अग्निपुराण अध्याय १३३
अग्निपुराण
अध्याय १३३ में नाना प्रकार के बलों का विचार का वर्णन है।
अग्निपुराणम् त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
Agni puran chapter 133
अग्निपुराण एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय
अग्नि पुराण अध्याय १३३
अग्निपुराणम् अध्यायः १३३ – नानाबलानि
अथ त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
अग्निपुराणम्/अध्यायः
१३३
ईश्वर उवाच
गर्भजातस्य
वक्ष्यामि क्षेत्राधिपस्वरूपकं ।
नातिदीर्घः
कृशः स्थूलः समाङ्गो गौरपैतिकः ॥१॥
रक्ताक्षो
गुणवान् शूरो गृहे सूर्यस्य जायते ।
सौभाग्यो मृदुसारश्च
जातश्चन्द्रगृहोदये ॥२॥
वाताधिकोऽतिलुब्धादिर्जातो
भूमिभुवो गृहे ।
बुद्धिमान्
सुभगो मानी जातः सौम्यगृहोदये ॥३॥
वृहत्क्रोधश्च
शुभगो जातो गुरुगृहे नरः ।
त्यागो भोगो च
सुभगो जातो भृगुगृहोदये ॥४॥
बुद्धिमाञ्छुभगो
मानी जातश्चार्किगृहे नरः ।
सौम्यलग्ने तु
सौम्यः स्यात्क्रूरः स्यात्क्रूरलग्नके ॥५॥
शंकरजी कहते
हैं- अब सूर्यादि ग्रहों की राशियों में पैदा हुए नवजात शिशु का जन्म-फल
क्षेत्राधिप के अनुसार वर्णन करूँगा। सूर्य के गृह में अर्थात् सिंह लग्न में
उत्पन्न बालक समकाय, कभी कृशाङ्ग, कभी स्थूलाङ्ग,गौरवर्ण,
पित्त प्रकृति, लाल नेत्रोंवाला, गुणवान् तथा वीर होता है। चन्द्र के गृह में अर्थात् कर्क लग्न का जातक
भाग्यवान् तथा कोमल शरीरवाला होता है। मङ्गल के गृह में अर्थात् मेष तथा वृश्चिक
लग्नों का जातक वातरोगी तथा अत्यन्त लोभी होता है। बुध के गृह में अर्थात् मिथुन
तथा कन्या लग्नों का जातक बुद्धिमान्, सुन्दर तथा मानी होता
है। गुरु के गृह में अर्थात् धनु तथा मीन लग्नों का जातक सुन्दर और अत्यन्त क्रोधी
होता है। शुक्र के गृह में अर्थात् तुला तथा वृष लग्नों का जातक त्यागी, भोगी एवं सुन्दर शरीरवाला होता है। शनि के गृह में अर्थात् मकर तथा कुम्भ
लग्नों का जातक बुद्धिमान्, सुन्दर तथा मानी होता है। सौम्य
लग्न का जातक सौम्य स्वभाव का तथा क्रूर लग्न का जातक क्रूर स्वभाव का होता है* ॥१-५॥
* यहाँ पर मेष, मिथुन, सिंह, तुला, धनु, कुम्भ– ये राशियाँ तथा लग्न क्रूर हैं और वृष, कर्क,
कन्या, वृश्चिक, मकर,
मीन- ये राशियाँ तथा लग्न सौम्य हैं। इसके लिये वराहमिहिर ने 'लघुजातक' तथा 'बृहज्जातक'
में लिखा है- 'पुंस्त्री कूराकूरौ
चरस्थिरद्विस्वभावसंज्ञाश्च'
दशाफलङ्गौरि
वक्ष्ये नामराशौ तु संस्थितं ।
गजाश्वधनधान्यानि
राज्यश्रीर्विपुला भवेत् ॥६॥
पुनर्धनागमश्चापि
