष्ठ साधक करें ।। ९९-१०३ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- आनन्द भैरवमन्त्रकथनम्

दत्त्वा पुष्पाञ्जलिं कुम्भे जपेदानन्द भैरवम् ।

हकारं च भृगुं देवं मण्डूकं धरणिं ततः ॥ १०४ ॥

तथा जीमूतबीजं च हुतभुग्बीजमुद्धरेत् ।

वायुं केशं तथानन्दभैरवाय ततोऽञ्चले ॥ १०५ ॥

विकुटं च मनुं जप्त्वा दशधा भैरवीं यजेत् ।

आनन्दभैरवीं ध्यायेद् यथावद् वर्ण्यते शिवे ॥१०६ ॥

आनदभैरव-मन्त्र- उपर्युक्त कलश पर पुष्पाञ्जलि समर्पित कर आनन्दभैरव के मन्त्र का जप करें। श्लोक १०४ १०६ का उद्धार करने पर आनन्दभैरव का मन्त्र इस प्रकार स्पष्ट होता हैहसक्षमलवरयूं आनन्दभैरवाय वषट् ।

इस मन्त्र का जप दश बार करके आनन्दभैरवी का पूजन करे। हे शिवे! आनन्दभैरवी के ध्यान का अब यथावत् वर्णन किया जा रहा है ।। १०४ १०६ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- आनन्दभैरवीध्यानम्

समुद्रे मथ्यमाने तु क्षीराब्धौ सागरोत्तमे ।

तत्रोत्पन्ना सुरा देवी कुमारीरूपधारिणी ॥ १०७ ॥

भावयेच्च सुरां देवीं चन्द्रकोट्ययुतप्रभाम् ।

हिमकुन्देन्दुधवलां पञ्चवक्त्रां त्रिलोचनाम् ॥ १०८ ॥

अष्टादशभुजैर्युक्तां सर्वानन्दकरोद्यताम् ।

प्रहसन्ती विशालाक्षी देवदेवस्य सम्मुखीम् ।। १०९ ।।

आनन्दभैरवी सुरा देवी का ध्यान क्षीरसागर के मन्थन के मध्य में कुमारी रूपधारिणी सुरा देवी उत्पन्न हुई। हजार करोड़ चन्द्रमा के समान इनकी प्रभा है। इनके पाँचों मुख वर्फ, कुन्द और चन्द्रमा के समान धवल हैं। इनके प्रत्येक मुख में तीन- तीन आँखें हैं। इनकी भुजाएँ अट्ठारह हैं। सभी को आनन्द प्रदान करने के लिये ये सदा उद्यत रहती हैं। विशाल आँखों वाली ये सुरा देवी देवाधिदेव के सम्मुख विहंस रही हैं ।। १०७-१०९ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- आनन्दभैरवीमन्त्रः कलशपूजनञ्च

