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कर्मकाण्ड

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महामारी विद्या

महामारी विद्या

अग्निपुराण अध्याय १३७ में महामारी विद्या का वर्णन है। इसके पाठ या जप सम्पूर्ण विधि-विधान सहित करने से सभी शत्रु,रोग व महामारी नष्ट हो जाता है। 

महामारी विद्या

महामारीविद्या

Mahamari Vidya

अग्निपुराण अध्याय १३७

अग्निपुराणम्/अध्यायः १३७

महामारीविद्या

ईश्वर उवाच

महामारीं प्रवक्ष्यामि विद्यां शत्रुविमर्दिनीं ॥ १ ॥

महेश्वर कहते हैं-देवि ! अब मैं महामारी-विद्या का वर्णन करूँगा, जो शत्रुओं का मर्दन करनेवाली है ॥ १ ॥

महामारीविद्या मंत्र

ॐ ह्रीं महामारि रक्ताक्षि कृष्णवर्णे यमस्याज्ञाकारिणि सर्वभूतसंहारकारिणि अमुकं हन हन, ॐ दह दह, ॐ पच पच, ॐ च्छिन्द च्छिन्द, ॐ मारय मारय, ओमुत्सादयोत्सादय, ॐ सर्वसत्त्ववशंकरि सर्वकामिके हुं फट् स्वाहा ॥ २ ॥

ॐ ह्रीं लाल नेत्रों तथा काले रंगवाली महामारि ! तुम यमराज की आज्ञाकारिणी हो, समस्त भूतों का संहार करनेवाली हो, मेरे अमुक शत्रु का हनन करो, हनन करो। ॐ उसे जलाओ, जलाओ। ॐ पकाओ, पकाओ। ॐ काटो, काटो। ॐ मारो, मारो। ॐ उखाड़ फेंको, उखाड़ फेंको। ॐ समस्त प्राणियों को वश में करनेवाली और सम्पूर्ण कामनाओं को देनेवाली ! हुं फट् स्वाहा ॥ २ ॥

महामारीविद्या मंत्र न्यास:

ओं मारि हृदयाय नमः । ओं महामारि शिरसे स्वाहा । ओं कालरात्रि शिखायै वौषट् । ओं कृष्णवर्णे खः कवचाय हुम् । ओं तारकाक्षि विद्युज्जिह्वे सर्वसत्त्वभयङ्करि रक्ष २ सर्वकार्येषु ह्रं त्रिनेत्राय चषट् । ओं महामारि सर्वभूतदमानि महाकालि अस्त्राय हुं फट् ॥ ३ ॥

अङ्गन्यास-'ॐ मारि हृदयाय नमः । - इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ की मध्यमा, अनामिका और तर्जनी अँगुलियों से हृदय का स्पर्श करे। 'ॐ महामारि शिरसे स्वाहा।'- इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ से सिर का स्पर्श करे। ॐ कालरात्रि शिखायै वौषट् ।' इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ के अँगूठे से शिखा का स्पर्श करे। 'ॐ कृष्णवर्णे खः कवचाय हुम् ।'- इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ की पाँचों अँगुलियों से बायीं भुजा का और बायें हाथ की पाँचों अँगुलियों से दाहिनी भुजा का स्पर्श करे। 'ॐ तारकाक्षि विधुजिह्वे सर्वसत्त्वभयंकरि रक्ष रक्ष सर्वकार्येषु हं त्रिनेत्राय वषट् ।' - इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ की अँगुलियों के अग्रभाग से दोनों नेत्रों और ललाट के मध्यभाग का स्पर्श करे। ॐ महामारि सर्वभूतदमनि महाकालि अस्त्राय हुं फट् ।'- इस वाक्य को बोलकर दाहिने हाथ को सिर के ऊपर एवं बायीं ओर से पीछे की ओर ले जाकर दाहिनी ओर से आगे की ओर ले आये और तर्जनी तथा मध्यमा अँगुलियों से बायें हाथ की हथेली पर ताली बजाये ॥ ३ ॥

