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मनुस्मृति अध्याय ७
मनुस्मृति अध्याय
७ में राजधर्म का वर्णन किया गया है।
मनुस्मृति सातवां अध्याय
Manu smriti chapter 7
मनुस्मृति अध्याय ७
॥ श्री हरि ॥
॥ मनुस्मृति ॥
॥ अथ
सप्तमोऽध्यायः ॥
मनुस्मृति सप्तमोऽध्यायः- राजधर्म
राजधर्मान्
प्रवक्ष्यामि यथावृत्तो भवेन्नृपः ।
संभवश्च यथा
तस्य सिद्धिश्च परमा यथा ॥ ॥१॥
ब्राह्मं
प्राप्तेन संस्कारं क्षत्रियेण यथाविधि ।
सर्वस्यास्य
यथान्यायं कर्तव्यं परिरक्षणम् ॥ ॥२॥
अराजके हि
लोकेऽस्मिन् सर्वतो विद्रुतो भयात् ।
रक्षार्थमस्य
सर्वस्य राजानमसृजत् प्रभुः ॥ ॥३॥
इन्द्रानिलयमार्काणामग्नेश्च
वरुणस्य च ।
चन्द्रवित्तेशयोश्चैव
मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः ॥ ॥४॥
यस्मादेषां
सुरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मितो नृपः ।
तस्मादभिभवत्येष
सर्वभूतानि तेजसा ॥ ॥ ५ ॥
तपत्यादित्यवच्चैष
चक्षूंषि च मनांसि च ।
न चैनं भुवि
शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम् ॥ ॥६॥
सोऽग्निर्भवति
वायुश्च सोऽर्कः सोमः स धर्मराट् ।
सकुबेरः स
वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः ॥ ॥७॥
जैसा राजा का
आचरण होना चाहिए, जैसे उसकी उत्पत्ति हुई हैं, और जिस प्रकार उसको परम
सिद्धि प्राप्त होती है वह सब आगे कहूँगा । उपनयन संस्कार वाले क्षत्रिय राजा को
न्यायानुसार इस जगत् की रक्षा करनी चाहिए। इस जगत् में जब राजा नहीं था और प्रजा
भय से व्याकुल होने लगी, तब परमात्मा ने जगत् की रक्षा के
लिए राजा को उत्पन्न किया । इन्दु, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, चन्द्रमा और कुबेर इन आठ लोकपालों के सनातन
अंशो को लेकर परमात्मा ने राजा का निर्माण किया है। इन लोकपालों की मात्रा से राजा
बनाया गया है, इसलिए वह अपने तेज़ से सभी प्राणियों को दबा
देता है। राजा को जो देखता है, उसके आँख और मन पर सूर्य का सा
प्रभाव पड़ता है, इसलिए सामने होकर कोई राजा को देख नहीं
सकता। राजा अपने प्रभाव में अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, यम, कुबेर, वरुण और इन्द्र के समान है ॥१-७ ॥
बालोऽपि
नावमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः ।
महती देवता
ह्येषा नररूपेण तिष्ठति ॥ ॥८॥
एकमेव
दहत्यग्निर्नरं दुरुपसर्पिणम् ।
कुलं दहति
राजाऽग्निः सपशुद्रव्यसञ्चयम् ॥ ॥९॥
कार्यं
सोऽवेक्ष्य शक्तिं च देशकालौ च तत्त्वतः ।
कुरुते
धर्मसिद्ध्यर्थं विश्वरूपं पुनः पुनः ॥ ॥ १०॥
यस्य प्रसादे
पद्माश्रीर्विजयश्च पराक्रमे ।
मृ त्युश्च
वसति क्रोधे सर्वतेजोमयो हि सः ॥ ॥ ११॥
तं यस्तु
द्वेष्टि संमोहात् स विनश्यत्यसंशयम् ।
तस्य ह्याशु
विनाशाय राजा प्रकुरुते मनः ॥ ॥ १२ ॥
राजा बालक भी हो तो भी यह मनुष्य है ऐसा मानकर उसका अपमान नहीं करना चाहिए क्योंकि यह एक बड़ा देवता मनुष्य रूप में स्थित है। यदि मनुष्य अग्नि से दुष्टता करे तो अग्नि केवल उसी मनुष्य को जला देता है परन्तु राजा रूप अग्नि दुष्टता करने पर मनुष्य को धन और पशु सहित भस्म कर देता है। राजा देश, काल, कार्य और शक्ति का उत्तम विचार कर, अपने राजधर्म की सिद्धि के लिए अनेक रूप कभी क्षमा, कभी क्रोध, कभी मित्रता इत्यादि धारण करता हैं। जिसकी प्रसन्नता में लक्ष्मी, पराक्रम में जय और क्रोध में मृत्यु का वास है, वह राजा सर्वतेजोमय है। उसके साथ अज्ञान से जो द्वेष करता है, वह निःसंदेह नष्ट हो जाता है। क्योंकि उसके नाश का विचार शीघ्र ही राजा मन में करता है॥८-१२॥
तस्माद् धर्मं
यमिष्टेषु स व्यवस्येन्नराधिपः ।
अनिष्टं
चाप्यनिष्टेषु तं धर्मं न विचालयेत् ॥ ॥ १३ ॥
तस्यार्थे
सर्वभूतानां गोप्तारं धर्ममात्मजम् ।
ब्रह्मतेजोमयं
दण्डमसृजत् पूर्वमीश्वरः ॥ ॥ १४ ॥
तस्य सर्वाणि
भूतानि स्थावराणि चराणि च ।
भयाद् भोगाय
कल्पन्ते स्वधर्मात्न चलन्ति च ॥ ॥१५॥
इसलिए राजा अपने
अनुकूल मित्र और शत्रु के लिए जिस धर्म- व्यवस्था की स्थापन करे उसको कभी नहीं
तोड़ना चाहिए। प्रजापति ने राजा के लिए सब प्राणियों की रक्षा करनेवाले, ब्रह्मतेजमय, धर्मरूप
और अपने पुत्ररूप दण्ड को पहले से ही पैदा किया है। दण्ड के भय से चराचर समस्त
प्राणी अपने भोग को प्राप्त होते हैं और धर्म से विचलित नहीं होते ॥ १३-१५ ॥
तं देशकालौ
शक्तिं च विद्यां चावेक्ष्य तत्त्वतः ।
यथार्हतः
सम्प्रणयेन्नरेष्वन्यायवर्तिषु ॥ ॥ १६ ॥
स राजा पुरुषो
दण्डः स नेता शासिता च सः ।
चतुर्णामाश्रमाणां
च धर्मस्य प्रतिभूः स्मृतः ॥ ॥ १७ ॥
दण्डः शास्ति
प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति ।
दण्डः
सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः ॥ ॥१८॥
समीक्ष्य स
धृतः सम्यक् सर्वा रञ्जयति प्रजाः ।
असमीक्ष्य
प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वतः ॥ ॥१९॥
यदि न
प्रणयेद् राजा दण्डं दण्ड्येष्वतन्द्रितः ।
शूले मत्स्यानिवापक्ष्यन्
दुर्बलान् बलवत्तराः ॥ ॥२०॥
देश, काल, शक्ति और विद्या
का विचार करके यथायोग्य अपराधियों को दण्ड दे। वह दण्ड ही राजा है, पुरुष है, वही राज्य को नियम में रखनेवाला है,
शासक हैं और वहीं चारों आश्रमधर्म का प्रतिभू* है। दण्ड ही सम्पूर्ण प्रजा का शासन करता हैं ।
दण्ड ही रक्षा करता है, सोते हुए दण्ड ही जागता हैं, विद्वान् लोग दण्ड को ही धर्म मानते हैं। उस दण्ड का विचारपूर्वक प्रयोग
होने से राजा समस्त प्रजा को प्रसन्न करता है और अविचार से प्रयोग होने पर सब तरह
से नाशकारक होता है। यदि राजा आलस्य रहित होकर अपराधियों कोदण्ड न दे तो शूल पर
मछलियों की भांति बलवान लोग निर्बलों को भून डालें ॥१६-२० ॥
* जमानत करनेवाला व्यक्ति
अद्यात् काकः
पुरोडाशं श्वा च लिह्याद्दु हविस्तथा ।
स्वाम्यं च न
स्यात् कस्मिंश्चित् प्रवर्तेताधरोत्तरम् ॥ ॥२१॥
दण्डस्य हि
भयात् सर्वं जगद् भोगाय कल्पते ॥ ॥ २२ ॥
देवदानवगन्धर्वा
रक्षांसि पतगोरगाः ।
तेऽपि भोगाय
कल्पन्ते दण्डेनैव निपीडिताः ॥ ॥ २३ ॥
सर्वो
दण्डजितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः ।
राजा दण्ड न
करे तो कौआ पुरोडाश खा जायँ, कुत्ते यज्ञ बलि चाट जाएँ, कोई किसी का स्वामी न हो
सके और सब उंची नीची बातों का विचार भ्रष्ट हो जाए। पवित्र मन का पुरुष दुर्लभ है।
सब लोग दण्ड से ही सन्मार्ग में रहते हैं और जगत् के वैभव को भोग सकते हैं। देव,
दानव, गन्धर्व, राक्षस,
पक्षी और सर्प भी दण्ड ही से दबकर अपने भोग को भोग सकते हैं ॥२१-२३
॥
दुष्येयुः
सर्ववर्णाश्च भिद्येरन् सर्वसेतवः ।
सर्वलोकप्रकोपश्च
भवेद् दण्डस्य विभ्रमात् ॥ ॥२४॥
यत्र श्यामो
लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा ।
प्रजास्तत्र न
मुह्यन्ति नेता चेत् साधु पश्यति ॥ ॥२५॥
तस्याहुः
सम्प्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम् ।
समीक्ष्यकारिणं
प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम् ॥ ॥ २६ ॥
तं राजा
प्रणयन् सम्यक् त्रिवर्गेणाभिवर्धते ।
कामात्मा
विषमः क्षुद्रो दण्डेनैव निहन्यते ॥ ॥२७॥
दण्डो हि
सुमहत्तेजो दुर्धरश्चाकृतात्मभिः ।
धर्माद्
विचलितं हन्ति नृपमेव सबान्धवम् ॥ ॥२८॥
दण्ड के बिना
सभी वर्ण विरुद्धाचरण में प्रवृत्त हो जाएँ और चतुर्वर्गरूप पुल टूट जाएँ और सभी
लोगों में उपद्रव हो जायें । जिस देश में श्यामवर्ण, रक्तनेत्र, पापनाशक दण्ड विचरता है और
राजा सभी तरफ न्यायदृष्टि से देखता है, वहां प्रजा को दुःख
नहीं होता । जो राजा उस दण्ड का उचित प्रयोग करता है वह अर्थ, धर्म और काम से वृद्धि पाता है परन्तु काम, क्षुद्रवृत्ति
हो तो उस दण्ड से स्वयं नष्ट हो जाता है। वास्तव में दण्ड में बड़ा तेज है,
उसका धारण साधारण राजा नहीं कर सकते हैं। धर्म से च्युत राजा को यह
कुटुम्ब सहित नष्ट कर देता है ॥२४-२८ ॥
ततो दुर्गं च