शक्तिं शिवं निर्जरं च भेकीं भूबीजमेव च ।

मेघं वह्निं समीरार्णं केशं चैव समुद्धरेत् ॥ ११० ॥

सुरादेव्यै कुटं चान्ते विद्यां च दश्धा जपेत् ।

भैरवं भैरवीं चैव यष्ट्वा पार्वति कौलिकः ॥ १११ ॥

महामुद्रां धेनुमुद्रां योनिं मत्स्यं प्रदर्शयेत् ।

बद्ध्वा च लेलिहानाख्यां मुद्रां कुण्डलिनीं पुनः ॥ ११२ ॥

मूलाधारात् समुत्थाय सुषुम्नावर्त्मना प्रिये ।

द्वादशान्तं समास्थाप्य सोहं हंस इति स्मरेत् ॥ ११३ ॥

शिवेन सह संयोज्य परानन्दमयो भवेत् ।

तदुद्भूतामृतवृष्टिमुत्सृजेद् वामनासया ।। ११४ ।।

प्रणवेन च देवेशि परद्रव्ये नियोजयेत् ।

साक्षादमृततत्त्वाढ्यं ध्यायेत् कलशमुत्तमम् ।।११५ ।।

वारुणं बीजमुच्चार्य मूलमन्त्रं समुच्चरेत् ।

दशधा प्रजपेद् देवि गन्धाक्षतपुरःसरैः ।। ११६ ।।

पुष्पैर्नानाविधैर्दिव्यैर्माल्यैर्विविधभूषणैः।

सम्पूज्य कलशं दिव्यं घण्टानिः स्वानपूर्वकम् ॥ ११७ ॥

धूपैर्दीपैर्महोत्साहैः परमैर्विविधौषधैः ।

प्रपूज्य परया भक्त्या प्रणामैः स्तुतिपूर्वकैः ॥ ११८ ॥

आनन्दभैरवी मन्त्र एवं कलशपूजन- इन दोनों श्लोकों के प्रतीकों का उद्धार करने पर इनका मन्त्र यह होता हैसहक्षमलवरयीं आनन्दभैरव्यै वौषट् । इस मन्त्र का जप दश बार करे। भैरव भैरवी का इस प्रकार ध्यान और जप के बाद कौलिक महामुद्रा, धेनुमुद्रा, योनिमुद्रा और मत्स्यमुद्रा प्रदर्शित करे। लेलिहान मुद्रा बाँधकर कुण्डलिनी को मूलाधार से उठाकर सुषुम्ना मार्ग से सहस्रार में स्थापित करे। 'सोहं हंसः' का स्मरण करे। अपने को शिव के साथ संयुक्त करके परमानन्दमय हो जाये। इस स्थिति से उत्पन्न अमृतवृष्टि की भावना करे और उसे वाम नासा से के द्वारा निकालकर कलशस्थ द्रव्य में नियोजित करे। अब उस उत्तम कलश को साक्षात् अमृत तत्त्व से परिपूर्ण समझे। उस पर गन्धाक्षतपुष्प अर्पित करके वरुणबीज 'वं' के साथ मूल मन्त्र का जप दश बार करे। विविध प्रकार के फूलों, मालों, आभूषणों से कलश का पूजन घण्टी बजाते हुए करे। धूप दीप नैवेद्य आदि से परम उत्साह पूर्वक पूजन के साथ विविध परमौषधों से भी परम भक्ति के साथ पूजा करे। तदनन्तर स्तोत्रपाठ करे और विधिपूर्वक प्रणाम करे ।। ११०-११८ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- कलशे अमृततत्त्वध्यानम्

