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मनुस्मृति अध्याय १२- कर्मफल
निर्णय
चातुर्वर्ण्यस्य कृत्स्नोऽयमुक्तो
धर्मस्त्वयाऽनघः ।
कर्मणां फलनिर्वृत्तिं शंस
नस्तत्त्वतः पराम् ॥ ॥१॥
स तानुवाच धर्मात्मा महर्षीन् मानवो
भृगुः ।
अस्य सर्वस्य शृणुत कर्मयोगस्य
निर्णयम् ॥ ॥२॥
शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसंभवम् ।
कर्मजा गतयो नृणामुत्तमाधममध्यमः ॥
॥३॥
तस्यैह त्रिविधस्यापि
त्र्यधिष्ठानस्य देहिनः ।
दशलक्षणयुक्तस्य मनो विद्यात्
प्रवर्तकम् ॥ ॥४॥
परद्रव्येष्वभिध्यानं
मनसाऽनिष्टचिन्तनम् ।
वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म
मानसम् ॥ ॥५॥
पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि
सर्वशः ।
असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं
स्याच्चतुर्विधम् ॥ ॥६॥
अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः
।
परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं
स्मृतम् ॥ ॥७॥
हे पापरहित ! यह चारों वर्णों का
संपूर्ण धर्म आपने कहा, अब शुभाशुभ कर्मों
के दूसरे जन्म में होनेवाले फलों को यथार्थरूप से हमसे कहिये! इस प्रकार महर्षियों
ने भृगु से पूछा। यह सुनकर मनुपुत्र-धर्मात्मा भृगु ने ऋषियों से कहा इस सम्पूर्ण
कर्मयोग के निर्णय को सुनोः मन, वाणी और शरीर से होनेवाला
कर्म शुभ, अशुभ फल देता है और उसी कर्म के अनुसार मनुष्यों
का उत्तम - मध्यम और अधम योनि में जन्म होता है। उस देही के उत्तम मध्यम- अधम और
मन- वाणी - शरीर के आश्रित फल देने वाले तीन प्रकार के दस लक्षणयुक्त धर्म का
"मनप्रवर्तक- चलाने वाला है। अन्याय से परधन हरने का विचार, दूसरे का बुरा चाहना और परलोक में अश्रद्धा ये तीन प्रकार के मानस पाप
कर्म हैं। कठोर वचन कहना, झूठ बोलना, सभी
प्रकार की चुगली और व्यर्थ की बातें करना यह चार वाणी के पापकर्म हैं। बिना दी हुई
वस्तु लेना, शास्त्रविरुद्ध हिंसा और परस्त्री गमन यह तीन शरीर
के पापकर्म है ॥१-७॥
मानसं मनसेवायमुपभुङ्क्ते शुभाशुभम्
।
वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनेव च
कायिकम् ॥॥८॥
शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां
नरः ।
वाचिकैः पक्षिमृगतां
मानसैरन्त्यजातिताम् ॥ ॥९॥
वाग्दण्डोऽथ मनोदण्डः कायदण्डस्तथैव
च ।
यस्यैते निहिता बुद्धौ त्रिदण्डीति
स उच्यते ॥ ॥१०॥
त्रिदण्डमेतन्निक्षिप्य सर्वभूतेषु
मानवः ।
कामक्रोधौ तु संयम्य ततः सिद्धिं
नियच्छति ॥ ॥ ११ ॥
योऽस्यात्मनः कारयिता तं क्षेत्रज्ञं
प्रचक्षते ।
यः करोति तु कर्माणि स
भूतात्मोच्यते बुधैः ॥ ॥ १२ ॥
जीवसंज्ञो ऽन्तरात्माऽन्यः सहजः
सर्वदेहिनाम् ।
येन वेदयते सर्वं सुखं दुःखं च
जन्मसु ॥ ॥१३॥
तावुभौ भूतसम्पृक्तौ महान्
क्षेत्रज्ञ एव च ।
उच्चावचेषु भूतेषु स्थितं तं
व्याप्य तिष्ठतः ॥ ॥१४॥
मनुष्य मन से किए शुभाशुभ कर्मफल को
मन से ही,
वाणी से किये, वाणी ही और शरीर से किए कर्म का
शरीर से ही फल भोगता है। मनुष्य शारीरक कर्मदोषों से वृक्षादियोनि, वाणी के कर्मदोषों से पक्षी और मृग की और मानसिक कर्मदोषों से चाण्डाल आदि
हीन योनियों में जन्म पाता है। वाणी को नियम में रचना वाग्दंड, मन को वश में रखना मनोदण्ड और शरीर को वश में रखना कायदण्ड ये तीनों जिसकी
बुद्धि में स्थित हैं वह पुरुष 'त्रिदण्डी' कहलाता है। मनुष्य संपूर्ण जीवों पर इन तीनों दण्डो को स्थापित करने और
काम- क्रोध को वश में रखने से सिद्धि - कृतार्थता को पाता है। जो इस शरीर को कर्म
में प्रेरित करता है उसको क्षेत्र' कहते हैं । और जो कर्म
करता है उसे 'भूतात्मा' कहते हैं। जीव
नामक दूसरा अन्तरात्मा (सूक्ष्म शरीर) समस्त शरीरधारी क्षत्रों के साथ पैदा होता
है। जिससे जन्मों में सम्पूर्ण सुख-दुःख जाना जाता है। वे दोनों महान सूक्ष्म शरीर
और क्षेत्रज्ञ-जीवात्मा पञ्चभूतों के साथ मिलकर ऊंचे-नीचे प्राणियों में स्थित
होकर परमात्मा के आश्रय से रहते हैं । ॥५-१४॥
असङ्ख्या मूर्तयस्तस्य निष्पतन्ति
शरीरतः ।
उच्चावचानि भूतानि सततं चेष्टयन्ति
याः ॥ ॥ १५ ॥
पञ्चभ्य एव मात्राभ्यः प्रेत्य
दुष्कृतिनां नृणाम् ।
शरीरं यातनार्थीयमन्यदुत्पद्यते