राष्ट्रं च लोकं च सचराचरम् ।
अन्तरिक्षगतांश्चैव
मुनीन् देवांश्च पीडयेत् ॥ ॥२९॥
सोऽसहायेन
मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना ।
न शक्यो
न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेषु च ॥ ॥३०॥
शुचिना
सत्यसंधेन यथाशास्त्रानुसारिणा ।
प्र णेतुं
शक्यते दण्डः सुसहायेन धीमता ॥ ॥३१॥
उसके बाद दण्ड
दुर्ग, देश और चराचर जगत् का नाश करता है।
अन्तरिक्षवासी देवता और मुनियों को भी हव्यकव्य न मिलने से वह दण्ड पीड़ा पहुँचाता
हैं । मन्त्री या सेना की सहायता से रहित, लोभी, मूर्ख, निर्बुद्धि, विषयासक्त
राजा से वह दण्ड अर्थात् राजधर्म नहीं चल सकता। न्यायपूर्वक मिले धन से शुद्ध,
सत्यप्रतिज्ञ, शास्त्रानुसार बर्ताव करनेवाला
बुद्धिमान् राजा, मन्त्री आदि की सहायता से दण्ड विधान कर
सकता है ॥ २६-३१ ॥
स्वराष्ट्रे
न्यायवृत्तः स्याद् भृशदण्डश्च शत्रुषु ।
सु
हृत्स्वजिह्मः स्निग्धेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः ॥ ॥३२॥
एवंवृत्तस्य
नृपतेः शिलोच्छेनापि जीवतः ।
विस्तीर्यते
यशो लोके तैलबिन्दुरिवाम्भसि ॥ ॥३३॥
अतस्तु
विपरीतस्य नृपतेरजितात्मनः ।
सङ्घियते यशो
लोके घृतबिन्दुरिवाम्भसि ॥ ॥३४॥
स्वे स्वे
धर्मे निविष्टानां सर्वेषामनुपूर्वशः ।
वर्णानामाश्रमाणां
च राजा सृष्टोऽभिरक्षिता ॥ ॥३५॥
राजा को अपने
राज्य में न्यायकारी और शत्रुओं को, सदा दण्ड देनेवाला, हितैषियों से
कुटिलता रहित और ब्राह्मणों पर क्षमावान् होना चाहिए। ऐसा बर्ताव करनेवाले,
शिलोच्छवृत्ति से भी जीते हुए राजा का यश लोक में जल में तेल की
बूंद के समान फैलता है। विषयासक्त और उक्त रीति से विपरीत आचरण करनेवाले का यश
पानी में घी के बूंद की भांति संकोच को प्राप्त होता है। अपने अपने धर्म पर चलने
वाले सभी वर्णों और आश्रमों की रक्षा करनेवाला प्रजापति ने राजा को उत्पन्न किया
है ॥ ३२-३५॥
तेन यद् यत्
सभृत्येन कर्तव्यं रक्षता प्रजाः ।
तत् तद् वोऽहं
प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः ॥ ॥ ३६ ॥
ब्राह्मणान्
पर्युपासीत प्रातरुत्थाय पार्थिवः ।
त्रैविद्यवृद्धान्
विदुषस्तिष्ठेत् तेषां च शासने ॥ ॥३७॥
वृद्धांश्च
नित्यं सेवेत विप्रान् वेदविदः शुचीन् ।
वृ द्धसेवी हि
सततं रक्षोभिरपि पूज्यते ॥ ॥३८॥
इसलिए
मन्त्रियों सहित राजा की प्रजारक्षा के लिए जो जो कर्म करने चाहिए उनको क्रम से
कहता हूँ-राजा को प्रातःकाल उठकर तीनों वेदों में पारंगत श्रेष्ठ, विद्वान्, ब्राह्मणों
के साथ बैठना और उनकी आज्ञानुसार आचरण करना चाहिए। वेदज्ञ, पवित्र,
वृद्ध ब्राह्मणों की नित्य सेवा राजा को करनी चाहिए, क्योंकि वृद्धसेवा में तत्पर राजा दुष्ट कुजीवों से भी सत्कार से पूजा
जाता है। ॥ ३६-३८॥
तेभ्योऽधिगच्छेद्
विनयं विनीतात्माऽपि नित्यशः ।
विनीतात्मा हि
नृपतिर्न विनश्यति कर्हि चित् ॥ ॥३९॥
बहवोऽविनयानष्टा
राजानः सपरिच्छदाः ।
वनस्था अपि
राज्यानि विनयात् प्रतिपेदिरे ॥ ॥४०॥
वनो विनष्टोंऽविनयानहुषश्चैव
पार्थिवः ।
सुदाः
पैजवनश्चैव सुमुखो निमिरेव च ॥ ॥४१॥
पृथुस्तु
विनयाद् राज्यं प्राप्तवान् मनुरेव च ।
कुबेरश्च
धनैश्वर्यं ब्राह्मण्यं चैव गाधिजः ॥ ॥ ४२ ॥
शिक्षित राजा
को भी ऐसे योग्य ब्राह्मण से नित्य विनय सीखना चाहिए क्योंकि विनीत राजा को कभी
हानि नहीं पहुँचती । अनेकों राजा अविनय से धन सम्पत्ति सहित नष्ट हो गये हैं और
अनेकों ने जंगल में रहकर भी अपने विनय से राज्य प्राप्त किया है। राजा वेन, नहुष, सुदास, यवन, सुमुख और निमि अपने अविनय - दुराचार से नष्ट हो
गये थे और पृथु और मनु ने विनय से राज्य को प्राप्त किया। कुबेर धनाधिपत्य का पद
और विश्वामित्र ने ब्राह्मणत्व विनय से ही प्राप्त किया था ॥ ३६-४२ ॥
त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं
विद्यां दण्डनीतिं च शाश्वतीम् ।
आन्वीक्षिकीं
चात्मविद्यां वार्तारम्भांश्च लोकतः ॥ ॥४३॥
इन्द्रियाणां
जये योगं समातिष्ठेद् दिवानिशम् ।
जितेन्द्रियो
हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः ॥ ॥ ४४ ॥
दश
कामसमुत्थानि तथाऽष्टौ क्रोधजानि च ।
व्यसनानि
दुर्ऽन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत् ॥ ॥ ४५ ॥
कामजेषु
प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः ।
वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां
क्रोधजेष्वात्मनैव तु ॥ ॥४६॥
वेदज्ञों से
वेद, दण्डनीति, ब्रह्मविद्या
को पढना चाहिए और अर्थशास्त्र इत्यादि व्यवहार विद्या को सीखना चाहिए। इन्द्रियों
को वश में रखने का सदा उद्योग करना चाहिए क्योंकि जितेन्द्रिय राजा ही प्रजा को वश
में रख सकता है। काम से पैदा हुए दस और क्रोध से पैदा हुए आठ व्यसनों का कोई अन्त
नहीं है इनसे राजा को यत्नपूर्वक बचना चाहिए। काम से पैदा व्यसन में आसक्त राजा
अर्थ और धर्म से हीन हो जाता है और क्रोध से पैदा हुए व्यसनों में आसक्त हो जाने
से अपना शरीर ही नष्ट हो जाता है ॥४३-४६ ॥
मृगयाक्षो
दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः ।
तौर्यत्रिकं
वृथाट्या च कामजो दशको गणः ॥ ॥४७॥
पैशुन्यं
साहसं द्रोह ईर्ष्याऽसूयाऽर्थदूषणम् ।
वाग्दण्डजं च
पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः ॥ ॥ ४८ ॥
द्वयोरप्येतयोर्मूलं
यं सर्वे कवयो विदुः ।
तं यत्नेन
जयेत्लोभं तज्जावेतावुभौ गणौ ॥ ॥ ४९ ॥
पानमक्षाः
स्त्रियश्चैव मृगया च यथाक्रमम् ।
एतत् कष्टतमं
विद्यात्वतुष्कं कामजे गणे ॥ ॥ ५० ॥
दण्डस्य पातनं
चैव वाक्पारुष्यार्थदूषणे ।
क्रोधजेऽपि
गणे विद्यात् कष्टमेतत् त्रिकं सदा ॥ ॥५१॥
शिकार, जुआ, दिन में सोना,
दूसरे के दोषों को कहना, स्त्री संभोग,
मद्यपान, नाच, बाजा और
व्यर्थ घूमना यह दस काम के व्यसन हैं अर्थात् काम से पैदा हुए हैं। चुगली, साहस, द्रोह, ईर्षा, दूसरे के गुणों में दोष ढूंढना, द्रव्य हर लेना,
गाली देना, कठोरपन यह आठ क्रोध से उत्पन्न
व्यसन हैं। विद्वान् लोग इन दोनों प्रकार के दोषों का कारण लोभ कहते हैं, इसलिए लोभ को अवश्य छोड़ देना चाहिए। काम से पैदा व्यसनों में मद्यपान,
जुआ, स्त्रीसंग और शिकार यह एक से एक बढ़कर
दुःखदायी हैं। और क्रोध से पैदा व्यसनों में मारपीट, कठोर
वचन, दूसरे की धनहानि करना, यह तीन
बड़े दुःखदायी हैं।॥ ४७-५१॥
सप्तकस्यास्य
वर्गस्य सर्वत्रैवानुषङ्गिणः ।
पूर्वं पूर्वं
गुरुतरं विद्याद् व्यसनमात्मवान् ॥ ॥५२॥
व्यसनस्य च
मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते ।
व्यसन्धोऽधो
व्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः ॥ ॥५३॥
मौलान्
शास्त्रविदः शूरान् लब्धलक्षान् कुलोद्भवान् ।
सचिवान् सप्त
चाष्टौ वा प्रकुर्वीत परीक्षितान् ॥ ॥५४॥
इस प्रकार यह
सात व्यसन और इनके सम्वन्धवाले व्यसनों में एक दूसरा अधिक कष्टदायक है। मृत्यु से
व्यसन अधिक कष्टदायक माना जाता है। व्यसनी पुरुष मरकर नरक में पड़ता है और जो
व्यसन से दूर है, वह स्वर्गगामी होता है। परंपरा से राजसेवक, नीतिविद्या
में चतुर, शूरवीर, अच्छा निशाना लगाने
वाले, कुलीन और असमय में परीक्षित, सात
अथवा आठ मुख्य राजमंत्री रखने चाहिए ॥५२-४४॥
अपि यत् सुकरं
कर्म तदप्येकेन दुष्करम् ।
विशेषतोऽसहायेन
किं तु राज्यं महोदयम् ॥ ॥५५॥
तैः सार्धं
चिन्तयेन्नित्यं सामान्यं संधिविग्रहम् ।
स्थानं समुदयं
गुप्तिं लब्धप्रशमनानि च ॥ ॥५६॥
तेषां स्वं
स्वमभिप्रायमुपलभ्य पृथक् पृथक् ।
समस्तानां च
कार्येषु विदध्याद्दु हितमात्मनः ॥ ॥५७॥
सर्वेषां तु
विशिष्टेन ब्राह्मणेन विपश्चिता ।
मन्त्रयेत्
परमं मन्त्रं राजा षाड्गुण्यसंयुतम् ॥ ॥ ५८ ॥
नित्यं
तस्मिन् समाश्वस्तः सर्वकार्याणि निःक्षिपेत् ।
तेन सार्धं
विनिश्चित्य ततः कर्म समारभेत् ॥ ॥५९॥
अन्यानपि
प्रकुर्वीत शुचीन् प्राज्ञानवस्थितान् ।
सम्यगर्थसमाहर्तृनमात्यान्
सुपरीक्षितान् ॥ ॥६०॥
जबकि गृहस्थ