महामारीविद्या मंत्र पूजन विधि

एष न्यासी महादेवि कर्तव्यः साधकेन तु ।

शवादिवस्त्रमादाय चतुरस्रन्त्रिहस्तकं ॥४॥

कृष्णवर्णां त्रिवक्त्राञ्च चतुर्बाहुं समालिखेत् ।

पटे विचित्रवर्णैश्च धनुः शूलञ्च कर्तृकां ॥५॥

खट्वाङ्गन्धारयन्तीं च कृष्णाभं पूर्वमाननं ।

तस्य दृष्टिनिपातेन भक्षयेदग्रतो नरं ॥६॥

द्वितीयं याम्यभागे तु रक्तजिह्वं भयानकं ।

लेलिहानं करालं च दंष्ट्रोत्कटभयानकं ॥

तस्य दृष्टिनिपातेन भक्ष्यमाणं हयादिकं ॥७॥

महादेवि ! साधक को यह अङ्गन्यास अवश्य करना चाहिये। वह मुर्दे पर का वस्त्र लाकर उसे चौकोर फाड़ ले। उसकी लंबाई-चौड़ाई तीन-तीन हाथ की होनी चाहिये। उसी वस्त्र पर अनेक प्रकार के रंगों से देवी की एक आकृति बनावे, जिसका रंग काला हो वह आकृति तीन मुख और चार भुजाओं से युक्त होनी चाहिये। देवी की यह मूर्ति अपने हाथों में धनुष, शूल, कतरनी और खट्वाङ्ग (खाट का पाया) धारण किये हुए हो। उस देवी का पहला मुख पूर्व दिशा की ओर हो और अपनी काली आभा से प्रकाशित हो रहा हो तथा ऐसा जान पड़ता हो कि दृष्टि पड़ते ही वह अपने सामने पड़े हुए मनुष्य को खा जायगी। दूसरा मुख दक्षिण भाग में होना चाहिये। उसकी जीभ लाल हो और वह देखने में भयानक जान पड़ता हो। वह विकराल मुख अपनी दाढ़ों के कारण अत्यन्त उत्कट और भयंकर हो और जीभ से दो गलफर चाट रहा हो। साथ ही ऐसा जान पड़ता हो कि दृष्टि पड़ते ही यह घोड़े आदि को खा जायगा ॥ ४-७ ॥

तृतीयं च सुखं देव्याः श्वेतवर्णं गजादिनुत् ।

गन्धपुष्पादिमध्वाज्यैः पश्चिमाभिमुखं यजेत् ॥८॥

देवी का तीसरा मुख पश्चिमाभिमुख हो। उसका रंग सफेद होना चाहिये। वह ऐसा जान पड़ता हो कि सामने पड़ने पर हाथी आदि को भी खा जायगा। गन्ध-पुष्प आदि उपचारों तथा घी-मधु आदि नैवेद्योंद्वारा उसका पूजन करे ॥ ८ ॥

महामारीविद्या मंत्र महात्म्य

मन्त्रस्मृतेरक्षिरोगशिरोरोगादि नश्यति ।

वश्याः स्युर्यक्षरक्षाश्च नाशमायान्ति शत्रवः ॥९॥

समिधो निम्बवृक्षस्य ह्यजारक्तविमिश्रिताः ।

मारयेत्क्रोधसंयुक्तो होमादेव न संशयः ॥१०॥

परसैन्यमुखो भूत्वा सप्ताहं जुहुयाद्यदि ।

व्याधिभिर्गृह्यते सैन्यम्भङ्गो भवति वैरिणः ॥११॥

समिधोऽष्टसहस्रन्तु यस्य नाम्ना तु होमयेत् ।

अचिरान्म्रियते सोपि ब्रह्मणा यदि रक्षितः ॥१२॥

उन्मत्तसमिधो रक्तविषयुक्तसहस्रकं ।

दिनत्रयं ससैन्यश्च नाशमायाति वै रिपुः ॥१३॥

पूर्वोक्त मन्त्र का स्मरण करनेमात्र से नेत्र और मस्तक आदि का रोग नष्ट हो जाता है। यक्ष और राक्षस भी वश में हो जाते हैं और शत्रुओं का नाश हो जाता है। यदि मनुष्य क्रोधयुक्त होकर, निम्ब-वृक्ष की समिधाओं को होम करे तो उस होम से ही वह अपने शत्रु को मार सकता है, इसमें संशय नहीं है। यदि शत्रु की सेना की ओर मुँह करके एक सप्ताह तक इन समिधाओं का हवन किया जाय तो शत्रु की सेना नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त हो जाती है और उसमें भगदड़ मच जाती है। जिसके नाम से आठ हजार उक्त समिधाओं का होम कर दिया जाय, वह यदि ब्रह्माजी के द्वारा सुरक्षित हो तो भी शीघ्र ही मर जाता है। यदि धतूरे की एक सहस्र समिधाओं को रक्त और विष से संयुक्त करके तीन दिनतक उनका होम किया जाय तो शत्रु अपनी सेना के साथ ही नष्ट हो जाता है ॥९-१३॥