दशायां भास्करस्य तु ।
दिव्यस्त्रीदा
चन्द्रदशा भूमिलाभः सुखं कुजे ॥७॥
भूमिर्धान्यं
धनं बौधे गजाश्वादिधनं गुरौ ।
खाद्यपानधनं
द्शुक्रे शनौ व्याध्यादिसंयुतः ॥८॥
स्नानसेवादिनाध्वानं
वाणिज्यं राहुर्दर्शने ।
गौरि ! अब नाम
राशि के अनुसार सूर्यादि ग्रहों का दशाफल कहता हूँ। सूर्य की दशा में हाथी, घोड़ा, धन-धान्य,
प्रबल राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति और धनागम होता है। चन्द्रमा की दशा में
दिव्य स्त्री की प्राप्ति होती है। मङ्गल की दशा में भूमिलाभ और सुख होता है। बुध की
दशा में भूमिलाभ के साथ धन-धान्य की भी प्राप्ति होती है। गुरु की दशा में घोड़ा,
हाथी तथा धन मिलता है। शुक्र की दशा में खाद्यान्न तथा
गोदुग्धादिपान के साथ धन का लाभ होता है। शनि की दशा में नाना प्रकार के रोग
उत्पन्न होते हैं। राहु का दर्शन होने पर अर्थात् ग्रहण लगने पर निश्चित स्थान पर निवास, दिन में ध्यान और व्यापार का काम करना चाहिये ॥ ६-८ ॥
वामनाडीप्रवाहे
स्यान्नाम चेद्विषमाक्षरं ॥९॥
तदा जयति
सङ्ग्रामे शनिभौमससैंहिकाः ।
दक्षनाडीप्रवाहेर्के
वाणिज्ये चैव निष्फला ॥१०॥
सङ्ग्रामे
जयमाप्नोति समनामा नरो ध्रुवं ।
अधश्चारे जयं विद्यादूर्ध्वचारे
रणे मृतिं ॥११॥
यदि वाम श्वास
चलते समय नाम का अक्षर विषम संख्या का हो तो वह समय मङ्गल, शनि तथा राहु का रहता है। उसमें युद्ध करने
से विजय होती है। दक्षिण श्वास चलते समय यदि नाम का अक्षर सम संख्या का हो तो वह
समय सूर्य का रहता है। उसमें व्यापार कार्य निष्फल होता है, किंतु
उस समय पैदल संग्राम करने से विजय होती है और सवारी पर चढ़कर युद्ध करने से मृत्यु
होती है ॥ ९ - ११ ॥
ओं हूं ओं
ह्रूं ओं स्फें अस्त्रं मोटय ओं चूर्णय २ ओं सर्वशत्रुं मर्दय २ ओं ह्रूं ओं ह्रः
फट् ॥
सप्तवारन्न्यसेन्मन्त्रं
ध्यात्वात्मानन्तु भैरवं ।
चतुर्भुजन्दशभुजं
विंशद्बाह्वात्मकं शुभं ॥१२॥
शूलखट्वाङ्गहस्तन्तु
खड्गकट्टारिकोद्यतं ।
भक्षणं
परसैन्यानामात्मसैन्यपराङ्मुखं ॥१३॥
सम्मुखं
शत्रसैन्यस्य शतमष्टोत्तरं जपेत् ।
जपाड्डमरुकाच्छब्दाच्छस्त्रं
त्यक्त्वा पलायते ॥१४॥
ॐ हूं, ॐ हूं, ॐ स्फें,
अस्त्रं मोटय ॐ चूर्णय,चूर्णय ॐ सर्वशत्रुं
मर्दय, मर्दय ॐ हूं, ॐ ह्रः फट्। - इस मन्त्र का सात बार न्यास करना चाहिये। फिर जिनके चार, दस तथा बीस भुजाएँ हैं, जो हाथों में त्रिशूल, खट्वाङ्ग, खड्ग और कटार धारण किये हुए हैं तथा जो अपनी सेना से विमुख और शत्रु सेना का
भक्षण करनेवाले हैं, उन भैरवजी का अपने हृदय में ध्यान करके