का एक छोटा सा भी काम एक पुरुष को करना कठिन पड़ता है तब बड़ा भारी राजकार्य बिना
सहायता के अकेला राजा कैसे कर सकता है? उन, मन्त्रियों के साथ साधारण संधि-
विग्रह की सलाह और दण्ड, पुर, राष्ट्र,
स्थान अदि का विचार करना चाहिए। द्रव्य मिलने के उपाय, धनरक्षा, देशरक्षा आदि का भी परामर्श करना चाहिए। उन
मन्त्रियों को अलग अलग सलाह लेकर जो अपना हित कर कार्यं हो उसे करना चाहिए। उन
मन्त्रियों में विद्वान्, धार्मिक ब्राह्मण, मन्त्री के साथ संधि, विग्रह, आदि
छह गुणवाला विचार करना चाहिए। विश्वास के साथ उस मंत्री पर, सभी
कार्यों का भार रखना चाहिए और उसके साथ सम्मति लेकर कार्य करने चाहिए। पवित्र,
बुद्धिमान्, स्थिर स्वभाव, सन्मार्ग से धन लानेवाले, परीक्षा किये हुए, अन्य मन्त्रियों को भी रखना चाहिए ॥५५-६०॥
निर्वर्ततास्य
यावद्भिरितिकर्तव्यता नृभिः ।
तावतोऽतन्द्रितान्
दक्षान् प्रकुर्वीत विचक्षणान् ॥ ॥ ६१॥
तेषामर्थे
नियुञ्जीत शूरान् दक्षान् कुलोद्गतान् ।
नाकर
कर्मान्ते भीरूनन्तर्निवेशने ॥ ॥६२॥
जितने
मनुष्यों से पूरा काम निकले, उतने आलस्य से रहित बुद्धिमान्, राज कर्मचारियों की
भरती राजा को करनी चाहिए । उनमें शूर, चतुर, कुलीन को धन के स्थान में, अर्थ शुचियों को कर
व्यवस्था में और जो डरपोक हों उनको महलों के भीतर नियुक्त करना चाहिए ॥ ६१-६२ ॥
दूतं चैव
प्रकुर्वीत सर्वशास्त्रविशारदम् ।
इङ्गिताकारचेष्टज्ञं
शुचिं दक्षं कुलोद्गतम् ॥ ॥६३॥
अनुरक्तः
शुचिर्दक्षः स्मृतिमान् देशकालवित् ।
वपुष्मान्
वीतभीर्वाग्मी दूतो राज्ञः प्रशस्यते ॥ ॥ ६४ ॥
अमात्ये दण्ड
आयतो दण्डे वैनयिकी क्रिया ।
नृपतौ
कोशराष्ट्रे च दूते संधिविपर्ययौ ॥ ॥६५॥
दूत एव हि
संधत्ते भिनत्त्येव च संहतान् ।
दूतस्तत्
कुरुते कर्म भिद्यन्ते येन मानवः ॥ ॥६६॥
सविद्यादस्य
कृत्येषु निगूढेङ्गितचेष्टितैः ।
आकारमिङ्गितं
चेष्टां भृत्येषु च चिकीर्षितम् ॥ ॥६७॥
बुद्ध्वा च
सर्वं तत्त्वेन परराजचिकीर्षितम् ।
तथा
प्रयत्नमातिष्ठेद् यथाऽत्मानं न पीडयेत् ॥ ॥६८॥
और दूत उसको
रखना चाहिए जो बहुश्रुत हो और हृदय के भाव, आकार, चेष्टाओं को जानने वाला, अन्तःकरण का शुद्ध, चतुर और कुलीन हो । शत्रु को भी
प्रेमपात्र, आचारपवित्र, कार्यकुशल,
पूर्व बातों का स्मरण रखनेवाला, देश-काल
ज्ञाता, सुन्दर, निर्भय और वाचाल हो,
इन गुणों से युक्त राजा का दूत प्रशंसा योग्य होता हैं। मन्त्री के
अधीन दण्ड और दण्ड के अधीन शिक्षा हैं। राजा के अधीन देश और खज़ाना हैं और दूत के
अधीन मित्रता अथवा शत्रुता रहती है । दूत ही आपस के शत्रुओं को मिलता है और मिले
हुए अलग करता है। दूत वह काम करता है जिससे मनुष्य लड़ कर अलग हो जाते हैं। शत्रु
के आकार, मनोभाव, और चेष्टाओं से उसके
मन छिपे अभिप्राय को जान जाता है। दूत द्वारा शत्रु की सब चालों को ठीक ठीक जानकर,
राजा को ऐसा उपाय करना चाहिए, जिससे वह
शत्रुराजा भविष्य में कोई पीड़ा न दे सके ॥६३-६८॥
जाङ्गलं
सस्यसम्पन्नमार्यप्रायमनाविलम् ।
रम्यमानतसामन्तं
स्वाजीव्यं देशमावसेत् ॥ ॥६९॥
धन्वदुर्गं महीदुर्गमब्दुर्गं
वार्क्षमेव वा ।
नृदुर्गं
गिरिदुर्गं वा समाश्रित्य वसेत् पुरम् ॥ ॥७०॥
जहाँ जंगल हो, खेती अच्छी हो, शिष्ट
पुरुषों का वास हो, रोगादि अपद्रव से रहित हो, देखने में सुन्दर हों, आसपास के मनुष्य श्रद्धावान
हों, ऐसे स्वाधीन देश में राजा को रहना चाहिए। धनुदुर्ग,
मुहीदुर्ग, जलदुर्ग, वृक्षदुर्ग,
सेनादुर्ग वा गिरिदुर्ग इन दुर्गों में किसी के आश्रय में नगर बसाना
चाहिए ॥ ६९-७० ॥
सर्वेण तु
प्रयत्नेन गिरिदुर्गं समाश्रयेत् ।
एषां हि
बाहुगुण्येन गिरिदुर्गं विशिष्यते ॥ ॥७१॥
याद्यान्याश्रितास्त्वेषां
मृगगर्ताश्रयाप्चराः ।
त्रीण्युत्तराणि
क्रमशः प्लवङ्गमनरामराः ॥ ॥ ७२ ॥
यथा
दुर्गाश्रितानेतान्नोपहिंसन्ति शत्रवः ।
तथाऽरयो न
हिंसन्ति नृपं दुर्गसमाश्रितम् ॥ ॥७३॥
एकः शतं
योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः ।
शतं
दशसहस्राणि तस्माद् दुर्गं विधीयते ॥ ॥७४॥
तत्
स्यादायुधसम्पन्नं धनधान्येन वाहनैः ।
ब्राह्मणैः
शिल्पिभिर्यन्त्रैर्यवसेनोदकेन च ॥ ॥७५॥
तस्य मध्ये
सुपर्याप्तं कारयेद् गृहमात्मनः ।
गुप्तं
सर्वऋतुकं शुभ्रं जलवृक्षसमन्वितम् ॥ ॥७६॥
इन दुर्गों
में गिरिदुर्ग श्रेष्ठ है। इसलिए सब यत्नों से उसका आश्रय ठीक है। उक्त दुर्गों
में प्रथम तीन में (धनुदुर्ग, मुहीदुर्ग, जलदुर्ग) क्रम से मृग, चूहा और नाग रहते हैं। बाक़ी तीनों में (वृक्षदुर्ग, सेनादुर्ग वा गिरिदुर्ग) वानर, मनुष्य और देवता
निवास करते हैं। जैसे इन दुर्गों में रहने वाले मृगादि को कोई हिंसक जंतु मार नहीं
सकते, वैसे ही गिरिदुर्ग का आश्रय लेने वाले राजा को शत्रु
नहीं मार सकते हैं। दुर्ग भीतर रहने वाला एक धनुर्धर सौ योद्धाओं से लड़ सकता है
और सौ धनुर्धर दस हज़ार के साथ लड़ सकते हैं। इसीलिए क़िला बनाया जाता हैं। वह
किला हथियार, धन, धान्य, वाहन, ब्राह्मण, शिल्पविशारद,
यन्त्र-कल, घास और जल से परिपूर्ण रखना चाहिए।
उस क़िले के बीच में, प्रयोजन भर के लिए एक मकान बनाना चाहिए,
जो सब ऋतुओं के फल-पुष्प युक्त, लीपा हुआ,
जल और वृक्षों के सहित हो ॥७१-७६॥
तदध्यास्योद्वहेद्
भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम् ।
कुले महति
संभूतां हृद्यां रूपगुणान्विताम् ॥ ॥७७॥
पुरोहितं च
कुर्वीत वृणुयादेव चर्त्विजः ।
तेऽस्य गृह्याणि
कर्माणि कुर्युर्वैतानिकानि च ॥ ॥७८॥
उस मकान महल
में रहकर राजा को अपने वर्ण की, कुलीन मनोहारिणी, रूपवती, गुणवती
कन्या से विवाह करना चाहिए। और शान्तिक पौष्टिक कर्म करनेवाले पुरोहित और ऋत्विज
का भी वरण करना चाहिए जो अग्निहोत्रादि कर्म कर सकें ॥७७-७८ ॥
यजेत राजा
क्रतुभिर्विविधैराप्तदक्षिणैः ।
धर्मार्थं चैव
विप्रेभ्यो दद्याद् भोगान् धनानि च ॥ ॥७९॥
सांवत्सरिकमाप्तैश्च
राष्ट्रादाहारयेद् बलिम् ।
स्या
च्चाम्नायपरो लोके वर्तेत पितृवत्तृषु ॥ ॥८०॥
अध्यक्षान्
विविधान् कुर्यात् तत्र तत्र विपश्चितः ।
तेऽस्य
सर्वाण्यवेक्षेरन्नृणां कार्याणि कुर्वताम् ॥ ॥८१॥
आवृत्तानां
गुरुकुलाद् विप्राणां पूजको भवेत् ।
नृपाणामक्षयो
ह्येष निधिर्ब्राह्मोऽभिधीयते ॥ ॥ ८२ ॥
न तं स्तेना न
चामित्रा हरन्ति न च नश्यति ।
तस्माद्
राज्ञा निधातव्यो ब्राह्मणेष्वक्षयो निधिः ॥ ॥ ८३ ॥
राजा को बहुत
दक्षिणावाले अनेक यज्ञों को करना चाहिए और धर्म के लिए ब्राह्मणों को अनेक प्रकार
की दान-दक्षिणा देनी चाहिए। किसी विश्वासपात्र मनुष्य के द्वारा साल में राजकर का
संग्रह करवाना चाहिए, प्रजा में नीति से बर्ताव करना चाहिए और पिता समान स्नेह रखना चाहिए।
अनेकों प्रकार के कार्य जानने वाले पुरुषों को अलग अलग कामों पर अध्यक्ष नियुक्त
करना चाहिए । जो राजा के सब कार्यकर्ताओं पर निगरानी रखें। गुरुकुल से विद्या
पढ़कर लौटे हुए ब्राह्मणों का पूजन करना चाहिए, क्योंकि इससे
राजाओं को अक्षय निधि की प्राप्ति होती है ॥७९-८३ ॥
न स्कन्दते न
व्यथते न विनश्यति कर्हि चित् ।
वरिष्ठमग्निहोत्रेभ्यो
ब्राह्मणस्य मुखे हुतम् ॥ ॥८४॥
सममब्राह्मणे
दानं द्विगुणं ब्राह्मणबुवे ।
प्राधीते
शतसाहस्रमनन्तं वेदपारगे ॥ ॥८५॥
पात्रस्य हि
विशेषेण श्रद्दधानतयैव च ।
अल्पं वा बहु
वा प्रेत्य दानस्य फलमश्रुते ॥ ॥८६॥
इस अक्षय निधि
को चोर नहीं चुरा सकते और शत्रु छीन नहीं सकते। इस अक्षय निशि को खोया भी नहीं जा
सकता, इसलिए राजा को ब्राह्मणों में उस अक्षयनिधि
की स्थापन करनी चाहिए। अग्नि में जो हवन किया जाता है वह कभी गिर जाता है, कभी सूख जाता है, कभी नष्ट हो जाता है; परन्तु गुरु कुल से आये ब्राह्मण के मुख में जो हवन किया जाता है वह
अग्निहोत्रादि से भी श्रेष्ठ है। ब्राह्मण के सिवा दूसरी जाति को दिया दान,
मध्यम फलदायक होता है। जो अपने को ब्राह्मण कहता है उसको दिया दान