सर्वदेवमयं कुम्भं ध्यायेद् देवेशि साधकः ।

या सुरा सा उमादेवी यो द्रव्यं स महेश्वरः ।। ११९ ।।

यो गन्धः स भवेद् ब्रह्मा यो मोहः स जनार्दनः।

स्वादे च संस्थितः सोमः फेनायामनलः स्थितः ॥ १२० ॥

इच्छायां मन्मथो देवश्छर्धामुच्छिष्टभैरवः ।

द्रावे गङ्गा स्थिता देवि घटस्थाः सप्त सागराः ॥ १२१ ॥

सर्वतेजोमयं द्रव्यं परमानन्दनिर्भरम् ।

सर्वशापविनिर्मुक्तं सर्वमन्त्रसुसंस्कृतम् ॥ १२२ ॥

परमामृतभावेन भैरवं भैरवीं यजेत् ।

माहेश्वरैर्महावीरैर्महाचीनपदस्थितैः ॥ १२३ ॥

महाशक्तिमयैर्मान्यैः सेव्यं द्रव्यमिदं प्रिये ।

सन्तर्प्य देवतामिष्टां योगिनीगणमैश्वरम् ॥१२४ ।।

वटुकं क्षेत्रपालांश्च त्रिस्त्रिंशत्कोटिदेवताः ।

मातृर्मातृगणान् सर्वान् भूतप्रेतादिसंयुतान् ॥ १२५ ॥

सन्तर्प्य विधिवद् देवि गुरुं गुरुवरांस्ततः ।

गुरुं ध्यात्वा परां ध्यायेद्वीरान् सम्पूज्य शक्तितः ॥ १२६ ॥

शक्तियुक्तो यजेत् पात्रमित्याज्ञा पारमेश्वरी ।

शक्तिहीने वृथापानं शिवहीने वृथार्चनम् ॥१२७॥

शिवशक्तिसमायोगे वीरपूजा विमोक्षदा ।

इतीदं शोधनं दिव्यं सुरायाः सुरदुर्लभम् ॥ १२८ ॥

अमृततत्त्व के रूप में कलश का ध्यान-हे देवेशि ! साधक कलश को सर्वदेवमय मानकर ध्यान करे। सह समझे कि जो सुरा है, वह उमा हैं और जो द्रव्य हैं, वह महेश हैं। इसकी गन्ध ब्रह्मा हैं। मोह विष्णु हैं। इसके स्वाद में चन्द्रमा स्थित हैं। फेन में अग्नि स्थित हैं। इच्छा में कामदेव हैं। उच्छिष्ट भैरव द्वारा ये आच्छादित हैं। गङ्गा द्रवरूप में हैं। सातो सागर कलश में हैं। घटस्थ द्रव्य सभी तेजों से युक्त है। परमानन्ददायक है। सभी शापों से विमुक्त है। सभी मन्त्रों से सुसंस्कृत है। परम अमृतभाव से भैरव-भैरवी का पूजन यह मानकर करे कि महाचीनाचार के अनुसार महेश्वर भैरव महावीर हैं। कलशस्थ सेव्य द्रव्य महाशक्ति है। इस द्रव्य से इष्टदेवता और योगिनियों के साथ गणेश्वरों का तर्पण करे। वटुक, क्षेत्रपाल, तैंतीस करोड़ देवता, भूत- प्रेतादिसहित सभी मातृकागणों का तर्पण करे। इसके बाद गुरु और गुरुवरों का विधिवत् तर्पण करे। गुरु का ध्यान करके परा शक्ति और वीरों का पूजन सामर्थ्य के अनुसार करे। शक्ति से युक्त पात्र का पूजन करे ऐसी आज्ञा परमेश्वरी की है। जैसे शिव के बिना अर्चन व्यर्थ है, वैसे ही शक्ति के बिना सुरापान व्यर्थ है। शिव शक्ति के समायोग से ही वीर-पूजन मोक्षदायक होता है। इस प्रकार सुरदुर्लभ दिव्य सुराशोधन विधि का वर्णन पूर्ण हुआ ।। ११९-१२८ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- अन्यद्रव्यशोधन प्रस्ताव:

तव स्नेहेन निर्णीतं शृणुष्वान्यदपि प्रिये ।

मद्यं मांसं तथा मीनो मुद्रा मैथुनमेव च ।। १२९ ।।

मकारपञ्चकं पूज्यं शिवशक्तिसमागमे ।

पूजायां यद्यदानीतं भक्ष्यं भोज्यं च लेह्यकम् ॥१३० ।।

पेयं चोष्यं फलं पुष्पं सर्वं मन्त्रेण मन्त्रयेत् ।

विनाभिमन्त्रणेनैतद् यो मोहाद् भक्षयेच्छिवे ।। १३१ ।।

स मान्त्रिकोऽपि देवेशि सहसा निरयी भवेत् ।

चतुरस्त्रं लिखेद्विम्बं तत्र मीनान् निधापयेत् ॥ १३२ ॥

शोषयेद् दाहयेद् देवि प्लावयेन्मनुना शिवे ।

वायुबीजेन वाह्वयेन वारुणेन यथाक्रमम् ।। १३३ ।।

धेनुयोनिमहामत्स्या मुद्राश्चैव प्रदर्शयेत् ।

दशधा प्रजपेन्मन्त्रमानन्देश्वर भैरवम् ॥ १३४ ॥

प्रजप्य प्रपठेद्विद्यां यथोक्तां कौलिकेश्वरि ।

अन्य द्रव्य-शोधन- हे प्रिये! अन्य द्रव्यों की शोधन विधि को भी सुनो, जिसका तुम्हारे स्नेह के कारण वर्णन करता हूँ मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन- ये मकारपञ्चक हैं। इन्हीं से शक्ति के सहित शिव का पूजन होता है। पूजा के लिये जो भी भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, चोष्य, पेय, फल-फूल एकत्र किए गये हों, उन सबों को मन्त्र से मन्त्रित करना चाहिये। अभिमन्त्रित किये बिना मोहवश जो इनका भक्षण करता है, वह मान्त्रिक साधक भी नारकी होता है। चतुरस्र बनाकर मत्स्यादि पात्र को उसमें रखे उनका शोषण, दाहन और प्लावन मन्त्र से करे वायुबीज 'यं' से उनके दोषों का शोषण करें। अग्निबीज 'रं' से उन दोषों का दहन करे। वरुणबीज 'वं' से उसे अमृतमय करे। तब उसके समक्ष धेनु, योनि, महामुद्रा और मत्स्य मुद्रा प्रदर्शित करे। तदनन्तर आनन्देश्वर भैरव के मन्त्र का जप दश बार करे। हे कौलिकेश्वरि! जप के बाद निम्नोक्त स्तोत्र का पाठ करे ।। १२९-१३४।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- मत्स्यशोधनमन्त्रकथनम्

कृतावतारो हरिणा कलिना पीडितं जगत् ॥१३५॥

बलिना निगृहीतं च कौलिकानां हितेच्छया ।

भैरवीपरितोषार्थं स्वयं मीनोऽभवद् हरिः ।। १३६ ।।

मायां च हरये विश्वं जपेदुद्यमतः परम् ।

त्र्यम्बकं यजामहीति मन्त्रं त्रिः सञ्जपेत् सुधीः ॥१३७॥

प्रपूज्य गन्धपुष्यैस्तु प्रणमेद् देवतां पराम् ।

मत्स्यशोधन स्तोत्र - कलि से पीड़ित संसार के दुःखों को दूर करने के लिये विष्णु ने अवतार लिया। कौलिकों के कल्याण की इच्छा से वे बलि से निगृहीत हुए। भैरवी के परितोष के लिये स्वयं विष्णु मत्स्यरूप हो गये। 'ह्रीं क्लीं नमः' के साथ 'त्र्यम्बकं यजामहे' मन्त्र का जप तीन बार करे। पूरा मन्त्र ऐसा होता है - ॐ ह्रीं क्लीं नमः ।

त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।

उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।।

गन्ध-पुष्प से मत्स्य की पूजा करके परा देवता को प्रणाम करें ।। १३५-१३७।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- मांसशोधनमन्त्रकथनम्

चतुरस्त्रे महादेवि मांसपात्र निधापयेत् ॥ १३८ ॥

संशोष्य सन्दह्य पलमाप्लाव्य कुलसुन्दरि ।

मुद्रात्रयं प्रदर्श्याशु प्रपठेत् कौलिको मनुम् ॥१३९ ।।

मांस शोधन - एक चतुरस्त्र बनाकर उस पर मांसपात्र को रखे। पूर्वोक्त विधि से इसका शोषण, दाहन और प्लावन करके धेनु, योनि, मत्स्यमुद्रात्रय प्रदर्शित करे। इसके बाद इस मन्त्र का पाठ करे ।। १३८-१३९ ।।

छागलाज्येणमर्त्यान्त्र(न्तः) कृतरूपाय विष्णवे ।

बल्यर्थं शिवशक्त्योस्तं प्रपद्ये विष्णुमव्ययम् ॥ १४० ।।

प्रतर्पयामि बल्यर्थं पवित्रीभव साम्प्रतम् ।

मत्यों के त्राण के लिये छाग और लाजा का रूप विष्णु ने ग्रहण किया। शिव-शक्ति की बलि के लिये विष्णु ने विधि का प्रतिपादन किया। अब मैं तुम्हें बलि के लिये प्रतर्पित करता हूँ। अब तुम पवित्र हो जाओ ।। १४० ।।

