महोपदेश विंशतिक
इस महोपदेश विंशतिक स्तोत्र में कुल
बीस श्लोकों का संग्रह है। इसमें सच्चिदानन्दरूप, सम्पूर्ण प्रपञ्चों से रहित, विश्वस्वरूप और अनन्त
शक्तिवाले आत्मतत्त्व का वर्णन है । आत्मा और परमात्मा अर्थात् परमशिव में
रञ्चमात्र भी भेद नहीं है । यह उस परम चैतन्य का ही विस्तार है ।
अभिनवगुप्तपादाचार्य का कथन है कि शरीर, जगत् आदि के
अन्दर-बाहर, सर्वत्र तुम्ही हो और कुछ नहीं है। आपकी
मायारूपी शक्ति के कारण मुझमें, तुममें और इसमें अर्थात्
जगत् में भेद प्रतीत होता है । परमार्थतः सर्वत्र तुम्हारा ही प्रकाश है और
सम्पूर्ण पदार्थ तुम्हीं से प्रकाशित है। उस परमशिव अर्थात् परम चैतन्य की दो
अवस्थायें होती हैं एक विश्वमय और दूसरी विश्वोत्तीर्ण । मैं, तुम और यह सम्पूर्ण विश्व उसी का लीला विलास है ।
महोपदेशविंशतिकम्
Mahopadeśavimśatikam
महोपदेश विंशतिक
प्रपञ्चोत्तीर्णरूपाय नमस्ते
विश्वमूर्तये ।
सदानन्दप्रकाशाय
स्वात्मनेऽनन्तशक्तये ॥ १ ॥
मैं प्रपञ्चोत्तीर्णस्वरूप,
विश्वमूर्ति, सदानन्द, प्रकाश
तथा अनन्त शक्तिवाले अपने आत्मतत्त्व को नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥
त्वं त्वमेवाहमेवाहं त्वमेवासि न
चास्म्यहम् ।
अहं त्वमित्युभौ न स्तो यत्र तस्मै
नमो नमः ॥ २ ॥
तुम तुम्हीं हो,
मैं मैं ही हूँ, तुम भी नहीं हो, मैं भी नहीं हूँ । मैं और तुम दोनों नहीं हैं। ऐसी स्थिति जिसमें होती है
उस तत्त्व को बारम्बार नमस्कार है ॥ २ ॥
अन्तर्देहे मया नित्यं त्वमात्मा च
गवेषितः ।
न दृष्टस्त्वं नचैवात्मा यच्च
दृष्टं त्वमेव तत् ॥ ३ ॥
शरीर के अन्दर मैंने नित्य तुम
स्वरूप आत्मा का गवेषण किया। न तुम दिखाई दिये और न आत्मा दिखायी दी,
जो दिखायी दिया वह तुम्हीं हो ॥३॥
भवद्भक्तस्य सञ्जातभवद्रूपस्य
मेऽधुना ।
त्वामात्मरूपं सम्प्रेक्ष्य तुभ्यं
मह्यं नमो नमः ॥ ४ ॥
आपका भक्त मैं,
अब आपका स्वरूप हो गया हूँ । तुमको आत्मस्वरूप (भलीभाँति) देखकर मैं
तुमको और स्वयं को बारम्बार नमस्कार कर रहा हूँ ॥४॥
एतद्वचननैपुण्यं यत्कर्तव्येतिमूलया
।
भवन्मायात्मनस्तस्य केन कस्मिन्
कुतो लयः ॥ ५ ॥
इस प्रकार के वचन की निपुणता मेरा
कर्त्तव्य है । आपकी माया से मोहित उसका किसके द्वारा,
किसमें, क्यों लय होगा? ॥ ५ ॥
अहं त्वं त्वमहं चेति भिन्नता
नावयोः क्वचित् ।
समाधिग्रहणेच्छाया
भेदस्यावस्थितिर्ह्यसौ ॥ ६ ॥
मैं तुम हो और तुम मैं हूँ । इस
प्रकार हम दोनों में कोई भेद नहीं है । समाधिग्रहण की इच्छावाले के लिए यह भेद की
स्थिति होती है ॥ ६ ॥
त्वमहं सोयमित्यादि नूनं तानि सदा
त्वयि ।
न लभन्ते चावकाशं वचनानि कुतो जगत्
॥ ७ ॥
तुम, मैं, वह और यह इत्यादि वचन तुम्हारे अन्दर कभी स्थान
नहीं पाते पुनः संसार की क्या बात ? ॥ ७ ॥
अलं भेदानुकथया
त्वद्भक्तिरसचर्वणात् ।
सर्वमेकमिदं शान्तमिति वक्तुं च
लज्जते ॥ ८ ॥
तुम्हारे और हमारे अन्दर भेद की बात
व्यर्थ है । आपकी भक्ति के रस का आस्वादन करने के कारण यह सब एक है,
शान्त है, यह कहने में भी मेरा मन लज्जित होता
है ॥ ८ ॥
त्वत्स्वरूपे जृम्भमाणे त्वं चाहं
चाखिलं जगत् ।
जाते तस्य तिरोधाने न त्वं नाहं न
वै जगत् ॥ ९ ॥
आपके स्वरूप का विस्तार होने पर आप,