दोगुना फल, पठित ब्राह्मण को दिया लाख गुना, और वेदविशारद ब्राह्मण को दिया दान अनन्त फलदायक होता है। पात्र की
योग्यता और श्रद्धा की न्यूनाधिकता के अनुसार दाता को दान का फल मिलता है ॥८४-८६ ॥
समोत्तमाधमै
राजा त्वाहूतः पालयन् प्रजाः ।
न निवर्तेत
सङ्ग्रामात् क्षात्रं धर्ममनुस्मरन् ॥ ॥८७॥
सङ्ग्रामेष्वनिवर्तित्वं
प्रजानां चैव पालनम् ।
शुश्रूषा ब्राह्मणानां
च राज्ञां श्रेयस्करं परम् ॥ ॥८८॥
आहवेषु
मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः ।
युध्यमानाः
परं शक्त्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्मुखाः ॥ ॥८९॥
न
कूटैरायुधैर्हन्याद् युध्यमानो रणे रिपून् ।
न
कर्णिभिर्नापि दिग्धैर्नाग्निज्वलिततेजनैः ॥ ॥ ९० ॥
न च हन्यात्
स्थलारूढं न क्लीबं न कृताञ्जलिम् ।
न मुक्तकेशं
नासीनं न तवास्मीति वादिनम् ॥ ॥९१॥
न सुप्तं न
विसंनाहं न नग्नं न निरायुधम् ।
नायुध्यमानं
पश्यन्तं न परेण समागतम् ॥ ॥९२॥
अपने समान, उत्तम, या अधम राजा
यदि रण- निमन्त्रण दे तो क्षत्रियधर्म के अनुसार राजा को पीछे नहीं हटना चाहिए।
संग्राम से न भागना, प्रजापालन, ब्राह्मणों
की सेवा यह सब राजाओं का परम कल्याण करनेवाला है। जो राजा संग्राम में एक एक को
मारने का संकल्प कर, आपस में सूब युद्ध करते हैं, वे स्वर्ग को जाते हैं। रण में, कूट-छिपे अस्त्र से,
कर्णी*, जहर के बुझे और आग के ज़ले अस्त्रों से शत्रु को नहीं मारना चाहिए। जमीन
में खड़े हुए शत्रु को, नपुंसक को, हाथ
जोड़ने वाले को नहीं मारना चाहिए। खुले बालों वाले को, बैंठे
को और जो कहे- मैं तुम्हारा हूँ उसको भी नहीं मारना चाहिए। सोते हुए को, टूटे कवचवाले को, नंगे को, शस्त्रहीन
को, युद्ध न करनेवाले को, संग्राम
देखते हुए को और दूसरे शत्रु से लड़ते हुए को नहीं मारना चाहिए ॥ ८७-९२ ॥
* बाण जो चुभ जाने पर बाहर नहीं निकलता
नायुधव्यसनप्राप्तं
नार्तं नातिपरिक्षतम् ।
न भीतं न
परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन् ॥ ॥ ९३ ॥
यस्तु भीतः
परावृत्तः सङ्ग्रामे हन्यते परैः ।
भर्तुर्यद्
दुष्कृतं किं चित् तत् सर्वं प्रतिपद्यते ॥ ॥९४॥
टूटे
शस्त्रवाले को, पुत्रादि
शोक से दुःखी को बहुत घाववाले को, डरपोक को तथा डरकर
भागनेवाले को भी नहीं मारना चाहिए। जो योद्धा, युद्ध से डरकर
पीछे भगता है और शत्रु उसको मार डालते हैं, वह अपने राजा के
समस्त पापों को ग्रहण करता है। ॥ ९३-९४॥
देशकालविधानेन
द्रव्यं श्रद्धासमन्वितम् ।
पात्रे
प्रदीयते यत् तु तद् धर्मस्य प्रसाधनम् ॥
यत्वास्य
सुकृतं किं चिदमुत्रार्थमुपार्जितम् ।
भर्ता तत्
सर्वमादत्ते परावृत्तहतस्य तु ॥ ॥९५॥
रथाश्वं
हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून् स्त्रियः ।
सर्वद्रव्याणि
कुप्यं च यो यज् जयति तस्य तत् ॥ ॥९६॥
राज्ञश्च
दद्युरुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः ।
राज्ञा च
सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जितम् ॥ ॥९७॥
एषोऽनुपस्कृतः
प्रोक्तो योधधर्मः सनातनः ।
अस्माद्
धर्मान्न च्यवेत क्षत्रियो घ्नन् रणे रिपून् ॥ ॥९८॥
जो लडाई से
भागा हुआ मारा जाता है, उसके पुण्य का भाग उसके स्वामी को मिलता है । युद्ध में रथ, घोड़ा, हाथी, छत्र, धन, धान्य, पशु, स्त्री और सब भाँति के पदार्थ जो जिसको जीते, वह
उसका है। पदार्थों में सोना, चांदी आदि उत्तम पदार्थ राजा को
अर्पण करे- ऐसी वेद की श्रुति है। राजा की युद्ध मे जीती वस्तु का उचित हिस्सा,
सभी योद्धाओं में बांट देना चाहिए। यह सनातन, अनिन्दित,
शुद्ध योद्धाओं का धर्म कहा गया है। संग्राम में क्षत्रिय को इन
धर्मों से नहीं होना चाहिए ॥ ९५-९८ ॥
अलब्धं चैव
लिप्सेत लब्धं रक्षेत् प्रयत्नतः ।
रक्षितं
वर्धयेच्चैव वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत् ॥ ॥९९॥
एतच्चतुर्विधं
विद्यात् पुरुषार्थप्रयोजनम् ।
अस्य
नित्यमनुष्ठानं सम्यक् कुर्यादतन्द्रितः ॥ ॥ १०० ॥
अलब्धमिच्छेद्
दण्डेन लब्धं रक्षेदवेक्षया ।
रक्षितं
वर्धयेद् वृद्ध्या वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत् ॥ ॥१०१॥
नित्यमुद्यतदण्डः
स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः ।
नित्यं
संवृतसंवार्यो नित्यं छिद्रानुसार्यरः ॥ ॥ १०२ ॥
जो पदार्थ
नहीं मिला है उसके लेने की इच्छा करे और मिले हुए की रक्षा करे। जो रक्षित है, उसको बढ़ावे और बढे पदार्थ सुपात्रों को
दान करे, यह चार प्रकार का पुरुषार्थ है। आलस्य छोड़ कर,
नित्य भली भांति इसका अनुष्ठान करना चाहिए। जो प्राप्त नहीं है,
उसको दण्ड सेना से जीतने की इच्छा करे, प्राप्त
वस्तु की देख भाल से रक्षा करे, रक्षित का व्यापार-उद्यम से
वृद्धि करे और बढ़ी वस्तु शास्त्रानुसार, सुपात्र को देनी
चाहिए। राजा को अपराधियों के लिए सदा दण्ड उद्यत रखना चाहिए, पुरुषार्थ को ठीक रखना चाहिए, अपने अर्थों को गुप्त
रखना चाहिए और शत्रु के छिद्रों का सदैव अवलोकन करना चाहिए ॥ ९९-१०२ ॥
नित्यमुद्यतदण्डस्य
कृत्स्नमुद्विजते जगत् ।
तस्मात्
सर्वाणि भूतानि दण्डेनैव प्रसाधयेत् ॥ ॥१०३॥
अमाययैव
वर्तेत न कथं चन मायया ।
बुध्येतारिप्रयुक्तां
च मायां नित्यं सुसंवृतः ॥ ॥१०४॥
नास्य छिद्रं
परो विद्याद् विद्यात्छिद्रं परस्य च ।
हेत् कूर्म
इवाङ्गानि रक्षेद् विवरमात्मनः ॥ ॥१०५॥
बकवत्चिन्तयेदर्थान्
सिंहवत्व पराक्रमे ।
वृकवत्चावलुम्पेत
शशवत्व विनिष्पतेत् ॥ ॥१०६ ॥
सदा उद्यत
दण्डवाले राजा से, सारा जगत् डरता है। इसलिए दण्ड ही से सब प्राणियों को स्वाधीन रखना चाहिए
और छल से कोई व्यवहार नहीं करने चाहिए। अपनी रक्षा करता रहे और शत्रु के छल को
जानता रहे। ऐसा उपाय करना चाहिए जिससे अपना छिद्र-दोष शत्रु न जान पाए, परन्तु शत्रु के छिद्रों को जाना जा सके। राजा को कछुवे के समाने राजकीय
अङ्गों को छिपा कर रखना चाहिए, जिससे अपना छिद्र प्रत्यक्ष
दिखाई न दे सके। बगुले की भांति एकचित्त होकर, समस्त राज
कार्यों का विचार करना चाहिए । सिंह के समान शत्रुओं से पराक्रम रखना चाहिए,
भेड़िये के समान मौका पाकर शत्रुक्षय करना चाहिए और खरगोश के समान,
आपत्तियों से दूर भाग जाना चाहिए ॥ १०३-१०६॥
एवं
विजयमानस्य यहऽस्य स्युः परिपन्थिनः ।
तानानयेद् वशं
सर्वान् सामादिभिरुपक्रमैः ॥ ॥ १०७ ॥
यदि ते तु न
तिष्ठेयुरुपायैः प्रथमैस्त्रिभिः ।
दण्डेनैव
प्रसौतांशनकैर्वशमानयेत् ॥ ॥ १०८ ॥
सामादीनामुपायानां
चतुर्णामपि पण्डिताः ।
सामदण्डौ
प्रशंसन्ति नित्यं राष्ट्राभिवृद्धये ॥ ॥ १०९ ॥
यथोद्धरति
निर्दाता कक्षं धान्यं च रक्षति ।
तथा
रक्षेन्नृपो राष्ट्रं हन्याच्च परिपन्थिनः ॥ ॥ ११० ॥
इस प्रकार
विजय करनेवाले राजा के जो शत्रु हों उनको साम दाम - भेद से अपने वश में करे। यदि
पहले तीन उपाय से शत्रु वश में न आयें तो उनको दण्ड द्वारा, धीरे- धीरे अधीन करे। विचारवान् पुरुष साम,
दाम, भेद, दण्ड इन चार
उपाय में, राज्यवृद्धि के लिए साम और दण्ड की प्रशंसा करते
हैं। जैसे खेत जोतने वाला घाला घास उखाड़ कर अन्न की रक्षा करता है, वैसे ही 'राजा को चोर, लुटेरों
का नाश करके राष्ट्र की रक्षा करनी चाहिए ॥१०७-११० ।।
मोहाद् राजा
स्वराष्ट्रं यः कर्षयत्यनवेक्षया ।
सोऽचिराद्
भ्रश्यते राज्यात्जीवितात्व सबान्धवः ॥ ॥ १११ ॥
शरीरकर्षणात्
प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा ।
तथा राज्ञामपि
प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात् ॥ ॥ ११२ ॥
राष्ट्रस्य
सङ्ग्रहे नित्यं विधानमिदमाचरेत् ।
सुसंगृहीतराष्ट्रे
हि पार्थिवः सुखमेधते ॥ ॥ ११३ ॥
जो राजा, अज्ञानवश, बिना सोच
विचार के अपने राज्य को दुःख देता है वह शीघ्र ही राज्य, जीवन
और बंधू बांधवों से भ्रष्ट हो जाता हैं। जैसे शरीर के शोषण से प्राणियों के प्राण
घटते हैं, वैसे ही राष्ट्र को दुःख देने से राजाओं के भी