त्रिः पठित्वा ऋचं देवि जपेत् कौलिकसत्तमः ॥ १४१ ॥

प्रतद्विष्णुरिति स्मृत्वा प्रणमेद् योनिमुद्रया ।

उपरोक्त ऋचा का तीन बार पाठ करके प्रतद विष्णु नाम की ऋचा का पाठ करे। पूरी ऋचा है-

ॐ प्रतद् विष्णुः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः ।

दिवीव चक्षुराततम् तद्विप्रासो विपण्यवो जागृवांसः समिन्धते ।।

विष्णोर्यत् परमं पदम् ।। १४१ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- मुद्राशोधनमन्त्रकथनम्

मुद्रापात्रं समानीय स्थापयेच्चतुरस्रके ॥ १४२ ।।

संशोषणं दाहनं च प्लावनं पूर्ववच्चरेत् ।

मुद्रात्रयं च सन्दर्श्य प्रपठेद् वेदवद् विधिम् ॥ १४३ ।।

मुद्राशोधन - मुद्रापात्र को लाकर चतुरस्र पर स्थापित करे। उसका पूर्ववत् शोषण, दाहन और प्लावन करे। उसके समक्ष पूर्ववत् मुद्रात्रय का प्रदर्शन करने के पश्चात् निम्नाङ्कित मन्त्र का पाठ करे ।। १४२-१४३ ।।

देवतापूजने यानि सौरभेयानि साम्प्रतम् ।

बल्यर्थं देवदेव्योश्च पवित्राणीह सिद्धये ।। १४४ ।।

श्लोक १४४ मन्त्र है। जिसका आशय यह है कि देवता पूजन के लिये जो सम्भार उपलब्ध हैं, उनका शोधन देव-देवी की बलि के लिये करता हूँ, जिससे मुझे सिद्धि मिले । । १४४ ।।

मूलं च दशधा जप्त्वा जपेदृचमनुत्तमाम् ।

तद्विष्णोः परमं मन्त्रं प्रजप्योपरि कौलिकः ।। १४५ ।।

मूल मन्त्र का जप दश बार करके उत्तम ऋचा पूर्वोक्त 'तद्विष्णोः परमं पदं' का जप मुद्रा के ऊपर करे ।। १४५ ।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- कुण्डगोलशोधनम्

प्रणम्य भक्तिभावेन कुण्डगोलं च शोधयेत् ।

चतुरस्त्रे च संस्थाप्य शोषयेद् दाहयेत् सुधीः ॥१४६॥

आप्लावयेत् परैर्बीजैर्मुद्राभिरभिरक्षेत् ।

मूलं च दशधा जप्त्वा जपेदचमथोपरि ।। १४७ ।।

विष्णुर्योनिमिति स्मृत्वा प्रजप्य प्रणमेत्ततः ।

कुण्डगोल- शोधन - भक्तिभाव से प्रणाम करके कुण्डगोल का शोधन करे। कुण्डगोल पात्र को चतुरस्त्र में स्थापित करके उसके दोषों का शोषण, दाहन, प्लावन करे। परा बीज और मुद्रा से अभिरक्षण करे। मूल मन्त्र का दश बार जप करके उसके ऊपर 'विष्णुयोनि' नामक ऋचा का जप करके प्रणाम करे। पूरी ऋचा निम्नलिखित रूप में है

ॐ विष्णु योनिः कल्पयतु त्वष्टा रूपाणि पिशतु ।

आसिंचतु प्रजापतिर्धाता गर्भ दधातु वै।।

गर्भ देहि सिनीवाली गर्भं देहि सरस्वति ।

गर्भं देहि अश्विनौ देवावाधत्तां पुष्करस्रजा । । १४६ - १४७।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- समस्तद्रव्यशोधनमन्त्रः