ध्रुवम् ॥ ॥ १६ ॥
तेनानुभूय ता यामीः शरीरेणैह यातनाः
।
तास्वेव भूतमात्रासु प्रलीयन्ते
विभागशः ॥ ॥१७॥
सोऽनुभूयासुखोदर्कान् दोषान्
विषयसङ्गजान् ।
व्यपेतकल्मषोऽभ्येति तावेवोभौ
महौजसौ ॥ ॥ १८ ॥
तौ धर्मं पश्यतस्तस्य पापं
चातन्द्रितौ सह ।
याभ्यां प्राप्नोति सम्पृक्तः
प्रेत्येह च सुखासुखम् ॥ ॥१९॥
यद्याचरति धर्मं स
प्रायशोऽधर्ममल्पशः ।
तैरेव चावृतो भूतैः स्वर्गे
सुखमुपाश्रुते ॥ ॥२०॥
यदि तु प्रायशोऽधर्मं सेवते
धर्ममल्पशः ।
तैर्भूतैः स परित्यक्तो यामीः
प्राप्नोति यातनाः ॥ ॥ २१ ॥
यामीस्ता यातनाः प्राप्य स जीवो
वीतकल्मषः ।
तान्येव पञ्च भूतानि पुनरप्येति
भागशः ॥ ॥२२॥
उस परमात्मा के शरीर से क्षेत्रज्ञ
नामक असंख्य जीव उत्पन्न होते हैं, जो
उत्तम-अधम प्राणियों से निरन्तर कर्म कराते हैं। पापी मनुष्यों का शरीर यम यातना
के लिए, दूसरा सूक्ष्म- पञ्चतमात्रा से उत्पन्न होता है। वह
पापी उस शरीर से यमयातना को भोगकर फिर उन पञ्चभूतो की मात्राओं में विभाग के
अनुसार लीन हो जाता है। वह सूक्ष्म शरीरी जीव, दुःखों को भोग
चुकने पर पापरहित होकर महान् और क्षेत्रज्ञ का आश्रय करता है। वह महान और
क्षेत्रज्ञ साथ में उस प्राणी के पाप-पुण्य का विचार करते हैं, जिनसे मिला हुआ यहां और परलोक में सुख-दुःख भोगता है। मनुष्य जन्म में यदि
वह धर्म अधिक और अधर्म थोड़ा किए रहता हैं तो उन्हीं पञ्चभूतों से युक्त होकर
स्वर्ग मे सुख भोगता है। यदि अधर्म अधिक रहता है तो मरकर यमयातना भोगता हैं। उन
यातनाओं को भोगने के बाद निष्पाप होकर वह जीव फिर विभाग के अनुसार पञ्चभूतों का
आश्रय लेकर जन्म लेता है ॥ ३५-२२ ॥
मनुस्मृति अध्याय १२- गुणों
का प्रभाव
एता दृष्ट्राऽस्य जीवस्य गतीः
स्वेनैव चेतसा ।
धर्मतोऽधर्मतश्चैव धर्मे दध्यात्
सदा मनः ॥ ॥ २३ ॥
सत्त्वं रजस्तमश्चैव त्रीन्
विद्यादात्मनो गुणान् ।
यैर्व्याप्यैमान् स्थितो भावान्
महान् सर्वानशेषतः ॥ ॥ २४ ॥
यो यदेषां गुणो देहे
साकल्येनातिरिच्यते ।
स तदा तद्गुणप्रायं तं करोति
शरीरिणम् ॥ ॥ २५ ॥
सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं
रागद्वेषौ रजः स्मृतम् ।
एतद् व्याप्तिमदेतेषां
सर्वभूताश्रितं वपुः ॥ ॥ २६ ॥
तत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं किं
चिदात्मनि लक्षयेत् ।
प्रशान्तमिव शुद्धाभं सत्त्वं
तदुपधारयेत् ॥ ॥२७॥
यत् तु
दुःखसमायुक्तमप्रीतिकरमात्मनः ।
तद् रजो प्रतीपं विद्यात् सततं हारि
देहिनाम् ॥ ॥२८॥
यत् तु स्यान् मोहसंयुक्तमव्यक्तं
विषयात्मकम् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं
तमस्तदुपधारयेत् ॥ ॥२९॥
त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां यः
फलोदयः ।
अग्यो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेषतः
॥ ३०॥
इन जीवगतियों का जोकि धर्म-अधर्म से
होनेवाली हैं, अपने मन से विचार करके पुरुष को
सदा धर्म में मन लगाना चाहिए। सत्य, रज और तम ये तीनों आत्मा
प्रकृति के गुण हैं। इन्हीं गुणों से व्याप्त महत्तत्व, सारे
विश्व में स्थित है। इन गुणों में जो गुण जब देह में अधिक होता है तब उस प्राणी को
अपने भाव के समान कर डालता है। वस्तु का वास्तविक ज्ञान सत्व गुण का उलटा ज्ञान
तमोगुण का और राग- द्वेष रजोगुण का लक्षण है। सभी प्राणियों के शरीर इन्हीं के
प्रभावों से व्याप्त हो रहे हैं। जिस से आत्मा को सुख का ज्ञान हो शान्त शुद्ध और
प्रकाश भाव पैदा हो वह सत्वगुण है। आत्मा को अप्रीतिकर दुःख से मिला विषयों में
खींचनेवाला रजोगुण होता है। जो मोह -युक्त हो, प्रकट न हो,
विषयी हो और तर्क या बुद्धि से न जाना जाय वह तमोगुण है । इन तीनों
गुणों का जो उत्तम मध्यम- अधम फल होता है वह सब आगे कहा जाता है ॥ २३-३० ॥
वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं
शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धर्मक्रियाऽत्मचिन्ता च सात्त्विकं
गुणलक्षणम् ॥ ॥३१॥
आरम्भरुचिताऽधैर्यमसत्कार्यपरिग्रहः
।
विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं
गुणलक्षणम् ॥ ॥३२॥
लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं
नास्तिक्यं भिन्नवृत्तिता ।
याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं
गुणलक्षणम् ॥ ॥३३॥
त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां त्रिषु
तिष्ठताम् ।
इदं सामासिकं ज्ञेयं क्रमशो
गुणलक्षणम् ॥ ॥३४॥
यत् कर्म कृत्वा कुर्वंश्च
करिष्यंश्चैव लज्जति ।
तज् ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं
गुणलक्षणम् ॥ ॥३५॥
येनास्मिन् कर्मणा लोके
ख्यातिमिच्छति पुष्कलाम् ।
न च शोचत्यसम्पत्तौ तद् विज्ञेयं तु
राजसम् ॥ ॥३६॥
यत् सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न
लज्जति चाचरन् ।
येन तुष्यति चात्माऽस्य तत्
सत्त्वगु क्षणम् ॥ ॥३७॥
तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ
उच्यते ।
सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः
श्रेष्ठ्यमेषां यथोत्तरम् ॥ ॥३८ ॥
वेद का अभ्यास,
तप, ज्ञान, शौच, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म, कर्म
और आत्मचिन्तन ये सब सत्त्वगुण के काम हैं। आरम्भ में रुचि होना, फिर अधैर्य, बुरे कामों में फंसना और विषय भोग ये
रजोगुण के काम हैं । लोभ, नींद, अधीरता,
क्रूरता, नास्तिकता, अनाचार,
मांगने की आदत और प्रमाद यह तमो गुण के काम है। इन तीनों गुणों का
संक्षेप से लक्षण इस प्रकार है:
जिस कर्म को करते करते हुए या आगे
करने में लज्जा आती है वह तमोगुण का लक्षण है।
जिस कर्म से लोक में प्रसिद्धि चाहे,
पर फल न होने पर शोक न पैदा हो, वह रजोगुण का
लक्षण है।
जिससे ज्ञान प्राप्त करना चाहे,
जिसको करने में लज्जा न आये और जिस कर्म से मन प्रसन्न सन्तुष्ट रहे,
उसको सत्त्वगुण का लक्षण जानना चाहिए।
तम का काम,
रज का अर्थ और सत्व का धर्म ये मुख्य लक्षण हैं। इनमें क्रम से अगला
अगला श्रेष्ठ माना जाता है ।।३१-३८ ।।
येन यस्तु गुणेनैषां संसरान्
प्रतिपद्यते ।
तान् समासेन वक्ष्यामि सर्वस्यास्य
यथाक्रमम् ॥ ॥३९॥
देवत्वं सात्त्विका यान्ति
मनुष्यत्वं च राजसाः ।
तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा
त्रिविधा गतिः ॥ ॥४०॥
त्रिविधा त्रिविधैषा तु विज्ञेया
गौणिकी गतिः ।
अधमा मध्यमाग्र्या च
कर्मविद्याविशेषतः ॥ ॥४१॥
स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः
सर्पाः सकच्छपाः ।
पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः
॥ ॥४२॥
हस्तिनश्च तुरङ्गाश्च शूद्रा
म्लेच्छाश्च गर्हिताः ।
सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा
तामसी गतिः ॥ ॥४३॥
चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव
दाम्भिकाः ।
रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा
गतिः ॥ ॥४४॥
झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः
शस्त्रवृत्तयः ।
द्यूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी
गतिः ॥ ॥४५॥
राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव
पुरोहिताः ।
वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी
गतिः ॥ ॥४६॥
इन गुणों में जिस गुण से जीव जिन
जिन गतियों को पाता है, उन गतियों को
संक्षेप से कहता हूँ - सात्त्विक गुणवाले देव भाव, रजोगुणी
मनुष्यत्व और तमोगुणी पक्षीपन को पाते है: यह तीन प्रकार की गति है। सत्व, रज और तम इन तीन गुणों से होनेवाली गति, कर्म और
विद्या के अनुसार, उत्तम-मध्यम-अधम होती है । वृक्षादि
स्थावर, कृमि, कीट, मछली, साँप, कछुआ, पशु और मृग, ये तमोगुणी अधम गति है। हाथी, घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ,
सिंह, व्याघ्र और शूकर ये तमोगुणी मध्यमगति
है। चारण-भाँट गरुडादि पक्षी, पाखंडी पुरुष, राक्षस पिशाच ये तमोगुण की उत्तम गति जाननी चाहिए। भल्ल, मल्ल, नट, शस्त्र से जीनेवाले,
जुआ-मद्यपान में आसक्त पुरुष ये रजोगुण की अधमगति है । राजा,
क्षत्रिय, राजपुरोहित, विवाद
करनेवाले ये रजोगुणी मध्यमगति है॥३६-४६॥
गन्धर्वा गुह्यका यक्षा
विबुधानुचराश्च ये ।
तथैवाप्सरसः सर्वा राजसीषूत्तमा
गतिः ॥ ॥४७॥
तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका
गणाः ।
नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा
सात्त्विकी गतिः ॥ ॥४८॥
यज्वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि
वत्सराः ।
पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया
सात्त्विकी गतिः ॥ ॥ ४९ ॥
ब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो
महानव्यक्तमेव च ।
उत्तमां सात्त्विकीमेतां
गतिमाहुर्मनीषिणः ॥ ॥ ५० ॥
एष सर्वः समुद्दिष्टस्त्रिप्रकारस्य
कर्मणः।
त्रिविधस्त्रिविधः कृत्स्नः संसारः
सार्वभौतिकः ॥ ॥५१॥
इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन धर्मस्यासेवनेन
च ।
पापान् संयान्ति संसारानविद्वांसो
नराधमाः ॥ ॥५२॥
यां यां योनिं तु जीवोऽयं येन येनैह
कर्मणा ।
क्रमशो याति लोकेऽस्मिंस्तत् तत्
सर्वं निबोधत ॥ ॥ ५३ ॥
बहून् वर्षगणान् घोरान्नरकान्
प्राप्य तत्क्षयात् ।
संसारान् प्रतिपद्यन्ते
महापातकिनस्त्विमान् ॥ ॥ ५४ ॥
गन्धर्व,
गुह्यक, यक्ष, विद्याधर
और अप्सरा ये रजोगुणी उत्तमगति है। वानप्रस्थ, संन्यासी,
ब्राह्मण, विमानचारी देवता; नक्षत्र और दैत्य ये सत्त्वगुण की अधमगति है। यजमान, ऋषि, देवता, वेद, ज्योति, वर्ष, पितर और
साध्यदेव यह सत्वगुण की मध्यमगति है । ब्रह्मा, प्रजापति,
धर्म, महत्तत्त्व और प्रधान इसको सत्वगुण की
उत्तमगति विद्वान् लोग कहते हैं । इस प्रकार मन, वाणी और
शरीर के तीन प्रकार के कर्मों से होनेवाली, त्रिगुणमयी,
उत्तम मध्यम- अधम तीन प्रकार की सब प्राणियों की गति कही गई है।
इन्द्रियों में आसक्ति और धर्माचरण न करने से मूर्ख-अधम मनुष्य पापयोनि को प्राप्त
होते हैं। इस लोक में यह जीव जिस जिस कर्म से जिस जिस योनि में जन्म लेता है,
उन सब को क्रम से सुनो-महापातकी पुरुष बहुत वर्षों तक भयानक नरको
में पड़कर, पाप कट जाने पर बाकी भोग भोगने के लिए इन नीच
योनियों में जन्मता है ॥४७-५४ ॥
श्वसूकरखरोष्ट्राणां
गोऽजाविमृगपक्षिणाम् ।
चण्डालपुक्कसानां च ब्रह्महा
योनिमृच्छति ॥ ॥ ५५ ॥
कृमिकीटपतङ्गानां विड्भुजां चैव
पक्षिणाम् ।
हिंस्राणां चैव सत्त्वानां सुरापो
ब्राह्मणो व्रजेत् ॥ ॥५६॥
ताऽहिसरटानां च तिरश्चां
चाम्बुचारिणाम् ।
हिंस्राणां च पिशाचानां स्तेनो
विप्रः सहस्रशः ॥ ॥ ५७ ॥
तृणगुल्मलतानां च क्रव्यादां
दंष्ट्रिणामपि ।
क्रूरकर्मकृतां चैव शतशो गुरुतल्पगः
॥ ॥५८॥
हिंस्रा भवन्ति क्रव्यादाः
कृमयोऽमेध्यभक्षिणः ।
परस्परादिनः स्तेनाः
प्रेत्यान्त्यस्त्रीनिषेविणः ॥ ॥५९॥
संयोगं पतितैर्गत्वा परस्यैव च
योषितम् ।
अपहृत्य च विप्रस्वं भवति
ब्रह्मराक्षसः ॥ ॥ ६० ॥
मणिमुक्ताप्रवालानि हृत्वा लोभेन
मानवः ।
विविधाणि च रत्नानि जायते
हेमकर्तृषु ॥ ॥ ६१ ॥
धान्यं हृत्वा भवत्याखुः कांस्यं
हंसो जलं प्लवः ।
मधु दंशः पयः काको रसं श्वा नकुलो
घृतम् ॥ ॥६२॥
ब्रह्महत्या करनेवाला,
कुत्ता, सुअर, गधा,
ऊँट, बैल, बकरा, मेंढा, मृग, पक्षी, चाण्डाल और पुक्कस की जाति में, जन्म लेता है ।
मद्यपान करनेवाला ब्राह्मण कृमि, कीड़ा, पतंग, मैला खानेवाले, पक्षी और
हिंसक प्राणियों की जाति में जन्म लेता है। सोना चुरानेवाला ब्राह्मण मकड़ी,
सांप, गिरगट, जलचर पक्षी,
हिंसक जीव और पिशाच की योनि में जन्मता है। गुरुपत्नी- गामी पुरुष
सैकड़ों बार घास, गुल्म, लता, कच्चा मांस खानेवाले, दाढ़वाले और क्रूर कर्मियों की
योनि में जन्म लेता है। हिंसक मनुष्य कच्चा मांस खानेवाले, कृमि
और अभक्ष्य-भक्षी होते हैं । चोर एक दूसरे को खानवाले प्राणी होते हैं । चाण्डाली
से संयोग करनेवाले प्रेत होते हैं। पतितों से संसर्ग, परस्त्री
और ब्राह्मण धन हरने वाला, ब्रह्मराक्षस होता है। मणि,
मोती, मूंगा और विविध रत्न को 'चुराकर, हेमकार पक्षियों में जन्मता है। अन्न चुराकर
चूहा, कांसे की चोरी से हंस, जल चुराने
से मेंढक, मधु चुराने से मक्खी, दूध की
चोरी से कौआ, रस चुराने से कुत्ता और घी चुराने से नेवला
होता है। ॥५५-६२ ॥
मांसं गृध्रो वपां मद्गुस्तैलं
तैलपकः खगः ।
चीवाकस्तु लवणं बलाका शकुनिर्दधि ॥
॥६३॥
कौशेयं तित्तिरिर्हृत्वा क्षौमं
हृत्वा तु दर्दुरः ।
कार्पासतान्तवं क्रौञ्चो गोधा गां
वाग्गुदो गुडम् ॥ ॥६४॥
छुच्छुन्दरिः शुभान् गन्धान्
पत्रशाकं तु बर्हिणः ।
श्वावित् कृतान्नं विविधमकृतान्नं
तु शल्यकः ॥ ॥६५॥
बको भवति हृत्वाऽग्निं गृहकारी
ह्युपस्करम् ।
रक्तानि हृत्वा वासांसि जायते