प्राण भी घटते हैं। राजा को देश की रक्षा के लिए उपरोक्त उपायों को करना चाहिए
क्योंकि राज्य रक्षा से राजा की सुखवृद्धि होती है ॥ १११-११३ ॥
द्वयोस्त्रयाणां
पञ्चानां मध्ये गुल्ममधिष्ठितम् ।
तथा
ग्रामशतानां च कुर्याद् राष्ट्रस्य सङ्ग्रहम् ॥ ॥११४॥
ग्रामस्याधिपतिं
कुर्याद् दशग्रामपतिं तथा ।
विंशतीशं
शतेशं च सहस्रपतिमेव च ॥ ॥ ११५ ॥
ग्रामदोषान्
समुत्पन्नान् ग्रामिकः शनकैः स्वयम् ।
शंसेद्
ग्रामदशेशाय दशेशो विंशतीशिने ॥ ॥ ११६ ॥
विंशतीशस्तु
तत् सर्वं शतेशाय निवेदयेत् ।
शंसेद्
ग्रामशतेशस्तु सहस्रपतये स्वयम् ॥ ॥११७॥
यानि
राजप्रदेयानि प्रत्यहं ग्रामवासिभिः ।
अन्नपानेन्धनादीनि
ग्रामिकस्तान्यवाप्नुयात् ॥ ॥ ११८ ॥
दो, तीन, पांच या सौ ग्रामों के बीच में, रक्षा करनेवाले पुरुष का एक समूह कायम करना चाहिए। एक गाँव का दस का, बीस का, सौ और हज़ार गाँवों का एक एक अधिपति नियुक्त करना चाहिए। गाँव के मालिक को गाँव के झगड़ों को धीरे से जानकर उसका फैसला कर देना चाहिए, अथवा दस गाँव के मालिक को सूचित कर देना चाहिए अथवा उसको बीस गाँव के मालिक को सूचित कर देना चाहिए इत्यादि । जो अन्न, धन वगैरह 'राजा को देने वाले पदार्थ हैं उनको वहां नियुक्त राजपुरुष को ग्रहण करना चाहिए अर्थात् सभी वस्तुओं का संग्रह करके राजा को पहुँचा देना चाहिए॥११४-११८॥
दशी कुलं तु
भुञ्जीत विंशी पञ्च कुलानि च ।
ग्रामं
ग्रामशताध्यक्षः सहस्राधिपतिः पुरम् ॥ ॥ ११९ ॥
तेषां
ग्राम्याणि कार्यानि पृथक्कार्याणि चैव हि ।
राज्ञोऽन्यः
सचिवः स्निग्धस्तानि पश्येदतन्द्रितः ॥ ॥ १२० ॥
नगरे नगरे
चैकं कुर्यात् सर्वार्थचिन्तकम् ।
उच्चैः स्थानं
घोररूपं नक्षत्राणामिव ग्रहम् ॥ ॥१२१॥
स
ताननुपरिक्रामेत् सर्वानेव सदा स्वयम् ।
तेषां वृत्तं
परिणयेत् सम्यग् राष्ट्रेषु तत्वरैः ॥ ॥ १२२ ॥
राज्ञो हि
रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः ।
भृत्या भवन्ति
प्रायेण तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः ॥ ॥ १२३ ॥
दस गाँव के
अधिपति को एक कुल दो हल से जोतने योग्य जमीन, अपने निर्वाह के लिए काम में लानी चाहिए। बीस गाँव का पाँच
कुल, सौ गाँव का एक साधारण गॉव और हज़ार गाँव का मालिक एक
नगर को अपनी जीविकों में भोग सकता है। राजा के गाँवों के कार्य और दूसरे कार्यों
को भी, एक मन्त्री को जो सर्वप्रिय हो बिना आलस्य के देखना
चाहिए। प्रत्येक नगर में एक एक अध्यक्ष जो बड़े पद पर हो, तेजस्वी
हो, उसको नियुक्त कर देना चाहिए। नगर अध्यक्ष को वह सदा
ग्रामाधिपतियों के कार्यों की जांच करनी चाहिए और दूतों के आचरण का भी ध्यान भी
रखना चाहिए क्योंकि रक्षाधिकारी राजपुरुष, प्रायः दूसरों के
धन हरने वाले, वञ्चक होते हैं। राजा को सदैव उनसे प्रजा की
रक्षा करनी चाहिए ॥११६ - १२३ ॥
यह
कार्यकेभ्योऽर्थमेव गृह्णीयुः पापचेतसः ।
तेषां
सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात् प्रवासनम् ॥ ॥ १२४ ॥
राजा कर्मसु
युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च ।
प्रत्यहं
कल्पयेद् वृत्तिं स्थानं कर्मानुरूपतः ॥ ॥ १२५ ॥
पण
देयोऽवकृष्टस्य षडुत्कृष्टस्य वेतनम् ।
षाण्मासिकस्तथाऽच्छादो
धान्यद्रोणस्तु मासिकः ॥ ॥ १२६ ॥
और जो भ्रष्ट
पापी पुरुष रिश्वत आदि लिया करते हैं उनका सब कुछ छीनकर, राजा को देश से बाहर निकाल देना चाहिए।
राजा के कार्य में नियुक्त स्त्री और पुरुषों को उनके कर्म के अनुसार पदवी तथा
वृत्ति सदा नियत करनी चाहिए। निकृष्ट नौकर को एक पण ना चाहिए और छ महीने में,
दो कपड़े और एक महीने में द्रोण भर कर अन्न देना चाहिए। उत्तम
कार्यकाल को छह गुना अन्न देना चाहिए। मध्यम नौकर को मध्यम श्रेणि के सब पदार्थ दे
॥ १२४-१२६ ॥
क्रयविक्रयमध्वानं
भक्तं च सपरिव्ययम् ।
योगक्षेमं च
सम्प्रेक्ष्य वणिजो दापयेत् करान् ॥ ॥ १२७ ॥
यथा फलेन
युज्येत राजा कर्ता च कर्मणाम् ।
तथाऽवेक्ष्य
नृपो राष्ट्रे कल्पयेत् सततं करान् ॥ ॥ १२८ ॥
यथाऽल्पाल्पमदन्त्याद्यं
वार्योकोवत्सषट्पदाः ।
तथाऽल्पाल्पो
ग्रहीतव्यो राष्ट्राद् राज्ञाब्दिकः करः ॥ ॥ १२९ ॥
पञ्चाशद्भाग
आदेयो राज्ञा पशुहिरण्ययोः ।
धान्यानामष्टमो
भागः षष्ठो द्वादश एव वा ॥ ॥ १३० ॥
आददीताथ
षड्भागं द्रुमान् समधुसर्पिषाम् ।
गन्धौषधिरसानां
च पुष्पमूलफलस्य च ॥ ॥१३१॥
पत्रशाकतृणानां
च चर्मणां वैदलस्य च ।
मृन्मयानां च भाण्डानां
सर्वस्याश्ममयस्य च ॥ ॥ १३२ ॥
बेचना, ख़रीदना, रास्ते का
खर्च, रक्षा का खर्च और उनके निर्वाह को देखकर राजा को
व्यापारियों से कर लेना चाहिए। उद्यमियों को और राज्य को जिससे फायदा पहुँचे ऐसा
विचारकर कर लगाना उचित है। जैसे जौक, बछड़ा और भौंरा धीरे
धीरे अपनी खुराक को खींचते हैं वैसे राजा भी राष्ट्र से थोड़ा थोड़ा सालाना कर
लेना चाहिए। पशु और सोने के लाभ की पचासवां भाग, अन्नों के
लाभ से छठां, आठवाँ या बारहवां भाग कर लेना चाहिए। वृक्ष,
मांस, शहद, घी, गन्ध, औषध, रस, फूल, मूल, फल, पत्र, शाक, तृण, चमड़ा, कांस, मिट्टी, पत्थर के पात्र, इन सबके लाभ में से छठा भाग कर लेना
चाहिए ॥१२७-१३२॥
म्रियमाणोऽप्याददीत
न राजा श्रोत्रियात् करम् ।
न च
क्षुधाऽस्य संसीदेत्श्रोत्रियो विषये वसन् ॥ ॥ १३३ ॥
यस्य
राज्ञस्तु विषये श्रोत्रियः सीदति क्षुधा ।
तस्यापि तत्
क्षुधा राष्ट्रमचिरेणैव सीदति ॥ ॥ १३४ ॥
राजा धन की
कमी से दुःखी भी हों तो भी श्रोत्रिय ब्राह्मण से कर नहीं लेना चाहिए और उसके
राज्य में रहता हुआ श्रोत्रिय ब्राह्मण भूख से भी नहीं मरना चाहिए। जिस राजा के
राज्य में श्रोत्रिय ब्राह्मण क्षुधा पीड़ित होता है, उस राजा का राज्य थोड़े ही दिनों में उसकी
भूख से नष्ट हो जाता है ॥ १३३-१३४॥
श्रुतवृत्ते
विदित्वाऽस्य वृत्तिं धर्म्यं प्रकल्पयेत् ।
संरक्षेत्
सर्वतश्चैनं पिता पुत्रमिवौरसम् ॥ ॥ १३५ ॥
संरक्ष्यमाणो
राज्ञायं कुरुते धर्ममन्वहम् ।
तेनायुर्वर्धते
राज्ञो द्रविणं राष्ट्रमेव च ॥ ॥१३६॥
यत् किं चिदपि
वर्षस्य दापयेत् करसंज्ञितम् ।
व्यवहारेण
जीवन्तं राजा राष्ट्रे पृथग्जनम् ॥ ॥ १३७ ॥
कारुकान्
शिल्पिनश्चैव शूद्रांश्चात्मोपजीविनः ।
एकैकं कारयेत्
कर्म मासि मासि महीपतिः ॥ ॥ १३८ ॥
नोच्छिन्द्यादात्मनो
मूलं परेषां चातितृष्णया ।
उच्छिन्दन्
ह्यात्मनो मूलमात्मानं तांश्च पीडयेत् ॥ ॥१३९॥
तीक्ष्णश्चैव
मृदुश्च स्यात् कार्यं वीक्ष्य महीपतिः ।
तीक्ष्णश्चैव
मृदुश्चैव राज भवति सम्मतः ॥ ॥१४०॥
राजा को इस
श्रोत्रिय के वेदाध्ययन और सदाचार को जानकर कोई धर्मविषय की जीविका बाँध देनी
चाहिए और पिता जैसे पुत्र की रक्षा करता है वैसे ही रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि राजा से रक्षित श्रोत्रिय धर्म
पालन से राजा का आयुबल, द्रव्य और राज्य बढ़ता हैं। अपने
राज्य में व्यापारवालों से भी कुछ सालाना कर दिलाना चाहिए। लोहार, बढ़ई, आदि और दासों से महीने में एक एक दिन बेगार
में काम कराना चाहिए। प्रजा के स्नेह से अपना कर नहीं लेना अपना मूलच्छेद करना है
और लोभ से ज्यादा कर लेना प्रजा को पीडित करना है, इसलिए
राजा ऐसा काम कभी न करे जिसमें राज्य और प्रजा दोनों को कष्ट उठाना पड़े। राजा को
कभी तीखा और कभी सीधा स्वभाव रखने से सभी उसकी आज्ञा का पालन करते हैं ॥१३५-१४० ॥
अमात्यमुख्यं
धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्गतम् ।
स्थापयेदासने
तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नृणाम् ॥ ॥ १४१ ॥
राजा स्वयं
राज्य के कार्यों को और दूसरे के कामों को देखने में किसी कारण से असमर्थ हो, तो चतुर, धर्मात्मा,
कुलीन प्रधानमन्त्र को अपने न्यायासन पर, काम
देखने के लिए नियुक्त कर देना चाहिए।
एवं सर्वं
विधायैदमितिकर्तव्यमात्मनः ।
युक्तश्चैवाप्रमत्तश्च
परिरक्षेदिमाः प्रजाः ॥ ॥ १४२ ॥
विक्रोशन्त्यो
यस्य राष्ट्राद् ह्रियन्ते दस्युभिः प्रजाः ।
सम्पश्यतः
सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति ॥ ॥ १४३ ॥
क्षत्रियस्य
परो धर्मः प्रजानामेव पालनम् ।
निर्दिष्टफलभोक्ता
हि राजा धर्मेण युज्यते ॥ ॥ १४४ ॥
अपने सब
कर्तव्यों को इस तरह पूरा कर के, प्रमाद-रहित और कार्यपरायण होकर अपनी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए। राजा और
उसके कर्मचारियों के देखते हुए यदि चोर, लुटेरे, प्रजा को लूट पाट से दुखी रखें तो वह राजा मरा सा है, जीवित नहीं है। प्रजा की रक्षा तथा पालन करना ही क्षत्रिय का मुख्य धर्म
है। इसलिए अपने धर्म ही से प्रजा की रक्षा कर फल भोग करना उचित है ॥ १४२-१४४ ॥
उत्थाय
पश्चिमे यामे कृतशौचः समाहितः ।
ताग्निर्ब्राह्मणांश्चार्च्य
प्रविशेत् स शुभां सभाम् ॥ ॥१४५॥
तत्र स्थितः
प्रजाः सर्वाः प्रतिनन्द्य विसर्जयेत् ।
विसृज्य च
प्रजाः सर्वा मन्त्रयेत् सह मन्त्रिभिः ॥ ॥ १४६॥
गिरिपृष्ठं
समारुह्य प्रासादं वा रहोगतः ।
अरण्ये
निःशलाके वा मन्त्रयेदविभावितः ॥ ॥ १४७ ॥
यस्य मन्त्रं
न जानन्ति समागम्य पृथग्जनाः ।
सकृत्स्नां
पृथिवीं भुङ्क्ते कोशहीनोऽपि पार्थिवः ॥ ॥१४८॥
जडमूकान्धबधिरांस्तैर्यग्योनान्
वयोऽतिगान् ।
स्त्री
म्लेच्छव्याधितव्यङ्गान् मन्त्रकालेऽपसारयेत् ॥ ॥ १४९ ॥
राजा को
ब्रह्म मुहूर्त मे ठकर, शौच से निपटकर, एकाग्रचित्त होकर अग्निहोत्र और
ब्राह्मण सत्कार करके, राजसभा में प्रवेश करना चाहिए। यहां
दर्शकों को प्रीतिपूर्वक पहले विदा करके फिर मन्त्रियों के साथ राजकाज का विचार
करना चाहिए। पर्वत पर या महल में जाकर, एकान्त मे या
वृक्षरहित वन में, जहाँ भेद लेनेवाले दूत न पहुँच सके,
वहाँ मंत्रणा करनी चाहिए। जिस राजा के मन्त्र को दूसरे लोग मिले
रहने पर भी नहीं जान सकते। वह धन-सम्पति के न होते भी संपूर्ण पृथिवी को भोगता है।
मूर्ख, गूंगा, अँधा, बहरा, तोता-मैना आदि पक्षी, बूढ़े,
स्त्री, म्लेच्छ, रोगी,
और अंगहीनों को सलाह के समय हटा देना चाहिए क्योंकि प्रायः यह लोग
गुप्त बातों को प्रकट कर दिया करते हैं ॥१४५ - १४९ ॥
भिन्दन्त्यवमता
मन्त्रं तैर्यग्योनास्तथैव च ।
स्त्रियश्चैव
विशेषेण तस्मात् तत्रादृतो भवेत् ॥ ॥ १५० ॥
मध्यंदिनेऽर्धरात्रे
वा विश्रान्तो विगतक्लमः ।
चिन्तयेद्
धर्मकामार्थान् सार्धं तैरेक एव वा ॥ ॥ १५१ ॥
परस्परविरुद्धानां
तेषां च समुपार्जनम् ।
कन्यानां
सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम् ॥ ॥ १५२ ॥
दूतसम्प्रेषणं
चैव कार्यशेषं तथैव च ।
अन्तःपुरप्रचारं
च प्रणिधीनां च चेष्टितम् ॥ ॥१५३॥
कृत्स्नं
चाष्टविधं कर्म पञ्चवर्गं च तत्त्वत्तः ।
अनुरागापरागौ
च प्रचारं मण्डलस्य च ॥ ॥१५४॥
मध्यमस्य
प्रचारं च विजिगीषोश्च चेष्टितम् ।
उदासीनप्रचारं
च शत्रोश्चैव प्रयत्नतः ॥ ॥ १५५ ॥
एताः प्रकृतयो
मूलं मण्डलस्य समासतः ।
अष्टौ चान्याः
समाख्याता द्वादशैव तु ताः स्मृताः ॥ ॥ १५६ ॥
अमात्यराष्ट्रदुर्गार्थदण्डाख्याः
पञ्च चापराः ।
प्रत्येकं
कथिता ह्येताः सङ्क्षेपेण द्विसप्ततिः ॥ ॥ १५७ ॥
इसी प्रकार
तोता, मैना, और स्त्रियाँ
प्रायः गुप्त सम्मति को प्रकाशित कर देती हैं इसलिए इन लोगों को अपमानित न करके
धीरे से हटा देना चाहिए। दोपहर या आधी रात को विश्राम करके, मन्त्रियों
के साथ या अकेला ही धर्म-अर्थ-काम का विचार करे। यदि धर्म, अर्थ,
काम का परस्पर विरोध हो तो उनको मिटाकर अर्थोपार्जन, कन्यादान, पुत्रों को रक्षा और शिक्षा की चिन्ता
करनी चाहिए । परराज्य में दूत भेजना, अन्य कार्यों का
अन्तःपुर का और प्रतिनिधियों के काम का विचार करना चाहिए। आठ प्रकार* के सभी काम और पञ्चवर्ग* का खूब विचार करना चाहिए । मन्त्री आदि की प्रीति- अप्रीति,
शत्रु मित्र उदासीन आदि राजमण्डल पर, विशेष
ध्यान रखना चाहिए। अपने से मध्यम बलवाले राजा के बर्ताव जीतने की इच्छा रखनेवाले
की चेष्टा, उदासीन और शत्रु राजा के वृत्तान्त को तत्व से
जानते रहना चाहिए। यह मध्यम आदि चार प्रकृतियां मण्डल का मूल मानी जाती हैं और जो
आठ* हैं, सब मिलकर
बारह होती हैं। मैत्री, देश, क़िला,
धनभण्डार, और दण्ड यह पांच प्रकृतियां और भी
हैं। यह बारहों की अलग अलग होती हैं, यो सब मिलाकर संक्षेप
में बहत्तर प्रकृतियां हुई । ॥ १५०-१५७॥
* 1 कर आदि की आय, नौकरी में व्यय, नौकरों
की चाल, विरुद्ध कार्यों को रोकना, मिथ्या
व्यवहार रोकना, धर्मव्यवहार देखना, दण्ड
देना, प्रायश्चित्त कराना, ये आठ कर्म
हैं।
*2 कापटिक, उदासीन, वैदेह,
गृहपति, तापस, ये पाँच
वर्ग हैं।
*3 विजिगीषु, अरि, अरिसेवित,
अरिमित्र, पाणिग्राह, पार्षणग्राहासार,
मित्र, मित्र का मित्र, आक्रन्द,
आक्रन्दसार, मध्यम और उदासीन ।
अनन्तरमरिं
विद्यादरिसेविनमेव च ।
अरेरनन्तरं
मित्रमुदासीनं तयोः परम् ॥ ॥ १५८ ॥
तान्
सर्वानभिसंदध्यात् सामादिभिरुपक्रमैः ।
व्यस्तैश्चैव
समस्तैश्च पौरुषेण नयेन च ॥ ॥ १५९ ॥
संधिं च
विग्रहं चैव यानमासनमेव च ।
द्वैधीभावं
संश्रयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत् सदा ॥ ॥ १६० ॥
आसनं चैव यानं
च संधिं विग्रहमेव च ।
कार्यं
वीक्ष्य प्रयुञ्जीत द्वैधं संश्रयमेव च ॥ ॥ १६१ ॥
अपनी सीमा के
पास रहनेवाले और शत्रु से मेल रखनेवाले राजा को शत्रु ही समझना चाहिए। शत्रु की
सीमावाले राजा को मित्र और मित्र राजा की सीमावाले को उदासीन मानना चाहिए। इन सबको
सामादि उपायों से या एक ही से अथवा सभी उपायों से अथवा पुरुषार्थ से, या राजनीति ही से वश में कर लेना चाहिए।
मेल, लड़ाई, चढ़ाई, दुर्ग में रहना, अपनी सेना के दो भाग करना और अपने
से बली राजा का आश्रय लेना, इन छह गुणों का नित्य विचार करना
चाहिए। आसन, यान, संधि, विग्रह, द्वैध और आश्रय इन गुणों को अवसर देख कर जब
जैसा योग आए तब वैसा ही कर्म करना चाहिए ॥१५८-१६१ ॥
धिं द्विविधं
विद्याद् राजा विग्रहमेव च ।
उभे यानासने
चैव द्विविधः संश्रयः स्मृतः ॥ ॥ १६२ ॥
समानयानकर्मा
च विपरीतस्तथैव च ।
तदा
त्वायतिसंयुक्तः संधिर्ज्ञेयो द्विलक्षणः ॥ ॥ १६३ ॥
स्वयङ्कृतश्च
कार्यार्थमकाले काल एव वा ।
मित्रस्य
चैवापकृते द्विविधो विग्रहः स्मृतः ॥ ॥ १६४ ॥
एकाकिनश्चात्ययिके
कार्ये प्राप्ते यदृच्छया ।
संहतस्य च
मित्रेण द्विविधं यानमुच्यते ॥ ॥ १६५ ॥
संधि, विग्रह दो दो प्रकार के हैं। आसन, यान संश्रय भी दो दो प्रकार के हैं। वर्तमान या भविष्य में लाभ के लिए,
मित्र राजा से मिलकर दूसरे के ऊपर चढ़ाई का नाम 'समानकर्मा सन्धि' है। हम इसके ऊपर चढ़ाई करेंगे,
तुम दूसरे पर करो ऐसी राय को 'असमानकर्मा सन्धि'
कहते हैं । शत्रुपराजय के लिए उचित या अनुचित काल में खुद लड़ाई
लड़ना एक अपने मित्र का अपकार होने से उसकी रक्षा के लिए लड़ाई लड़ना दूसरा,
यह दो भांति के विग्रह होते हैं । दैवयोग से, बहुत
आवश्यक पड़ जाने पर अकेले या मित्र से मिलकर, शत्रु के ऊपर
चढ़ाई करना यह दो प्रकार की चढ़ाइयां कहलाती हैं ॥ १६२ - १६५ ॥
क्षीणस्य चैव
क्रमशो दैवात् पूर्वकृतेन वा ।
मित्रस्य
चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम् ॥१६६॥
बलस्य
स्वामिनश्चैव स्थितिः कार्यार्थसिद्धये ।
द्विविधं
कीर्त्यते द्वैधं षाड्गुण्यगुणवेदिभिः ॥ ॥ १६७ ॥
अर्थसम्पादनार्थं
च पीड्यमानस्य शत्रुभिः ।
साधुषु
व्यपदेशश्च द्विविधः संश्रयः स्मृतः ॥ ॥१६८॥
पूर्वजन्म के
पाप से या यहीं के कुकर्मी से, धन आदि से हीन राजा को चुप मार कर बैठना, अथवा
सामर्थ्य होते भी किसी मित्र के कहने से चुपचाप बैठा रहना, यह
दो आसन कहलाते हैं। कार्य सिद्धि के लिए कुछ सेना को एक जगह और कुछ सेना के साथ राजा
क़िले रहे, यह दो प्रकार का द्वैध, गुणज्ञों
ने कहा है । शत्रुओं से पीड़ित राजा के संकट दूर करने के लिए अथवा सत्पुरुष को
जनाने के लिए बलवान राजा का आश्रय लेना, यह दो प्रकार का
संश्रय कहलाता है ॥१६६-१६८॥
यदाऽवगच्छेदायत्यामाधिक्यं
ध्रुवमात्मनः ।
तदात्वे चाल्पिकां
पीडां तदा संधिं समाश्रयेत् ॥ ॥ १६९ ॥
यदा