शत्रु सेना के सम्मुख उक्त मन्त्र का एक सौ आठ बार जप करे। जप के पश्चात् डमरू का
शब्द करने से शत्रु सेना शस्त्र त्यागकर भाग खड़ी होती है ॥ १२-१४ ॥
परसैन्यं शृणु
भङ्गं प्रयोगेन पुनर्वदे ।
श्मशानाङ्गारमादाय
विष्टाञ्चोलूककाकयोः ॥१५॥
कर्पटे
प्रतिमां लिख्य साध्यस्तैवाक्षरं यथा ।
नामाथ नवधा
लिख्य रिपोश्चैव यथाक्रमं ॥१६॥
मूर्ध्नि
वक्त्रे ललाटे च हृदये गुह्यपादयोः ।
पृष्ठे तु
बाहुमध्ये तु नाम वै नवधा लिखेत् ॥१७॥
मोटयेद्युद्धकाले
तु उच्चरित्वा तु विद्यय ।
पुनः शत्रु
सेना की पराजय का अन्य प्रयोग बतलाता हूँ। श्मशान के कोयले को काक या उल्लू की
विष्ठा में मिलाकर उसी से कपड़े पर शत्रु की प्रतिमा लिखे और उसके सिर, मुख, ललाट, हृदय, गुह्य, पैर, पृष्ठ, बाहु और मध्य में शत्रु का नाम नौ बार लिखे।
उस कपड़े को मोड़कर संग्राम के समय अपने पास रखने से तथा पूर्वोक्त मन्त्र पढ़ने से
विजय होती है ॥ १५-१७अ ॥
तार्क्ष्यचक्रं
प्रवक्ष्यामि जयार्थं त्रिमुखाक्षरं ॥१८॥
क्षिप ओं
स्वाहा तार्क्षात्मा शत्रुरोगविषादिनुत् ।
दुष्टभूतग्रहार्तस्य
व्याधितस्यातुरस्य च ॥१९॥
करोति
यादृशङ्कर्म तादृशं सिद्ध्यते खगात् ।
स्थावरं
जङ्गमञ्चैव लूताश्च कृत्रिमं विषं ॥२०॥
अब विजय
प्राप्त करने के लिये त्रिमुखाक्षर 'तार्क्ष्यचक्र' को कहता हूँ। 'क्षिप ॐ स्वाहा तार्क्ष्यात्मा शत्रुरोगविषादिनुत्।' इस मन्त्र को 'तार्क्ष्य- चक्र' कहते हैं। इसके अनुष्ठान से दुष्टों की बाधा, भूत-बाधा
एवं ग्रह बाधा तथा अनेक प्रकार के रोग निवृत्त हो जाते हैं। इस 'गरुड-मन्त्र' से जैसा कार्य चाहे, सब सिद्ध हो जाता है। इस मन्त्र के साधक का दर्शन करने से स्थावर-जंगम,लूता तथा कृत्रिम - ये सभी विष नष्ट हो जाते हैं॥१८-२०॥
तत्सर्वं
नाशमायाति साधकस्यावलोकनात् ।
पुनर्ध्यायेन्महातार्क्ष्यं
द्विपक्षं मानुषाकृतिं ॥२१॥
द्विभुजं
वक्रचञ्चुं च गजकूर्मधरं प्रभुं ।
असङ्ख्योरगपादस्थमागच्छन्तं
खमध्यतः ॥२२॥
ग्रसन्तञ्चैव
खादन्तं तुदन्तं चाहवे रिपून् ।
चञ्च्वाहताश्च
द्रष्टव्याः केचित्पादैश्च चूर्णिताः ॥२३॥
पक्षपातैश्चूर्णिताश्च
केचिन्नष्टा दिशो दश ।
तार्क्ष्यध्यानान्वितो
यश्च त्रिलोक्ये ह्यजयो भवेत् ॥२४॥
पुनः
महातार्क्ष्य का यों ध्यान करना चाहिये- जिनकी आकृति मनुष्य की-सी है, जो दो पाँख और दो भुजा धारण करते हैं,
जिनकी चोंच टेढ़ी है, जो सामर्थ्यशाली तथा
हाथी और कछुए को पकड़ रखनेवाले हैं, जिनके पंजों में असंख्य
सर्प उलझे हुए हैं, जो आकाशमार्ग से आ रहे हैं और रणभूमि में