जीवजीवकः ॥ ॥ ६६ ॥
वृको मृगेभं व्याघ्रोऽश्वं फलमूलं
तु मर्कटः ।
स्त्रींऋक्षः स्तोकको वारि
यानान्युष्टः पशूनजः ॥ ॥ ६७॥
यद् वा तद् वा परद्रव्यमपहृत्य
बलान्नरः ।
अवश्यं याति तिर्यक्त्वं जग्ध्वा
चैवाहुतं हविः ॥ ॥६८॥
स्त्रियोऽप्येतेन कल्पेन हृत्वा
दोषमवाप्नुयुः ।
एतेषामेव जन्तूनां
भार्यात्वमुपयान्ति ताः ॥ ॥६९॥
स्वेभ्यः स्वेभ्यस्तु
कर्मभ्यश्च्युता वर्णा ह्यनापदि ।
पापान् संसृत्य संसारान् प्रेष्यतां
यान्ति शत्रुषु ॥ ॥७०॥
मांस चुराने से गिद्ध,
चरबी चुराने से जलकाक, तेल की चोरी से
तिलचट्टा, नमक चुराने से झींगुर और दही की चोरी से बगुला
होता है। रेशम चुराने, से तीतर, अलसी
के कपड़ों की चोरी से मेंढक, कपास वस्त्र चुराने से सारस गौ
चुराने से गोह और गुड़ चुराने से वाग्गुद पक्षी होता है। उत्तम सुगन्ध की चीज़
चुराने से छछुन्दर, पत्ते-शाक चुराने से मोर, पका हुआ अन्न चुराने पर भेड़िया और कच्चा अन्न चुराने से शल्यक होता है।
आग चुराने से बक, सूप- मूसल चुराने पर मकड़ी और लाल वस्त्र
चुराने से चकोर पक्षी होता है । मृगया, हाथा चुराने से नाहर
घोड़ा चुराने से व्याघ्र फल मूल की चोरी से वानर, स्त्री
चुराने से रीछ, पीने का जल चुराने से चातक, सवारी की चोरी से ऊँट और पशु की चोरी से बकरा होता है। मनुष्य दूसरे की कोई
भी वस्तु चुराकर और बिना होम हवि, भोजन से अवश्य पक्षी होता
है। स्त्रियां भी चोरी करने पर इन्हीं दोषों को प्राप्त करती हैं और उन्हीं
जन्तुओं की स्त्री बनती हैं। बिना आपत्ति के अपने अपने नित्य कर्मों से पतित पुरुष
पाप-योनियों में पैदा होकर, शत्रुओं के यहां दासता को
प्राप्त करते हैं । ॥ ६३-७० ॥
वान्ताश्युल्कामुखः प्रेतो विप्रो
धर्मात् स्वकाच्च्युतः ।
अमेध्यकुणपाशी च क्षत्रियः कटपूतनः
॥ ॥ ७१ ॥
मैत्राक्ष ज्योतिकः प्रेतो वैश्यो
भवति पूयभुक् ।
चैलाशकश्च भवति शूद्रो धर्मात्
स्वकाच्च्युतः ॥ ॥७२॥
यथा यथा निषेवन्ते विषयान्
विषयात्मकाः ।
तथा तथा कुशलता तेषां तेषूपजायते ॥
॥७३॥
तेऽभ्यासात् कर्मणां तेषां
पापानामल्पबुद्धयः ।
सम्प्राप्नुवन्ति दुःखानि तासु
तास्विह योनिषु ॥ ॥७४॥
तामिस्रादिषु चोग्रेषु नरकेषु
विवर्तनम् ।
असिपत्रवनादीनि बन्धनछेदनानि च ॥
॥७५॥
विविधाश्चैव सम्पीडाः काकोलूकैश्च
भक्षणम् ।
करम्भवालुकातापान् कुम्भीपाकांश्च
दारुणान् ॥ ॥७६॥
संभवांश्च वियोनीषु दुःखप्रायासु
नित्यशः ।
शीतातपाभिघातांश्च विविधानि भयानि च
॥ ॥७७॥
असकृद् गर्भवासेषु वासं जन्म च
दारुणम् ।
बन्धनानि च काष्ठानि
परप्रेष्यत्वमेव च ॥ ॥७८॥
अपने धर्म से भ्रष्ट ब्राह्मण
उल्कामुख प्रेत होकर वमन खाता है। क्षत्रिय, कपूत
प्रेत होकर विष्ठा और मुरदा खाता है। अपने धर्म से भ्रष्ट वैश्य मैनाक्षज्योतिक
प्रेत होकर, पीब खाता है और शूद्र चैलाशक प्रेत होकर,
कपड़े की जूं खाता है। विषय आसक्त पुरुष जैसे जैसे विषयों का सेवन
करते हैं, वैसे वैसे उनमें उनकी कुशलता हो जाती है। वे
निर्बुद्धि उन पाप कर्मों के चार बार करने से यहां अनेक योनियों में जन्म लेकर
दुःख पाते हैं। तामिस्त्र आदि भयानक नरकों में बार यार जन्म होता है । असिपत्र आदि
वनों में चलना पड़ता है । यमलोक के बन्धन और छेदन के दुःख भोगने पड़ते हैं। अनेक
पीड़ाएं होती हैं, कौआ, उल्लू नोच नोच
कर खाते हैं, जलती रेती का ताप और कुम्भीपाक आदि दारुणं नरक
भोगने पड़ते हैं। दुःख से पूर्ण, पशु आदि की योनि में
बारम्बार जन्म होते हैं। सर्दी-गर्मी की पीड़ा और भांति भांति के भय होते हैं ।
फिर पुनः गर्भ में वास होता है । दुःखद जन्म होता है। विविध बंधन श्रृंखला इत्यादि
का और दासता को प्राप्त होता है ॥ ७१-७८ ॥
बन्धुप्रियवियोगांश्च संवासं चैव
दुर्जनैः ।
द्रव्यार्जनं च नाशं च
मित्रामित्रस्य चार्जनम् ॥ ॥७९॥
जरां चैवाप्रतीकारां
व्याधिभिश्चोपपीडनम् ।
क्लेशांश्च विविधांस्तांस्तान्
मृत्युमेव च दुर्जयम् ॥ ॥८०॥
यादृशेन तु भावेन यद् यत् कर्म
निषेवते ।
तादृशेन शरीरेण तत् तत्
फलमुपाश्रुते ॥ ॥ ८१ ॥
एष सर्वः समुद्दिष्टः कर्मणां वः
फलोदयः ।
नैःश्रेयसकरं कर्म विप्रस्येदं
निबोधत ॥ ॥ ८२ ॥
वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां
च संयमः ।