मैं और संसार की स्थिति बनती है और उस स्वरूप का तिरोधान होने पर न
तुम होते हो, न मैं और न यह जगत् ॥ ९ ॥
जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याद्या
धारयंश्च निजाः कलाः ।
स्वेच्छया भासि नटवन् निष्कलोऽसि च
तत्त्वतः ॥ १० ॥
जाग्रत्,
स्वप्न, सुषुप्ति आदि अपनी कलाओं को धारण करते
हुए आप स्वेच्छा से नट के समान मालुम पड़ते हैं । यथार्थतः तो आप निष्कल हैं ॥ १०
॥
त्वत्प्रबोधात् प्रबोधोऽस्य
त्वन्निद्रातो लयोऽस्य यत् ।
अतस्त्वदात्मकं सर्वं विश्वं
सदसदात्मकम् ॥ ११ ॥
तुम्हारे जागने से जो इस संसार का
आविर्भाव होता है, तुम्हारे
निद्रायुक्त होने पर इसका लय होता है। अतः यह सदसदात्मक सम्पूर्ण संसार आप से
अभिन्न है ॥ ११ ॥
जिह्वा श्रान्ता भवन्नाम्नि मनः
श्रान्तं भवत्स्मृतौ ।
अरूपस्य कुतो ध्यानं निर्गुणस्य च
नाम किम् ॥ १२ ॥
आपका नाम खोजते खोजते जिह्वा थक गयी,
आपका स्मरण करते-करते मन थक गया । (कारण) अरूप का ध्यान कैसे हो
सकता है? और निर्गुण का क्या नाम हो सकता है? ॥ १२ ॥
पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य
चासनम् ।
स्वच्छस्य पाद्यमर्ध्यश्च
शुद्धस्याचमनं कुतः ॥ १३ ॥
पूर्ण का आवाहन कहाँ और सबके आधार
का आसन कहाँ? सर्वथा स्वच्छ के लिए पाद्य और
अर्घ्य कहाँ ? और शुद्ध के लिए आचमन कहाँ ? ॥१३॥
निर्मलस्य कुतः स्नानं वस्त्रं
विश्वोदरस्य च ।
निर्लेपस्य कुतो गन्धो रम्यस्याभरणं
कुतः ॥ १४ ॥
निर्मल के लिए स्नान कहाँ ?
जिसके उदर में विश्व समाया हुआ है उसके लिए वस्त्र कहाँ ? निर्लेप के लिए गन्ध और सर्वथा, स्वभावतः रमणीय के
लिए अलङ्कार कैसा ? ॥ १४ ॥
निरालम्बस्योपवीतं पुष्पं
निर्वासनस्य च ।
अप्राणस्य कुतो धूपश्चक्षुर्हीनस्य
दीपकः ॥ १५ ॥
निरालम्ब के लिए उपवीत,
निर्गन्ध के लिए पुष्प, प्राणरहित के लिए धूप
और चक्षुहीन के लिए दीपक कैसा ? ॥ १५ ॥
नित्यतृप्तस्य नैवेद्यं ताम्बूलं च
कुतो विभोः ।
प्रदक्षिणमनन्तस्याऽद्वितीयस्य कुतो
नतिः ॥ १६ ॥
नित्यतृप्त के लिए नैवेद्य,
सर्वव्यापी के लिए ताम्बूल, अनन्त के लिए प्रदक्षिणा
और अद्वितीय के लिए प्रणाम कैसा?॥१६॥
स्वयं प्रकाशमानस्य कुतो नीराजनं
विभोः ।
वेदवाचामवेद्यस्य कुतः स्तोत्रं
विधीयते ॥ १७ ॥
स्वयं प्रकाशमान व्यापक के लिए
नीराजन (आरती) कहाँ ? वैदिक वाणी के द्वारा
अवेद्य के लिए स्तोत्र का विधान कैसे हो सकता है? ॥ १७ ॥
अन्तर्बहिश्च पूर्णस्य कथमुद्वासनं
भवेत् ।
भेदहीनस्य विश्वत्र कथं च हवनं
भवेत् ॥ १८ ॥
जो अन्दर एवं बाहर दोनों प्रकार से
परिपूर्ण है उसका विसर्जन कैसे हो सकता है? और
सर्वत्र भेदहीन के लिए हवन कैसे सम्भव है? ॥ १८ ॥
पूर्णस्य दक्षिणा कुत्र
नित्यतृप्तस्य तर्पणम् ।
विसर्जनं व्यापकस्याऽप्रत्यक्षस्य
क्षमापणम् ॥ १९ ॥
पूर्ण के लिए दक्षिणा कैसी ?
नित्यतृप्त के लिए तर्पण कैसा? व्यापक के लिए
विसर्जन और अप्रत्यक्ष से क्षमायाचन कैसा? ॥ १९ ॥
एवमेव परा पूजा सर्वावस्थासु सर्वदा
।
ऐक्यबुद्ध्या तु सर्वेशे मनो देवे
नियोजयेत् ॥ २० ॥
इस प्रकार सभी अवस्थाओं में सर्वदा
परापूजा करनी चाहिए और सबके ईश्वरभूत महादेव में ऐक्यबुद्धि से मन को नियोजित करना
चाहिऐ ॥ २० ॥
॥ इति महामाहेश्वराचार्याभिनवगुप्तकृतं महोपदेशविंशतिकम् ॥
0 Comments