शत्रुओं को खाते हुए नोच-नोचकर निगल रहे हैं, कुछ शत्रु
जिनकी चोंच से मारे हुए दीख रहे हैं, कुछ पंजों के आघात से
चूर्ण हो गये हैं, किन्हीं का पंखों के प्रहार से कचूमर निकल
गया है और कुछ नष्ट होकर दसों दिशाओं में भाग गये हैं। इस तरह जो साधक ध्यान-निष्ठ
होगा, वह तीनों लोकों में अजेय होकर रहेगा अर्थात् उस पर कोई
विजय नहीं प्राप्त कर सकता ॥२१-२४॥
पिच्छिकान्तु
प्रवक्ष्यामि मन्त्रसाधनजां क्रियां ।
ओं ह्रूं
पक्षिन् क्षिप ओं हूं सः महाबलपराक्रम सर्वसैन्यं भक्षय २ ओं मर्दय २ ओं चूर्णय २
ओं विद्रावय २ ओं हूं खः ओं भैरवो ज्ञापयति स्वाहा
॥
अमुञ्चन्द्रग्रहणे
तु जपङ्कृत्वा तु पिच्छिकां ॥२५॥
मन्त्रयेद्भ्रामयेत्सैन्यं
सम्मुखं गजसिंहयोः ।
ध्यानाद्रवान्मर्दयेच्च
सिंहारूढो मृगाविकान् ॥२६॥
अब
मन्त्र-साधन से सिद्ध होनेवाली 'पिच्छिका-क्रिया' का वर्णन करता हूँ - ॐ ह्रूं पक्षिन्
क्षिप ॐ हूं सः महाबलपराक्रम सर्वसैन्यं भक्षय भक्षय, ॐ मर्दय मर्दय, ॐ चूर्णय चूर्णय, ॐ विद्रावय विद्रावय, ॐ हूं खः, ॐ भैरवो ज्ञापयति स्वाहा। - इस 'पिच्छिका मन्त्र' को चन्द्रग्रहण में जप करके सिद्ध
कर लेनेवाला साधक संग्राम में सेना के सम्मुख हाथी तथा सिंह को भी खदेड़ सकता है।
मन्त्र के ध्यान से उनके शब्दों का मर्दन कर सकता है तथा सिंहारूढ़ होकर मृग तथा
बकरे के समान शत्रुओं को मार सकता है॥२५ – २६ ॥
शब्दाद्भङ्गं
प्रवक्ष्यामि दूरं मन्त्रेण बोधयेत् ।
मातॄणां चरुकं
दद्यात्कालरात्र्या विशेषतः ॥२७॥
श्मशानभस्मसंयुक्तं
मालती चामरी तथा ।
कार्पासमूलमात्रन्तु
तेन दूरन्तु बोधयेत् ॥२८॥
ओं अहे हे
महेन्द्रि अहे महेन्द्रि भञ्ज हि ओं जहि मसानंहि खाहि खाहि किलि किलि किलि ओं हुं
फट्॥
अरेर्नाशं
दूरशब्दाज्जप्तया भङ्गविद्यया ।
अपराजिता च
धुस्तूरस्ताभ्यान्तु तिलकेन हि ॥२९॥
दूर रहकर केवल
मन्त्रोच्चारण से शत्रुनाश का उपाय कह रहे हैं- कालरात्रि (आश्विन शुक्लाष्टमी )
-में मातृकाओं को चरु प्रदान करे और श्मशान की भस्म, मालती पुष्प, चामरी एवं कपास की जड़ के
द्वारा दूर से शत्रु को सम्बोधित करे। सम्बोधित करने का मन्त्र निम्नलिखित है- ॐ,
अहे हे महेन्द्रि! अहे महेन्द्रि भञ्ज हि । ॐ जहि मसानं हि खाहि
खाहि किलि किलि, ॐ हूं फट् । - इस
भङ्गविद्या का जप करके दूर से ही शब्द करने से, अपराजिता और
धतूरे का रस मिलाकर तिलक करने से शत्रु का विनाश होता है ॥२७ – २९ ॥
ओं किलि किलि
विकिलि इच्छाकिलि भूतहनि शङ्खिनि उभे दण्दहस्ते रौद्रि माहेश्वरि उल्कामुखि