सर्वेषु देवद्रव्येषु समानीतेषु कौलिकैः ॥ १४८ ॥

ऋचमेतां जपेत् सम्यङ् मन्त्रमेनं समुद्धरेत् ।

ग्लूलूंस्लूंप्लूंन्लूं देवेशि स्वान्तं खं कामकालिकम् ॥ १४९ ॥

अमृतेऽप्यमृतोद्भूतेऽप्यमृतेश्वरि चामृतम् ।

स्रावयद्वयमुद्धृत्य ठद्वयं च समुद्धरेत् ।। १५० ।।

सभी द्रव्यों के शोधन का मन्त्र - कौल साधक सभी उपलब्ध पूजन सामग्रियों का शोधन उक्त ऋचा से करे। इसके बाद निम्न मन्त्र का जप करे-

ॐ ग्लूं म्लूं स्लूं प्लूं ब्लूं अं आं क्लों की अमृते अमृतोद्भूते अमृतेश्वरि अमृतं स्त्रावय स्त्रावय स्वाहा ।। १४८-१५०।।

इयं शापहरी विद्या मकाराणां महेश्वरि ।

पञ्चानां पञ्चकल्पानां स्मरणीयार्चनाविधौ ।। १५१ ।।

हे महेश्वरि! पञ्च ''कारों की शापहरी विद्या यही है। पाँचों को पाँच कल्पों से स्मरण-अर्चन करने की विधि है ।।१५१।।

श्रीदेवीरहस्य पटल २२- भैरवयागकथनम्

संशोध्य शिवद्रव्याणि मन्त्रैर्मुद्राभिरेव च ।

ऋग्भिः क्रमेण मूलेन प्ला (पा) वयेच्च यथाक्रमम् ॥ १५२ ।।

आनन्दरससम्पूर्णैः कलशामृतबिन्दुभिः ।

एवं संशोध्य द्रव्याणि परमाणि कुलेश्वरि ।। १५३ ।।

भैरवं भैरवीं देवीं यजेद् वीरसमागमे ।

अयष्ट्वा भैरवं देवमकृत्वा देवतार्चनम् ।।१५४ ।।

पशुपानविधौ पीत्वा वीरोऽपि नरकं व्रजेत् ।

एवं संस्कृत्य देवेशि गुरुभक्तिपुरः सरम् ॥। १५५ ।।

यः पिबेत् परमं पानं शिवसायुज्यमाप्नुयात् ।

इतीदं परमं गुह्यं रहस्यानां रहस्यकम् ।

अष्टसिद्धिमयं तत्त्वं गोपनीयं स्वयोनिवत् ॥ १५६ ॥

भैरवयागशिवद्रव्यों का शोधन मन्त्र, मुद्रा, ऋचाओं और मूल मन्त्र से क्रमपूर्वक करके यथाक्रम प्लावन करे। आनन्दरस से परिपूर्ण कलशस्थ अमृतबिन्दु से द्रव्यों का शोधन करके वीर समागम में भैरव और भैरवी का पूजन करे। भैरव देवता को अर्चन के बिना पशु के समान जो पीता है, वह वीर होने पर नरकवासी होता है। हे देवेशि ! गुरुभक्तिपूर्वक संस्कृत परम मद्य का जो पान करता है, वह शिवसायुज्य प्राप्त करता है। परम गुह्य रहस्यों का यह रहस्य पूर्ण हुआ। यह तत्त्व अष्ट सिद्धियों का स्वरूप है। अपनी योनि के समान गोपनीय है।। १५२-१५६ ।।

इति श्रीरुद्रयामले तन्त्रे श्रीदेवीरहस्ये सुराशोधनविधिनिरूपणं नाम द्वाविंशः पटलः ॥ २२ ॥

इस प्रकार रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य की भाषा टीका में सुराशोधन- विधि निरूपण नामक द्वाविंश पटल पूर्ण हुआ।

आगे जारी............... रुद्रयामल तन्त्रोक्त श्रीदेवीरहस्य पटल 23 

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