राजिकालवर्णैर्होमाद्भङ्गोऽरेः स्याद्दिनत्रयात् ।

खररक्तसमायुक्तहोमादुच्चाटयेद्रिपुं ॥१४॥

काकरक्तसमायोगाद्धोमादुत्सादनं ह्यरेः ।

बधाय कुरुते सर्वं यत्किञ्चिन्मनसेप्सितं ॥१५॥

अथ सङ्ग्रामसमये गजारूढस्तु साधकः ।

कुमारीद्वयसंयुक्तो मन्त्रसन्नद्धविग्रहः ॥१६॥

दूरशङ्खादिवाद्यनि विद्यया ह्याभिमन्त्रयेत् ।

महामायापटं गृह्य उच्छेत्तव्यं रणाजिरे ॥१७॥

परसैन्यमुखो भूत्वा दर्शयेत्तं महापटं ।

कुमारीर्भोजयेत्तत्र पश्चात्पिण्डीञ्च भ्रामयेत् ॥१८॥

साधकश्चिन्तयेत्सैन्यम्पाषाणमिव निश्चलं ।

राई और नमक से होम करने पर तीन दिन में ही शत्रु की सेना में भगदड़ पड़ जायगी-शत्रु भाग खड़ा होगा। यदि उसे गदहे के रक्त से मिश्रित करके होम किया जाय तो साधक अपने शत्रु का उच्चाटन कर सकता है-वहाँ से भागने के लिये उसके मन में उचाट पैदा कर सकता है। कौए के रक्त से संयुक्त करके हवन करने पर शत्रु को उखाड़ फेंका जा सकता है। साधक उसके वध में समर्थ हो सकता है तथा साधक के मन में जो-जो इच्छा होती है, उन सब इच्छाओं को वह पूर्ण कर लेता है । युद्धकाल में साधक हाथी पर आरूढ़ हो, दो कुमारियों के साथ रहकर, पूर्वोक्त मन्त्र द्वारा शरीर को सुरक्षित कर ले फिर दूर के शङ्ख आदि वाद्यों को पूर्वोक्त महामारी-विद्या से अभिमन्त्रित करे। तदनन्तर महामाया की प्रतिमा से युक्त वस्त्र को लेकर समराङ्गण में ऊँचाई पर फहराये और शत्रुसेना की ओर मुँह करके उस महान् पट को उसे दिखाये। तत्पश्चात् वहाँ कुमारी कन्याओं को भोजन करावे। फिर पिण्डी को घुमाये। उस समय साधक यह चिन्तन करे कि शत्रु की सेना पाषाण की भाँति निश्चल हो गयी है॥१४-१८अ॥

निरुत्साहं विभग्नञ्च मुह्यमानञ्च भावयेत् ॥१९॥

एष स्तम्भो मया प्रोक्तो न देयो यस्य कस्य चित् ।

त्रैलोक्यविजया माया दुर्गैवं भैरवी तथा ॥२०॥

कुब्जिका भैरवो रुद्रो नारसिंहपटादिना ॥२१॥

वह यह भी भावना करे कि शत्रु की सेना में लड़ने का उत्साह नहीं रह गया है, उसके पाँव उखड़ गये हैं और वह बड़ी घबराहट में पड़ गयी है। इस प्रकार करने से शत्रु की सेना का स्तम्भन हो जाता है। (वह चित्रलिखित की भाँति खड़ी रह जाती है, कुछ कर नहीं पाती।) यह मैंने स्तम्भन का प्रयोग बताया है। इसका जिस किसी भी व्यक्ति को उपदेश नहीं देना चाहिये। यह तीनों लोकों पर विजय दिलानेवाली देवी 'माया' कही गयी है और इसकी आकृति से अङ्कित वस्त्र को 'मायापट' कहा गया है। इसी तरह दुर्गा, भैरवी, कुब्जिका, रुद्रदेव तथा भगवान् नृसिंह की आकृति का भी वस्त्र पर अङ्कन किया जा सकता है। इस तरह की आकृतियों से अङ्कित पट आदि के द्वारा भी यह स्तम्भन का प्रयोग सिद्ध हो सकता है ॥ १९-२१ ॥

इत्याग्नेये महापुराणे युद्धजयार्णवे महामारी नाम सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में 'महामारी विद्या का वर्णन' नामक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३७ ॥

आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 138 

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