ज्वालामुखि शङ्कुकर्णे शुष्कजङ्घे अलम्बुषे हर ओं सर्वदुष्टान् खन ओं यन्मन्निरीक्षयेद्देवि
तांस्तान्मोहय ओं रुद्रस्य हृदये स्थिता रौद्रि सौम्येन भावेन आत्मरक्षान्ततः कुरु
स्वाहा॥
वाह्यतो मातॄः
संलिख्य सकलाकृतिवेष्टिताः ।
नागपत्रे
लिखेद्विद्यां सर्वकामार्थसाधनीं ॥३०॥
हस्ताद्यैर्धारिता
पूर्वं ब्रह्मरुद्रेन्द्रविष्णुभिः ।
गुरुसङ्ग्रामकाले
तु विद्यया रक्षिताः सुराः ॥३१॥
ॐ किलि किलि
विकिलि इच्छाकिलि भूतहनि शङ्खनि उमे दण्डहस्ते रौद्र माहेश्वरि, उल्कामुखि ज्वालामुखि शङ्कुकर्णे
शुष्कजङ्गे अलम्बुषे हर हर, सर्वदुष्टान् खन खन ॐ
यन्मान्निरीक्षयेद् देवि ताँस्तान् मोहय, ॐ रुद्रस्य हृदये
स्थिता रौद्रि सौम्येन भावेन आत्मरक्षां ततः कुरु स्वाहा। इस सर्वकार्यार्थसाधक मन्त्र को भोजपत्र पर वृत्ताकार
लिखकर बाहर में मातृकाओं को लिखे। इस विद्या को पहले ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र तथा
इन्द्र ने हाथ आदि में धारण किया था तथा इस विद्या द्वारा बृहस्पति ने देवासुर
संग्राम में देवताओं की रक्षा की थी ।। ३०-३१ ॥
रक्षया
नारसिंह्या च भैरव्या शक्तिरूपया ।
सर्वे
त्रैलोक्यमोहिन्या गौर्या देवासुरे रणे ॥३२॥
वीजसम्पुटितं
नाम कर्णिकायां दलेषु च ।
पूजाक्रमेण
चाङ्गानि रक्षायन्त्रं स्मृतं शुभे ॥३३॥
(अब
रक्षायन्त्र का वर्णन करते हैं) - रक्षारूपिणी नारसिंही, शक्तिरूपा भैरवी तथा त्रैलोक्यमोहिनी गौरी
ने भी देवासुर संग्राम में देवताओं की रक्षा की थी । अष्टदल कमल की कर्णिका तथा
दलों में गौरी के बीज (ह्रीं) मन्त्र से सम्पुटित अपना नाम लिख दे। पूर्व दिशा में
रहनेवाले प्रथमादि दलों में पूजा के अनुसार गौरीजी की अङ्ग-देवताओं का न्यास करे।
इस तरह लिखने पर शुभे! 'रक्षायन्त्र' बन
जायगा ॥ ३२-३३॥
मृत्युञ्जयं
प्रवक्ष्यामि नामसंस्कारमध्यग ।
कलाभिवेष्टितं
पश्चात्सकारेण निबोधितं ॥३४॥
जकारं
विन्दुसंयुक्तं ओङ्कारेण समन्वितं ।
धकारोदरमध्यस्थं
वकारेण निबोधितं ॥३५॥
चन्द्रसम्पुटमध्यस्थं
सर्वदुष्टविमर्दकम् ।
अब इन्हीं
संस्कारों के बीच 'मृत्युंजय मन्त्र'को कहता हूँ, जो सब कलाओं से परिवेष्टित
है,
अर्थात् उस मन्त्र से प्रत्येक
कार्य
का साधन हो सकता है, तथा जो सकार से प्रबोधित
होता है। मन्त्र का स्वरूप
कहते हैं-
ॐकार पहले
लिखकर फिर बिन्दु के साथ जकार
लिखे,
पुनः धकार के पेट में वकार को लिखे,
उसे चन्द्रबिन्दु से अङ्कित
करे। अर्थात् 'ॐ जं ध्वम्'
- यह मन्त्र सभी दुष्टों का विनाश करनेवाला है ॥ ३४-३५अ ॥
अथवा
कर्णिकायाञ्च लिखेन्नाम च कारणम् ॥३६॥