प्रहृष्टामन्येत सर्वास्तु प्रकृतीर्भृशम् ।
अत्युच्छ्रितं
तथात्मानं तदा कुर्वीत विग्रहम् ॥ ॥ १७० ॥
यदा मन्येत
भावेन हृष्टं पुष्टं बलं स्वकम् ।
परस्य विपरीतं
च तदा यायाद् रिपुं प्रति ॥ ॥ १७१ ॥
यदा तु स्यात्
परिक्षीणो वाहनेन बलेन च ।
तदासीत
प्रयत्नेन शनकैः सान्त्वयन्नरीन् ॥ ॥ १७२ ॥
मन्येतारिं
यदा राजा सर्वथा बलवत्तरम् ।
तदा द्विधा
बलं कृत्वा साधयेत् कार्यमात्मनः ॥ ॥ १७३ ॥
जब भविष्य में
अपनी उन्नति की आशा हो तब शत्रु से कुछ पीड़ित होकर भी सन्धि कर लेना चाहिए। राजा
जब अपने राजमण्डल को खूब प्रसन्न जाने और अपनी शक्ति को पूर्ण देखे, तब दुश्मन के साथ युद्ध करना चाहिए । जब
अपनी सेना को मन से प्रसन्न, हृष्ट-पुष्ट समझे और शत्रु की
सेना को साधारण दशा में जाने, तब युद्ध की तैयारी करनी चाहिए
। जव हाथी, घोड़ा आदि वाहन और सेना से क्षीण हो तब
यत्नपूर्वक शान्ति से, शत्रु को समझा कर शान्त होकर रहना
चाहिए अर्थात् युद्ध नहीं करना चाहिए। और जब राजा अपने शत्रु को सर्वथा बलवान्
जाने, तब आधी सेना लड़ाई पर भेज दे और आधी अपने साथ में रखकर
कार्यसाधन में लग जाना चाहिए ॥ १६६-१७३॥
यदा परबलानां
तु गमनीयतमो भवेत् ।
तदा तु
संश्रयेत् क्षिप्रं धार्मिकं बलिनं नृपम् ॥ ॥१७४॥
निग्रहं
प्रकृतीनां च कुर्याद् योऽरिबलस्य च ।
उपसेवेत तं
नित्यं सर्वयत्नैर्गुरुं यथा ॥ ॥ १७५ ॥
यदि तत्रापि
सम्पश्येद् दोषं संश्रयकारितम् ।
सुयुद्धमेव
तत्रापि निर्विशङ्कः समाचरेत् ॥ ॥१७६॥
सर्वोपायैस्तथा
कुर्यान्नीतिज्ञः पृथिवीपतिः ।
यथाऽस्याभ्यधिका
न स्युर्मित्रोदासीनशत्रवः ॥ ॥ १७७॥
आयतिं
सर्वकार्याणां तदात्वं च विचारयेत् ।
अतीतानां च
सर्वेषां गुणदोषौ च तत्त्वतः ॥ ॥ १७८ ॥
आयत्यां
गुणदोषज्ञस्तदात्वे क्षिप्रनिश्चयः ।
अतीते
कार्यशेषज्ञः शत्रुभिर्नाभिभूयते ॥ ॥ १७९ ॥
और जब शत्रु
के अधीन अपने को हारता देखे तब झट पट धार्मिक और बलवान् राजा की शरण लेनी चाहिए।
जो दुष्ट मंत्री मण्डल आदि और शत्रुसेना को दबा सकता हो उस राजा की, गुरु के समान, नित्य
सेवा करनी चाहिए और यदि उस आश्रयवाले राजा से धोखा दिए जाने का डर हो तो निडर होकर
युद्ध ही करना चाहिए नीतिवेत्ता राजा को सब प्रकार से ऐसा व्यवहार करना चाहिए
जिससे उसके मित्र, उदासीन और शत्रु राजा बलवान् न हो सकें।
सम्पूर्ण कार्यों की वर्तमान, भूत और भविष्य स्थिति और उनके
गुण- दोषों का विचार कर लेना चाहिए। जो राजा कार्यों के भविष्य, शुभाशुभ परिणाम को जानता है, वर्तमान कार्य का शीघ्र
ही निश्चय कर लेता है और बाक़ी कामों को जानता है, उसका
शत्रु कुछ नहीं बिगाड़ सकते ॥१७४- १७९ ॥
यथैनं
नाभिसंदध्युर्मित्रोदासीनशत्रवः ।
तथा सर्वं
संविदध्यादेष सामासिको नयः ॥ ॥ १८० ॥
तदा तु
यानमातिष्ठेदरिराष्ट्रं प्रति प्रभुः ।
तदानेन
विधानेन यायादरिपुरं शनैः ॥ ॥१८१ ॥
जिस प्रकार
मित्र, उदासीन और वैरी राजा अपने को पीड़ा न दे
सके वैसे उपायों को करता रहे, यह नीति है और जब किसी वैरी के
देश पर चढ़ाई करनी हो तो नीचे लिखी विधि से धीरे धीरे यात्रा करे॥ १८०-१८१ ॥
मार्गशीर्ष
शुभे मासि यायाद् यात्रां महीपतिः ।
फाल्गुनं वाथ
चैत्रं वा मासौ प्रति यथाबलम् ॥ ॥१८२ ॥
अन्येष्वपि तु
कालेषु यदा पश्येद् ध्रुवं जयम् ।
तदा यायाद्
विगृह्यैव व्यसने चोत्थिते रिपोः ॥ ॥ १८३ ॥
कृत्वा विधानं
मूले तु यात्रिकं च यथाविधि ।
उपगृह्यास्पदं
चैव चारान् सम्यग् विधाय च ॥ ॥ १८४ ॥
संशोध्य
त्रिविधं मार्गं षड्विधं च बलं स्वकम् ।
सांपरायिककल्पेन
यायादरिपुरं प्रति ॥ ॥१८५॥
शत्रुसेविनि
मित्रे च गूढे युक्ततरो भवेत् ।
गतप्रत्यागते
चैव स हि कष्टतरो रिपुः ॥ ॥ १८६॥
राजा अपनी
सेना के बलाबल का विचार करके, शुभ अगहन या फागुन के महीने में अथवा चैत्र में, शत्रु
के ऊपर चढ़ाई करनी चाहिए। इसके अलावा दूसरे समय में भी अगर अपनी जीत देखे तब,
अथवा जब शत्रु किसी विपत्ति में फंसा हों तब चढ़ाई करे । अपने नगर
की रक्षा का प्रवन्ध करके, गुप्तदूतों को भेजकर, ऊंचा, नीचा और सम मार्ग को साफ़ कराकर छः प्रकार की
सेना* को, ठीक करके
सम्पूर्ण युद्ध-सामग्री को साथ लेकर, धीरे से शत्रु के नगर
को जाना चाहिए। जो मित्र छिपकर शत्रु से मिला हो, जो पहले
छुड़ाया हुआ नौकर फिर आया हो, इनसे सावधान रहना चाहिए, क्योंकि यह दोनो दुःखदायक वैरी है ॥१८२-१८६ ॥
* छः प्रकार के बलः - हाथीसवार, घोड़ासवार, रथसवार, पैदल, खजाना और नौकर
चाकर ।
दण्डव्यूहेन
तन् मार्गं यायात् तु शकटेन वा ।
वराहमकराभ्यां
वा सूच्या वा गरुडेन वा ॥ ॥ १८७॥
यतश्च
भयमाशङ्केत् ततो विस्तारयेद् बलम् ।
पद्मेन चैव
व्यूहेन निविशेत सदा स्वयम् ॥ ॥ १८८ ॥
सेनापतिबलाध्यक्षौ
सर्वदिक्षु निवेशयेत् ।
यतश्च
भयमाशङ्केत् प्राचीं तां कल्पयेद् दिशम् ॥ ॥ १८९॥
राजा को
दण्डव्यूह से मार्ग में चलना चाहिए अथवा शकट, वराह, मकर, सूई,
गरुड़ के तुल्य आकार वाले व्यूहों में, जहां
जैसा उचित समझे वैसी ही यात्रा करनी चाहिए। जिस ओर से हमला होने का भय हो, उधर सेना को बढ़ाना चाहिए और खुद पद्माकार व्यूह में सदा सुरक्षित रहना
चाहिए। सेनापति और सेनानायकों को सभी दिशाओं में नियुक्त करना चाहिए और जिस दिशा
में भय समझे उसे पूर्व दिशा मान लेना चाहिए ॥१८७-१८९॥
गुल्मांश्च
स्थापयेदाप्तान् कृतसंज्ञान् समन्ततः ।
स्थाने युद्धे
च कुशलानभीरूनविकारिणः ॥ ॥ १९०॥
संहतान्
योधयेदल्पान् कामं विस्तारयेद् बहून् ।
सूच्या वज्रेण
चैवैतान् व्यूहेन व्यूह्य योधयेत् ॥ ॥१९१॥
स्यन्दनाश्वैः
समे युध्येदनूपेनोद्विपैस्तथा ।
वृक्षगुल्मावृते
चापैरसिचर्मायुधैः स्थले ॥ ॥ १९२॥
कुरुक्षेत्रांश्च
मत्स्यांश्च पञ्चालांशूरसेनजान् ।
दीर्घंल्लघूंश्चैव
नरानग्रानीकेषु योजयेत् ॥ ॥ १९३ ॥
प्रहर्षयेद्
बलं व्यूह्य तांश्च सम्यक् परीक्षयेत् ।
चेष्टाश्चैव
विजानीयादरीन् योधयतामपि ॥ ॥ १९४ ॥
उपरुध्यारिमासीत
राष्ट्रं चास्योपपीडयेत् ।
दूषयेच्चास्य
सततं यवसान्नोदकैन्धनम् ॥ ॥ १९५॥
भिन्द्याच्चैव
तडागानि प्राकारपरिखास्तथा ।
समवस्कन्दयेच्चैनं
रात्रौ वित्रासयेत् तथा ॥१९६॥
उपजप्यानुपजपेद्
बुध्येतैव च तत्कृतम् ।
युक्ते च दैवे
युध्येत जयप्रेप्सुरपेतभीः ॥ ॥ १९७ ॥
कुछ सेना का
हिस्सा, चतुर पुरुष की अध्यक्षता में चारों ओर से
नियत करना चाहिए और उनमें बाजे इत्यादि का संकेत कर लेना चाहिए जिसमें समय समय पर
सूचना मिलती रहे । योद्धा कम हों तो इक्कट्ठे करके युद्ध करना चाहिए, अधिक हों तो मनमानी, चारों तरफ़ फैलाकर, सूई के आकार के व्यूह से युद्ध करना चाहिए । समभूमि में रथ घोड़ों से,
जल में नावों से, हाथियों से, वृक्ष आदि की झाड़ियों में बाण से और स्थल में, ढाल
तलवार वगैरह से युद्ध करना चाहिए। कुरुक्षेत्र, मत्स्य,
पञ्चाल, शूरसेन आदि देशों के ऊंचे और ठिगने
मनुष्यों को सेना के आगे रखना चाहिए। व्यूह की रचना कर सेना को उत्साहित करना
चाहिए और क्या क्या करने से सेना खुश अथवा नाखुश होगी इन बातों की परीक्षा करनी
चाहिए। सेना शत्रुओं का मुकाबला दिल से करती है अथवा नहीं यह चेष्टाओं से जान लेना
चाहिए। शत्रु लडे अथवा न लड़े पर उसके देश को नष्ट कर के वहाँ का, अन्न, जल, चारा, इंधन आदि उजाड़ देना चाहिए। तालाब, किला, खाइयों को तोड़ देना चाहिए, शत्रु पर हमला करके और
रात में अनेक प्रकार की ध्वनियों से उसको डरा दे। उसके मन्त्री आदि जो टूट सकें
उनको लालच देकर अपने ओर मिला कर, उनसे शत्रु की हालत जाननी
चाहिए और अनुकूल समय आने पर निडर होकर युद्ध करना चाहिए ॥ १९०-१९७ ॥
साम्ना दानेन
भेदेन समस्तैरथ वा पृथक् ।
विजेतुं
प्रयतेतारीन्न युद्धेन कदा चन ॥ ॥ १९८ ॥
अनित्यो विजयो
यस्माद् दृश्यते युध्यमानयोः ।
पराजयश्च
सङ्ग्रामे तस्माद् युद्धं विवर्जयेत् ॥ ॥ १९९ ॥
त्रयाणामप्युपायानां
पूर्वोक्तानामसंभवे ।
तथा युध्येत
सम्पन्नो विजयेत रिपून् यथा ॥ ॥ २००॥
जित्वा
सम्पूजयेद् देवान् ब्राह्मणांश्चैव धार्मिकान् ।