अहिंसा गुरुसेवा च निःश्रेयसकरं
परम् ॥ ॥८३॥
सर्वेषामपि चैतेषां शुभानामिह
कर्मणाम् ।
किं चित्श्रेयस्करतरं कर्मोक्तं
पुरुषं प्रति ॥ ॥ ८४ ॥
सर्वेषामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं
स्मृतम् ।
तद् ह्यग्र्यं सर्वविद्यानां
प्राप्यते ह्यमृतं ततः ॥ ॥८५॥
षण्णामेषां तु सर्वेषां कर्मणां
प्रेत्य चेह च ।
श्रेयस्करतरं ज्ञेयं सर्वदा कर्म
वैदिकम् ॥ ॥ ८६ ॥
बान्धवों का वियोग,
दुर्जनों का सहवास, दुःख से धन पाना, धन का नाश, कठिनता से मित्र पाना और शत्रुओं से बैर
भाव होता है । जिसका उपाय न हो सके ऐसा बुढ़ापा आता है, व्याधियों
से कष्ट,नाना प्रकार के दुःख और दुर्जय मरण होता है। मनुष्य
जिस भाव से जो कर्म करता है, उसके अनुकूल - शरीर धारण करके
सभी फलों को भोगता है। यह सब कर्म फलों का वृत्त' कहा गया है
। अब ब्राह्मणों का कल्याण करनेवाला कर्म सुनोः -
मनुस्मृति अध्याय १२- नैःश्रेयस
कर्म
वेदाभ्यास,
तप, आत्मज्ञान, इन्द्रियसंयम,
महिला गुरुसेवा, ये कर्म ब्राह्मणों को परम
हितकारी हैं। इन सब शुभकर्मों में भी पुरुष का, अधिक कल्याण
करनेवाला कर्म-आत्मज्ञान है। वह सब विद्याओं में श्रेष्ठ है और उससे मोक्ष मिलता
है। इन ऊपर कई छः कर्मों में लोक- परलोक दोनों में अधिक कल्याणकारी वैदिक कर्म
है॥७९-८६॥
वैदिके कर्मयोगे तु
सर्वाण्येतान्यशेषतः ।
अन्तर्भवन्ति
क्रमशस्तस्मिंस्तस्मिन् क्रियाविधौ ॥ ॥ ८७ ॥
सुखाभ्युदयिकं चैव नैःश्रेयसिकमेव च
।
प्रवृत्तं च निवृत्तं च द्विविधं
कर्म वैदिकम् ॥ ॥८८॥
इह चामुत्र वा काम्यं प्रवृत्तं
कर्म कीर्त्यते ।
निष्कामं ज्ञातपूर्वं तु
निवृत्तमुपदिश्यते ॥ ॥८९॥
प्रवृत्तं कर्म संसेव्यं देवानामेति
साम्यताम् ।
निवृत्तं सेवमानस्तु भूतान्यत्येति
पञ्च वै ॥ ॥९०॥
सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि
चात्मनि ।
समं पश्यन्नात्मयाजी
स्वाराज्यमधिगच्छति ॥ ॥ ९१ ॥
यथोक्तान्यपि कर्माणि परिहाय
द्विजोत्तमः ।
आत्मज्ञाने शमे च स्याद् वेदाभ्यासे
च यत्नवान् ॥ ॥९२॥
एतद् हि जन्मसाफल्यं ब्राह्मणस्य
विशेषतः ।
प्राप्यैतत् कृतकृत्यो हि द्विजो
भवति नान्यथा ॥ ॥९३॥
पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः
सनातनम् ।
अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति
स्थितिः ॥ ॥९४॥
वैदिक कर्मों में ऊपर कही सब
क्रियाओं का अन्तर्भाव होता है। स्वर्गादि सुख और अभ्युदय करनेवाला प्रवृत्ति कर्म
और मोक्ष देनेवाला-आत्मज्ञानरूप निवृत्त कर्म ये दो प्रकार के वैदिक कर्म होते
हैं। इसलोक के और परलोक के सुख की काम से किया हुआ कर्म प्रवृत्त और निष्काम
आत्मज्ञानार्थ किया कर्म निवृत्त कहलाता है। प्रवृत्त कर्म के करने से देवताओं की
समता को और निवृत्त कर्म करने से पञ्चभूतों को उलांघ कर मोक्ष पाता है । सब भूतों
में आत्मा को और आत्मा में सब भूतों को समान देखनेवाला आत्मयाजी मोक्ष को पाता है
। द्विज शास्त्रोक्त कर्मों को भी न कर सके तो ब्रह्मध्यान,
इन्द्रियनिग्रह और वेदाभ्यास को ही करना चाहिए। इन्हीं आचरणों से ही
विशेषकर ब्राह्मण के जन्म की सफलता है। द्विज आत्मज्ञान को पाकर ही कृतार्थ होता
है, अन्यथा नहीं। पितर, देवता और
मनुष्यों के धर्म का मार्ग दिखाने वाला वेद ही नेत्र है । वह मीमांसा आदि
शास्त्रों के विचार बिना जानने में अशक्य है और अनन्त है, यही
मर्यादा है॥८७-९४॥
या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च
कुदृष्टयः ।
सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य
तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः ॥ ॥९५॥
उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि
कानि चित् ।
तान्यर्वाक्कालिकतया
निष्फलान्यनृतानि च ॥ ॥९६॥
चातुर्वर्ण्यं त्रयो
लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् ।
भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्
प्रसिध्यति ॥ ॥ ९७ ॥
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च
पञ्चमः ।
वेदादेव प्रसूयन्ते
प्रसूतिर्गुणकर्मतः ॥ ॥९८ ॥
बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं
सनातनम् ।
तस्मादेतत् परं मन्ये यत्जन्तोरस्य
साधनम् ॥ ॥९९॥