पूर्वे दले
तथोङ्कारं स्वदक्षे चोत्तरे लिखेत् ।
आग्नेय्यादौ च
हूङ्कारन्दले षोडशके स्वरान् ॥३७॥
चतुस्त्रिंशद्दले
काद्यान् वाह्ये मन्त्रञ्च मृत्युजित् ।
लिखेद्वैभूर्जपत्रे
तु रोचनाकुङ्ग्कुमेन च ॥३८॥
कर्पूरचन्दनाभ्याञ्च
श्वेतसूतेण वेष्टयेत् ।
सिक्थकेन
परिच्छाद्य कलशोपरि पूजयेत् ॥३९॥
यन्त्रस्य
धारणाद्रागाः शाम्यन्ति रिपवो मृतिः ।
दूसरे 'रक्षायन्त्र' का उद्धार कहते हैं- गोरोचन कुङ्कुम से अथवा मलयागिरि चन्दन- कर्पूर से भोजपत्र पर लिखे हुए चतुर्दल कमल की कर्णिका में अपना नाम लिखकर चारों दलों में ॐकार
लिखे। आग्नेय आदि कोणों में हूंकार
लिखे। उसके ऊपर षोडश दलों का कमल बनाये।
उसके दलों में अकारादि
षोडश स्वरों को लिखे। फिर
उसके ऊपर चौंतीस दलों का कमल बनाये।
उसके दलों में 'क' से लेकर 'क्ष' तक अक्षरों को लिखे। उस
यन्त्र
को श्वेत सूत्र से वेष्टित
करके
रेशमी वस्त्र से आच्छादित कर,
कलश पर स्थापन
करके उसका पूजन करे। इस यन्त्र को धारण करने से सभी रोग शान्त होते हैं एवं शत्रुओं का विनाश होता है । ३६ – ३९अ ॥
रक्षायंत्र
का स्वरूप ऊपर दिया गया है ।
विद्यान्तु
भेलखीं वक्ष्ये विप्रयोगमृतेर्हरीं ॥४०॥
ओं वातले
वितले विडालमुखि इन्द्रपुत्रि उद्भवो वायुदेवेन खीलि आजी हाजा मयि वाह इहादि
दुःखनित्यकण्ठोच्चैर्मुहूर्तान्वया अह मां यस्महं उपाडि ओं भेलखि ओं स्वाहा॥
नवदुर्गासप्तजप्तान्मुखस्तम्भो
मुखस्थितात् ।
अब 'भेलखी विद्या' को कह रहा हूँ, जो वियोग में होनेवाली
मृत्यु
से बचाती है। उसका मन्त्रस्वरूप निम्नलिखित है- 'ॐ वातले वितले विडालमुखि इन्द्रपुत्रि उद्भवो वायुदेवेन
खीलि आजी हाजा मयि वाह इहादिदुःखनित्यकण्ठोच्चैर्मुहूर्त्तान्वया अह मां
यस्महमुपाडि ॐ भेलखि ॐ स्वाहा।'
नवरात्र के
अवसर
पर इस मन्त्र को सिद्ध करके
संग्राम
के समय सात बार मन्त्र जप करने पर शत्रु का मुखस्तम्भन
होता है ॥ ४० अ ॥
ओं चण्डि ओं
हूं फट्स्वाहा॥
गृहीत्वा
सप्तजप्तं तु खद्गयुद्धेऽपराजितः ॥४१॥
ॐ चण्डि,
ॐ हूं फट्
स्वाहा। - इस मन्त्र को संग्राम के अवसर पर सात बार जपने से
खङ्ग-युद्ध में विजय होती है॥४१॥
इत्याग्नेये
महापुराणे युद्धजयार्णवे नानाबलानि नाम त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥
इस प्रकार आदि
आग्नेय महापुराण में 'नाना प्रकार के बलों का विचार' नामक एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३३ ॥
आगे जारी.......... अग्निपुराण अध्याय 134
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