प्रदद्यात्
परिहारार्थं ख्यापयेदभयानि च ॥ ॥ २०१ ॥
सर्वेषां तु
विदित्वैषां समासेन चिकीर्षितम् ।
स्थापयेत्
तत्र तद्वंश्यं कुर्याच्च समयक्रियाम् ॥ ॥ २०२ ॥
प्रमाणानि च
कुर्वीत तेषां धर्मान् यथोदितान् ।
रनैश्च
पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह ॥ ॥ २०३ ॥
आदानमप्रियकरं
दानं च प्रियकारकम् ।
अभीप्सितानामर्थानां
काले युक्तम् ॥ ॥२०४॥
सर्वं
कर्मेदमायत्तं विधाने दैवमानुषे ।
तयोर्देवमचिन्त्यं
तु मानुषे विद्यते क्रिया ॥ ॥ २०५ ॥
राजा को साम, दान और भेद इन तीनों से या एक ही किसी से
शत्रु को जीतने का उपाय करना चाहिए परन्तु जहां तक हो सके युद्ध का उद्योग नहीं
करना चाहिए। युद्ध में लड़नेवालों की हार अथवा कभी निश्चित नहीं होती, इसलिए जब तक संभव हो युद्ध नहीं करना चाहिए। जब उक्त तीन उपायों से शत्रु
को जीतने का भरोसा न हो तभी युद्ध का उपाय पूरी तौर से करना उचित है जिससे वह अधीन
हो जाए। युद्ध में विजय पाने पर देवता, ब्राह्मणों की पूजा
करनी चाहिए। विजय प्राप्त प्रजा का भूमि कर कम करना चाहिए और यह भी घोषित करना
चाहिए कि जिन्होंने हमारे साथ बुरा बर्ताव किया हैं उन्हें भी अभय दिया गया है।
पराजित राजा और मंत्री का अभिप्राय जानकर, उसके वंशवाले को
गद्दी देकर अपनी शर्ते पक्की कर लेनी चाहिए और उनके धर्मों को-रिवाजों का आदर करना
चाहिए, रत्नों से मंत्री आदि के साथ उसका सत्कार करे अर्थात
उपहार देना चाहिए। किसी की प्रिय वास्तु ले लेना अप्रिय और देना प्रिय होता है तब
भी समयानुसार लेना और देना अच्छा माना जाता है। यह सभी कर्म देव और मनुष्य के
पुरुषार्थ के अधीन हैं। इन में दैव का निर्णय अशक्य है परन्तु पुरुषार्थ से कार्य
किया जाता है। अर्थात् मनुष्यसाध्य कार्य में पुरुषार्थ प्रधान माना जाता है ॥ १९८
- २०५ ॥
सह वाऽपि
व्रजेद् युक्तः संधिं कृत्वा प्रयत्नतः ।
मित्रं
हिरण्यं भूमिं वा सम्पश्यंस्त्रिविधं फलम् ॥ ॥ २०६ ॥
पार्ष्णिग्राहं
च सम्प्रेक्ष्य तथाक्रन्दं च मण्डले ।
मित्रादथाप्यमित्राद्
वा यात्राफलमवाप्नुयात् ॥ ॥ २०७ ॥
हिरण्यभूमिसम्प्राप्त्या
पार्थिवो न तथैधते ।
यथा मित्रं
ध्रुवं लब्ध्वा कृशमप्यायतिक्षमम् ॥ ॥२०८॥
अथवा राजा को
मित्रता अथवा कुछ द्रव्य अथवा भूमि शत्रु से पाकर सुलह करके लौट आना चाहिए अर्थात्
इन पदार्थों को देना शत्रु मंजूर करे तो लेकर सुलह करके ले लेना चाहिए। जो विजय
करते हुए राजा के पीछे दूसरा राजा दबाकर चढ़े आवे उसको 'पाणिग्राह' कहते हैं
और जो उसको इस काम से रोके उसे 'क्रन्द' कहते हैं। इन दोनों को देखकर, मित्र अथवा अमित्र से
यात्रा का फले ग्रहण करना चाहिए। राजा सुवर्ण और भूमि को पाकर वैसा नहीं बढ़ता,
जैसा दुर्बल भी स्थिर मित्र को पाकर बढ़ता है ॥२०६-२०८ ॥
धर्मज्ञं च
कृतज्ञं च तुष्टप्रकृतिमेव च ।
अनुरक्तं
स्थिरारम्भं लघुमित्रं प्रशस्यते ॥ ॥ २०९ ॥
प्राज्ञं
कुलीनं शूरं च दक्षं दातारमेव च ।
कृतज्ञं
धृतिमन्तं च कष्टमाहुररिं बुधाः ॥ २१० ॥
आर्यता
पुरुषज्ञानं शौर्यं करुणवेदिता ।
स्थौललक्ष्यं
च सततमुदासीनगुणादयः ॥ ॥ २११ ॥
क्षेम्यां
सस्यप्रदां नित्यं पशुवृद्धिकरीमपि ।
परित्यजेन्नृपो
भूमिमात्मार्थमविचारयन् ॥ ॥ २१२ ॥
आपदर्थं धनं
रक्षेद् दारान् रक्षेद् धनैरपि ।
आत्मानं सततं
रक्षेद् दारैरपि धनैरपि ॥ ॥ २१३ ॥
धर्मज्ञ, कृतज्ञ, प्रसन्नचित्त,
प्रीति करनेवाला, स्थिर कार्य का आरम्भ
करनेवाला, छोटा मित्र अच्छा होता है। बुद्धिमान, कुलीन, शूर, चतुर, दाता, कृतज्ञ और धैर्यवान् शत्रु को लोग कठिन कहते
हैं। सभ्यता, मनुष्यों की पहचान, शूरता,
दयालुता और उदारता, यह सच उदासीन राजा के गुण
हैं, कल्याण करनेवाली, संपूर्ण धान्यों
को देनेवाली और पशुवृद्धि करनेवाली भूमि को भी राजा अपने प्राणों की रक्षा के लिए
बिना सोचे समझे छोड़ देना चाहिए। आपत्ति दूर करने के लिए धन की रक्षा करनी चाहिए,
धन से स्त्रियों की रक्षा करनी चाहिए और धन, स्त्री
से भी अपने शरीर की रक्षा करनी चाहिए ॥ २०६-२१३ ॥
सह सर्वाः
समुत्पन्नाः प्रसमीक्ष्यापदो भृशम् ।
संयुक्तांश्च
वियुक्तांश्च सर्वोपायान् सृजेद् बुधः ॥ ॥ २१४ ॥
उपेतारमुपेयं
च सर्वोपायांश्च कृत्स्रशः ।
एतत् त्रयं
समाश्रित्य प्रयतेतार्थसिद्धये ॥ ॥ २१५॥
एवं सर्वमिदं
राजा सह सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिः ।
व्यायम्याप्लुत्य
मध्याह्ने भोक्तुमन्तःपुरं विशेत् ॥ ॥ २१६ ॥
तत्रात्मभूतैः
कालज्ञैरहार्यैः परिचारकैः ।
सु
परीक्षितमन्नाद्यमद्यान् मन्त्रैर्विषापहैः ॥ ॥ २१७ ॥
विषघ्नैरगदैश्चास्य
सर्वद्रव्याणि योजयेत् ।
विषघ्नानि च
रत्नानि नियतो धारयेत् सदा ॥ ॥२१८॥
बहुत से
आपत्तियों को एक साथ आता देख कर बुद्धिमान् राजा को साम दान आदि उपायों को एक साथ
अथवा अलग अलग काम में लाना चाहिए। उपाय करनेवाले, उपाय के साधन योग्य और उपाय इन तीनों का ठीक ठीक आश्रय करके
अर्थसिद्धि के लिए उपाय करना चाहिए। उक्त प्रकार से संपूर्ण राजकार्यों का
मन्त्रियों के लिए विचार करना चाहिए। स्नान और व्यायाम करके दोपहर में भोजनार्थ
अन्तःपुर में प्रवेश करके वहां भक्त, भोजन काल को जाननेवाला,
शत्रु के प्रभाव में न आनेवाले, रसोइये के
तैयार किये, परीक्षित और विपति मारक मन्त्रों से शुद्ध भोजन
को करना चाहिए। राजा के सभी खाद्य पदार्थों में विष नाशक दवा डालनी चाहिए और
विषनाशक रत्न राजा को सदा धारण करना चाहिए ॥२१४-२१८॥
परीक्षिताः
स्त्रियश्चैनं व्यजनोदकधूपनैः ।
वेषाभरणसंशुद्धाः
स्पृशेयुः सुसमाहिताः ॥ ॥ २१९ ॥
एवं प्रयत्नं
कुर्वीत यानशय्याऽऽसनाशने ।
स्नाने
प्रसाधने चैव सर्वालङ्कारकेषु च ॥ ॥ २२० ॥
परीक्षा की
हुई, वेश आभूषणों से शुद्ध, एकाग्रचित्त स्त्रियां को पंखा, पानी, धुप, गंध से राजा की सेवा करनी चाहिए। इसी प्रकार का
प्रयत्न वाहन, शय्या, आसन, भोजन, स्नान, अनुलेपन और
अलंकारों से भी करना चाहिए ॥२२१-२२०॥
भुक्तवान्
विहरेच्चैव स्त्रीभिरन्तःपुरे सह ।
विहृत्य तु
यथाकालं पुनः कार्याणि चिन्तयेत् ॥ ॥२२१ ॥
अलङ्कृतश्च
सम्पश्येदायुधीयं पुनर्जनम् ।
वाहनानि च
सर्वाणि शस्त्राण्याभरणानि च ॥ ॥ २२२ ॥
संध्यां
चोपास्य शृणुयादन्तर्वेश्मनि शस्त्रभृत् ।
रहस्याख्यायिनां
चैव प्रणिधीनां च चेष्टितम् ॥ ॥ २२३ ॥
गत्वा
कक्षान्तरं त्वन्यत् समनुज्ञाप्य तं जनम् ।
प्रविशेद्
भोजनार्थं च स्त्रीवृतोऽन्तः पुरं पुनः ॥ २२४ ॥
भोजन करने के
बाद, उसी अन्तःपुर में स्त्रियों के साथ कुछ देर
टहलें, फिर यथासमय अपने राजकाज का विचार करे। फिर शस्त्र,
भूषणों से सजकर सवार, सिपाही, घोड़ा वगैरह अस्त्र और राजकीय आभूषणों की देखभाल करनी चाहिए। उसके अनन्तर
सायसंध्या करके, एकान्त में दूत और प्रतिनिधियों के समाचार
और कार्यों को सुनना चाहिए। उन लोगों को विदा करके दूसरे कमरे में जाकर स्त्रियों
के साथ भोजनार्थ अन्तःपुर को गमन करना चाहिए। वहां यथावत् भोजन करके थोड़ा गाना,
बाजे इत्यादि से चित्त को प्रसन्न करके और उचित काल में शयन करना
चाहिए ॥२२१-२२४ ॥
भुक्त्वा पुनः
किं चित् तूर्यघोषैः प्रहर्षितः ।
संविशेत् तं
यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः ॥ ॥ २२५ ॥
एतद्विधानमातिष्ठेदरोगः
पृथिवीपतिः ।
अस्वस्थः
सर्वमेतत् तु भृत्येषु विनियोजयेत् ॥ ॥२२६॥
प्रातःकाल कुछ
सवेरे उठकर फिर अपना नित्यकर्म यथावत करें। इस प्रकार से नीरोग राजा को संपूर्ण
राज्यकार्यों का संपादन स्वयं करना चाहिए। यदि शरीर में कोई कष्ट हो जाय तो अपने
अधिकारियों से सभी कामों को करवाना चाहिए ॥२२५-२२६ ॥
॥ इति मानवे
धर्मशास्त्रे भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ सप्तमोऽध्यायः समाप्तः॥ 7 ॥
॥ महर्षि भृगु
द्वारा प्रवचित मानव धर्म शास्त्र स्मृति का सातवाँ अध्याय समाप्त ॥
आगे जारी..........मनुस्मृति अध्याय 8
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