सेनापत्यं च राज्यं च
दण्डनेतृत्वमेव च ।
सर्वलोकाधिपत्यं च
वेदशास्त्रविदर्हति ॥ ॥ १०० ॥
यथा जातबलो वह्निर्दहत्यार्द्रानपि
द्रुमान् ।
तथा दहति वेदज्ञः कर्मजं दोषमात्मनः
॥ ॥ १०१ ॥
वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो यत्र
तत्राश्रमे वसन् ।
इहैव लोके तिष्ठन् स ब्रह्मभूयाय
कल्पते ॥ ॥ १०२ ॥
जो स्मृति वेदमूलक नहीं हैं,
जो वैदिक देव-यज्ञादि को झूठा बतलाने वाले ग्रन्थ है, उन सभी को निष्फल और नरकगति देनेवाले जानना चाहिए । वेद से भिन्न-मूलक जो
ग्रन्थ हैं, वह सब उत्पन्न होते है और थोड़े समय में नष्ट हो
जाते हैं। वह सब आधुनिक होने से निष्फल और असत्य हैं। चारों वर्ण, चारों आश्रम, तीनों लोक और भूत, भविष्य, वर्तमान काल सब वेद ही से प्रसिद्ध होते
हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध ये पांच भी वेद से उत्पन्न है और सत्वादि
गुणों के कर्म से हैं। सनातन वेद यज्ञादि से चराचर विश्व का धारण और पालन करता है।
इसलिये वेद अधिकारी के परम कल्याण का साधन है। सेनापति, राज्य,
न्यायाधीश और सबका स्वामी वेदशास्त्र ही होता है । जैसे प्रज्वलित
अग्नि गीले वृक्षों को भी भस्म कर डालता है वैसे ही वेदज्ञ अपने कर्मदोषों को भस्म
कर डालता है। वेद के तत्त्व को जाननेवाला चाहे जिस किसी भी आश्रम में रहे, वह इसी लोक में मोक्ष को प्राप्त करता है ॥९५ - १०२ ॥
अज्ञेभ्यो ग्रन्थिनः श्रेष्ठा
ग्रन्थिभ्यो धारिणो वराः ।
धारिभ्यो ज्ञानिनः श्रेष्ठा
ज्ञानिभ्यो व्यवसायिनः ॥१०३ ॥
तपो विद्या च विप्रस्य निःश्रेयसकरं
परम् ।
तपसा किल्बिषं हन्ति
विद्ययाऽमृतमश्नुते ॥ ॥ १०४ ॥
प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्रं च
विविधाऽऽगमम् ।
त्रयं सुविदितं कार्यं
धर्मशुद्धिमभीप्सता ॥ ॥ १०५ ॥
आर्षं धर्मोपदेशं च
वेदशास्त्राविरोधिना ।
यस्तर्केणानुसंधत्ते स धर्मं वेद
नेतरः ॥ ॥ १०६ ॥
नैःश्रेयसमिदं कर्म यथोदितमशेषतः ।
मानवस्यास्य शास्त्रस्य
रहस्यमुपदिश्यते ॥ ॥ १०७ ॥
अनाम्नातेषु धर्मेषु कथं स्यादिति
चेद् भवेत् ।
शिष्टा ब्राह्मणा ब्रूयुः स धर्मः
स्यादशङ्कितः ॥ ॥ १०८ ॥
धर्मेणाधिगतो यैस्तु वेदः
सपरिबृंहणः ।
ते शिष्टा ब्राह्मणा ज्ञेयाः
श्रुतिप्रत्यक्षहेतवः ॥ ॥ १०९ ॥
दशावरा वा परिषद्यं धर्मं
परिकल्पयेत् ।
त्र्य्वरा वाऽपि वृत्तस्था तं धर्मं
न विचालयेत् ॥ ॥ ११० ॥
अज्ञों से ग्रन्थ पढ़े हुए श्रेष्ठ
हैं,
उनसे धारण करनेवाले श्रेष्ठ हैं, उनसे भी अर्थ
समझनेवाले श्रेष्ठ हैं, उनसे भी शास्त्रानुसार आचरण करनेवाले
श्रेष्ठ हैं। तप और विद्या ब्राह्मण का परम हितकारी है। ब्राह्मण तप से पाप का नाश
करता है और ब्रह्मविद्या से मोक्ष प्राप्त करता है। धर्म के तत्व को जानने की
इच्छावाले प्रत्यक्ष (श्रुति) अनुमान (स्मृति) और विविध शास्त्रों को भली भांति
जानना चाहिए। जो वेद और धर्मशास्त्र का वेद के अनुकूल तर्क से विचार करता है वह
धर्म को जानता है, दूसरा नहीं जानता। इस प्रकार मोक्ष
देनेवाले सब कर्म कहे गये हैं। अब इस मानव धर्मशास्त्र के रहस्य का उपदेश करते
हैं:
मनुस्मृति अध्याय १२- रहस्य
उपदेश
जो धर्म इस शास्त्र में नहीं कहे
गये हैं,
उनका निर्णय यदि शिष्ट ब्राह्मणों की आज्ञा से जो हो वही माननीय
होता है। जिन्होंने साङ्ग, वेद, धर्मभाव
से अध्ययन किया हो उन वेद के प्रत्यक्ष प्रमाण भूत ब्राह्मणों को शिष्ट जानना
चाहिए। कम से कम दस सदाचारी ब्राह्मणों सभा या तीन ही ब्राह्मणों की सभा जो धर्म
की व्याख्या करें वही धर्म जानना चाहिए ॥ १०३ - ११० ॥
त्रैविद्यो हेतुकस्तर्की नैरुक्तो
धर्मपाठकः ।
त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत्
स्याद् दशावरा ॥ ॥ १११ ॥
ऋग्वेदविद् यजुर्विच सामवेदविदेव च
।
त्र्य्वरा परिषद्ज्ञेया
धर्मसंशयनिर्णये ॥ ॥ ११२ ॥
एकोऽपि वेदविद् धर्मं यं व्यवस्येद्
द्विजोत्तमः।
स विज्ञेयः परो धर्मो
नाज्ञानामुदितोऽयुतैः ॥ ॥ ११३ ॥
अव्रतानाममन्त्राणां
जातिमात्रोपजीविनाम् ।
सहस्रशः समेतानां परिषत्त्वं न
विद्यते ॥ ॥ ११४ ॥
यं वदन्ति तमोभूता मूर्खा
धर्ममतद्विदः ।
तत्पापं शतधा भूत्वा
तद्वक्तृननुगच्छति ॥ ॥ ११५ ॥
एतद् वोऽभिहितं सर्वं निःश्रेयसकरं
