recent

Slide show

[people][slideshow]

Ad Code

Responsive Advertisement

JSON Variables

Total Pageviews

Blog Archive

Search This Blog

Fashion

3/Fashion/grid-small

Text Widget

Bonjour & Welcome

Tags

Contact Form






Contact Form

Name

Email *

Message *

Followers

Ticker

6/recent/ticker-posts

Slider

5/random/slider

Labels Cloud

Translate

Lorem Ipsum is simply dummy text of the printing and typesetting industry. Lorem Ipsum has been the industry's.

Pages

कर्मकाण्ड

Popular Posts

महोपदेश विंशतिक

महोपदेश विंशतिक

इस महोपदेश विंशतिक स्तोत्र में कुल बीस श्लोकों का संग्रह है। इसमें सच्चिदानन्दरूप, सम्पूर्ण प्रपञ्चों से रहित, विश्वस्वरूप और अनन्त शक्तिवाले आत्मतत्त्व का वर्णन है । आत्मा और परमात्मा अर्थात् परमशिव में रञ्चमात्र भी भेद नहीं है । यह उस परम चैतन्य का ही विस्तार है । अभिनवगुप्तपादाचार्य का कथन है कि शरीर, जगत् आदि के अन्दर-बाहर, सर्वत्र तुम्ही हो और कुछ नहीं है। आपकी मायारूपी शक्ति के कारण मुझमें, तुममें और इसमें अर्थात् जगत् में भेद प्रतीत होता है । परमार्थतः सर्वत्र तुम्हारा ही प्रकाश है और सम्पूर्ण पदार्थ तुम्हीं से प्रकाशित है। उस परमशिव अर्थात् परम चैतन्य की दो अवस्थायें होती हैं एक विश्वमय और दूसरी विश्वोत्तीर्ण । मैं, तुम और यह सम्पूर्ण विश्व उसी का लीला विलास है ।

महोपदेशविंशतिकम्

महोपदेशविंशतिकम्

Mahopadeśavimśatikam

महोपदेश विंशतिक

प्रपञ्चोत्तीर्णरूपाय नमस्ते विश्वमूर्तये ।

सदानन्दप्रकाशाय स्वात्मनेऽनन्तशक्तये ॥ १ ॥

मैं प्रपञ्चोत्तीर्णस्वरूप, विश्वमूर्ति, सदानन्द, प्रकाश तथा अनन्त शक्तिवाले अपने आत्मतत्त्व को नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥

त्वं त्वमेवाहमेवाहं त्वमेवासि न चास्म्यहम् ।

अहं त्वमित्युभौ न स्तो यत्र तस्मै नमो नमः ॥ २ ॥

तुम तुम्हीं हो, मैं मैं ही हूँ, तुम भी नहीं हो, मैं भी नहीं हूँ । मैं और तुम दोनों नहीं हैं। ऐसी स्थिति जिसमें होती है उस तत्त्व को बारम्बार नमस्कार है ॥ २ ॥

अन्तर्देहे मया नित्यं त्वमात्मा च गवेषितः ।

न दृष्टस्त्वं नचैवात्मा यच्च दृष्टं त्वमेव तत् ॥ ३ ॥

शरीर के अन्दर मैंने नित्य तुम स्वरूप आत्मा का गवेषण किया। न तुम दिखाई दिये और न आत्मा दिखायी दी, जो दिखायी दिया वह तुम्हीं हो ॥३॥

भवद्भक्तस्य सञ्जातभवद्रूपस्य मेऽधुना ।

त्वामात्मरूपं सम्प्रेक्ष्य तुभ्यं मह्यं नमो नमः ॥ ४ ॥

आपका भक्त मैं, अब आपका स्वरूप हो गया हूँ । तुमको आत्मस्वरूप (भलीभाँति) देखकर मैं तुमको और स्वयं को बारम्बार नमस्कार कर रहा हूँ ॥४॥

एतद्वचननैपुण्यं यत्कर्तव्येतिमूलया ।

भवन्मायात्मनस्तस्य केन कस्मिन् कुतो लयः ॥ ५ ॥

इस प्रकार के वचन की निपुणता मेरा कर्त्तव्य है । आपकी माया से मोहित उसका किसके द्वारा, किसमें, क्यों लय होगा? ॥ ५ ॥

अहं त्वं त्वमहं चेति भिन्नता नावयोः क्वचित् ।

समाधिग्रहणेच्छाया भेदस्यावस्थितिर्ह्यसौ ॥ ६ ॥

मैं तुम हो और तुम मैं हूँ । इस प्रकार हम दोनों में कोई भेद नहीं है । समाधिग्रहण की इच्छावाले के लिए यह भेद की स्थिति होती है ॥ ६ ॥

त्वमहं सोयमित्यादि नूनं तानि सदा त्वयि ।

न लभन्ते चावकाशं वचनानि कुतो जगत् ॥ ७ ॥

तुम, मैं, वह और यह इत्यादि वचन तुम्हारे अन्दर कभी स्थान नहीं पाते पुनः संसार की क्या बात ? ॥ ७ ॥

अलं भेदानुकथया त्वद्भक्तिरसचर्वणात् ।

सर्वमेकमिदं शान्तमिति वक्तुं च लज्जते ॥ ८ ॥

तुम्हारे और हमारे अन्दर भेद की बात व्यर्थ है । आपकी भक्ति के रस का आस्वादन करने के कारण यह सब एक है, शान्त है, यह कहने में भी मेरा मन लज्जित होता है ॥ ८ ॥