परम् ।
अस्मादप्रच्युतो विप्रः प्राप्नोति
परमां गतिम् ॥ ॥११६॥
एवं स भगवान् देवो लोकानां
हितकाम्यया ।
धर्मस्य परमं गुह्यं ममेदं
सर्वमुक्तवान् ॥ ॥११७॥
सर्वमात्मनि सम्पश्येत् सत्वासत्व
समाहितः ।
सर्वं ह्यात्मनि सम्पश्यन्नाधर्मे
कुरुते मनः ॥ ॥ ११८ ॥
तीनों वेद का ज्ञाता वेदानुकूल
शास्त्रज्ञ, मीमांसादि तर्कों का ज्ञाता,
निरुक्त और धर्म के विचारों में परायण ऐसे ब्रह्मचारी, गृहस्थ अथवा वानप्रस्थ दस ब्राह्मणों की सभा कहलाती है। धर्म में सन्देह
पड़ने पर निर्णय करने के लिए तीनों वेद के ज्ञाता, कम से कम
तीन ब्राह्मणों को अधिष्ठाता करना चाहिए। एक भी वेदज्ञ ब्राह्मण जिसको धर्म कहे
उसको धर्म जाने । पर दस हजार मूर्खों का भी कहा धर्म मान्य नहीं होता । ब्रह्मचर्य
हीन, वेद न जानने वाले नाममात्र से ब्राह्मण जाति के हज़ारों
इकट्ठे हो जाएँ तो भी वह सभा नहीं कही जाती । तमोगुणी, धर्म
न जाननेवाले, जिसको प्रायश्चित्त बताएं उसका पाप, सैकड़ो भाग होकर बतलाने वाले को प्राप्त होता है। यह परम कल्याणकारी संपूर्ण
साधन कहा गया है । जो द्विज अपने धर्म से विचलित नहीं होता वह परम गति को प्राप्त
करता है। इस प्रकार भगवान् मनु ने मनुष्यों की हितकामना से यह धर्म का सारा तत्व
कहा था, वही मैंने तुम लोगों से कह सुनाया। मनुष्य संपूर्ण
कार्य कारणों को आत्मा में सावधान होकर भावना करनी चाहिए। जो सबको आत्मरूप जानता
है उसका मन अधर्म में नहीं लगता ॥ १११-११८ ॥
आत्मैव देवताः सर्वाः
सर्वमात्मन्यवस्थितम् ।
आत्मा हि जनयत्येषां कर्मयोगं
शरीरिणाम् ॥ ॥ ११९ ॥
खं संनिवेशयेत् खेषु
चेष्टनस्पर्शनेऽनिलम् ।
पक्तिदृष्ट्योः परं तेजः स्नेहेऽपो
गां च मूर्तिषु ॥ ॥ १२० ॥
मनसीन्दुं दिशः श्रोत्रे क्रान्ते
विष्णुं बले हरम् ।
वाच्यग्निं मित्रमुत्सर्गे प्रजने च
प्रजापतिम् ॥ ॥१२१॥
प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि ।
रुक्माभं स्वप्नधगम्यं विद्यात् तं
पुरुषं परम् ॥ ॥ १२२ ॥
एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये
प्रजापतिम् ।
इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म
शाश्वतम् ॥ ॥ १२३ ॥
एष सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य
मूर्तिभिः ।
जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति
चक्रवत् ॥ ॥ १२४ ॥
एवं यः सर्वभूतेषु
पश्यत्यात्मानमात्मना ।
स सर्वसमतामेत्य ब्रह्माभ्येति परं
पदम् ॥ १२५ ॥
इत्येतन्मानवं शास्त्रं
भृगुप्रोक्तं पठन् द्विजः ।
भवत्याचारवान्नित्यं यथेष्टां
प्राप्नुयाद् गतिम् ॥ ॥ १२६ ॥
इन्द्रादि सभी देव आत्मस्वरूप हैं,
यह सारा जगत् परमात्मा में ही स्थित है। क्योंकि धर्मात्मा ही
प्राणियों को उन के शुभाशुभ कर्मों का फल देने वाले हैं। ज्ञानी पुरुष बाहरी आकाश
को आत्माकाश में, वायु को चेष्टा और स्पर्श में, तेज को जठराग्नि में, सूर्य को नेत्र में, जल को शरीर के चिकने पदार्थों में, पृथिवी को शरीर
में, चन्द्रमा को मन में, दिशाओं को
श्रोत्र में, विष्णु भगवान् को गति में, शिव को बल में, अग्नि को वाणी में, मित्र को गुदा में और प्रजापति को जननेन्द्रिय में भावना करनी चाहिए ।
संपूर्ण विश्व का शासनकर्ता अणु से भी अणु शुद्ध सुवर्ण समान-कान्तिमय और
निर्विकल्प बुद्धिगम्य परमात्मा को जानना चाहिए । इस परमात्मा को कोई अग्नि,
कोई मनु, कोई प्रजापति, कोई
इन्द्र, कोई प्राण और कोई सनातन ब्रह्म कहते हैं। यह
परमात्मा सभी प्राणियों को पञ्चभूतों के साथ मिलाकर चक्र की गति की भांति उत्पत्ति,
पालन, और प्रलय द्वारा घुमाया जाता है । इस प्रकार
जो पुरुष सब प्राणियों में अपनी आत्मा को देखता है वह सब की समता को पाकर प्रमपद
ब्रह्म को पाता है। जो द्विज भृगु के कहे इस मानव धर्मशस्त्र को पढ़ता है वह
सदाचारी होता है और अभीष्ट उत्तम गति को प्राप्त करता है ॥ ११९-१२६ ॥
॥ इति मानवे धर्मशास्त्रे
भृगुप्रोक्तायां स्मृतौ द्वादशोऽध्यायः समाप्तः॥१२॥
॥ महर्षि भृगु द्वारा प्रवचित मानव
धर्म शास्त्र स्मृति का बारहवां अध्याय समाप्त ॥
॥ समाप्तं मानवं धर्मशास्त्रम् ॥
॥ मानव धर्म शास्त्र समाप्त ॥
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