त्वत्स्वरूपे जृम्भमाणे त्वं चाहं चाखिलं जगत् ।

जाते तस्य तिरोधाने न त्वं नाहं न वै जगत् ॥ ९ ॥

आपके स्वरूप का विस्तार होने पर आप, मैं और संसार की स्थिति बनती है और उस स्वरूप का तिरोधान होने पर न तुम होते हो, न मैं और न यह जगत् ॥ ९ ॥

जाग्रत्स्वप्नसुषुप्त्याद्या धारयंश्च निजाः कलाः ।

स्वेच्छया भासि नटवन् निष्कलोऽसि च तत्त्वतः ॥ १० ॥

जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति आदि अपनी कलाओं को धारण करते हुए आप स्वेच्छा से नट के समान मालुम पड़ते हैं । यथार्थतः तो आप निष्कल हैं ॥ १० ॥

त्वत्प्रबोधात् प्रबोधोऽस्य त्वन्निद्रातो लयोऽस्य यत् ।

अतस्त्वदात्मकं सर्वं विश्वं सदसदात्मकम् ॥ ११ ॥

तुम्हारे जागने से जो इस संसार का आविर्भाव होता है, तुम्हारे निद्रायुक्त होने पर इसका लय होता है। अतः यह सदसदात्मक सम्पूर्ण संसार आप से अभिन्न है ॥ ११ ॥

जिह्वा श्रान्ता भवन्नाम्नि मनः श्रान्तं भवत्स्मृतौ ।

अरूपस्य कुतो ध्यानं निर्गुणस्य च नाम किम् ॥ १२ ॥

आपका नाम खोजते खोजते जिह्वा थक गयी, आपका स्मरण करते-करते मन थक गया । (कारण) अरूप का ध्यान कैसे हो सकता है? और निर्गुण का क्या नाम हो सकता है? ॥ १२ ॥

पूर्णस्यावाहनं कुत्र सर्वाधारस्य चासनम् ।

स्वच्छस्य पाद्यमर्ध्यश्च शुद्धस्याचमनं कुतः ॥ १३ ॥

पूर्ण का आवाहन कहाँ और सबके आधार का आसन कहाँ? सर्वथा स्वच्छ के लिए पाद्य और अर्घ्य कहाँ ? और शुद्ध के लिए आचमन कहाँ ? ॥१३॥

निर्मलस्य कुतः स्नानं वस्त्रं विश्वोदरस्य च ।

निर्लेपस्य कुतो गन्धो रम्यस्याभरणं कुतः ॥ १४ ॥

निर्मल के लिए स्नान कहाँ ? जिसके उदर में विश्व समाया हुआ है उसके लिए वस्त्र कहाँ ? निर्लेप के लिए गन्ध और सर्वथा, स्वभावतः रमणीय के लिए अलङ्कार कैसा ? ॥ १४ ॥

निरालम्बस्योपवीतं पुष्पं निर्वासनस्य च ।

अप्राणस्य कुतो धूपश्चक्षुर्हीनस्य दीपकः ॥ १५ ॥

निरालम्ब के लिए उपवीत, निर्गन्ध के लिए पुष्प, प्राणरहित के लिए धूप और चक्षुहीन के लिए दीपक कैसा ? ॥ १५ ॥

नित्यतृप्तस्य नैवेद्यं ताम्बूलं च कुतो विभोः ।

प्रदक्षिणमनन्तस्याऽद्वितीयस्य कुतो नतिः ॥ १६ ॥

नित्यतृप्त के लिए नैवेद्य, सर्वव्यापी के लिए ताम्बूल, अनन्त के लिए प्रदक्षिणा और अद्वितीय के लिए प्रणाम कैसा?॥१६॥

स्वयं प्रकाशमानस्य कुतो नीराजनं विभोः ।

वेदवाचामवेद्यस्य कुतः स्तोत्रं विधीयते ॥ १७ ॥

स्वयं प्रकाशमान व्यापक के लिए नीराजन (आरती) कहाँ ? वैदिक वाणी के द्वारा अवेद्य के लिए स्तोत्र का विधान कैसे हो सकता है? ॥ १७ ॥

अन्तर्बहिश्च पूर्णस्य कथमुद्वासनं भवेत् ।

भेदहीनस्य विश्वत्र कथं च हवनं भवेत् ॥ १८ ॥

जो अन्दर एवं बाहर दोनों प्रकार से परिपूर्ण है उसका विसर्जन कैसे हो सकता है? और सर्वत्र भेदहीन के लिए हवन कैसे सम्भव है? ॥ १८ ॥

पूर्णस्य दक्षिणा कुत्र नित्यतृप्तस्य तर्पणम् ।

विसर्जनं व्यापकस्याऽप्रत्यक्षस्य क्षमापणम् ॥ १९ ॥

पूर्ण के लिए दक्षिणा कैसी ? नित्यतृप्त के लिए तर्पण कैसा? व्यापक के लिए विसर्जन और अप्रत्यक्ष से क्षमायाचन कैसा? ॥ १९ ॥

एवमेव परा पूजा सर्वावस्थासु सर्वदा ।

ऐक्यबुद्ध्या तु सर्वेशे मनो देवे नियोजयेत् ॥ २० ॥

इस प्रकार सभी अवस्थाओं में सर्वदा परापूजा करनी चाहिए और सबके ईश्वरभूत महादेव में ऐक्यबुद्धि से मन को नियोजित करना चाहिऐ ॥ २० ॥

॥ इति महामाहेश्वराचार्याभिनवगुप्तकृतं महोपदेशविंशतिकम् ॥

No comments:

vehicles

[cars][stack]

business

[business][grids]

health

[health][btop]